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जीव द्रव्य अथवा अन्य कोई भी न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है; मात्र पर्याय-परिणमन होता है। इससे यह स्पष्ट अवबोध होता है कि द्रव्य की सत्ता त्रैकालिक है।
द्रव्य में अतीत में अनन्त पर्यायें हो चुकी हैं। भविष्य में भी अनन्त पयायें होगी, मात्र वर्तमान की अपेक्षा पर्याय एक है।५६ पर्याय वाला ही द्रव्य होता है। इस प्रकार से सूत्रकार के स्पष्टीकरण से तीनों कालों में द्रव्य का अस्तित्व निर्विवाद
तीनों कालों को विषय करने वाले नयों और उपनयों के विषयभूत अनेक धर्मों के तादाम्य संबन्ध को प्राप्त समुदाय का नाम द्रव्य है । वह द्रव्य एक (सामान्य की अपेक्षा) भी है और अनेक (विशेष की अपेक्षा) भी।५८
पर्याय द्रव्य में ही होती है। अतः जब पर्यायों का त्रैकालिक अस्तित्व है, तो उसका आश्रयदाता द्रव्य तो स्वतः त्रैकालिक हो जाता है।
.. कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका में 'सत्' का लक्षण प्रतिपादित करते हुए कहा है कि प्रत्येक क्षण में उत्पन्न और नाश होने वाले पदार्थों की स्थिति देखकर भी जो द्रव्य के उत्पाद और विनाश को नहीं मानते, इसमें उनकी पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिकता ही कारण हो सकती है।
उत्पाद और विनाश, दोनों का अधिकरण त्रैकालिक ध्रुव द्रव्य ही है, जैसे चैत्र और मैत्र दोनों भाईयों का अधिकरण एक माता है । ६०
आत्मा शब्द से अनन्त पर्यायों में रहने वाले अनन्त धर्मात्मक नित्य द्रव्य का सूचन होता है।६१ . ५५. मणुसत्तणेण-पं. का. १७.१८.१९ ५६. का. प्रे. १०.२२१, एय दवियम्मि-हवइ दव्वं-ध. १.१.१३६ १९९, क.पा. १.१.१४.१०८ ५७. पर्ययवद् द्रव्यमिति-द्रव्यमुक्तम्-लो. वा. २.१.५.६३.२६९ ५८. नयोपनय-द्रव्यमेकमनेकधा-आ.मी. १०.१०७. ५९. प्रतिक्षणोत्पाद-पिशाचकी वा: अन्ययो २१. ६०. स्थिरमुत्पादविनाशयौ यथा चैत्रमैत्रयोरेका जननी स्यात्-वही २१.१९७ ६१. अत्र चात्मशब्देनानंतेष्वपि-द्रव्यं ध्वनितम्-स्याद्वाद. २२.२०३
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