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की भिन्नता ने संबन्धाश्रय एक व्यक्ति को भिन्न-भिन्न ( अनेक ) नहीं बनाया, उसी प्रकार इन्द्रियग्राह्य रूप, रस आदि पर्यायों में द्रव्य का एकत्व अवगत होता है। वैशेषिक द्रव्य और गुण को भिन्न पदार्थों के रूप में मान्यता देते हैं । भिन्न मान्यता से किन दोषों के आगमन का द्वार खुलता है, जैन दार्शनिक इसे स्पष्ट करते हैं
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यदि द्रव्य का लक्षण 'स्थिति', और गुण का लक्षण 'उत्पत्ति का विनाश' मान लें तो ये लक्षण क्रमशः द्रव्य एवं गुण में ही घटित होंगे न कि संपूर्ण सत् में । द्रव्य से भिन्न गुण या तो मूर्त होंगे या अमूर्त। अगर गुणों को इन्द्रियग्राह्य और मूर्त्त मानेंगे तो परमाणु नहीं रहेंगे, क्योंकि परमाणु अतीन्द्रिय होते हैं। अगर अमूर्त होंगे तो इन्द्रियग्राह्य नहीं रहेंगे । ७
यहाँ यह शंका स्वाभाविक है जब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों परस्पर भिन्न हैं तो इन्हें त्रयात्मक रूप वस्तु नहीं कहा जा सकता और अभिन्न हैं तो इन्हें तीन रूप मानना चाहिए। "
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, इन तीनों की प्रतीति भिन्न-भिन्न होती है। आचार्य समन्तभद्र ने इसे इस प्रकार समझाया है - स्वर्ण घट का इच्छुक मानव स्वर्ण से मुकुट बनते समय दुःखी होता है और मुकुट का इच्छुक प्रसन्न; परन्तु स्वर्णप्रिय मनुष्य तो दोनों ही स्थिति में तटस्थ रहता है ।" दही नहीं खाने का संकल्प करने वाला दूध लेगा और जिसने दूध नहीं लेने का संकल्प लिया है वह दही लेगा; परन्तु जिसने गोरस नहीं खाने का संकल्प लिया है वह न दूध लेगा और न दही । १००
द्रव्य और पर्याय में कथंचित् अभेद है, क्योंकि उन दोनों में अव्यतिरेक पायी जाती है । दव्य और पर्याय कर्थचित् भिन्न भी है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायों में परिणाम का भेद है । द्रव्य में आदि और अनन्तरूपा से परिणमन का प्रवाह है
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९६. पिउपुत्तणतुभव्वयः....विसेसणं लहइ स.त. १७.१८
९७. दव्वस्स ठिई जम्म..... अमुत्तेसु अग्गहुणं - स.त. ३.२३.२४
९८. यद्युत्पादादयों..... कथमेकं त्रयात्मकम् - स्याद्वादम. मे. उद्धृत २१.९९९
९९. घटमौलीसुवर्णार्थी.... सहेतुकम् - आ. मी. ३.५६
१००. पयोव्रती न दध्याति.... त्रयात्मकम् ३.६०
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