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न्यायविनिश्चय में भी द्रव्य में गुणों को सहभावी एवं पर्याय को क्रमभावी कहा है। २०
स्वजाति का त्याग किये बिना द्रव्य में दो प्रकार के परिणमन होते हैं, अनादि एवं आदिमान् । सुमेरु पर्वत आदि के आकार इत्यादि अनादि परिणाम हैं। आदिमान् दो प्रकार का है - एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक । स्वाभाविक को वैस्रसिक भी कहते हैं । कर्मों के उपशम होने के कारण जीव आदि जो भाव है; जिनमें पुरुष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं हैं, वे वैस्रसिक आदिमान् में औपशमिक भाव हैं,. और जो ज्ञान, शील आदि गुरु के निमित्त से होते हैं, वे प्रयोगजन्य अदिमान् हैं । कुम्हार के द्वारा अचेतन मिट्टी को घट आदि का आकार देना प्रयोगज है । इन्द्रधनुष, बादल आदि स्वाभाविक हैं । ३१
इन्हें क्रमशः स्वभाव पर्याय एवं विभाव पर्याय भी कहते हैं । अन्य के सहयोग के अभाव में होने वाले परिणमन को स्वभाव पर्याय एवं निमित्त से होने वाले परिणमन को विभाव पर्याय कहा जाता है। जीव की स्वभाव पर्यायें अनन्तज्ञान आदि हैं। इसी प्रकार पुद्गल की स्वभाव पर्यायें रूप आदि हैं।
स्वभाव पर्याय सभी द्रव्यों में पायी जाती हैं परन्तु विभावपर्याय मात्र जीव और पुद्गल में ही पायी जाती है । जीव की विभावपर्यायें नारक, देव आदि एवं पुद्गल की विभावपर्यायें स्कन्धरूप (स्थूल रूप ) आदि हैं । २
जिस प्रकार द्रव्य में पर्याय अनिवार्य हैं, उसी प्रकार गुण भी उतना ही आवश्यक हैं । “द्रव्यरूप से तो द्रव्य सभी एक (समान) ही हैं। परन्तु गुण भेद के कारण ही द्रव्यभेद है । " पर्याय तो विनाशशील है, परन्तु गुण ध्रुव है। जैसे अंगूठी, हार आदि बनने पर स्वर्ण में आकृति परिवर्तन तो हो गया, परन्तु स्वर्ण का पीतगुण स्थायी ही रहा। इसे सदृश परिणमन भी कहते हैं । ३४
३०. गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ते सहक्रमप्रवृत्तयः न्यायवि. भू. १.११५.४२८.
३१. द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन परिणामो वैस्रसिकः - त.वा. ५.२२
३२. यः सर्वेषां द्रव्याणां जीवपुद्गलादीनां
उत्पादयतीति का प्रे. टी. २१६ ३३. सव्वाणं दव्वाणं..... भिण्णाणि का. प्रे. १०.२३६
३४. सारसो जो.... गुणो सोहि - का. प्रे. १०.२४१
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