Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(XXII)
गया? यह तो स्पष्ट है कि यस संस्थान चार, तीन, पैंतीस और छह प्रदेशों का अवगाहन कर सकता है। फिर कल्योज-प्रदेश के अवगाहन की शक्यता ही नहीं है। इस आधार पर ऐसा लगता है कि भगवती-जोड़ में उपलब्ध 'हेम भगवती' का पाठ सही है। यह अन्वेषण का विषय है कि 'हेम भगवती' में जो पाठ उपलब्ध है उसका मूल आधार क्या है? शेष प्रतियों में जो पाठ मिलता है तथा हमारे द्वारा स्वीकृत पाठ जो अंगसुत्ताणि में छपा है उसकी संगति कैसे होगी? भगवती-वृत्ति में इस पाठ की कोई व्याख्या नहीं की गई, ऐसा क्यों? वहां पर केवल ‘एवं त्र्यम्रादिसंस्थानसूत्राण्यपि भावनीयानि' इतना ही मिलता है। इस प्रकार यद्यपि मूल वृत्ति में इसकी कोई मीमांसा नहीं है फिर भी वृत्ति में ही २५/७० के अन्त में वृद्धोक्त संग्रह-गाथा दी गई है। उसमें समग्र आलापक का संग्रह किया गया है। उसकी अन्तिम गाथा में व्यस्र में कल्योज का वर्जन किया गया है। वह गाथा इस प्रकार है
सव्वेवि आययम्मि गेण्हसु परिमंडलंमि कडजुम्मं ।
वज्जेज्ज कलिं तंसे दावरजुम्मं च सेसेसु॥५॥ इस आधार पर यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि यस के बहुवचन में विधानादेश में द्वापरयुग्म का निषेध करने वाला पाठ जो 'हेम भगवती' में तथा भगवती जोड़ में मान्य किया गया है, वह संगत है। इस निष्कर्ष का समर्थन जोसेफ डेल्यू द्वारा अंग्रेजी में व्याख्यायित भगवती के संस्करण में प्राप्त होता है। डेल्यू ने भी अभयदेवसूरि द्वारा उद्धृत वृद्धोक्त गाथाओं के आधार पर जो यंत्र दिया है उसमें त्र्यम्र के विधानादेश में कल्योज का निषेध किया है।'
अस्तु, युक्तिसंगतता के आधार पर तथा उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर हमने प्रस्तुत सूत्र (२५/६८) का अनुवाद '.... विधान की अपेक्षा से कृतयुग्म-प्रदेशों का अवगाहन करने वाले भी हैं, त्र्योज-प्रदेशों का अवगाहन करने वाले भी हैं, द्वापर युग्म-प्रदेशों का अवगाहन करने वाले भी हैं, कल्योज-प्रदेशों का अवगाहन नहीं करते......।' इस प्रकार किया है। (पृष्ठ ७९२)
शतक २५ से ४१ तक के अनुवाद को भी एक बार फिर देख लिया है ताकि कोई विसंगति या गलती न रहे। अनुवाद करते समय भी भगवती-जोड़, अभयदेवसूरि कृत वृत्ति तथा कहीं-कहीं भगवती चूर्णि आदि का सहयोग लिया गया है।
हिन्दी अनुवाद वाले संस्करण का कार्य आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के निर्देशन में ही प्रारम्भ हो गया था। उनका पूरा आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। उनके महाप्रयाण के पश्चात् समग्र आगम-कार्य के निर्देशन का दायित्व आचार्यश्री महाश्रमण जी ने संभाला। उनका भी अत्यधिक आत्मीय प्रोत्साहन मिलता रहा है। उन्होंने आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के महाप्रयाण के पश्चात् सरदारशहर में ही कृपा कर मुझे निर्देश दे दिया था कि 'आपको 1. VIYAHAPANNATTI (BHAGAVAi) BY JOZEF DELEU, पृष्ठ २७२,२७३