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जाए, 'मैं कौन हूँ' ऐसा जाने, तब पुद्गल छूटता है और संसार अस्त होता है।
फिर तत्त्व मूल रूप से अपने स्वभाव से ही परिवर्तनशील है, जो कि संसार खड़ा होने का मुख्य कारण है। आत्मा निर्लेप है, असंग है, इसके बावजूद जड़ परमाणुओं के संसर्ग में आने के कारण व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो जाते हैं। उससे कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट, इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़ चलता ही रहता है।
क्रोध-मान-माया-लोभ को व्यतिरेक गुण कहा गया है, जो अहम् में से उत्पन्न हुए हैं। वे न तो जड़ के हैं और न ही चेतन के अन्वय गुण हैं। वे व्यतिरेक गुण हैं। दोनों के इकट्ठा होने से अहम् उत्पन्न होता है और अहम् में से अहंकार और व्यतिरेक गुण उत्पन्न होते हैं। ___आत्मा के विशेष भाव से सब से पहले अहम् और उसके बाद अहंकार उत्पन्न होता है और फिर जड़ परमाणुओं के विशेष भाव से पुद्गल बनता है। पुद्गल अर्थात् पूरण-गलन (चार्ज होना, भरना - डिस्चार्ज होना, खाली होना) वाला। मन-वचन-काया, माया-वाया सबकुछ पुद्गल के विशेष भाव से हैं। अहम् और फिर अहंकार मात्र आत्मा का विशेष भाव है। अहंकार चला जाए तो सबकुछ अपने आप ही चला जाएगा।
आत्मा के विमुखपने में से सम्मुख होने तक चलने वाली सभी क्रियाओं में रोंग बिलीफें होती ही रहती हैं, जैसे-जैसे वे टूटती जाती हैं, वैसे-वैसे 'खुद' मुक्त होता जाता है। ज्ञान नहीं बदलता, मात्र मान्यताएँ ही बदली हुई हैं।
जैसे कि एक चिड़िया दर्पण में चोंच मारती रहती है, उस समय अहंकार मानता है कि चोंच मारने वाला खुद है और दर्पण वाली चिड़िया अलग है। सिर्फ यह बिलीफ ही बदली हुई है, यदि ज्ञान बदल गया होता तो उड़ने के बाद भी इसका असर रहता। लेकिन उड़ने के बाद कुछ भी नहीं। फिर उड़ते-उड़ते कहीं गलती से भी किसी चिड़िया को किसी चिडिया पर चोंच मारते देखा है ? यानी सिर्फ बिलीफ ही बदलती
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