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[ उत्तरार्धम् ] तथा (जोजण) योजन (सेढी) श्रेणि (पयरं) प्रतर (लोग) लोक (अलोगे वि य तहेब) अलौक । अपिशब्द समुच्चय अर्थ में हैं । इसलिये लोकालोक भो इसो प्रकार जानना चाहिए ।
भावार्थ-क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । एक प्रदेश-अवगाही परमाणु से लेकर असंख्यात-प्रदेश अवगाही द्रव्यपर्यन्त प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्र प्रमाण होता है । यद्यपि द्रव्य स्वगुण में प्रमेय है तथापि क्षेत्र सम्बन्ध को अपेक्षा से उसे क्षेत्र प्रमाण ही कहा जाता है। विभागनिष्पन्न-अंगुल १, वितस्ती २, हस्त ३, कुक्ष ४, धनुष ५, कोश ६, योजन ७, श्रेणि ८, प्रतर ६, लोक १०, और अलोक ११, ये सब विभागनिष्पन्न क्षेत्र प्रमाण के उदाहरण है।
अक अंगुल विषय। से किं तं अंगुले ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आर्यगुले उस्सेहंगुले पमाणंगुले । से किं तं आयंगुले ? जेणंजया मणुस्सा भवंति, तेसिणं तयाअप्पाअंगुलेणं. दुवालसअंगुलाइं मुह, नवमुहाइं पुरिसेपमाणजुत्तेभवइ,दोरिणए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ, माणुम्माणप्पमाणजुत्तालक्खणवंजणगुणेहिं उववेया। उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा ॥ हुंति पुण अहियपुरिसा अट्ठसयं अंगुलाण उच्चिद्धा। छण्णउइ अहम्म पुरिसा, चउत्तरं मज्झिमिल्लाओ॥ हीणा वा अहिया वाजे खलु सरसत्तसारपरिहीणा । ते उत्तमपुरिसाणं अवसा पेसत्तणमुवेंति॥एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पायो, दो पायाउ विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी,
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