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मनीषियों ने अहिंसा को एक व्यापक स्वरूप प्रदान किया और विश्व के सामने अहिंसा की शक्ति को तेजस्वी रूप में प्रस्तुत किया। प्रस्तावित अध्याय में अहिंसा के अर्थ, स्वरूप, प्रकारों के साथ गांधी और महाप्रज्ञ के मौलिक अहिंसा निष्ठ मंतव्यों का विमर्श किया गया है।
महात्मा गांधी और आचार्य महाप्रज्ञ के प्रेरणास्रोत' द्वितीय अध्याय में उन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारकों का विमर्श किया गया है जिनसे मनीषी द्वय ने अहिंसा का फौलादी पाठ पढ़ा। यद्यपि दोनों के भिन्न परिवेश एवं भिन्न प्रेरणा स्रोत बनें। जिसकी स्पष्ट झलक इन मनीषियों के कार्य क्षेत्र में देखी जाती है। गांधी की राजनीति अहिंसा का पर्याय बनी और महाप्रज्ञ का उच्च अहिंसा-निष्ठ जीवन जनमानस की अहिंसक चेतना को झंकृत करने में योगभूत बना है। व्यक्त-अव्यक्त कारकों से मिला अहिंसामृत पाठक की अहिंसक शक्ति को झंकृत करने में योग्य भूमिका अदा करने का सामर्थ्य रखता है।
मनीषियों के प्रेरणोत्सव में एक बहुत बड़े मौलिक तथ्य का समावेश है। वह है-गुणग्राहकता का निदर्शन। जहाँ भी, जिस रूप में मनीषियों को संस्कार निर्माण, अहिंसात्मक विचारों के संग्राहक सकारात्मक सूत्र मिलें उन्हें ग्राहक बुद्धि से संजोया। अपने जीवन को उच्च आदर्श तक पहुंचाने के उपक्रम में गांधी और महाप्रज्ञ ने अनेक आलोक सूत्रों का स्वात्म प्रेरणा से आलंबन लि
'अहिंसा का सैद्धांतिक स्वरूप' तृतीय अध्याय में गांधी और महाप्रज्ञ के अहिंसा प्रधान वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विचारों का समाकलन है। हिंसा और अहिंसा से संकुल व्यवस्था का पृथक्करण निश्चित रूप से कठिन कार्य है, पर मनीषियों की विराट् सोच में गुंफित विचारों को सापेक्ष दृष्टि से अहिंसा के आलोक में खोजने का प्रयत्न किया गया है। हिंसा फूटती
और फटती है, तब दिखती है और अहिंसा अलक्ष्य भाव से मानव की क्रियाओं में व्याप्त रहती है। इसका क्षीर-नीर विवेक प्रज्ञा सापेक्ष है। पर जिज्ञासा के आइने में सीमित साधन सामर्थ्य और सोच के केनवास पर हिंसा और अहिंसा के पृथक् भाव को प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयत्न मात्र है। गुणवत्ता का संग्रह अब भी अवशेष है।
अहिंसक व्यक्ति की संकल्पना गांधी और महाप्रज्ञ की स्वतंत्र परिलक्षित होती है। गांधी की दृष्टि में जो व्यक्ति निर्भय होकर जीवन की बलि चढ़ाकर बिना शस्त्र उठाये शस्त्र का मुकाबला करता है, वह अहं के मोह को छोड़कर सत्य के लिए अपने को समर्पित कर देता है। उस व्यक्ति की यह पद्धति विशुद्ध अहिंसक है। पर अपने प्राणों के व्यामोह से भय पूर्वक शस्त्र के सामने पलायन करने वाला यद्यपि हिंसा नहीं करता पर वह गांधी की दृष्टि में न केवल महान् कायर है, प्रत्युत सबसे बड़ा हिंसक है, क्योंकि उसे स्वयं के प्रति मोह और सत्य की उपेक्षा करके अपने अकिंचन प्राणों को बचाने की चाह है। महाप्रज्ञ की सोच में अहिंसक वह है जो देश, काल और परिरि पति से ऊपर उठकर मन-वचन-कर्म से सदैव अहिंसा की राह पर चलता है।
गांधी के लिए स्वाधीनता केवल एक राजनैतिक तथ्यमात्र नहीं थी। एम. पाल रिचर्ड के शब्दों में-'गांधीजी भारत की स्वाधीनता के लिए नहीं बल्कि विश्व में अहिंसा की स्थापना के लिए काम कर रहे हैं।' यह एक सच्चाई भी थी। वो भारत को विदेशी शासन से नहीं, अपितु सामाजिक कुरीतियों
और साम्प्रदायिक झगड़ों से भी मुक्ति दिलाने के लिए लड़े थे। उनका स्पष्ट उद्घोष था- 'मैं एक ऐसे भारत के लिए काम करूँगा, जिसमें गरीब-से-गरीब भी यह महसूस करे कि यह देश उसका है और इसके निर्माण में उसकी सक्रिय भूमिका है। ऐसे भारत में ऊँच-नीच, वर्गों का भेद नहीं होगा,
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