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अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति एवं संगठन विकसित किये जायें ताकि अहिंसा के रचनात्मक परिणाम घटित हो सके।
अहिंसा की दिव्य शक्ति का गांधी ने सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्थान हेतु प्रयोग किया और महाप्रज्ञ ने आध्यात्मिक अनुभव के आधार पर वैयक्तिक और सामाजिक शांति एवं स्वस्थ समाज, संस्कारक्षम समाज की पृष्ठभूमि में अहिंसा पर बल दिया। इन उभय धाराओं में अनुस्यूत अहिंसा के मौलिक रूप को आधुनिक संदर्भ में वैज्ञानिक प्रविधि के रूप में विकसित किया जाये ताकि प्रचंड हिंसा की समस्या पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकें। . व्यावहारिक धरातल पर अहिंसा को आसन मिले इस हेतु दोनों मनीषियों ने प्रयोग और प्रशिक्षण की बात पर बल दिया। अहिंसा के लिए मस्तिष्कीय प्रशिक्षण की एक प्रकल्पना, एक योजना आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रस्तुत की। उन्होंने बताया बिना इसके निश्चित दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। अहिंसा का पाठ सौ बार पढ़ लेने पर भी कोई अहिंसक नहीं बन जाता। पाठ प्रशिक्षण का एक अंग हो सकता है वह पूरा प्रशिक्षण नहीं है। उसके लिए अनेक तत्वों का समाहार अपेक्षित है। शस्त्र निर्माण, प्रयोग और प्रशिक्षण के लिए कितनी बड़ी-बड़ी योजनाएं और कार्यक्रम चल रहे हैं। इसीलिए हिंसा में विश्वास रखने वालों की एक बड़ी सेना तैयार है। हिंसा अपने आपमें निषेधात्मक है। वह स्वयं भयंकर है. उसके परिणाम भी भयंकर है। परिणाम की भयंकरता ने अहिंसा के स्वर को बलंद किया है। अहिंसा स्वयं विधायक है, उसके परिणाम भी विधायक है पर उसके लिए हमारा मस्तिष्क तैयार नहीं हैं। क्या मस्तिष्क परिवर्तन की बात सोची जाएगी? क्या इस वैज्ञानिक और प्रायोगिक युग में अहिंसा को प्रयोग की भूमि प्राप्त होगी? इन प्रश्नों का समाधान मनीषियों की अहिंसा प्रधान चिंतन शैली में खोजने का प्रयत्न यथाशक्य कृति में किया गया है।
गांधी और महाप्रज्ञ की अहिंसा सोच और कार्य पद्धति में कितना साम्य और वैषम्य है? तथ्य प्रधान तुलनात्मक विमर्श के आधार पर सुधिजन, प्रबुद्ध पाठक स्वयं उसका निर्णय करें। विषय वर्गीकरण प्रस्तुत लेखन कार्य विषय वर्गीकरण की दृष्टि से पाँच अध्यायों में समायोजित है। अध्याय प्रारूप अपने आप में मौलिक है।
अहिंसा जीव का स्वभाव है और हिंसा विभाव। विभाव और स्वभाव का संघर्ष अनादि है। प्रश्न है स्वभाव के विकासात्मक स्वरूप का। अहिंसा के विकास का आदि बिन्दु खोज पाना कठिन है पर जब से मानव ने समूह में रहना प्रारंभ किया तभी से इसका श्रीगणेश हो गया। प्रारंभ में अहिंसा का स्वरूप त्याग (व्रत) रूप में प्रकट हुआ। कालांतर में अहिंसा का विविधोन्मुखी प्रयोग व्यापक बनता गया। विभिन्न नियमोपनियम, अनुशासनात्मक कारवाई, मर्यादा, व्यवहार में अहिंसा का स्वरूप प्रतिष्ठित हुआ।
प्रथम अध्याय 'अहिंसा : विकास क्रम' में अहिंसा के स्वरूप का ऐतिहासिक संदर्भ में मंथन किया गया है। आगम युग में प्रतिष्ठित अहिंसा का विशुद्ध स्वरूप वेद, उपनिषद् रामायण, महाभारत, गीता आदि में स्वतंत्र धारा के रूप में प्रवाहित हुआ। दर्शन के क्षेत्र में इसको मान्यता मिली। मध्य युग में अहिंसा का स्वरूप विभिन्न रूपों में विकसित होने के बावजूद मंद हुआ। मंद स्वर को पुनः मुखरित करने में महात्मा गांधी एवं आचार्य महाप्रज्ञ ने अपनी शक्ति को नियोजित किया।