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तो आदमी हिंसक बन जाता है। मात्रा में एक सन्तुलन स्थापित करना योगासन के द्वारा संभव है।' इसे प्रयोग की भूमि पर साबित कर दिखाया है।
गांधी एवं महाप्रज्ञ ने अहिंसा के संबंध में जिन सूक्ष्म तथ्यों को खोजा एवं प्रस्तुति दी उनके तुलनात्मक प्रतिपादन का सार्थक प्रयत्न प्रस्तुत कृति में किया गया है।
मनीषियों के अहिंसा दर्शन में सूक्ष्मता, सामयिकता, समाधायकता और वैज्ञानिकता का निदर्शन है, उसका समन्वित प्रारूप चिंतन के नये क्षितिज उद्घाटित करने में समर्थ है। इस तथ्य के प्रकटीकरण का प्रयत्न भी इस कार्य का उद्देश्य रहा है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हिंसा और तनावग्रस्त जन-जीवन का पथ-दर्शन करने में महापुरुषों की सोच और शैली आलम्बनभूत बन सकती है; इस तथ्य के प्रकाशन का प्रयत्न भी रहा है।
इस शोध निष्ठ कृति का लक्ष्य सच्चाई को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करना है। समाज को अहिंसा की जरूरत है, ताकि वह शांति के साथ जी सके, स्वस्थ रह सके। व्यावहारिक अहिंसा के आधार पर मानव ने अहिंसा की गरिमा का अनुभव किया किन्तु पारमार्थिक अहिंसा की ओर बहुत कम ध्यान दिया। मनीषियों ने इस संदर्भ में सूक्ष्मता से चिंतन किया है। यथाशक्य उसे विमर्श का विषय बनाया गया है ताकि सुधी पाठक उससे भी रूबरू हो सके।
गांधी व महाप्रज्ञ ने अहिंसा को जिस रूप में देखा-समझा और प्रयुक्त किया उसका यथार्थ समाकलन महत्त्वपूर्ण कसौटी है। दोनों मनीषियों के पूर्व अहिंसा के तत्वदर्शियों ने व्यक्तिगत चेतना को उदात्त बनाने हेतु एक साधन के रूप में अथवा परस्पर व्यवहारों को नियंत्रित करने वाले एक आचरण के रूप में इसे स्वीकार किया। अहिंसा कोई ऐसी अवधारणा नहीं, जिसे केवल व्यक्तिगत आचरण और चेतना की अवस्था तक ही सीमित रखा जाये। निश्चय ही ये अहिंसा के प्रकट तत्त्व हैं परन्तु इसके अतिरिक्त समाज व्यवस्थाओं में सन्निहित अहिंसा का विशाल क्षेत्र है जो अध्ययन
और चिंतन की दृष्टि से अछूता रहा है यही कारण था कि अहिंसा हमारे सर्वांगीण जीवन की संस्कृति नहीं बन सकी। विश्व इतिहास में पहला व्यक्ति गांधी हुआ जिन्होंने इस सत्य को समझकर समाज संरचना में सन्निहित विविध प्रकार की हिंसाओं के विषय में शोधकर अहिंसा का एक सर्वांग दर्शन तथा अहिंसक जीवन पद्धति का विचार विश्व मानवता के सामने रखा।
दूसरी ओर आचार्य महाप्रज्ञ ने हिंसा के कारणों को खोज पूर्वक प्रस्तुति दी। उनकी दृष्टि में हिंसा का अगर वर्गीकरण किया जाए तो आर्थिक हिंसा, व्यवसायिक हिंसा, अनैतिक आचरण और भ्रष्टाचार आदि बहुत से रूपों में हिंसा को देखा जा सकता है। जो अहिंसा विकास की अर्गलाएँ हैं। अहिंसा के व्यक्तिगत अनुभव को व्यापक पैमाने पर सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में समस्या समाधान के उपचारात्मक प्रयोग स्वरूप में प्रस्तुत कर व्यक्ति परिवर्तन से राष्ट्र निर्माण की बात कही। अभिनव रूप में मनीषियों के चिंतन का सिंचन पा अहिंसा केवल संतों-पंथों एवं धर्मात्माओं के अध्ययन, चिंतन और आचरण में सीमित न रहकर इसका विस्तार अर्थनीति, राजनीति, समाजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर्यंत व्यापक बना।
हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सद्भावना एवं शांति स्थापना में गांधी और महाप्रज्ञ ने अहिंसा की शक्ति का समान रूप से प्रयोग किया। बापू ने हिन्दू-मुस्लिम उपद्रवों से आतंकित नोआखली के वातावरण को मनोवैज्ञानिक तरीके से (हिन्दू-मुस्लिम बच्चों को एक साथ खिलवाकर.........) एक दूसरे
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