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व्यापकता प्रदान करने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रसंत आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसा दर्शन मौलिकता और समाधायकता से युक्त है । विज्ञान की महत्त्वपूर्ण कसौटी है - प्रयोगधर्मिता । इस दृष्टि से अहिंसा और सत्य को प्रयोग पूर्वक प्रतिष्ठित करने वाले मनीषियों का अहिंसा दर्शन वैज्ञानिक है। वर्तमान के संदर्भ में समीक्षण पूर्वक समाचरण अनेक संभावनाओं को उजागर करता है ।
गांधी और महाप्रज्ञ के अहिंसा दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने अहिंसा का मूल्य और महत्त्व अपनी सफलता-विफलता से न जोड़कर शाश्वत शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया। अकेली अहिंसा ही विष को अमृत में बदलने की क्षमता रखती है । आज विश्व, शक्ति की खोज में है । शक्ति वह है जो स्थिति में परिवर्तन लाये । विश्व राजनीति में अस्त्र-शस्त्र, आणिवक शक्ति, भौतिक शक्ति को ही शक्ति का पर्याय माना गया है। गांधी और महाप्रज्ञ इसे वास्तविक शक्ति नहीं मानते । शक्ति की अवधारणा में इन मनीषियों ने आमूल-चूल परिवर्तन किया और कहा - नैतिक शक्ति ही वास्तविक शक्ति है। उनकी दृष्टि में अणु और परमाणु की तुलना में अहिंसा की शक्ति श्रेष्ठ और विशाल है। परमाणु बम, जैविक - रासायनिक शस्त्रों से सज्जित इस युग में शुद्ध अहिंसा ही ऐसी शक्ति
जो हिंसा की संपूर्ण चालों को विफल कर सकती है। अहिंसा सदैव सक्रिय रहने वाली अति सूक्ष्म अतुल शक्ति है। मनीषियों द्वारा किया गया अहिंसा अन्वेषण विश्व मानव के लिए प्रकाश स्तम्भ है। उन्होंने बताया अहिंसा मात्र परलोक प्रशस्ति का मार्ग नहीं है इसके द्वारा वर्तमान जीवन व्यापी विभिन्न समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। वैश्विक समस्या समाधान की कमियों के रूप में अहिंसा की प्रतिष्ठा गांधी एवं महाप्रज्ञ की वैज्ञानिक सोच का सबूत है ।
परतंत्रता और जड़ता की बेड़ियों में जकड़ा भारत-भू के लिए गांधी का जन्म एक वरदान था। भारतीय जनमानस एवं अफ्रीका प्रवासी भारतीय लोगों की चेतना झंकृत करने वाले राष्ट्रपिता का जीवन अहिंसा की प्रयोगशाला था । अपनी अलबेली अहिंसक जीवन शैली एवं चिंतन शैली की बदौलत विश्वभर में गांधी नाम का जादुई आकर्षण आज भी जीवंत है । आकर्षण का मौलिक आधार बना विराट् पैमाने पर अहिंसात्मक प्रयोग । गांधी का यह दृढ़ विश्वास था कि भारत यदि परतंत्रता की बेड़ियाँ तोड़ सकता है तो उसका एकमात्र साधन है - अहिंसा । उन्होंने कहा- 'मैं ऐसा स्वप्न देख रहा हूँ कि मेरा देश अहिंसा द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करेगा और मैं अगणित बार संसार के समक्ष यह बात दुहरा देना चाहता हूँ कि अहिंसा को त्याग कर मैं अपने देश की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं करूँगा । अहिंसा के साथ मेरा परिणय इतना अविच्छिन्न है कि मैं अपनी इस स्थिति से विलग होने की अपेक्षा आत्महत्या कर लेना पसंद करूँगा ।'
आचार्य महाप्रज्ञ का आजीवन अहिंसा महाव्रत भले ही व्यक्तिगत साधना का विषय था पर उन्होंने अहिंसा पर जो चहुँमुखी चिंतन किया वो निश्चित ही हिंसा - संकुल मानवता के लिए आशा दीप है। साधनामय जीवन की प्रयोग भूमि पर विकसित अहिंसा के विचार से हिंसा त्रस्त मानवता के लिए त्राण है । जीवनगत क्रियाओं का हिंसा-अहिंसा संबंधी न केवल सूक्ष्म विश्लेषण ही किया अपितु प्रभावी यौगिक प्रयोगों के द्वारा हिंसा पर नियंत्रण स्थापना का रहस्य भी बतलाया। आचार्य महाप्रज्ञ का मौलिक विश्लेषण है - 'हमारे शरीर में बहुत प्रकार के एसिड बनते हैं उनकी मात्रा बढ़ती है तो सन्तुलन बिगड़ता है और आदमी की मनोवृत्ति बदल जाती है वह क्रोधी, अपराधी और हत्यारा तक बन सकता है। जब हमारे रक्त में, मस्तिष्क में, मूत्र में एमिनो एसिड की मात्रा बढ़ जाती है
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