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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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तात्त्विक अभेद में भी विवेचन-विश्लेषण के लिए भेद की कल्पना करनी ही पड़ती है। अखण्ड को खण्डों में कल्पित किये बिना-भले ही वह खण्डकल्पना अतात्त्विक हो—विषय का निरूपण सम्भव नहीं । काव्यानन्द या काव्य के सौन्दर्य-बोध को अखण्ड आनन्दात्मक अनुभूति माननेवाले मम्मट, विश्वनाथ आदि ने जो अलङ्कार को हार आदि की तरह काव्य का बहिरङ्ग धर्म कहा था, उसका भी आशय केवल इतना ही होगा कि एक तो अलङ्कार मुख्य रूप से शब्द और वाच्य अर्थ से सम्बद्ध रहकर परम्परया काव्यानन्द में उपकारक होते हैं, दूसरे उनके अभाव में भी काव्यानन्द की अनुभूति सम्भव होती है। शब्द, वाच्यार्थ आदि की समन्वित अनुभूति को एक अखण्ड काव्यानुभूति तो मम्मट, विश्वनाथ आदि भी मानते ही हैं, जिसमें काव्याङ्गों की अलग-अलग अनुभूति की चेतना मिट जाती है। उस काव्यानुभूति में एक ही काव्य-सौन्दर्य की अखण्ड आनन्दात्मक चेतना का अस्तित्व रह जाता है, अङ्ग-सौन्दर्य की खण्डचेतना उसमें मिलकर एकाकार हो जाती है। इस प्रकार अलङ्कार्य रस तथा अलङ्कार का पृथक्-पृथक् अस्तित्व अतात्त्विक है। अलङ्कार शब्द या वाच्यार्थ से मिलकर रसानुभूति में सहायक बन जाते हैं। यह साहाय्य बाह्य नहीं आभ्यन्तर ही होता है। अलङ्कार का सौन्दर्य भी उस अखण्ड काव्यानन्द की अनुभूति में—पूर्ण काव्य-सौन्दर्य में-घुल-मिल जाता है। ___ कुन्तक ने अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेदाभेद के प्रश्न पर बहुत ही तर्कपूर्ण और प्रामाणिक विचार प्रस्तुत किया है। उन्होंने वक्रोक्ति को, जो उनके अनुसार काव्य-सर्वस्व है, अलङ्कार्य नहीं मानकर अलङ्कार माना है। उनके अनुसार अलङ्कार्य शब्द और अर्थ है।' प्रकृत या अनलङ कृत शब्दार्थ का प्रयोग लोकव्यवहार में होता है । अतः ऐसे शब्दार्थ को वार्ता कहते हैं। स्वभावोक्ति को अलङ्कार न मानकर अलङ्कार्य मानने में कुन्तक का यही आशय है कि स्वभावोक्ति अर्थात् प्रकृत शब्दार्थ अलङ कृत होने पर ही काव्य की कोटि में आते हैं। वे वक्रोक्ति से अलङ कृत होते हैं, अतः अलङ्कार्य हैं। वक्रोक्ति, प्रकृत शब्दार्थ को अलङ कृत करती है, अतः वह अलङ्कार है । विशेष चमत्कार से-वक्रोक्ति से—युक्त या अलङ कृत शब्दार्थ को काव्य मानने पर अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद काव्य में नहीं रह जाता। अलङ्कार-व्यतिरिक्त प्रकृत शब्दार्थ तो काव्य हो ही नहीं सकता। अतः कुन्तक ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि वस्तुतः सालङ्कार उक्ति ही काव्य है। उसमें अलङ्कार और अलङ्कार्य की परस्पर स्वतन्त्र सत्ता नहीं,
१. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रस्तुत अध्याय, पृ० १८ पाद टि० सं० २