Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे वीरमुखाद्रित उदिता, शमिताऽशेषतमा गणीशकलिता।
चलिता न्श्रुतिगगने, ध्वान्तं काचित् प्रभा हरतात् ॥ ३॥ उद्भूत (प्रकट) हुआ है अतः इसमें परतः प्रमाणता न आकर स्वतः प्रमाणता है, इसी बातकी पुष्टि " चरमजिनवरास्यादुद्गमं प्राप्नुवत्या" इस पद द्वारा की है। सूर्य जिस प्रकारसे सरोवरोंमें कमलवनको विकसित करता हुआ अन्य पदार्थों का भी वह प्रकाशक होता है, उसी प्रकारसे प्रभुके मुखसे निकला हुआ यह सूत्र भी भव्य जीवोंके मनको मुदित करता हुआ-जीव अजीव आदि समस्त तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करता है ॥२॥ ____ अन्वयार्थ-(वीरमुखाद्रित उदिता) अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीरप्रभु के मुखरूप हिमाचलसे उदित हुई अर्थात् निकली हुई (शमिताऽशेषतमा) तथा समस्त अज्ञानरूप अंधकारको बिलकुल नष्ट कर देनेवाली (काचित् प्रभा) यह कोई भगवतीसूत्ररूप अपूर्वप्रभा कि जिसे (गणीशकलिता) गणधरोंने सूत्ररूपमें गूंथा है, और जो (नश्रुतिगगने चलिता) मनुष्योंके कर्णप्रदेशरूप आकाशमें फैली हुई है वह (ध्वान्तं हरतात् ) अज्ञानरूप अंधकारको नष्ट करे।
विशेषार्थ-जिस प्रकार गगनमंडलमें इधर उधर फैली हुई सूर्यको रश्मियां (किरणें ) जब एक विशेष प्रकारके काचमें केन्द्रित करली जाती हैं भांथी भूत (४८) थयु छे. तेथी तमा स्वत: प्रभात! २७दी छ. परतः प्रभाएयता नथी, ते वातनुं “चरमजिनवरास्यादुद्गमं प्राप्नुवत्या" द्वारा समर्थन થયું છે. જેવી રીતે સૂર્ય સવમાં ઉગેલાં કમળને વિકસિત કરતે થક. જગતના અન્ય પદાર્થોને પણ પ્રકાશિત કરે છે, એ જ પ્રમાણે પ્રભુના મુખમાંથી પ્રકટ થયેલ આ ભગવતીસૂત્ર પણ ભવ્યજીના ચિત્તને આનંદિત કરતું–જીવ અજીવ આદિ સમસ્ત તને યથાર્થ રૂપે પ્રકાશિત કરે છે–તેમનું પ્રતિપાદન કરે છે. રા
अन्वयार्थ-(वीरमुखाद्रित उदिता) अन्तिम तीर्थ४२ श्री महावीर प्रभुना भु५३५. डिमयसमाथी नाणेसी, (शमिताऽशेषतमा) समस्त अज्ञान३५ी. मध
२नो मिस नाश ४२नारी (काचित् प्रभा) लगवतासूत्र३५ मा | अपूर्व प्रमाने (गणीशकलिता) धरोसे छन्द्रित ४१ छ. अनेरे (नृश्रुतिगगने चलिता) मनुष्योना ४ प्रदेश३५ २माशमा व्यास थयेस 2 ते (ध्वान्तं हरतात् ) अज्ञान३५ मारने नाश ४२.
વિશેષાર્થ–જેવી રીતે ગગનમંડળમાં આમ તેમ ફેલાયેલ સૂર્યનાં કિરશોને એક વિશેષ પ્રકારના કાચની મદદથી કેન્દ્રિત કરી લેવાય છે. અને એમ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧