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टिप्पण
१. कषाय (कसाया)
कषाय, कषाय के आधार, कषाय की उत्पत्ति के कारण तथा उनके अनन्तानुबंधी आदि भेद के लिए देखें-ठाणं, ४/७५-६१
तथा टिप्पण पृष्ठ ५०४, ५०५ ।। २. ध्यान (झाणा)
चेतना के दो प्रकार हैं-चल और स्थिर । चल चेतना को चित्त और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है।' ध्यान के चार प्रकार हैं१. आर्तध्यान-मनोज्ञ संयोगों का वियोग न हो, उसके लिए सतत चिन्तन करना तथा अमनोज्ञ के वियोग के लिए सतत
चिन्तन करना आर्तध्यान है। इसमें कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता होती है । इसके चार लक्षण हैं-आक्रन्द
करना, शोक करना, आंसू बहाना, विलाप करना। २. रौद्रध्यान-जिसका चित्त कर और कठोर हो, वह रुद्र होता है । उसके ध्यान को रौद्र ध्यान कहते हैं । इसके चार
प्रकार हैं१. हिंसानुबंधी-हिंसा का सतत प्रवर्तन । २. मृषानुबंधी-मृषा का सतत प्रवर्तन । ३. स्तन्यानुबंधी-चोरी का सतत प्रवर्तन ।
४. संरक्षणानुबंधी-विषय के साधनों के संरक्षण का सतत प्रवर्तन । इसमें क्रूरता की प्रधानता होती है। ३. धर्मध्यान--इसके चार भेद हैं
१. आज्ञाविचय-प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त । २. अपायविचय-दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त । ३. विपाकविचय-कर्मफल के निर्णय में संलग्न चित्त । ४. संस्थानविचय-विविध पदार्थों के आकृति-निर्णय में संलग्न चित्त ।
इसके चार लक्षण हैं-आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि । ४. शुक्लध्यान-यह उच्चतम ध्यानावस्था है। इसके चार प्रकार हैं-पृथक्त्ववितर्कसविचारी, एकत्ववितर्कअविचारी, सूक्ष्म
क्रिय-अनिवृत्ति तथा समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति । धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के लक्षण, आलंबन, तथा अनुप्रेक्षा के लिए
देखें-ठाणं, ४/६५-७२ तथा टिप्पण पृष्ठ ५००-५०३ । ३. विकथा (विगहाओ)
कथा का अर्थ है--वचन पद्धति । जिस कथा से संयम में बाधा उत्पन्न होती है जो चारित्र के विपरीत या विरुद्ध होतो
है उसे विकथा कहते हैं। विकथा के मुख्य भेद चार है१. स्त्रीकथा-स्त्री संबंधी कथा करना। उनके जाति, कुल, रूप तथा नेपथ्य की चर्चा करना। २. भक्तकथा-भोजन के विषय में चर्चा करना । उसके स्वादिष्ट होने या अस्वादिष्ट होने, मूल्यवान् होने या अमूल्यवान् होने,
अनेक द्रव्यों से निष्पन्न होने या अल्पद्रव्यों से निष्पन्न होने की चर्चा करना। ३. देशकथा-देश का अर्थ है जनपद । देश संबंधी चर्चा करना। देश के विधि-विधानों, रीति-रिवाजों, वस्त्र, आभूषण,
वैवाहिक रिवाज आदि की चर्चा करना। ४. राजकथा-राजा के विषय में चर्चा करना । उसकी सेना, कोश, कोष्ठागार, ऋद्धि आदि की चर्चा करना।
इन चार कथाओं के चार-चार प्रकार ठाणं, ४/२४१-२४५ में उल्लिखित हैं। इन विकथाओं में होने वाले दोषों के लिए देखें-ठाणं, टिप्पण पृष्ठ ५०५-५०७ ।
१. ध्यानशतक,२:
जं थिरमज्भवसाणं झाणं, जं चलं तयं चित्तं । २. स्थानांगवृत्ति, पन १९६ :
विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा-वचनपद्धतिविकथा । ३. समवायांगवृत्ति, पत्र :
विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्न्यादिविषया: कथा विकथा :
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