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टिप्पण
१. तीन सौ धनुष्य से कुछ अधिक ( सातिरेगाणि तिष्णि धणुसयाणि) सू० १३ :
जब चरमशरीरी व्यक्ति शैलेशीकरण करता है तब शरीर के शून्य स्थान को पूरित कर वह अपने शरीर की अवगाहना का १/३ भाग संकुचित करता है। उसके जीव- प्रदेश तब सघन हो जाते हैं। वह शरीर की अवगाहना के २/३ भाग से सिद्ध गति को प्राप्त होता है । प्रस्तुत सूत्र में सातिरेक तीन सौ धनुष्य का अर्थ है - ३३३. १ / ३ धनुष्य । यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है । '
२. छह सौ धनुष्य ऊंचे (छ धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं) सू० ३५ :
इस अवसर्पिणी में सात कुलकर हुए थे । उनमें अभिचन्द्र चौथे कुलकर थे । वृत्तिकार ने उनकी ऊंचाई ६५० धनुष्य मानी है।' इससे यह संभावना की जा सकती है कि वृत्तिकार ने 'सातिरेगाणि छ धणुसयाई' पाठ की व्याख्या की है।
३. कुछ न्यून (देसूणाई) सू० ४० :
अरिष्टनेमि का छद्मस्थकाल चउपन दिन का था । प्रस्तुत सूत्र का 'देसूणाई' शब्द इसी का द्योतक है । '
४. सभी यमक पर्वत ( सव्वेवि णं जमगपव्वया) सू० ५६ :
उत्तरकुरु के नीलवर्षधर पर्वत के उत्तरीय भाग में शीता महानदी के दोनों तटों पर 'यमक' नाम के दो पर्वत हैं । उत्तरकुरु पांच हैं । उन पांचों में दस 'यमक' पर्वत हैं ।
५. चित्रकूट और विचित्रकूट ( चित्त - विचित्तकूडा) सू० ५७ :
देवकुरु में एक चित्रकूट और एक विचित्रकूट पर्वत है। पांच देवकुरुओं में पांच चित्रकूट और पांच विचित्रकूट पर्वत हैं । ' ६. पल्य-संस्थान (पल्लगसंठाण) सू ५८ :
इसकी आकृति अनाज भरने के बड़े कोठे के समान है ।
७. हजार वर्षों की पूर्ण आयु (दस वाससयाई सव्वाउयं) सू० ६१ :
अहं अरिष्टनेमि तीन सौ वर्षों तक कुमार अवस्था में रहे और सात सौ वर्षों तक अनगार अवस्था में रहे थे । '
१. समवायांगवृत्ति, पत्र १४ :
चरमशरीरस्य सिद्धिगतस्य सातिरेकाणि वीणि शतानि धनुषां जीवप्रदेशावगाहना प्रज्ञप्ता, यतोऽसो शेलेशीकरणसमये शरीररन्ध्रपूरणेन देहविभागं विमुच्य घनप्रदेशो भूत्वा देवि भागद्वया वगाहनः सिद्धिमुपगच्छति, सातिरेकत्वं चैवं ।
तिनि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागे य होइ बोद्धव्वो ।
एसा खलु सिद्धाणं उनकोसोगाहणा भणिया ||
२. बही, पत्र १६:
प्रभिचन्द्रः कुलकरोऽस्याम वसविण्यां सप्तानां कुलकराणां चतुर्थः, तस्योच्छ्रयः षट् धनुः शतानि पञ्चाशदधिकानि ।
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३. वही, पत्र ६६ :
'देसूणाई' ति चतुः पञ्चाशतो दिनानामूनानि, तत्प्रमाणत्वात् छद्यस्थकालस्येति,
४. वही पत्र ६८ :
उत्तरकुरुषु नीलवद्वर्षधरस्य उत्तरतः शीताया महानद्या उभयोः कूलयोढौं यमकाभिधानौ पर्वतौ स्तः ते च पञ्चस्वप्युत्तरकुरुषु द्वयोर्द्वयोर्भावाद्दश ।
५. वही, पन १८ :
पञ्चसु देवकुरुषु यमकवत्तत्सद्भावात् पञ्च चित्रकूटाः पञ्च विचित्रकूटाः इति ।
६. वही वृत्ति, पत्र १८:
'मरहृते' त्यादि, कुमारत्वे त्रीणि वर्षशतान्यन गारत्वे सप्तेश्येवं दश शतानि ।
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