Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 416
________________ समवाप्रो ३८३ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ८-१३ ८. तीन हजार योजन (तिणि जोयणसहस्साइं) सू०६८ : रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम काण्ड का नाम है-खरकाण्ड । उसके सोलह विभाग हैं। उनमें से प्रथम चार विभाग ये हैंरत्नकाण्ड, वज्रकाण्ड, वैड काण्ड और लोहिताक्षकाण्ड । इन चारों में हजार-हजार योजन का अन्तर है। इस प्रकार दूसरे विभाग वज्रकाण्ड से चौथे विभाग लोहिताक्ष का अन्तर तीन हजार योजन रह जाता है।' ६. तिगिच्छ (तिगिच्छ) सू० ६६ : तिगिच्छ द्रह निषध वपंधरपर्वत पर है। वह धृति देवी का निवास स्थान है। केसरीद्रह नील वर्षधरपर्वत पर है। वह कीत्ति देवी का निवास स्थान है। १०. पांच-पांच हजार योजन (पंच-पंच जोयणसहस्साई) सू०७० : तिर्यग् लोक के मध्य में आठ रुचक प्रदेश हैं। यही दिशाओं और अनुदिशाओं का उद्भव स्थान है। इसके चारों दिशाओं में मन्दर पर्वत का व्यवधानात्मक अन्तर पांच-पांच हजार योजन का है, क्योंकि इसका विष्कंभ दस हजार योजन का है। ११. हजार योजन लम्बी (जोयणसहस्सा आयामेणं) सू०७४ : प्रस्तुत सूत्र में दक्षिणार्ध भरत की जीवा नौ हजार योजन लंबी बताई है। वृत्तिकार ने स्थानान्तर का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वह जीवा नौ हजार सात सौ अड़तोलीस योजन बारह कला की है । यह स्थानान्तर अन्वेषणीय है।" १२. कुछ अधिक नौ हजार अवधिज्ञानी (साइरेगाई नव ओहिनाणिसहस्साई) सू० ८४ : वृत्तिकार ने 'साइरेगाणि' से चार सौ का ग्रहण किया है। वस्तुत: प्रस्तुत पाठ 'सहस्र' समवाय के अन्तर्गत आना चाहिए था, पर यहां 'लक्ष' समवाय के अन्तर्गत उल्लिखित हुआ है। वृत्तिकार ने इसकी आलोचना करते हुए तीन विकल्प प्रस्तुत किए हैं-१. लक्ष शब्द से सहस्र शब्द का साधर्म्य है २. सूत्र की गति विचित्र होती है ३. लिपिकर्ता के प्रमाद के कारण। १३. सूत्र ८५ प्रस्तुत प्रसंग में पुरुषसिंह वासुदेव का पांचवें नरकगमन का उल्लेख है। स्थानांग में छठी नरक का उल्लेख है। दोनों अंगों में यह अन्तर क्यों है, इसका समाधान प्राप्त नहीं है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र १८: रत्नप्रभापथिव्या: प्रथमस्य षोडशविभागस्य खरकाण्डाभिधानकाण्डस्य प्रथमं रत्नकाण्ड ,वचकाई नाम काण्डं द्वितीयं, बडूर्यकाण्ड तृतीगं, लोहिताक्षकाण्ड चतुर्थं, तानि च प्रत्येकं साहसिकमिति तयाणां यथोक्तमन्तरं भवतीति । २. वही, पत्र ६८ : तिगिच्छिकेसरिह्रदो निषधनीलबद्वषधरोपरिस्थितौ धुतिकोत्तिदेवीनिवासाविति । ३. बही. प०१८, ६९: 'अट्ठपएसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारंमि । एसप्पभवो दिसाणं एसेव भवे प्रणदिसाणं ।। रुचक एवं नाभिचक्रस्य तुम्बमिवेति रुचकनाभिः, ततश्चतसृष्वपि दिक्ष पञ्च पञ्च सहस्राणि मेरस्तस्य दशसहस्रविष्कम्भत्वादिति । ४. वही, पन्न ६६ नव सहस्राण्यायामत होक्ता, स्थानान्तरे तु तद्विशेषोऽयं 'नव सहस्राणि सप्त शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि द्वादश च कला'। ५. वही, पन ह8: सातिरेकाणि नवावधिज्ञानी सहवाणि, प्रतिरेकश्चत्वारि शतानि, इदं च सहस्रस्थानकमपि लक्षस्थानकाधिकारे यदधीतं तत् सहस्रशब्दसाधम्याद्विचिन्नत्वाद्वा सूत्रगतेलेखकदोषावेति । ६. ठाणं १०/७८: पुरिससीहे णं वासुदेवे ........"छट्ठीए तयाए पूढवीए रइयत्ताए उबवण्णे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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