Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 420
________________ समवायो ३८७ प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण २८-३३ २८. प्रतिमा (पडिमा) सू० ६५ : वृत्तिकार ने प्रतिमा के दो अर्थ किए हैं१. श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं । २. कायोत्सर्ग। २६. परिषद् (परिसा) सू०६५ : परिषद का अर्थ है-परिवार विशेष । परिषद् दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यंतर । बाह्य परिषद में दास, दासी मित्र आदि होते हैं और आभ्यंतर परिषद् में माता, पिता, पुत्र, पुत्री आदि होते हैं।' ३०. दस उद्देशन काल (दस उद्देसणकाला) सूत्र ६७ : नंदी सूत्र में अनुत्तरोपपातिकदशा के तीन वर्ग और तीन उद्देश्य-काल बतलाए हैं। वर्ग एक साथ पूरा का पूरा उद्दिष्ट होता है, अतः तीन ही उद्देशन-काल होते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में यहां उद्देशन-कालों की संख्या दस बतलाई है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अभिप्राय ज्ञात नहीं है।' ३१. प्रश्न (पसिण) सूत्र १८: यहां अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न आदि मंत्रविद्याओं की संज्ञा 'प्रश्न' है।' विद्यानुवाद में अंगुष्ठ आदि विद्याओं को अल्पविद्या माना है। इनकी संख्या सात सौ है। व्यक्ति के अंगूठे को देखकर उसके शुभाशुभ का निर्देश करना अंगुष्ठ विद्या है। यह देवता-अधिष्ठित ही होती है। ३२. अप्रश्न (अपसिण) सूत्र ६८ : मंत्र की विधि से जाप करने पर कुछ विद्याएं सिद्ध हो जाती हैं। वे बिना प्रश्न किए ही व्यक्ति को शुभ-अशुभ का निर्देश कर देती हैं। इन्हें अप्रश्न कहा जाता है। ३३. प्रश्न-अप्रश्न (पसिणापसिण) सूत्र ६८ : जो विद्या अंगुष्ठ आदि के सद्भाव या अभाव में शुभ-अशुभ का कथन करती है, वह प्रश्न-अप्रश्न विद्या कहलाती है।' निशीथ भाव तथा चूणि में यह उल्लेख है कि स्वप्न विद्या का ही अपर नाम प्रश्नाप्रश्न है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि विद्या से अभिमंत्रित घंटिका कानों के पास बजाई जाती है, तब देवता शुभाशुभ का कथन करते हैं। इसे 'इंखिनी' विद्या भी कहा जाता है। देवता अतीत या वर्तमान में प्राप्त लाभ तथा भविष्य में प्राप्तव्य लाभ और अलाभ का निर्देश भी करता है। वह १. समवायांगवृत्ति, पत्र १११: 'पडिमानो' ति एकादश उपासक प्रतिमाः कायोत्सर्ग वा। २. वही, पन १११: परिषद:-परिवार विशेषा यथा मातापितृपुनादिका अभ्यन्तरपरिसत्, दासी दास मित्रादिका वामपरिषदिति । ३. वही. पन ११४॥ वर्गश्च युगपदेवोद्दिश्यते इत्यतस्त्रय एवोद्देशनकाला भवन्तीत्येवमेव च नन्द्यामभिधीयन्ते, इह तु दृश्यन्ते दशेत्यनाभिप्रायो न ज्ञायत इति । ४. वही, पन्न ११५: तनाङ्गुष्ठबाहुप्रश्नादिका मन्त्रविद्या: प्रश्नाः । ५. राजवार्तिक १/२०: तवाङ्गुष्ठसेनादीनामल्पविद्यानां सप्तशतानि । ६. समवायांगवृत्ति, पन ११५ : या पुनर्विद्या मन्त्रविधिना जप्यमाना अपुष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति एताः प्रश्नाः । ७. वही, पन ११५: तपाङ्गुष्ठादिप्रश्नभावं तदभावं च प्रतीत्य या विद्या: शुभाशुभं कथयन्ति ता: प्रश्नाप्रश्नाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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