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समवायो
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प्रकोणक समवाय : टिप्पण ४१-४४
में सूत्र-ग्रहण की योग्यता संपादित की जाती है । यह दृष्टिवाद को ग्रहण करने तथा उसे समझने की प्रणाली है।
जिस प्रकार गणित शास्त्र के अभ्यास के लिए संकलन, व्यवकलन, गुणन, भाग आदि सोलह परिकों का ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी प्रकार दृष्टिवाद में प्रवेश करने से पूर्व परिकर्म का प्राथमिक ज्ञान अपेक्षित होता है। विवक्षित परिकर्म के सूत्रार्थ को जान लेने पर ही अध्येता शेष सूत्ररूप दृष्टिवाद श्रुत को ग्रहण करने में योग्य हो सकता है, अन्यथा नहीं।
४१. पूर्वगत (पुव्वगयं) सूत्र १०० :
इसके सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं। एक मत तो यह है कि तीर्थङ्कर तीर्थ-प्रवर्तन के समय गणधरों के समक्ष पूर्व की वाचना कहते हैं । ये पूर्व समस्त सूत्रों के आधारभूत होते हैं तथा पहले कहे जाने के कारण 'पूर्व' कहलाते हैं।
___ गणधर जब सूत्र की रचना करते हैं तब आचार आदि के क्रम से उनकी रचना और स्थापना होती है । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थागम की दृष्टि से सर्व प्रथम 'पूर्वगत' का प्रतिपादन किया जाता है और सूत्रागम की दृष्टि से आचार आदि के क्रम से अंगों की रचना और स्थापना की जाती है।
दूसरा मत यह है कि तीर्थङ्करों ने सर्वप्रथम पूर्वगत को व्याकृत किया और गणधरों ने भी सर्वप्रथम पूर्वगत की ही रचना की और बाद में आचार आदि की रचना हुई। यह मत अक्षर-रचना की दृष्टि से है, स्थापना की दृष्टि से नहीं। कई यह शंका उपस्थित करते हैं कि आचार की दृष्टि से नियुक्ति में 'सव्वेसि आयारो पढमो'-ऐसा उल्लेख हुआ है, इससे यह स्पष्ट होता है कि आचार की रचना पहले हुई थी। इसका समाधान यह है कि यह कथन आगमों की स्थापना के आधार पर हुआ
है, न कि रचना के आधार पर। नंदीचूणि में भी इसी आशय का उल्लेख है। ४२. सूत्र १००
दृष्टिवाद के पांचों विभागों के क्रम के विषय में तीन मत प्राप्त होते हैं१. परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । २. परिकर्म, सूत्र, अनुयोग, पूर्वगत और चूलिका । ३. पूर्वगत, परिकर्म, सूत्र, अनुयोग और चूलिका ।
तत्त्वार्थराजवार्तिक १/२०, अभिधान चिन्तामणि २/१६० तथा लोकप्रकाश ३/७६३ में दूसरे क्रम से इन पांच विभागों का निर्देशन हुआ है।
जो ऐसा मानते हैं कि गणधरों ने सर्वप्रथम पूर्वो की रचना की, उनके अनुसार तीसरे क्रम से रचना-व्यवस्था होती
तत्त्वार्थ राजवात्तिक १/२० में अनुयोग के स्थान पर प्रथमानयोग और अभिधानचिन्तामणि २/१६० तथा लोकप्रकाश ३/७६३ में पूर्वानुयोग का प्रयोग हुआ है। ४३. वस्तु (वत्थू) सूत्र ११३ :
अध्ययन (परिच्छेद) की भांति जो नियत अर्थ के अधिकार से प्रतिबद्ध होता है, उसे वस्तु कहते हैं ।' ४४. चूलिकावस्तु (चूलियावत्थू) सूत्र ११३ :
चूला का अर्थ है चोटी । उक्त या अनुक्त अर्थ का संग्रह करने वाली ग्रंथ-पद्धति को चूला कहा गया है ।
१. नंदीसुत्तम् (चूणि सहित), पृष्ठ ०२ : परिकम्मे त्ति जोग्गकरणं जहा गणितस्स सोलस परिकम्मा, तग्गहितसुत्तत्यो सेसगणितस्स जोग्गो भवति । एवं गहितपरिकम्मसुत्तत्यो सेससुत्तादिविढिवाद
सुत्तस्स जोग्गो भवति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र १११। 1. नंदीसुत्तम् (चुणि सहित), पृष्ठ ०५ । 1-५. समवायांयवृति, पब १२२ ।
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