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समवायो
प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ५७-६३
नहीं है। यह विषय चौतीसवें पद से प्राप्त है। उसका नाम 'परिचारणा पद' है। उसका आहार वर्णन वाला भाग इसमें
गृहीत है । 'आहार पद' के द्वारा प्रस्तुत पद का आहार वर्णनात्मक भाग विवक्षित है।' ५७. आयुष्यबंध छह प्रकार का है (छविहे आउगबंधे) सूत्र १७६ :
एक साथ जितने कर्म-पुद्गल जिस रूप में भोगे जाते हैं, उस रूप-रचना का नाम निषेक है।
निधत्त का अर्थ है कर्म का निषेक के रूप में बंध होना। जिस समय आयु का बंध होता है, तब वह जाति आदि छहों के साथ निधित्त-निषिक्त होता है। अमुक आयु का बंध करने वाला जीव उसके साथ-साथ एकेन्द्रिय आदि पांच जातियों में से किसी एक जाति का, नरक आदि चार गतियों में से एक गति का, अमुक समय की स्थिति-काल मर्यादा का, अवगाहना-औदारिक या वैक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर का तथा आयुष्य के प्रदेशों-परमाणु संचयों का और उसके अनुभाग-विपाक-शक्ति का भी बंध करता है ।
५८. सूत्र १८०
रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में विरहकाल क्रमश: इस प्रकार है-चौईस मुहूर्त, सात अहोरात्र, पन्द्रह अहोरात्र, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास । सामान्यगति की अपेक्षा से यहां बारह मुहर्त बतलाया गया है। तिर्यञ्च और मनुष्य गति का विरह-काल जो बारह मुहूर्त का बताया है वह गर्भावक्रान्ति की अपेक्षा से है। देवगति का कथन सामान्य गति की
अपेक्षा से है। ५६. सिद्धगति · (सिद्धिवज्जा) सूत्र १८२ :
सिद्धों की उद्वर्तना नहीं होती । वे अपुनरावृत्त होते हैं।' ६०. सू० १८४ :
आकर्ष का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का ग्रहण । आयुष्य बंध का अव्यवसाय तीव्र होता है तो एक ही आकर्ष से जातिनामनिषिक्त आयुष्य का बंध हो जाता है । अव्यवसाय मंद होता है तो दो आकर्ष होते हैं । वह मन्दतर होता है तो तीन आकर्ष और मन्दतम होता है तो चार आकर्ष हो जाते हैं। इस प्रकार अध्यवसाय के तारतम्य के आधार पर आठ आकर्ष तक हो जाते हैं।
६१. सू० २१७ :
स्थानांग में तीसरे कुलकर का नाम अनन्तसेन और चौथे का नाम अजितसेन है।' स्थानांग की मुद्रितप्रति में चौथे कुलकर का नाम 'अमितसेन' मिलता है तथा हस्तलिखित आदर्शों में 'अतितसेन' और 'अजितसेन' मिलता है। स्थानांग की मुद्रित प्रति में पांचवें कुलकर का नाम 'तर्कसेन' प्राप्त है। समवायांग की मुद्रित प्रति में इसके स्थान पर 'कार्यसेन' तथा हस्तलिखित आदर्श में 'कर्कसेन' मिलता है।
६२. सू० २२३ :
देखें-हरिवंशपुराण, ६०/१५१-१५५ ।
६३. सू० २२४ :
देखें--हरिवंशपुराण, ६०/२२१-२२५ । १. समवायांगवृत्ति, पन १३५ :
प्रज्ञापनायाश्चतुस्तिशतमं परिचारणापदाख्यं पदमिह भणितव्यमिति, इदं चानाहारविचारप्रधानतया पाहारपदमुक्तमिति । २,३ समवायांगवृत्ति, पन १३७ : 1. समवायांगवृत्ति, पन्न १३७ । १. ठा१०/१४॥ ..देखें-मंगसुत्ताणि माग १, पृष्ठ ६४२, पाद टिप्पण न.३।
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