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समवायो
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प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ८७-६१
८७. सू० २५२
उत्तरपुराण (७६/४७१-४७५) में ये नाम इस प्रकार हैं१. श्रेणिक २. सुपार्श्व ३. उदङ्क ४. प्रोष्ठिल ५. कटपू ६. क्षत्रिय ७ श्रेष्ठी ८. शंख ६. नन्दन १०. सुनन्द ११. शशाङ्क १२. सेवक १३. प्रेमक १४. अतोरण १५. रेवत १६. वासुदेव १७. भगलि १८. वागलि १६. द्वैपायन २०. कनकपाद २१. नारद २२. चारुपाद २३. सत्यकिपुत्र ।
__उत्तरपुराणकार ने ये तेईस नाम गिनाकर, 'एक अन्य' ऐसा उल्लेख कर चोईस की संख्या पूरी की है। 'एक दूसरे से उनका क्या तात्पर्य था यह ज्ञात नहीं है।
१८. सू० २५४
उत्तरपुराण (७६/४८२-४८४) में ये नाम इस प्रकार है१. भरत २. दीर्घदन्त ३. मुक्तदन्त ४. गूढदन्त ५. श्रीषेण ६. श्रीभूति ७. श्रीकान्त ८. पद्म ६. महापद्म १०. विचित्रवाहन ११. विमलवाहन १२. अरिष्टसेन ।
हरिवंशपुराण ६०/५६२-५६५ । ८९. सू० २५६ :
उत्तरपुराण (७६/४८५-४८६) में ये नाम इस प्रकार हैंनौ नारायण (वासुदेव)१. नंदी २. नंदिमित्र ३. नंदिसेन ४. नंदिभूति ५. सुप्रसिद्धबल ६. महाबल ७. अतिबल ८. त्रिपृष्ठ ६. द्विपृष्ठ । नौ बलभद्र (बलदेव)
१. चन्द्र २. महाचन्द्र ३. चक्रधर ४. हरिचन्द्र ५. सिंहचन्द्र ६. वरचन्द्र ७. पूर्णचन्द्र ८. सूचन्द्र ९. श्रीचन्द्र । ६०. सू० २५८:
ऐरवत में होने वाले तीर्थंकरों की नामावलि में चौबीस के स्थान पर पचीस नाम हैं । सिद्धार्थ नाम दो बार आया है। यदि एक स्थान में सिद्धार्थ को विशेषण माना जाए तो चौबीस तीर्थङ्करों के नाम शेष रह जाते है। ६१. सू० २६१ :
प्रस्तुत सूत्र में कुलकर, तीर्थंकर, चक्रवर्ती और दशार-इनके वंशों का प्रतिपादन किया गया है, इसलिए इसके उक्त नाम-कुलकरवंश, तीर्थंकरवंश, चक्रवर्तीवंश और दशारवंश-सार्थक हैं।
गणधर, ऋषि, यति और मुनि-इनके वंशों का प्रतिपादन 'कप्पस्स समोसरणं नेयव्वं' (प्रकीर्णक समवाय, सू० २१५) इस समर्पित सूत्र के द्वारा हुआ है, इसलिए इसके ये नाम-गणधरवंश, ऋषिवंश, यतिवंश और मुनिवंश-भी सार्थक हैं।
प्रस्तुत सूत्र के द्वारा कालिक अर्थो का अवबोध होता है, इसलिए यह 'श्रुत' है। यह 'श्रुतपुरुष' का एक अंग है, इसलिए यह 'श्रुतांग' है। इसमें अर्थों का संक्षेप में प्रतिपादन हुआ है, इसलिए यह 'श्रुतसमास' है। इसमें श्रुत का समुदाय है, इसलिए यह 'श्रुतस्कन्ध' है। इसमें जीव, अजीव आदि पदार्थों का समवायन (प्रतिपाद्य रूप में एकत्रीकरण) है, इसलिए यह 'समवाय' है। इसमें पदार्थों का प्रतिपादन संख्या-आधारित है, इसलिए यह 'संख्या' है। इस प्रकार सूत्रकार ने उपसंहार सूत्र में प्रस्तुत सूत्र के चौदह नामों का निर्देश किया है।
प्रस्तुत सूत्र में आचारांग और सूत्रकृतांग की भांति दो खंड नहीं हैं तथा इसमें उद्देशक आदि के विभाग नहीं हैं। इसकी समस्त (अखंड) अंग तथा अध्ययन के रूप में रचना की गई है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र १४७,१४८ ।
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