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प्रकीर्णक समवाय: टिप्पण १८-२१
चूलिकाएं हैं । अठारह हजार का पद परिमाण प्रथम श्रुतस्कंध का है, दूसरे का नहीं। कहा भी है- नववंभचेरमइओ अट्ठारस पयसहस्सीओ वेओ ......। सूत्र के उल्लेख विचित्र होते हैं । उनका अभिप्राय गुरु से ही जाना जा सकता है।'
समवाश्रो
प्रस्तुत समवाय में उक्त पद-परिमाण की संगति के विषय में वृत्तिकार कहते हैं कि दो श्रुतस्कन्धों का जो उल्लेख है, वह पूरे आचारांग सूत्र प्रमाण है और जो अठारह हजार पद-परिमाण कहा गया है वह केवल प्रथम श्रुतस्कंध का ही परिमाण है। सूत्र - रचना विचित्र होती है। उसका तात्पर्यं गुरु से ही जाना जा सकता है।'
१८. एवमात्मा ( एवं आया ) सू० ८६ :
वृत्तिकार का कथन है कि यह पाठ अन्य आदर्शो में कहीं नहीं मिला । नन्दीसूत्र में यह पाठ व्याख्यात है, अतः यहां भी उसका ग्रहण किया गया है। इसका अर्थ है- आचारमय बन जाना ।
एवं णाया
आचारांग को पढ़कर उसका पूरा ज्ञान कर लेता है।
एवं विष्णाया
विज्ञाता का अर्थ है - विशिष्ट ज्ञाता अथवा मतान्तरों को जानने वाला। #
चरण-करण
चरण का अर्थ है - महाव्रत, श्रमणधर्म, संयम आदि । करण का अर्थ है- पिण्डविशुद्धि, समिति आदि ।'
१६. सूत्र ६० :
देखें - सूत्रकृतांग १२ / १ का टिप्पण |
२०. तेईस अध्ययन ( तेवीसं अज्झयणा ) सू० ६० :
सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं ।
२१. तेतीस उद्देशन काल (तेत्तीस उद्देसणकाला ) सू०६० :
प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययनों में पहले अध्ययन के चार, दूसरे के तीन, तीसरे के चार, चौथे के दो, पांचवें के दो और शेष ग्यारह अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं। दूसरे श्रुतस्कंध के सात अध्ययनों के सात उद्देशक हैं। इस प्रकार सूत्रकृतांग के २६ + ७ तेतीस उद्देशनकाल हैं ।
१. समवायांगवृति पत्र ३४ :
प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य – चूडासमन्वितस्य तस्यपिण्डेषणाद्याः पञ्च चूलाः द्वितीयधुत स्कन्धात्मिकाः स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मक प्रथमश्रुतस्कन्धरूप:, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानां यदाह"नवबंभरमइयो अट्ठारस पयसहस्सीम्रो वेम्रो ।
हवइ य संपंचचुलो बहुबहुतरम्रो पयगेणं ॥ १॥"
त्ति यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चूलिका सत्ताप्रतिपादनार्थं न तु पद प्रमाणाभिधानार्थं यतोऽवाचि नन्दीटीका कृता - अट्टारसपयसहस्वाणि पुण पढमसुखंधस्स नवबंभचेरमइयस्स पमाणं, बिचित्तत्याणि य सुत्ताणि गुरुवएसो तेसि प्रत्यो जाणियव्वों' ।
२. वही, पक्ष १०१ :
तद्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितं यत्पुनरष्टादश पद सहस्राणि तनवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथम श्रुतस्कन्धस्य प्रमाणं विचिनार्थबद्धानि च सूत्राणि, गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति ।
३. वही, पन १०१ :
इदं सूत्रं पुस्तकेषु न दृष्टं नन्वां तु दृश्यते इतीह व्याख्यातमिति एवं क्रियासारमेव ज्ञानमितिख्यापनार्थम् ।
४ वही, पन १०१ :
इदमधीत्य एवं ज्ञाता भवति यथैवेोक्तमिति एवं विन्नाय त्ति, विविधो विशिष्टो वा ज्ञाता विज्ञाता एवं विज्ञाता भवति, तन्त्रान्तरीयञ्चाता भवति ।
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५. वही पत्र १०२ :
चरणं व्रतश्रमणधम्मं संयमाद्यनेकविधं करणं-पिण्डविशुद्धिसमित्याद्यनेकविधम् ।
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