Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 401
________________ समवानो प्रकीर्णक समवाय : सू०२३०-२३१ १. सेन्जसे बंभदत्ते, १.श्रेयांसः । ब्रह्मदत्तः, सुरिददत्ते य इंदवत्ते य। सुरेन्द्रदत्तश्च इन्द्रदत्तश्च । तत्तो य धम्मसीहे, ततश्च धर्मसिंहः, सुमित्त तह धम्ममित्ते य॥ सुमित्रस्तथा धर्ममित्रश्च ।। २. पुस्से पुणव्वसू पुण्णणंद, २. पुष्यः पुनर्वसुः पुण्य (पूर्ण? ) नन्दः, सुणंदे जये य विजये य। सुनन्दः जयश्च विजयश्च । पउमेय सोमदेवे, पद्मश्च सोमदेवः, महिंददत्ते य सोमदत्ते य॥ महेन्द्रदत्तश्च सोमदत्तश्च ।। ३. अपराजिय वीससेणे, ३. अपराजितः विश्वसेनः, वीसतिमे होइ उसभसेणे य। विशतितमः भवति ऋषभसेनश्च । दिण्णे वरदत्ते, वरदत्तः, धन्ने बहुले य आणुपुव्वीए॥ धन्यः बहुलश्च आनुपूर्व्या ॥ विसुद्धलेसा, ४. एते विशुद्धलेश्याः, जिणवरभत्तीए पंजिलिउडा य। जिनवरभक्त्या प्राञ्जलिपुटाश्च । तं कालं तं समयं, तं कालं तं समयं, पडिलाई जिणरिदे॥ प्रतिलाभन्ति जिनवरेन्द्रान ॥ १. श्रेयांस १३. विजय २. ब्रह्मदत्त १४. पद्म ३. सुरेन्द्रदत्त १५. सोमदेव ४. इन्द्रदत्त १६. महेन्द्रदत्त ५. धर्मसिंह १७. सोमदत्त ६. सुमित्र १८. अपराजित ७. धर्ममित्र १६. विश्वसेन ८. पुष्य २०. ऋषभसेन ६. पुनर्वसु २१. दत्त १०. पुण्यनन्द २२. वरदत्त ११. सुनन्द २३. धन्य १२. जय २४. बहुल"। इन विशुद्ध लेश्या वाले व्यक्तियों ने जिनवर भक्ति से प्राञ्जलिपुट होकर, उस काल और उस समय में जिनवरों को प्रतिलाभित किया-भिक्षा दी। २३०. १. संवच्छरेण भिक्खा, १. संवत्सरेण भिक्षा, २३०. लोकनाथ ऋषभ ने प्रथम भिक्षा एक लद्धा उसमेण लोगणाहेण। लब्धा ऋषभेण लोकनाथेन। वर्ष पश्चात् प्राप्त की थी। शेष सभी सेसेहि बोयदिवसे, शेष द्वितीयदिवसे, तीर्थङ्करों ने प्रथम भिक्षा दूसरे दिन लद्धाओ पढमभिक्खाओ। लब्धाः प्रथमभिक्षाः ॥ प्राप्त की थी। २. उसभस्स पढमभिक्खा, २. ऋषभस्य प्रथमभिक्षा, लोकनाथ ऋषभ को प्रथम भिक्षा में खोयरसो आसि लोगणाहस्स। क्षोदरस आसीत् लोकनाथस्य । इक्षुरस मिला और शेष तीर्थङ्करों को सेसाणं परमण्णं, शेषाणां परमान्न, अमृतरसतुल्य परमान्न (क्षीर) प्राप्त अमयरसरसोवमं आसि ॥ अमृतरसरसोपमं आसीत् ॥ हुआ था। ३. ससिपि जिणाणं, ३. सर्वेषामपि जिनानां, सभी जिनवरों को जहां प्रथम भिक्षा जहियं लद्धाओ पढमभिक्खातो। यत्र लब्धाः प्रथमभिक्षाः।। प्राप्त हुई वहां शरीर-प्रमाण सुवर्ण की तहियं वसुधाराओ, तत्र वसुधाराः, वृष्टि हुई थी। सरीरमेत्तीओ वुढाओ॥ शरीरमात्र्यः वृष्टाः ॥ २३१. एतेसि णं चउवीसाए तित्थगराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां २३१. चौबीस तीर्थङ्करों के चौबीस चैत्य वृक्ष चउवीसं चेइयरुक्खा होत्था, चतुर्विंशतिः चैत्यवृक्षाः बभूवुः, थे, जैसेतं जहा तद्यथा१. णग्गोह . सत्तिवण्णे, १. न्यग्रोध - सप्तपणौं, १. न्यग्रोध ६. माली साले पियए पियंगु छत्ताहे। शालः प्रियक: प्रियङ गुः छत्राहः । २. सप्तपर्ण १०. प्लक्ष सिरिसे य जागरुक्खे, शिरीषश्च नागरुक्षः, ३. शाल ११. तिदुक माली य पिलखुरुक्खे य॥ माली च प्लक्षरुक्षश्च ।। ४. प्रियाल १२. पाटल २. तेंदुग पाडल जंबू, २. तिन्दुक - पाटल . जम्बू, ५. प्रियंगु १३. जंबु आसोत्थे खलु तहेव दधिवण्णे। अश्वत्थः खलु तथैव दधिपर्णः ।। ६. छत्राक १४. अश्वत्थ गंदीरक्खे तिलए य, नन्दीरुक्षस्तिलकश्च, ७. शिरीष १५. दधिपर्ण अंबयरक्खे असोगे य॥ आम्रकरुक्षः अशोकश्च ॥ ८. नागवृक्ष १६. नंदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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