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समवायो
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प्रकीर्णक समवाय : सू० १४४
पूय-रुहिर- मंसचिक्खिल्ललित्ताणु- रुधिर-मांस - चिविखल्ल-लिप्तानुलेपनलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भि- तला: अशुचयः विस्राः परमदुरभिगन्धाः गंधा काऊअगणिवण्णाभा कापोतअग्निवर्णाभाः कर्कशस्पर्शाः कवखडफासा दुरहियासा असुभा दुरधिसह्याः अशुभाः नरकाः अशुभाः नरगा असुभाओ नरएसु नरकेषु वेदनाः । वेयणाओ।
ज्योतिष की प्रभा से शुन्य, मेद-चर्बी, रस्सी-लोही-मांस के कीचड़ से पंकिल तल वाले, अशुचि, अपक्वगंध से युक्त, उत्कृष्ट दुर्गन्ध वाले, कापोत (कृष्ण) अग्निवर्ण की आभा वाले, कर्कशस्पर्श से युक्त और असह्य वेदना वाले हैं। वे नरकावास अशुभ हैं और उनमें अशुभ वेदनाएं हैं।
१४४. केवडया णं भंते ! असरकमारा- कियन्त: भदन्त ! असुरकुमारावासाः १४४. भंते ! असुरकुमारों के आवास कितने वासा पण्णत्ता?
प्रज्ञप्ताः ?
गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां पुढवीए असीउत्तरजोयणसय- अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां सहस्हबाहल्लाए उरि एगं उपरि एक योजनसहस्रं अवगाह्य अधः जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं चैक योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अष्टसप्ततौ योजनशतसहस्र, अत्र अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ रत्नप्रभायां पृथिव्यां चतुःषष्टिः णं रयणप्पभाए पुढवीए चउढेि असुरकुमारावासशतसहस्राणि । असुरकुमारावाससयसहस्सा प्रज्ञप्तानि । तानि भवनानि बहिर्वृत्तानि पण्णत्ता । ते णं भवणा बाहिं वट्टा अन्तश्चतुरस्राणि अधःपुष्करकणिकाअंतो चउरंसा अहे पोक्खर- संस्थान-संस्थितानि उत्कीर्णान्तरकण्णिया-संठाण - संठिया उक्कि- विपुल-गंभीर-खात-परिखाणि अट्टालकण्णंतर-विपुल-गंभीर-खात-फलिया चरिक - द्वारगोपुर - कपाट- तोरणअट्टालय-चरिय-दारगोउर-कवाड- प्रतिद्वार-देशभागानि यन्त्र-मुशलतोरण-पडिदुवार - देसभागा जंत- मुसुण्ढि - शतघ्नी - परिवारितानि मुसल-मुसंढि-सतग्घि- परिवारिया अयोध्यानि अष्टचत्वारिंशद्-कोष्ठकअउज्झा अडयाल - कोट्टय-रइया रचितानि अष्टचत्वारिंशत्कृतअडयाल • कय - वणमाला वनमालानि 'लाउल्लोइय' (उपलेपन लाउल्लोइय - महिया गोसीस- संमार्जन) महितानि गोशीर्ष-सरसरक्तसरसरतचंदण- दद्दर - दिण्णपंचं- चन्दन - दर्दर - दत्तपञ्चागुलितलानि गुलितला कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क- कालागुरु - प्रवर - कुन्दुरुष्क - तुरुष्कतुरुक्क-डभंत - धूव - मघमघेत- दह्यमान-धूप - मघमघायमानगंधुधुयाभिरामा सुगंधि-वरगंध- गन्धोद्धराभिरामाणि सुगन्धि-वरगन्धगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छा सण्हा गन्धिकानि गन्धवतिभूतानि अच्छानि
गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का बाहल्य एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण है। उसमें ऊपर से एक हजार योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से एक हजार योजन का वर्जन कर मध्य के एक लाख अठत्तर हजार योजन रत्नप्रभा पृथ्वी में असुरकुमारों के चौसठ लाख आवास हैं। वे भवन बाहर से वृत्त, भीतर से चतुष्कोण, नीचे से पुष्करकणिका की आकृति वाले हैं। वे भूमि को खोद कर बनाई हुई विपुल और गम्भीर खाई और परिखा से युक्त हैं। उनके देश-भाग में अट्टालक, चरिका, गोपुर-द्वार, कपाट, तोरण और प्रतिद्वार हैं। वे यंत्र, मुशल, मुसुंढी और शतघ्नी से परिपाटित हैं। वे दूसरों के द्वारा अयोध्य (अपराजित) हैं। वे अड़तालीस कोठों से रचित हैं। वे अड़तालीस प्रकार की वनमालाओं (पत्तों की मालाओं) से युक्त हैं। उनका भूमिभाग गोबर से लिपा हुआ और भीतें खडिया से पुती हुई हैं। उन भीतों पर गोशीर्ष और सरस-रक्तचन्दन के पांच अंगुलीयुक्त हस्ततल के सघन छापे लगे हुए हैं। वे कालागुरु, प्रवर कुन्दुरुष्क (धूप विशेष) तथा तुरुष्क (दशांग आदि धूप विशेष) के जलने से निकले हुए धुंए के महकते गन्ध से उत्कट रमणीय हैं। वे सुगन्धी चूर्णो से सुगन्धित गन्धगुटिका
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