Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 382
________________ समवायो ३४६ प्रकोणक समवाय : सू० १५०-१५१ सस्सिरीयरूवा पासाईया सश्रोकरूपाः प्रासादीयाः दर्शनीयाः करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और वरिसणिज्जा अभिरूवा पडिख्वा। अभिरूपाः प्रतिरूपाः । प्रतिरूप हैं। १५०. केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा कियन्तः भदन्त ! पण्णता? प्रज्ञप्ताः ? वैमानिकावासा १५०. भंते ! वैमानिक देवों के आवास कितने हैं ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पुढवीए बहुसमरणिज्जाओ बहुसमरमणीयात् भूमिभागाद् ऊर्ध्व भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय- चन्द्रमः-सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र- तारारूपाणि गहगण - नक्खत्त - तारारूवाणं व्यतिव्रज्य बहूनि योजनानि वोइवइत्ता बहूणि जोयणाणि बहूनि योजनशतानि बहूनि योजनसहबहूणि जोयणसयाणि बहूणि स्राणि बहूनि योजनशतसहस्राणि बहूनि जोयणसहस्साणि बहूणि योजनकोटी: बहूनि योजनकोटिकोटी: जोयणसयसहस्साणि बहओ असंख्येयाः योजनकोटिकोटोः ऊर्ध्व जोयणकोडीओ बहूओ दूरं व्यतिव्रज्य, अत्र वैमानिकानां जोयणकोडाकोडीओ असंखेज्जाओ देवानां सौधर्मशान-सनत्कमार-माहेन्द्रजोयणकोडाकोडोओ उड्ढे दूरं ब्रह्म - लान्तक - शुक्र-सहस्रार- आनतवोइवइत्ता, एत्थ णं वेमाणियाणं प्राणत-आरण-अच्युतेषु ग्रेवयानुत्तरेषु देवाणं सोहम्मीसाण-सणंकुमार- च चतुरशीतिः विमानावासशतसहस्राणि माहिद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार- सप्तनवतिः सहस्राणि त्रयोविंशति: च आणय - पाणय - आरणच्चएसु विमानानि भवन्तीत्याख्यातानि । गेवेज्जमणुत्तरेसु य चउरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खाया। गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र, और तारारूपों (ताराओं) का उल्लंघन कर अनेक योजन, अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक कोटि योजन, अनेक कोटा-कोटि योजन ऊपर दूर जाने पर वैमानिक देवों के सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक के तथा नौ ग्रेवेयक और पांच अनुत्तर विमानों के ८४६७०२३ विमान हैं । तेणं विमाणा अच्चिमालिप्पभा तानि विमानानि अचिर्मालिप्रभाणि भासरासिवण्णाभा अरया नोरया भासराशिवर्णाभानि अरजांसि हिम्मला वितिमिरा विसुद्धा नीरजांसि निर्मलानि वितिमिराणि सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा विशुद्धानि सर्वरत्नमयानि अच्छानि घट्टा मट्ठा णिप्पंका श्लक्ष्णानि लष्टानि घृष्टानि मृष्टानि णिक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया निष्पानि निष्कङ्टच्छायानि सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा सप्रभाणि समरीचीनि सोद्योतानि अभिरूवा पडिरूवा। प्रासादीयानि दर्शनीयानि अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि । वे सूर्य जैसी प्रभा वाले, प्रकाशपुंज" के वर्ण जैसी आभा वाले, अरज, नीरज, निर्मल, अन्धकार रहित, विशुद्ध, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने, घुटे हुये, घिसे हुए, प्रमाजित, निष्पङ्क, निरावरण दीप्ति वाले, प्रभायुक्त, किरणों से युक्त, उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप १५१. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया सौधम भदन्त ! कल्पे कियन्त: १५१. भंते ! सौधर्म देवलोक में कितने विमाणावासा पण्णत्ता ? विमानावासाः प्रज्ञप्ताः ? विमानावास हैं ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावास- गौतम ! द्वात्रिंशद् विमानावासशत- गौतम ! इसमें बत्तीस लाख सयसहस्सा पण्णत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । विमानावास हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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