Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 377
________________ ३४४ समवायो प्रकोणक समवाय : सू० १४०-१४२ जयंत-अपराजित-सव्वसिद्धिया। अपराजित-सर्वार्थसिद्धिकाः। तदेते जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिक । सेत्तं अणुत्तरोववाइआ। अनुत्तरोपपातिकाः । सोऽसौ ये अनुत्तरोपपातिक देव हैं। यह सेतं पंचिदियसंसारसमावण्ण- पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवराशिः। पंचेन्द्रिय-संसार-समापन्न-जीवराशि है। जीवरासी। पज्जत्तापज्जत्त-पदं पर्याप्त-अपर्याप्त-पदम् पर्याप्त-अपर्याप्त-पद १४०. दुविहा रइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः नैरयिकाः प्राप्ताः, तद्यथा- १४०. नैरयिक दो प्रकार के हैं, जैसे जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। पर्याप्ताश्च अपर्याप्ताश्च । एवं दण्डक: पर्याप्त और अपर्याप्त । इसी प्रकार एवं दडओ भाणियव्वा जाव भणितव्यः यावत वैमानिक इति । शेष वैमानिक तक के दंडकों के लिए वेमाणियत्ति। यही वक्तव्यता है। आवास-पदं अवास-पदम् आवास-पद १४१. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां कियत १४१. इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने नरका केवइयं ओगाहेत्ता केवइया अवगाह्य कियन्तो निरयाः प्रज्ञप्ताः। वास हैं और कितने क्षेत्र का अवगाहन णिरया पण्णत्ता? करने पर वे प्राप्त होते हैं ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां । गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का बाहल्य पढवीए असोउत्तरजोयणसय- अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण सहस्सबाहल्लाए उरि एगं उपरि एक योजनसहस्रं अवगाह्य । है। उसमें ऊपर से एक हजार योजन जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं अधश्चैक योजनसहस्र वर्जयित्वा मध्ये । का अवगाहन कर तथा नीचे से एक जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अष्टसप्ततौ योजनशतसहस्रे, अत्र हजार योजन का वर्जन कर, मध्य के अट्रहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ रत्नप्रभायाः पृथिव्याः नेरयिकाणां एक लाख अठत्तर हजार योजन प्रमाण णं रयणप्पभाए पुढवीए रइयाणं विशद निरयावासशतसहस्राणि रत्नप्रभा पृथ्वी में नैरयिकों के तीस तीसं गिरयावाससयसहस्सा भवन्तीति व्याख्यातम। ते नरका लाख नरकावास हैं, ऐसा मैंने कहा है। भवंतीति मक्खायं । ते णं णरया अन्तर्वत्ताः बहिश्चतुरस्राः अधःक्षुरप्र वे नरकाबास अन्तर में वृत्त, बाहिर में अंतो वा बाहि चउरंसा अहे संस्थान संस्थिताः नित्यान्धकारतमसाः चतुष्कोण और नीचे खुरपे की आकृति खुरप्प-संठाण-संठिया णिच्चंधया- व्यपगतग्रह - चन्द्र - सूर - नक्षत्र वाले हैं। वे निरन्तर अन्धकार से रतमसा ववगयगह - चंद - सूर- ज्यौतिषपथाः मेद-वसा-पूय-रुधिर-मांस तमोमय, ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र और णक्खत्त-जोइसपहा मेद-बसा-पूय- चिक्खिल्ल-लिप्तानुलेपनतलाः अशुचयः ज्योतिष की प्रभा से शून्य, मेद-चर्बीहर ' मताचाखल्लालताणु विस्राः परमदूरभिगन्धाः कापोतअग्नि रस्सी, लोही और मांस के कीचड़ से लेवणतला असुई वीसा वर्णाभाः कर्कशस्पर्शाः दुरविसह्याः पंकिल तल वाले, अशुचि, अपक्वगंध परमभिगंधा काऊअगाण- अशुभाः निरयाः अशुभाः नरकेषु से युक्त, उत्कृष्ट दुर्गन्ध वाले, कापोत वजाभा कक्खडफासा वेदनाः । (कृष्ण) अग्निवर्ण की आभा वाले, दुरहियासा असुभा णिरया कर्कशस्पर्श से युक्त और असह्य वेदना असुभाओ णरएसु वेयणाओ। वाले हैं। वे नरकावास अशुभ हैं और उनमें अशुभ वेदनाएं हैं। १४२. एवं सत्तवि भाणियवाओ जं जासु एवं सप्तापि भणितव्याः, यत् यासु १४२. इसी प्रकार सातों नरकों के विषय में जहां जो घटित हो वैसा कहना चाहिए। युज्यते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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