Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 357
________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : सू० ६५ ३२४ भतपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाइं प्रायोपगमनानि देवलोकगमनानि देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाई सुकुलप्रत्याजातिः पुनर्बोधिलाभः पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ अन्तक्रियाश्च आख्यायन्ते । य आघविज्जति। प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। उवासगदसासु णं उवासयाणं उपासकदशासु उपासकानां ऋद्धिरिद्धिविसेसा परिसा वित्थर- विशेषाः परिषद् विस्तरधर्मश्रवणानि धम्म-सवणाणि बोहिलाभ- बोधिलाभ-अभिगम - सम्यक्त्वविशुद्धता अभिगम-सम्मत्तविसुद्धया थिरत्तं स्थिरत्वं मूलगुण-उत्तरगुणातिचाराः मूलगुण - उत्तरगुणाइयारा स्थितिविशेषाश्च बहुविशेषाः ठिइविसेसा य बहुविसेसा प्रतिमाभिग्रह-ग्रहण-पालनानि उपसर्गापडिमाभिग्गहगहण - पालणा ध्यासनानि निरुपसर्गाश्च, तपांसि च उवसग्गाहियासणा णिरुवसग्गा विचित्राणि शीलव्रत-विरमणय, तवा य विचित्ता, सोलव्वय- गुण-प्रत्याख्यान - पौषधोपवासाः, वेरमण - गुण - पच्चक्खाण- अपश्चिममारणान्तिकात्मसंलेखना - पोसहोववासा, अपच्छिममार- जोषणाभिः आत्मानं यथा च । णंतियायसंलेहणा - झोसणाहिं भावयित्वा, बहूनि भक्तानि अनशनतया अप्पाणं जह य भावइत्ता, बहूणि च छेदयित्वा, उपपन्नाः भत्ताणि अणसणाए य छेयइत्ता कल्पवरविमानोतमेषु यथा अनुभवन्ति उववण्णा कप्पवर विमाणुत्तमेसु सूरवरविमानवरपुण्डरीकेषु सौख्यानि । जह अणुभवंति सुरवरविमाण , अनुपमानि क्रमेण भुक्त्वा उत्तमानि, वरपोंडरीएसु सोक्खाई ततः आयुःक्षयेण च्युताः सन्त: यथा अणोवमाइं कमेण भोत्तूण जिनमते बोधि लब्ध्वा च संयमोत्तम, उत्तमाई, तओ आउक्खएणं चुया समाज तमोरजओघविप्रमुक्ताः उपयान्ति यथा लण य संजमुत्तमं, अक्षयं सर्वदुःखमोक्षम् । तमरयोघविप्पमुक्का उति जह अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं । इसमें उपासकों के ऋद्धि-विशेष, परिषद्”, विस्तार से धर्म-श्रवण, बोधि-लाभ, अभिगम, सम्यक्त्व-विशुद्धि, स्थैर्य, मूलगुणों और उत्तरगुणों के अतिचार, स्थिति-विशेष (उपासकपर्याय का कालमान), अनेक प्रकार की प्रतिमाओं और अभिग्रहों का ग्रहण और पालन, उपसर्गों का सहन, निरुपसर्गता, विचित्र तप, शीलवत, विरमण, गुणवत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास, अपश्चिम-मारणान्तिक आत्मसंलेखना के आसेवन से आत्मा को जिस प्रकार भावित करते हैं तथा अनेक भक्तों (भोजन समयों) का अनशन के रूप में छेदन कर उत्तम कल्प देवलोक के विमानों में उत्पन्न होकर जिस प्रकार वरपुंडरीक तुल्य सुरवर विमानो में अनुपम सुखों का अनुभव करते हैं तथा उन उत्तम सुखों को क्रमश: भोग कर, आयु क्षीण होने पर वहां से च्युत होकर जिस प्रकार जिनमत में बोधि और उत्तम संयम को प्राप्त करते हैं तथा तम और रज के प्रवाह से विप्रमुक्त होकर जिस प्रकार अक्षय और सब दुःखों से मुक्ति देने वाले निर्वाण को प्राप्त करते हैं-उसका आख्यान किया गया है। एते अण्णे य एवमाइअत्था एते अन्ये च एवमादयोऽर्थाः विस्तरेण वित्थरेण य। ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं। च। उवासगदसासु णं परित्ता वायणा उपासकदशासु परीता: वाचनाः । संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः । पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा प्रतिपत्तयः संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः सिलोगा संखेज्जाओ निज्जत्तीओ श्लोकाः संख्येयाः नियू संखेज्जाओ संगहणीओ। संग्रहण्यः । उपासकदशा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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