Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 356
________________ समवाश्रो दस धम्मकहाणं वग्गा । तत्थ णं एगमेगा धम्मकहाए पंच-पंच अक्खाइयासया । एगमेगाए अक्खाइयाए पंच-पंच sarasयासया । एगमेगाए वक्वाइयाए पंच-पंच अक्खाइयवक्वाइयसयाई एवामेव सवावरेणं पञ्च पञ्च आख्यायिका - उपाख्यायिकाशतानि - अट्ठाओ एवमेव सपूर्वापरेण भवतीति आख्यायिकाकोटयः एगुणतीसं आख्याताः । एकोनत्रिंशत् उद्देशनकाला: एगूणतोस एकोनत्रिंशत् समुद्देशनकाला: संख्येयानि संखेज्जाई पदशतसहस्राणि पदाग्रेण संख्येयानि सहस्साई पयगोणं, अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ताः संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा पर्यवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः स्थावराः अनंता पज्जवा परिता तसा शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिता: अनंता थावरा सासया कडा जिनप्रज्ञप्ताः भावा: आख्यायन्ते निबद्धाणिकाइया जिष्णपण्णत्ता प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दश्यन्ते निदर्यन्ते भावा आधविज्जति पण्णविज्जंति उपदर्श्यन्ते । परुविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । tears कोडोओ मक्खायाओ । उद्देणकाला समुद्देणकाला ३२३ दश धर्मकथानां वर्गाः । तत्र एकैकस्यां धर्मकथायां पञ्च पञ्च एकैकस्यां पञ्च पञ्च एकैकस्यां ६५. से किं तं उवासगदसाओ ? आख्यायिकाशतानि । आख्यायिकायां Jain Education International उपाख्यायिकाशतानि । उपाख्यायिकायां से एवं आया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चरण-करण अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता एवं चरण-करण - प्ररूपणा आख्यायते आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते परूविज्जति उपदर्श्यते । तदेताः ज्ञात-धर्मकथा: । दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं णायाधम्मकहाओ । परूवणया पण विज्जति अर्द्धचतुर्थ्यः भवन्तीति उवासगदसासु णं उवासयाणं नगराई उज्जाणाई चेइआई वणसंडाई रायाणो अम्मापियरो अथ कास्ता उपासकदशा: ? उपासकदशासु उपासकानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि वनपण्डानि राजानः अम्बापितरौ समवसरणानि समोसरणाइं धम्मायरिया धर्माचार्याः धर्मकथा: ऐहलौकिकधम्म कहाओ इहलोइय-परलोइया पारलौकिका : ऋद्धिविशेषाः, उपासकानां च शीलव्रत-विरमण-गुणप्रत्याख्यान - पौषधोपवासप्रतिपादनानि श्रुतपरिग्रहाः तपउपधानानि प्रतिमाः उपसर्गाः संलेखना: भक्तप्रत्याख्यानानि विसेस, उवासयाणं च सीलव्वय- वेरमण-गुण- पच्चक्खाणपोसहोववास पडिवज्जणयाओ सुपरिग्गहा तोवहाणाई पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ For Private & Personal Use Only प्रकीर्णक समवाय: सू० ६५ धर्मकथा के दस वर्ग हैं। प्रत्येक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायि काएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में पांचपांच सौ उप-आख्यायिकाएं है। प्रत्येक उप-आख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिक उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार कुल मिला कर इसनें साढ़े तीन करोड आख्यायिकाएं हैं ऐसा कहा है"। इसमें उनतीस उद्देशन - काल, उनतीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय पदसहस्र ( पांच लाख छिहत्तर हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं । इसमें परिमित स जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा' - ज्ञात-धर्मकथामय, एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार ज्ञात-धर्मकथा में चरण करण- प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है ज्ञातधर्मकथा | ६५. उपासकदशा क्या है ? उपासकदशा में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धिविशेष, उनके शीलव्रत ( अणुव्रत ), विरमण ( राग आदि की विरति ), गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास का स्वीकरण, श्रुत-ग्रहण, तप उपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्त www.jainelibrary.org

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