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प्रकीर्णक समवाय : सू० ६६ दारुण दुःखों का आख्यान किया गया
समवानो
३३२ अणोवमाणि बहुविविहपरंपराणु- अनुपमानि बहुविधिपरम्परानुबद्धाः न बद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए। मुच्यन्ते पापकर्मवल्ल्या। अवेदयित्वा अवेयइत्ता हु त्थि मोक्खो नास्ति मोक्षः तपसा धृति-धणिय तवेण धिइ-धणिय-बद्ध-कच्छेण (अत्यर्थ)-बद्ध-कक्षेण शोधनं तस्य सोहणं तस्स वावि होज्जा। वापि भवेत् ।
दुखों की बहुत विविध परंपरा से अनुबद्ध जीव पाप कर्मरूपी वल्ली से मुक्त नहीं होते। कर्मों का वेदन किये बिना उनसे छुटकारा नहीं होता अथवा प्रबल धृतिबल से कटिबद्ध तप के द्वारा उसका शोधन भी हो सकता है।
एत्तो य सुहविवागेसु सील-संजम- इतश्च सुखविपाकेषु शोल-संयम-नियमणियम-गुण - तवोवहाणेसु साहुसु गुण-तप उपधानेषु साधुषु सुविहितेषु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पओग- अनुकम्पा।शयप्रयोग - त्रिकालतिकाल - मइविसुद्ध - भत्तपाणाई मतिविशुद्धभक्तपानानि प्रयतमनसा पयतमणसा हिय-सुह-नोसेस- हित - सुख - निःश्रेयस- तीव्रपरिणामतिव्वपरिणाम - निच्छियमई निश्चितमतयः प्रदाय प्रयोगशुद्धानि पयच्छिऊणं पओगसुद्धाइं जह य यथा च निवर्त्तयन्ति तु बोधिलाभं, निव्वत्तेति उ बोहिलाभ, जह य यथा च परीतीकुर्वन्ति नर-निरयपरित्तीकरेंति नर-निरय-तिरिय- तिर्यक्-सुरगति - गमन - विपुलपरिवर्तसुरगतिगमण - विपुलपरियट्ट- अरतिभय - विषाद - शोक - मिथ्यात्वअरति - भय - विसाय . शैलसङ्कटं अज्ञानतमोऽन्धकारसोक - मिच्छत्त . सेलसंकडं 'चिक्खिल्ल' सुदुस्तरं जरा-मरण-योनि अण्णाणतमंधकार - चिक्खिल्ल- संक्षुब्ध-चक्रवालं षोडश कषाय-श्वापदसुदुत्तारं जर-मरण-जोणि- प्रकाण्ड-चण्डं अनादिकं अनवदग्रं संखुभियचक्कवालं सोलसकसाय- संसारसागरमिमं, यथा च निबध्नन्ति सावय-पयंड-चंडं अणाइयं आयुष्कं सुरगणेषु, यथा च अनुभवन्ति अणवदग्गं संसारसागरमिणं, जह सुरगणविमानसौख्यानि अनुपमानि, य निबंधंति आउगं सुरगणेसु, जह ततश्च कालान्तरच्युतानां इहैव य अणुभवंति सुरगणविमाण- नरलोकमागतानां आयुर्वपु-वर्ण-रूपसोक्खाणि अणोवमाणि, ततो य जाति-कुल - जन्म-आरोग्य- बुद्धि-मेधाकालंतरच्चुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ-वउ-वण्णरूव-जाति-कुल - जम्म - आरोग्गबुद्धि-महा-विसेसा मित्तजण-सयण
सुखविवाक में शील, संयम, नियम, गुण और तप-उपधान को धारण करने वाले सुविहित साधुओं को अत्यन्त आदर वाले, हितकारक, सुखकारक और कल्याणकारक तीव्र अध्यवसाय तथा निश्चित मति वाले व्यक्ति अनुकम्पा के आशय-प्रयोग से तथा दान देने की त्रैकालिक मति से विशुद्ध तथा प्रयोग-शुद्ध (दाता, दानव्यापार की अपेक्षा से शुद्ध) भक्त-पान दे कर जिस प्रकार बोधि को प्राप्त करते हैं, उसका आख्यान किया गया है। इसमें नर, नारक, तिर्यञ्च और देवगति में गमन करने के लिए विपुल आवर्त वाले, अरति, भय, विषाद, शोक और मिथ्यात्वरूपी पर्वतों से संकुल, अज्ञानरूपी अंधकार से परिपूर्ण, दुःख से पार किए जाने वाले कीचड़ से युक्त, जरा-मरण और जन्म से संक्षुब्ध चक्रवाल से युक्त, सोलह कषाय रूपी अत्यन्त रौद्र श्वापदों से युक्त अनादि-अनन्त संसार सागर को जिस प्रकार परिमित करते हैं-उसका आख्यान किया गया।
जिस प्रकार देवलोक में जाने के लिए वे आयुष्य का बंध करते हैं, जिस प्रकार देव-विमानों के अनुपम सुखों का अनुभव करते हैं, वहां से कालान्तर में च्युत हो इसी मनुष्य लोक में आकर विशिष्ट प्रकार के आयुष्य, शरीर, वर्ण, रूप, जाति, कुल, जन्म, आरोग्य, बुद्धि और मेधा को प्राप्त करते हैं तथा
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