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समवानो
समवाय १४ : टिप्पण
जीवस्थान की अर्थ-मीमांसा १. मिथ्यादष्टि जीवस्थान :
जिसकी दृष्टि मिथ्या-विपरीत होती है उसे मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। इस जीवस्थान में दर्शनमोह का उदय प्रधान है, उसका क्षयोपशम अन्य जीवस्थानों की अपेक्षा न्यूनतम होता है। २. सास्वादन सम्यग्दृष्टि :
जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है, किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, उसे सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। प्राकृत में 'सासायण' शब्द है। उसके संस्कृत रूप दो मिलते है-(१) सास्वादन और (२) सासादन । औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो जाने वाले मिथ्यात्वाभिमुख जीव के सम्यक्त्व का आंशिक आस्वादन शेष रहता है। इस अर्थ की दृष्टि से प्रस्तुत जीवस्थान को सास्वादन कहा गया है ।'
औपशमिक सम्यक्त्व से च्यूत होने वाला जीव सम्यक्त्व का आसादन करता है। इसलिए उसे सासादन कहा जाता
३. सम्यग-मिथ्यावृष्टि:
जिसकी दृष्टि मिथ्या और सम्यक्-दोनों परिणामों से मिश्रित होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।
औपशमिक सम्यक्त्व में वर्तमान जीव मिथ्यामोहनीय के परमाणुओं का शोधन कर, उन्हें तीन पुञ्जों में वर्गीकृत करता है-(१) शुद्ध, (२) अर्द्धशुद्ध और (३) अशुद्ध । शुद्ध पुञ्ज में सम्यक्त्व-घातक शक्ति नहीं होती। अर्द्धशुद्ध पुञ्ज में सम्यक् और असम्यक्-दोनों परिणामों का मिश्रण होता है । अशुद्ध पुञ्ज में सम्यक्त्व-घातक शक्ति होती है।
औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जीव सम्यकदृष्टि बन जाता है—चतुर्थ जीवस्थान का अधिकारी हो जाता है। किन्तु उसकी स्थिति अन्तर्महुर्त की होती है। उसके समाप्त होने पर जीव का जैसा परिणाम रहता है वैसा पुञ्ज उदय में आ जाता है और उसके अनुसार ही वह क्षायोपशमिक सम्यक्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
औपशमिक सम्यक्त्व प्रशान्त और आनन्दपूर्ण स्थिति है। उसके अन्तिम (षडावलिका के शेष) समय में परिणामों की प्रशान्तता भंग होने पर जीव अशुद्ध पुञ्ज की ओर झुक जाता है। उसे प्रशान्त स्थिति से अशान्त स्थिति तक पहुंचने में स्वल्प-सा समय लगता है। उस अवधि में सासादन सम्यगदृष्टि की परिणामधारा रहती है।
जीव की परिणाम धारा की प्रक्रिया का अध्ययन करने पर निम्न निष्कर्ष प्राप्त होता है :
प्रथम जीवस्थान आत्म-विकास की न्यूनतम भूमिका है, इसलिए उसमें साधारणतया सभी जीव रहते हैं और उसकी अवधि बहुत लम्बी है।
जीव विकासोन्मुखी होकर प्रथम भूमिका से सीधा चतुर्थ भूमिका में जाता है। उस भूमिका में यदि दर्शनमोह क्षीण हो जाता है तो जीव फिर अपक्रमण नहीं करता और यदि वह उपशान्त या क्षय-उपशम की अवस्था में होता है तब उसके लिए उत्क्रमण और अपक्रमण-दोनों की संभावना रहती है। यदि क्षयोपशम की अवस्था से जीव अपक्रमण करता है तो वह चतुर्थ भूमिका से प्रथम भूमिका में चला जाता है । यदि वह उपशान्त स्थिति से अपक्रमण करता है, तो वह अन्तिम काल में दूसरी भूमिका का अनुभव करता है और उसकी अवधि पूर्ण होने पर वह तृतीय या प्रथम भूमिका में चला जाता है। वह प्रशान्त स्थिति से चलित होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व की अवस्था में चला जाता है, तो चतुर्थ भूमिका में ही रह जाता है।
१. समवायांगवृत्ति, पत्र, २६: महेषत्तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन बत्तते इति सास्वादनः, घण्टालालान्यायेन प्राय: परित्यक्तसम्यक्त्व: तदुत्तरकालं षडावलिकः, तया चोक्तम्
"उवसमसमत्ताक्षो चयनो मिच्छं अपाबमाणस्स । सासायणसंमत्तं तदंतरालंमि छावलियं ॥ १॥ इति, सास्वादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेति विग्रहः । २. षट्खंडागम, धवलावृत्ति, प्रथम खंड, पृ० १६३ : भासादनं सम्यक्त्वविराधनम्, सह पासादनेन वर्तत इति सादादनो विनाशितसम्यग्दर्शनोप्राप्तमिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्वाभिमुख सासादन इति भण्यते।
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