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टिप्पण
१. देवताओं के पुरोहित रहित हैं (चउवीस 'अपुरोहिआ)
दस भवनपति के, आठ व्यन्तर के, पांच ज्योतिष्क के और एक वैमानिक के—ये चौबीस इन्द्र होते हैं। वेयक और अनुत्तर विमानों के इन्द्र नहीं होते। सब देव 'अहमिन्द्र' होते हैं।' २. उत्तरायण में आ जाता है (उत्तरायणगते “णिअट्टति)
कर्क संक्रान्ति के दिन जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डल में प्रविष्ट होता है, तब पहर की छाया चौबीस अंगुल प्रमाण की होती है । तदनन्तर सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल से दूसरे मंडल में चला जाता है। ३. प्रवाह (पवहे) :
जहां से नदी प्रवृत्त होती है, उस स्थान का नाम 'प्रवाह' है । वृत्तिकार का अभिमत है कि यहां इन दोनों नदियों का प्रवाह 'पद्महद' के तोरण से प्रारम्भ होता है । समवायांग (२५/७) में प्रपात का विस्तार पचीस योजन बतलाया गया है, वह यहां विवक्षित नहीं है।'
रक्ता और रक्तवती (रत्तारत्तवतीओ) ये दोनों महानदियां जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधर पर्वत के पुण्डरीक महाद्रह से प्रवाहित होती
इनके विषय की विशेष जानकारी देने वाले अनेक आलापक स्थानांग सूत्र में हैं।
१. समवायांगवृत्ति, पत्र ४१ : चतुर्विशतिर्देवस्थानानि-देवभेदाः, दश भवनपतीना, अष्टौ व्यन्तराण, पञ्च ज्योतिकाना, एक कल्पोपपन्नवैमानिकाना, एवं चतुर्विशतिः, सेन्द्राणि चमरेन्द्राद्याधिष्ठितानि शेषाणि च ग्रेवेयकानुत्तरसुरलक्षणानि महं अहं इत्येवमिन्द्रा येषु तान्यहमिन्द्राणि, प्रत्यात्मेन्द्रकाणीत्यर्थः अत एव अनिन्द्राणि
प्रविद्यमाननायकानि अपुरोहितानि-प्रविद्यमानशान्तिकर्मकारोणि, उपलक्षणपरत्वादस्याविद्यमानसेवकजनानीति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ४१,४२। ३. वही, पन ४२। ४. ठाणं ३/४५८ । ५. ठाणं ५/२३३ ६/६०; ७/५२, ५६ ८/५६, ८२,५४; १०/२६ मादि।
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