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समवायो
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समवाय ३०: सू० १
७. गूढायारी निगृहेज्जा,
मायं मायाए छायए। असच्चवाई णिण्हाई,
महामोहं पकुब्वइ॥
गूढाचारी निगृहेत,
मायां मायया छादयेत् । असत्यवादी निह्नवी,
महामोहं प्रकरोति ।।
७. जो व्यक्ति गोपनीय आचरण कर उसे छिपाता है, माया से माया को ढांकता है, असत्यवादी है, यथार्थ का अपलाप करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
८. धंसेइ जो अभूएणं,
अकम्मं अत्तकम्मुणा। अदवा तम कासित्ति,
महामोहं पकुव्वइ॥
अदुवा तुम
ध्वंसयति योऽभूतेन,
अकर्म आत्मकर्मणा । अथवा त्वमकार्षीरिति. महामोह
प्रकरोति ।।
८. जो व्यक्ति अपने दुराचरित कर्म का दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर आरोप करता है, अथवा किसी एक व्यक्ति के दोष का किसी दूसरे व्यक्ति पर-'तुमने यह कार्य किया था-ऐसा आरोपण करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
भाषते ।
8. जाणमाणो परिसओ,
सच्चामोसाणि भासइ। अज्झीणझझे पुरिसे,
महामोहं पकुव्वइ॥
जानानः परिषदः,
सत्या-मृषा अक्षीणझञ्झः पुरुषः,
महामोहं
६. जो व्यक्ति यथार्थ को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र (सत्य और मृषा) भाषा बोलता है और जो निरन्तर कलह करते रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
प्रकरोति ।।
१०. अणायगस्स नयवं,
दारे तस्सेव धंसिया। विउलं विक्खोभइत्ताणं,
किच्चा णं पडिबाहिरं॥
अनायकस्य नयवान्,
दारान् तस्यैव ध्वंसयित्वा । विपूलं विक्षोभ्य,
कृत्वा प्रतिबाह्यम ।।
११. उवगसंतंपि झंपित्ता,
पडिलोमाहि वहिं। भोगभोगे वियारेई, महामोहं पकुव्वइ॥
(युग्मम्)
उपकसन्तमपि झम्पयित्वा,
प्रतिलोमाभिर्वाग्भिः भोगभोगान् विदारयति,
महामोहं प्रकरोति ।।
१०. ११. जो अमात्य शासन-तंत्र में भेद डालने की प्रवृत्ति से अपने राजा को संक्षुब्ध और अधिकार से वंचित कर उसकी अर्थ-व्यवस्था (या अन्त:पुर) का ध्वंस कर देता है और जब वह अधिकार-मुक्त राजा अपेक्षा लिए सामने आता है तब प्रतिलोम वाणी द्वारा उसकी भर्त्सना करता है। इस प्रकार अपने स्वामी के विशिष्ट भोगों को विदीर्ण करने वाला महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
१२. अकुमारभूए जे केई,
कुमारभूएत्तहं वए। इत्थीहिँ गिद्धे वसए,
महामोहं पकुव्वइ ॥
अकुमारभूतो यः कश्चित्,
__ कुमारभूत इत्यहं वदेत् । स्त्रीभिर्ग द्धा वसति,
महामोहं प्रकरोति ।।
१२. जो व्यक्ति अकुमार-ब्रह्मचारी होते हुए भी अपने को कुमारब्रह्मचारी (बाल ब्रह्मचारी) कहता है तथा दूसरी ओर स्त्रियों में आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
१३. अबंभयारी जे केई.
बंभयारीत्तहं वए। गाभेव्व गवां मझे,
विस्सरं नयई नदं॥
वदेत् ।
अब्रह्मचारी यः कश्चिद,
ब्रह्मचारोत्यह गर्दभ इव गवां मध्ये,
विस्वर नदति
१३. १४. जो व्यक्ति अब्रह्मचारी होते हए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहता है, वह गायों के समूह में गधे की भांति रेंकता है, विस्वर नाद करता है । वह
नदम् ।।
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