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समवाश्रौ
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२. सतहत्तर हजार देवों (सत्ततर देव सहस्सा )
स्थानांग में गर्दतोय के सात देव और उसके परिवार के देव सात हजार तथा तुषित के सात देव और उसके परिवार के देव सात हजार बतलाए हैं।' प्रस्तुत सूत्र से यह भिन्न है। संभव है यह वाचना-भेद हो ।
स्थानांग के आधार पर यह कल्पना भी की जा सकती है कि सूत्रकार ने सात और सात हजार की संख्या का सूचन 'सत्तसत्तरि" सहस्स..' इन शब्दों के द्वारा की हो और दो अकों (७७) की समानता के कारण प्रस्तुत समवाय में उसका समावेश किया हो ।
दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि प्रस्तुत सूत्र का पाठ 'सत्त सत्त देव सहस्सा परिवारा' रहा हो और लिपिकाल में उसका परिवर्तन हो जाने के कारण उसका स्थान सातवें समवाय की अपेक्षा सतहत्तरवें समवाय में कर दिया गया हो । वृत्तिकार ने गर्दतोय और तुषित — दोनों के संयुक्त परिवार की संख्या सतहत्तर हजार बतलाई है ।'
३. लव (लवे)
हृष्ट, नीरोग और निरुपक्लेश प्राणियों के श्वासोच्छ्वास को 'प्राण' कहा जाता है। ऐसे सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त्त होता है। दूसरे शब्दों में ३७७३ प्राणों का एक मुहूर्त्त होता है ।'
१. ठाणं, ७/१०१।
२. समवायांगवृत्ति, पन ८०
गतोयानां तुषितानां च देवानामुभयपरिवार संख्यामीलनेन सप्तसप्ततिर्देवसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तानीति ।
३. वही, पन ८०
हस धनव गल्लस, निरुव किटुस्स जंतुणो ।
एगे ऊसासनीसासे, एस पात्ति बुच्चई ।। १ ।। सत्त पाणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लेवे । लवाणं सतत किए एस मुहुते विमाहिए ।। २ ।।
समवाय ७७ : टिप्पण
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