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समवायो
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समवाय ८४ : टिप्पण
जीवों के उत्पत्ति-स्थान असंख्य हैं किन्तु समान वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान वाले स्थानों को एक मान कर उन्हें चौरासी लाख कहा गया है। ६. शीर्षप्रहेलिका स्वस्थान स्थानान्तर (सोसपहेलिया सट्ठाणट्ठाणंतराणं)
जैन गणित के अनुसार संख्या के अट्ठाईस स्थान हैं-पूर्वाङ्ग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हुहूकांग, हुहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। - चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है । इसको चौरासी लाख से गुणन करने से एक पूर्व की संख्या प्राप्त होती है। इसी प्रकार पूर्व की संख्या को पुन: चौरासी लाख से गुणन करने पर एक त्रुटितांग की संख्या प्राप्त होती है । इसी क्रम से शीर्षप्रहेलिका की संख्या प्राप्त होती है। इसके १९४ अंक होते हैं। यह सबसे बड़ी संख्या है। इसके बाद संख्यात, असंख्यात और अनन्त—इन तीन शब्दों से संख्या को व्यवहृत किया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में स्वस्थान का अर्थ 'पूर्व पद'
और स्थानान्तर का अर्थ 'उत्तर पद' है। ७. वैमानिकों के "विमान (विमाणावास "विमाणा)
विमानों की संख्या का विवरण इस प्रकार हैदेवलोक विमान संख्या
देवलोक
विमान संख्या सौधर्म ३२ लाख सहस्रार
६ हजार २८ लाख
आनत-प्राणत सनत्कुमार १२ लाख
आरण-अच्युत
३ सौ माहेन्द्र ८ लाख
नीचे के तीन प्रैवेयक १ सौ ११ ब्रह्मलोक ४ लाख
मध्य के तीन अवेयक १ सौ ७ लान्तक ५० हजार
ऊपर के तीन ग्रैवेयक १ सौ शुक्र
अनुत्तर
ईशान
४ सौ
४० हजार
कुल योग ८४६७०२३
१. देखें-स्थानांग, २/३८७ का टिप्पण, पृष्ठ १४०.१४२ ।
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