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समवायो
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समवाय १४ : टिप्पण
जो चौदह गुणस्थान निर्दिष्ट हैं, उन्हें प्रस्तुत समवाय में चौदह जीवस्थान कहा गया है। इस प्रकार प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों में संज्ञा-भेद प्राप्त होता है।
गोम्मटसार में गुणस्थानों के साथ भावों की योजना निम्न प्रकार मिलती है:
गुणस्थान
भाव
१. मिथ्याष्टि
औदयिक २. सास्वादन
पारिणामिक ३. सम्यगमिथ्यादृष्टि
क्षायोपशमिक ४. अविरतसम्यग्दृष्टि
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक ५. विरताविरत
क्षायोपशमिक ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. निवृत्तिबादर
उपशम श्रेणी हो तो औपशमिक, क्षपक श्रेणी हो तो क्षायिक । ६. अनिवृत्तिबादर १०. सूक्ष्मसंपराय ११. उपशान्तमोह
औपशमिक १२. क्षीणमोह
सायिक १३. सयोगीकेवली १४. अयोगीकेवली
उक्त विवरण के अनुसार प्रथम गुणस्थान औदयिक-भाव है, किन्तु प्रस्तुत सूत्र में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्म-विशुद्धि बतलाया गया है-'कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पन्नत्ता ....।' इससे प्रथम गुणस्थान औदयिक-भाव प्रमाणित नहीं होता, किन्तु वह क्षायोपशमिक-भाव है। नेमिचन्द्र सूरि ने प्रथम चार गुणस्थानों को दर्शनमोह के उदय आदि से तथा अग्रिम गुणस्थानों को चारित्रमोह के क्षयोपशम आदि से निष्पन्न माना है। २ ।
अभयदेव सूरि ने प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में गुणस्थानों को ज्ञानावरण आदि कर्मों की विशुद्धि से निष्पन्न बतलाया है।'
यद्यपि गुणस्थानों में ज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम आदि होते हैं, किन्तु उनकी रचना का मौलिक आधार दर्शनमोह और चारित्रमोह के क्षयोपशम आदि ही प्रतीत होते हैं। प्रथम गुणस्थान का अधिकारी व्यक्ति मिथ्याष्टि होता है । उसके दर्शनमोह का उदय होता है। इस नय की मुख्यता से अनेक आचार्यों ने प्रथम गुणस्थान को औदयिक-भाव माना है। उक्त गुणस्थान में दर्शनमोह का उदय होने पर भी उसके दर्शनमोह का आंशिक क्षयोपशम भी होता है। इस क्षयोपशम के नय से प्रस्तुत सूत्र में प्रथम गुणस्थान को विशुद्धिजनित-क्षायोपशमिक-भाव माना गया है। इस प्रकार नय-दृष्टि से विचार करने पर दोनों में विरोध प्रतीत नहीं होता, किन्तु मुख्यता और गौणता का अन्तर प्रतीत होता है।
चौदह जीवस्थानों में चतुर्थ से क्रमिक ऊर्ध्वारोहण होता है। द्वितीय में अपक्रमण होता है। प्रथम और तृतीय अध्यात्म-विकास के न्यूनतम स्थान हैं। योगविद् जैन आचार्यों ने चौथे से बारहवें जीवस्थान की तुलना संप्रज्ञातयोग और तेरहवें-चौदहवें जीवस्थान की तुलना असंप्रज्ञातयोग से की है।'
योगवाशिष्ठ में चौदह भूमिकाओं का वर्णन है। उनमें सात भूमिकाएं अज्ञान' की और सात ज्ञान की' की हैं। संख्या की दृष्टि से इनकी जीवस्थानों से समता है, किन्तु क्रमिक विकास की दृष्टि से इनमें साम्य नहीं है।
१.गोम्मटसार, गा०११-१४॥ २. वही, गा० १२, १३ ॥ ३. समवायांगवृत्ति, पन्न ३६
कमविशोधिमार्गणां प्रतीत्य-ज्ञानावरणादिकर्मविशद्धिगवेषणामाथित्य. ४. योगावतारद्वात्रिशिका, १५,२१।। ५ योगवाशिष्ठ, उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११७, श्लो० २-२४ । ६. वही, सगं ११८, श्लो० ५-१५ ।
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