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समवानो
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समवाय १६ : सू० १३-१६
१३. जे देवा आवत्तं वियावत्तं ये देवा आवर्त व्यावतं नन्द्यावतं १३. आवर्त, व्यावत, नन्द्यावर्त्त, महा
नंदियावत्तं महाणंदियावत्तं अंकुसं महानन्द्यावतं अंकुशं अंकुश-प्रलम्बं भद्रं नंद्यावर्त्त, अंकुश, अंकुशप्रलंब, भद्र, अंकुसपलंबं भई सुभदं महाभई सुभद्रं महाभद्रं सर्वतोभद्रं भद्रोत्तरा- सुभद्र, महाभद्र, सर्वतोभद्र और सव्वओभई भद्दुत्तरवडेंसगं वतंसक विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां भद्रोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि देवानामत्कर्षेण षोडश सागरोपमाणि उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
स्थिति सोलह सागरोपम की है। सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता।
१४. ते णं देवा सोलसण्हं अद्धमासाणं ते देवाः षोडशानामर्द्धमासानां आनन्ति १४. वे देव सोलह पक्षों से आन, प्राण,
आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं।
ऊससंति वा नीससंति वा। निःश्वसन्ति वा। १५. तेसि णं देवाणं सोलसवाससहस्सेहि तेषां देवानां षोडशवर्षसहाराहारार्थः १५. उन देवों के सोलह हजार वर्षों से आहारठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते।
भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती
१६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १६. कुछ भव-सिद्धिक जीव सोलह बार
सोलसहि भवग्गहणेहि सिज्झि- षोडशैर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति ।
अन्त करेंगे। करिस्संति।
टिप्पण
१. सूत्रकृतांग (गाहा-सोलसगा)
मूलपाठ में 'सूत्रकृतांग' का उल्लेख नहीं है। वहां 'गाहा-सोलसगा' (गाथा-षोडशक) शब्द है। सूत्रकृतांग के सोलहवें अध्ययन का नाम 'गाथा' है। जिसका सोलहवां अध्ययन 'गाथा' नामक है, उन अध्ययनों को 'गाथा-षोडशक' कहा गया है । फलितार्थ में यह सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का वाचक है। सूत्रकृतांग चूणि में सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का
नाम 'गाथा' या 'गाथा-षोडशक है ।' सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने भी प्रथम श्रुतस्कंध का नाम 'गाथाषोडशक' माना है।' २. कषाय (कसाया)
जीव में विकार पैदा करने वाले परमाणु 'मोह' कहलाते हैं। जब वे दृष्टि में विकार उत्पन्न करते हैं तब दर्शन-मोह और जब वे चारित्र में विकार उत्पन्न करते हैं तब चारित्र-मोह कहलाते हैं। चारित्र-मोह के परमाणुओं के दो विभाग हैंकषाय और नो-कषाय । मूल कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इन मूल कषायों को उत्तेजित करने वाले परमाणु नो-कषाय कहलाते हैं । वे नौ हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा।'
१. सूत्रकृतांगचूणि, पृष्ठ १५:
तत्थ पढमो सुतखंधो [गाधा] सोलसगा। २. सूत्रकृतांगवृत्ति, पन ८:
इहाद्यश्रुतस्कन्धस्य गाथाषोडशक इति नाम । ३. ठाणं, ६/६६।
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