Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ काशी ज्ञानपीठ-ग्रन्थागार "जाणं पयास" कृपया - (१) मैके हाथोंसे पुस्तकको स्पर्श न कीजिये। जिदपर काराग पाये। (१) पते सहाक कर उलटिये । धूप प्रयोग न कीजिये 1 (१) विज्ञानीके किये पते न मोड़िये, न कोई मोटी चीज़ रहिये । काका कड़ा काफ़ी है। (s) हाक्षियोंपर विज्ञान न बनाइये, न कुछ किजिये । (५) की पुस्तक उलटकर न रजिये, न दोहरी करके पहिये । (६) पुखकको समयपर अवश्य छोटा दीजिये । "हैं, इनकी विनय कीजिये" Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..सौ. सविताबाई मूल कादिया स्मारक प्रयाग ०१५ नमः सिदेम्पः। संक्षिप्त जैन इतिहास। (भाग ३-खंड ५) विजयनगर माम्राज्यका इतिहास व जैनधर्म) लेखक:श्री. बापू कामताप्रसादजी जैन, P.L, M.R.A.S. ऑनरेरी ममादक "वीर" - "जैन सिद्धान्त भास्कर " ऑनरेरी मजिस्ट्रेट और असिस्टन्ट करेक्टर तथा अनेक ऐतिहासिक जन प्रन्योंक रचयिता, मलीगंज (एटा) 0000 प्रकाश:मूलचन्द किमनदास कापड़िया, मालिक, दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरत । "दिगम्बर जैन " पत्रक ४३ वर्षके ग्राहकोंको स्व० सौ. सविताबाई मूलचन्द कापडिया, मुरनके स्मरणाय भेट । प्रथमावृति] [प्रति ... बार सं० २४७६ मूल्य-डेढ़ रुपया। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न विजयस Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRA M '.. Fore . . स्व० सौ. सविताबाई स्मारक ग्रंथमाला नं. १२ हमारी दि. धर्मन्त्री सौ मविताबाई वीर सं. १४५६ में (२० वषे हुए ) सिर्फ २२ वर्षको आयुमें एक पुत्र चि० माई (बो १६ वर्षका होकर ८ साल हुए स्वर्गवासीगण है) और एक पुत्री चि. दमयंतीको १॥ वपकी छडकर स्वर्गवासिनी हुई था उस समय उनके स्मरणार्थ हमने २६२२) का दान किया था जिमसे २...) स्थायी शानदानके लिये निकाले थे जिसमे हम ग्रन्थमालाकी स्थापना हुई है। इस अन्यमालाको ओरसे आज तक निम्न लिग्वित ११ अंग प्रकट सेकर वे दिगम्बर न' या जैन महिला' के प्राहकोंको भेट दिवे गजुके है ५-ऐतिहासिक सियां (. चन्दाबाजी कत) ... ॥) २-सं० जन इतिहास हि खंड (न०कामताप्रसाद) m) -पंचरत (बा. कामताप्रसादजी हत) ... ... ) "-40 जैन इतिहास (हि.भाग विर) ... ५-पार पाठावलि (बाल कामताप्रसादजी) ... ... la) १-नत्व (मपीक वि. शाह) ... ... ... .) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-सं० जैन इतिहास (ती० भाग प्रथम खंड) ... ११) ८-प्राचीन जैन इतिहास ३ग माग (मूलचन्द वत्सल कृत) १) ०-०न इतिहास (ती० माग ती० खंड) ... १) १०-मादर्श जैन चयां (बा. कामताप्रसादजी) ... ।) ११-जन तक माय (धाकृत व अनुवादक पं. स्वतंत्रजी) ) और यह • वा प्रज्य मंक्षिप्त जम इतिहास मा० ३ खंड पांनां पाठकोक मने जो दिगम्बर जैन के ४३ वें वर्षके ग्रारको क भेट दिया जा ... नया इमकी कुल प्रतियां विक्रया भी निकाली गई। म ऐतहानिक प्रायं लबक श्री पा. कामता प्रसादजी जन ( अलग ) ने इस भाग ६०० वर्ष पहले का अर्थात् सन् १३००१४.. के समयका श्री विजयनगर (दक्षिण) साम्राज्य जिममें कई जन गजा भी गये है उनका निहाम २८ अग्रंजी व हिन्दो प्रन्योंसे संकलन किया जो कार्य अतीव कठिन है और आप ऐसा कार्य ऑनररी तोसे ही काम कर है अत: अकयह संवः भतीव धन्यवादक पात्र व अनुकरणीय है। जन प्रम में दान नो बनाता है २कन उममें विद्यादान व शस्त्रदानकी विशेष अवश्याना अनः द कनकी दिशा-बदलनेको भावश्यक्ता है अनः दानकी रकमका उपयोग विद्यादान नया इस प्रकारको ग्रंथमाला निकालकर ही त्याची शास्त्रदानको ही व्यवस्था करनी चाहिये । भाया है हमारे पाठक सनिवेदन ध्यान देखेंगे। निवेदकसुरत-बीर सं० २४७६ । मूलचंद किमनदास कापड़िया, , वैशाख सुदी । ता. २२-४-५. -काशक - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . EHIMAANINDIA HARAMHIROININAHANI दो शब्द। EK "संक्षिप्त जन इमिहास" के भाग तीनका यह पांचवां मंड पाठकोंके करकमलों में समर्पित करते हुए हमको प्रसता है। प्रस्तुत खंडमें जैन धर्मके प्रारम्भिक इतिहासका पुनः दर्शन कराते हुए हमने विजयनगर साम्राज्य-कालम उमके अभ्युदयका दिगदशन कराया है। विजयनगर साम्राज्यको स्थापना शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध और लिंगायत सभी हिन्दुओंने मिलकर की थी. क्योंकि उस समय उत्तरभारत पर अधिकार जमाकर मुललमान आक्रमणेना दक्षिण भारतकी और बढ़ रहे थे और भारतका प्राचीन धम मर्यादा एवं संस्कृतिका संरक्षण करना अत्यन्त आवश्यक था। सभी माम्प्रदायाँक लोग इस संकटके समय संगठनकी मावश्यकताको समझ गये और उन्होंने पाम्प्रदायिक भदभावको भुला दिया था। काचिन कई कहर साम्प्रदायवादी अल्प-मख्यक जनों आदिको दुम्वी काना ता विजयनगर पम्राट उमका संरक्षण करते थे। जियनगर मम्राटोंक निकट सभी धर्म और सम्प्रदाय एक समान थे। विजयनगरंक कई सम्राट स्वतः जैन धर्मानुयाई थे, उनके अनेकों सामन्त और बहुनसे सेनापति. राजमंत्री नथा योद्धा भी जन थे। हम कालमें जैनान वंशक मंरक्षण, निर्माण और समुत्थानमें परा२ भाग लिया था। यह मब बात प्रस्तुत खंड पढ़नसे पाठकोंको स्वयंमेव प्रगट हो जायेंगी। पापकगण! यदि इससे लाभान्वित हुए तो हम अपना प्रवास सफल हुमा समझगे । प्रस्तृत स्वरकी रचना हमें बिगर श्रॉनोंसे सहायता मिकी है उनका उल्लेख हमने यथास्थान कर दिया है. हम उनके प्रति माता प्रगट करते हैं। विशेषतः हम श्री पं० नेमीचंदजी ज्योतिषाचार्य, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] अध्यक्ष जैन सिद्धांतभवन, बारा गौरोफेसर आभारी है कि जिन्होंने की थीं। हमारे मित्र श्री० [मलचन्द किसनदास कापड़ियाजी इस खंडको भी ववत् प्रकाशित करके " दिगम्बर जैन " के ग्राहकोंको उपहारमें रहे हैं. और इस प्रकार इसका सहज प्रचार कर रहे है । एतदथ हम उनके आभारको भी नहीं भुला सकते। अलीगंज (एटा) दिनांक १२-४-५० ए. सांधवे बम्बईके साहित्यिक पुस्तकें भेजनेकी कृपा } विनीत कामताप्रसाद जैन | । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची। ३६ विषय पृ० विषय प्राकथन ! ४-विजयनगर राज्यको स्थापना३२ १-जिनेन्द्र व जैन १। ५-विजयनगरका प्रथम २-प्रारम्भिक इतिहास २ गजवंश (काकतीय नही) ३४ ३-जैनधर्मके संस्थापक ऋषभदेव ३' ६-दशी भी नहीं ४-भागवत्में ऋषभका भक्तार ५' ७-वलालवंशस सम्बन्ध ३५ ५-ऋग्वेदमें ऋषभ ७ ८-सगम (यादव) गजबंश ३६ ६-ऋषभ जनोंके मूल पुष्प हैं ९, ९-माम नरेश ७-पाश्वनाथजी संस्थापक .१.-मूलवास बोर विजयनगर ३८ नहीं है १०११-विजयनगरका वैभव ४. ८-सिंधुके पुगतत्वमें मनधम ११ १२-हाहर प्रथम ९-सुमेर लोग और जनक्षम १३ १४-हरके शासनमें जैनधर्म ४३ १.-नंहगता माहन दसमें १५ १४-बुकागय प्रथम ११-भारतीय पुगतत्व में तीर्थंकर १७ १५-अनौका संरक्षण ४४ १२-उपासमें १८ १६-णवों और जनों में संधि ४५ १३-भगवान महावीर २११७-गष्ट्रीय संगठन और मतस० ४७ १४-बलगम १२१८-रबिर द्वितीय ४८ १५- पास २४ १९-हरि दि. के कार्य ४९ १-विजयनगर साम्राज्यका २०-बुक हि व देवराय पथम ५० इतिहास-प्रथम संगमराज- २१-ठेवायका देना पीन ५. वंश और जैनधर्म- २१-देवराय । अनमे ५१ १-मारतकी पूर्व स्विति २८.११-विजयराए २-विजयनगर गयक २४-महान् शासक देवगय दि. ५१ भौगोलिक स्पिति १९२५-१ब और शान 41 ५.. १-नेतिक पवि .२५-विदेशी यात्री Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] विषय ७-वाय दि. जैनधर्म .५ ८-धार्मिक सहिष्णुता २८-मल्लिकार्जुन व विन्या ५६। -समाज व्यवस्था २९-संगम गजवंश पक्ष ५८ ..-स्त्री समाज २-विजयनगरके मालुव । ११-जैन संत्र व्यवस्था वं अन्य राजवंश और १२-जैन मनियों का चारित्र ७९ उनके शासनकाल में जनधम- १३-मुनियोंका महान व्यक्तित्व ८. •-माम बम लुा गजनरश ५: १५-यिक ये ८१ २-मान्न जनधम ५: १५-श्रावक श्राविकार्य ३-मादी नदि ६० १६-सम्पदायिक विद्वेष ४- लामिह ६. और पारक प्रभाव ८४ ५- ६१ - १७-यान्न य शासक जनो थे ८६ ६- गय और जनधम ६२ १८-विजयनगर गमकुमार ७-बाटीद नन्द६३ और धर्म ८७ ८-सम्र? अच्युत ६३ १:-विजयनगक सामन्त :-अपन और महाशव ६४ और जैनधर्म ८७ ... Elinati शामन ६५ २०-क बल्ब एवं क ङ्गल्य 1-11414 (आविद वंश) ६५ वंशके जैन शामक ८८ १२-मावमिक पतन ६६ २१-गजमंत्री चन वोम्मम्म ८९ ३-घजयनगरको शासन २२-दंडाधिष मङ्गग्स व्यवस्था तथा सामन्ती ओर २३-संगीतपुटके सालुवनरेश कमेवारियांम जैनधर्म । और जैनधर्म १-हिन्दु संगठन ६८ २४-राजमन्त्री पद्म २-सम्राट् और मंत्र मंडप ६८ . २५-मालुव मलिरायादि ३-मंत्री मंडप अंतर ६ जनधर्मक भाभयदाता ९२ ४-शासन विभाग ७. २६-गुखाय और भैरव नरेश ५-ग्राम भ्यवस्था ७१ जैनधर्म प्रभावक ये ९३ -ज्यकर र व्यापार ७२ २७-जेसोप्पेके शासकगण स्तिों के भाव कार्य ! . . मोर नपर्म १४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + २८-सम्मान देवराव बडेवर ९४४-रमेश देवप्प २९-बार मेरस -कविराज प्रधान मादि भोजपर्म ९९ रामसारी ११५ १.ननोगेके महाग ९८४८-म्पगोडपोर जैनधर्म १११ 1-साना कामदेव ९९ .९-नताका धर्म भोर १२-रामा हम्मीर भग्वेन्द्र ५.-भवणवेगोन और नर्म ५१-लोषण तेच १२. १-मेव मरसन नरेशों के ५२-कृष्ट १२२ ५३-तनिधि ३४-अवशेष सामंत भोर ५४-3खरे अन धर्म १.२ ५५-सेनापति सिरियन १२५ १५-तनिधिके सामन्त ५६-'उदर बंज' गुरु परंपरा १२५ जैनधर्म प्रभावक १.३ ५७-इलिंगेरे १२८ ३६-भावालताम्के महाप्रभु ५८-रामदुर्ग और दानवुलप'दु १२९ और जनधर्म ५९-शृङ्गरिब नरसिंह राजपुर १३. ३७-कृप्परके शासक ६०-पाश्ववस्ती' मंदिर १५. और अनधर्म ११-मिनेन्द्र मंगम् १३. ३८-सावन्त मुद्दप्प ६२-बागकुरन मुलिक मारिद्र १११ ३९-गोप महाप्रभू १.७६१-कारका ४.-करियप्य बनायक १.८ ४१-रामनायक | ६५-तकान मेनाहित्य ४२-विण्यनगरके भनेक सेनापति । भौर का ११६ मोर गनमन्त्री जैन ये १.९/१६-दक्षिणमारतानाचार्य १३६ १-मंत्री इग्नाप्प ११.६७-स मन्य भाषायें १३६ ४४-सेनापति र भोर ६८-सम्कत भाषा यि १३० एमाप्प १९१६९- साहित्य भार १०७ १३२ गण सारस्वतगया १९३ .-नधर्म पनि कारण १४. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर सूची। निमलखित सकेताक्षरों में फुटनोटों द्वारा प्रणबको HWAR मा है। पाठक उने माले- -: : १. ASM RAATiनोकल सर्वे ऑफ मैसूर ( पनुका रिपार्ट १९२९, ३०, ३१ से ३६ ', बंगलोर । R. Pro=falafe saith Epigrapbia Carnatica, ३. हिकाoयन हिटॅरिकल काटाली, लास । ४. आसाममा मभनन्दन अन्य (पन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग)। ५. कोपण-दो का मिशन्स ऑन कबला, मा.बाग्लू निजाम) ६. अपिसोनय भाव दो बिहार ऐन आहिसा मिर्च Giant, पटना। .. जमीसिनाल भाष दो मौयिक सोसाइटी, बंगलोर । ८. J. A. ऐ न पष्ट केी (मासिक पत्र, बारा । १. कान म एप कर्णाटक कचर, शर्मा १९४. (पारवाड) १०. जैकक०=sटिक जन कवि (सीजी) ११. सिमानन सिद्धान्त मारा। १२. अशिमन शिलालेख र (माणिकचन्द्र पनाला ) सं. प्रा. हो । १३. पक्षिमि मत, जैन व अन , . भु. पाटील स, लो। १४. मा अभिमान जय (भी वशपाटीकमगढ १९४६) PM. ignorron't haiza (Gazetoer, of the Bombay Pposs), Campbell, (1896). साना पाटेमाल () Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] १७. मर्ममा जैस्मा-मद्रास-मैसूर प्राचीन न स्मारक (५० शीत-- प्रसाद, सुरत ). १८. मोहन०1० मारशल कृत 'मोहनजोदरो' (लंदन) १९. Major-Maijor, India in the Filteenth Century, ( London.) २०. भाप्रारा-भारतके प्राचीन राजवंश, श्री विश्वश्वग्नाय रे उकृत, बबई। २१. मारापास्मा० मध्यप्रान्त और राजस्थान के प्राचीन मेनस्मारक. शीतलप्रसादनी कृत, (सरत'. २२. मे० मेडियेबिल जनोज्म, श्री भास्कर आनन्द सालेतोरन, बमई। २३. मैंमारिआर्यालॉजिकल सर्वे रिपोट ऑफ मसर (बंगलौर) २४. मैकु०=मैसूर एण्ड कुर्ग फ्राम शिम, श्री लुई गईमकृत । २५. विविजयनगर साम्र ज्यका इतिहास ( श्री वसुदेव उपाध्याय नई दिल्ली, १९४५). २६. सीवैल०%Lists of Inscrips......of South India Arch. Survey of S. India ( 1884.) २७. संजेह-संक्षिम जन इतिहास सरत-२८, भवणबेलगोल गइनुक मैंसर । २८. हिन्दु०=माननीय श्री जवाहरलाल नेहरूकृत "हिन्दुस्त नकी कहानी" नई दिल्ली, १९४७.: Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः सिद्धेश्यः। कारबा संक्षिप्त जैन इतिहास। (भाग : खण्ड ५) प्राकथन। भाशन जिन्दा और जिन जिन्होंने मानवीय कमजोगियों का जान लिया :-- जितान्तय हैं-और है के कल्याणकत्ता ! वह ना मा नाकाहान हैं, जनी ही पदचिहों पर चलकर महिमा मनिता कि... विश्व अज्ञःनकालय करते आये हैं। इनकार जन उन मान्यों का समुदाय का है जो महिमा धर्भके उपासक और उसके प्रकाशक रहे हैं । जैन संघ भारतीय श, विश्वक ममी' लोग म्मिलित हुये और जैन शासनको इस संगठित कमें उनहोंने मात बनाया । जिनेन्द्र नाति और के Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. S ee संक्षिा जैन इतिहाम। कायम नहीं थे-जाति और कुछ शेयवहाकी चीज है। उसे लौकिक जीवनको पुविधा के लिये वहीं तक मानना ठीक है, वहां सक महिमा धर्मको विगधना न हो । जाति और कुलको लेकर यदि मानव मानवमें उच्च नीचका मेद हले तो वह बुग है। जिनेन्द्रने उमे जानिदोर कुन मन कहा है और मद्यकी नाह उम्को त्याज्य बताया है। जनशासनमें जैनल ही स्वाय चीज है-उस जैन कुल्में मी ममोपजीवी मान कम्मलन होते माये हैं . भामगांची भार्य, दविर, मपुर व मग त्रय, ३५. शुद्र और विद्याधर गक्षस, बाना मार सनी व गान३ जिन्न्द्रक क्त जैनी रहे है। वास्तव जन जन तक है जो हिंसा धर्मका हिमायती और उप चावल है। एंपा जैन विश्वशान्तिका क्षक और मानके आमविकाममा सनक रहा है। मनरव से मतलब उस महा मानवस है जिसका काम विश्व है और विश्वमें जिसका सामन चला है। जैन पुगों में विश्वव्यापी और शामन का इतिहाप सुरक्षित है। उनमें मानवीय मभ्य जबनके विकाशका इतिहास छुश हुमा है। पार्मिकताके चल से बाहर निकाय का सं महाशमें मनकी भाश्यकता है। संक्षात न इतिहास' के प्रथम माममें हमने उसकी विहंगम रूपरेखा उपस्थित की थ; किन्तु जैन पुगयों का तो सूक्ष्म मध्ययन ऐतिहासिक दृष्टसे नाना नायक है। प्रारम्भिक इतिहास बैन मुगलों में मानवका मानि: इतिहास, सेि प E देखिशासिकार उसका विवाद Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकचन । R कारुके नाम पहले तीन काहोंमें मानव विश्रुक प्रकृतिका होकर रहा, जैन पुराणों में चित्रित किया गया है। वह सुखमा सुखमा र सुखमा काल था । सच योग् यानन्द ही बानन्द था उस काकडे ईर्ष्या द्वेष और विशेषके लिये स्थान न था । मानव प्राकृतिक जीवनको बिता रहा था। जैन पुगण बताते हैं कि तब मानव गृहस्थी नहीं बनाना था - या औलादकी गमता और उनका झंझट उसे नहीं सताता था। युगल नर-नारी कामभोगमें जीवन बिनाते थे । उनकी आवश्यकतायें भी परिमित थीं; जिनकी पूर्ति वह कलावृक्षों से कर लिया करते थे । आधुनिक इतिहासके अनुरूप ही मान्यता - यह बात हम अन्यत्र बता चुके हैं।' घोर घर मानव भई बाब जगृत हुआ-मेरे तेरेकी ममताने नसे जीवनको संघर्षमय बनाया। झगड़में तीसरी जरूरत पड़ती है। तीसरा कहीं बाहरसे नहीं मानेको बामानवोंमेंसे ही वह ढूंढा गया। बड 'मनु' कहलाया | 'कुलका ' मी उसे कहते थे, क्योंकि उसने मानवको 'कुल' में रहकर जीवन बिताने की शिक्षा दी । कालकमसे ऐसे कुकका मनु एक-दो नहीं पूर चौदह हुये, उनके नामों और कामों का वर्णन हम पहले भाग का चुके हैं। जैनधर्मके संस्थापक ऋषमदेव | सर्व मन्त्रिम मनु नाभिराय थे। उनके पुत्र ऋषनदेव नव वृषभदेव हुये, जिन्होंन मानवको सम्बनविताना सिखाया जा १-पहला भाग मोर 'बेनसिद्धांत भास्कर' भाग १३, १०९-१६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिस जैन इतिहाम। इसी कारण यह ब्रह्मा मानि भी कहते थे। इन्द्रनं उनके लिये नयोध्याको बहुत ही सुन्दर बसाया था। ऋषभदेवने ही मातवर्ष में गन्य व्यवस्था स्थापित की थी और इस क्षेत्रको विभिन्न देशों में बाट दिया, जिनपर ऋषभदेवके पुत्र और पौत्र एवं अन्य सम्बन्धी राज शासन काते थे। ऋषभदेवने ही इस कार के मादिमें धर्मतीर्थकी स्थापना की थी। यह दिममा भवमें भाoयवासी साधु ह. गये थे। देखादेखो वह नो मधु हो गये. पान्नु त्यागमई जीवनकी साधनामें बहसमफल रहे। ऋषभदेव तो छ महीनेका योग मादकर बैठ गये। भव-प्पाम, म-गर्मीको उनकी पाबाह नहीं थी। पा उनके साक साधुगण मुम्ब प्यार और मदर्दी माँको बादाश्त न कर सके । उनसे कुछने काहे पहन लिये, कुछने वृक्षवाकलस तन ढक लिया और कुछ नंग ही है और वे सावनफलों और करमूलांस अपनी उदापनि करने हंगे। ऋषभदेवका पौत्र और सम्राट् भातका पुत्र मराचि उनका गुमा बना और उसने रे? दर्शन शस्त्रको स्थापना की जिसका मादृश्य सांरूपसे था। ऋषमदवन साधना और योगनिष्ठाको परिपूर्णताका फावल्य विभूतिमें पाया । कायोमर्ग मुद्रामें ध्यानकीन हकर उन्होंने भामस्वरूप बातक कर्म वर्गणाओं का नाश किया और सज्ञ सदी जीवन्मुक्त पामामाका फमपद प्राप्त किया ।बह बाताबका हुये, क्योंकि उन्होंने ही पहले पहले वर्मतीर्थकी स्वाना की ऋषभदेर जिनेन्द्र ' हे गये थे, इसलिये उनका मतं *"कासबारह दिगमर' थे, इसलिये महंस जोक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन । mmmmmmmmmsOMMAMANNA ANIMAmmonommmmmmmm मत' मम । निन्ध मत' के संस्थापक भी कहे गये भौर चंकि उन्होंने स्वयं ब्रोंकी पारण किया था और लोकको वृती जीवन बिताना सिखाया था, इसलिये वह मयं महान त्य' और उनका मन प्रात्य' कहलाया था। जैनधर्मको 'आईत् मत' ऋषभदेव • मई' विशेषण के कारण कहा गया था, क्योंकि वह मम थे और कर्म-परिका उन्होंन नाश किया था. जैनधर्म की स्थापनाकी यह नादि कहानी है , जैनधर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे, जैन इतिहासका श्रीगणेश ऋषभ जोग्नस होना मानना ठीक है। भागवत में ऋषमका आठवां अवतार । जैनेता साहित्यसे भी ऋषभदेशक बनिय पर प्रकाश पड़ता है भोपा कोई कारण नहीं कि जिसकी वजह से ग्नको जैन धर्म हीकाधर्मतीर्थका संस्थाक न माना जावे। ब्राह्मण मतके चौवास भतारोम ऋषभदेव बाट मान गये हैं और उनके विषयमें कहा गया है कि:___"राजा नाभिको पनी सुहवी गर्भमे भगवान ने अपमदेवके रूप जन्म लिया । इस अवतारमें समस्त मासक्तियाँस रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मनको अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूपम स्थित होकर ममदर्शक रूपमें उन्होंने मूढ़ पुरुषक वषम योगमाधना की। इस स्थितिको महर्षि ग परमस पद अथवा अवकृत चर्या कहते हैं।" - भागवन, २-७-१०)x इस योग के द्वारा ऋषभदेव सब पुरुषार्थ पूर्ण हुए थे और उनको सब सिद्धियां पास हुई थीं। किन्तु उन्होंने उनका कमी -प्रादिपुगण और सं.... प्रथम भाग एवं हमाग 'भगवान् पार्थनाय' (सकी ) प्रस्तावना देखा । ___- 'कल्याण'-भागवतांक, पृ..२३, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . संधि जैन इतिहास । वीकार नहीं किया !+ वह तो लोकोदामें निम्त थे-उनका ध्येय मेकको जसाद निकालकर बात्मवादी बनाना था। 'भागवत-कार' का यह कथन जैन तीर्थकरके लिये सर्वथा उपयुक्त है । इसीलिये ही 'भागवत' में श्री ऋषभदेवको श्रद्धापूर्वक निनकार नमस्कार किया है "निरन्तर विषय-भागोंकी अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक मेषसे चिरकाल तक मुध हुए लोगोंको जिन्होंने कारणवश निर्मक मात्मलोकका उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले मात्मस्वरूपको प्राप्तिसे सब प्रकारकी तृष्णाओंसे मुक्त थे, उन भगवान् समदवको नमस्कार हो।"x -(भागवत ५-७-१९) निम्मन्दह भ० ऋषभदेव द्वारा ही पहले-पहले योगचर्या और नात्मबादका उपदेश दिया गया था। उनसे पहले हुये सात अवतारोंमेंसे क्सिीन भी उनके द्वाग निर्दिष्ट निःश्रयममार्गका उपदेश नहीं दिया था। पहले भवताकी महत्ता ब्रह्मचर्य धारण करने में बताई गई है। दूसा बामह भातार सातसमें गई पृथ्वीका उद्धार कानेके लिए प्रसिद्ध है। नारद ऋषि तीसरे भतार थे. जो मरने तंत्रवादके लिए प्रसिद्ध थे। ग-नागपणका चौथा गमनार संयमी जीवन के लिए पसिद्ध हुमा। पांच कपिक भवता द्वारा सांस्पमतके निरूपणका उल्लेख है। नाम भी ऋषभ भगवानसे पहिले ही मरीचि ऋषिद्वारा मांख्य सदृशः मतका प्रकाश हुमा बतलाते है। भागवतमें भी मरीचि नादि ऋषिबोका बल्लेख है। उनसे ना विश्वका समुचित विस्तार नहीं हुमा तक तार हुए । • नरें ऋषभावतार भी मानता है। छठे + पूर्व० पृ. ४५५ । - माण'-भानवताक, पृ. ४१७ ॥ • स्पाण-भागवताक पृ• २८., Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन। बचाव अवतारमें महादको नमज्ञानका उपदेश देनका उल्लेख है। ती बार यह रूपमें मातार लेने का वर्णन है। उपांत राजा नाभिकी पसी मेरुदेवीके गर्भसे ऋषभदेके का अवतार लेनकी बात लिखी मई है। इस रूपमें उन्होंन पाम सों का बह मार्ग, जो सभी नाममियों के लिये बन्दनीय है. दिग्व या '1x अतः यह स्पष्ट है कि विशुद्ध नात्मधर्मका निरूपण, जिसमें योगनिष्ठ दिगंबर भेषकी प्रधानता है। सबसे पहिले ऋषभदेवन ही ला+को बताया था । अतः हिन्द पुराणों के मतानुसार भी ऋषभदेव ही जैनधर्मके संस्थापक सिद्ध होते हैं, + क्योंकि • मागवत' के अतिरिक्त 'ब्रह्म ण्ड' मादि हिन्दू पुगण भी इसी मतके पोषक है।' ऋग्वेदमें ऋषम । यह बात ही नहीं कि हिन्द पुराणों में ही ऋपभावतारका वर्णन हो, बलिक ऋग्वेद में भी ऋषमका मलाल हुभा मिलता है: "ऋषभं मासमानानां सपत्ननां विषा सहिं । हन्तारं शत्रणां कृधि विराजं गोपितं गवाम" -ऋग्वंद १ ० ११॥१६६ निम्मन्देह बेदके इस मंत्रमें ऋभदेवको जैन तीर्थकर नहीं कहा है और वेदोंके टीकाकार सायण मादि भी उनके व्यक्तित्व पर पास नहीं बाम्ते, किन्तु वे 'ऋषम' शब्दसं एक व्यक्तिका नाम x पूर्व. पृ.१८९, + वेद पुगणादि०, पृ. २-४ । . १- माय .. ५. पृ. १५०, प्रमाणपुगण म. १४गलो. ५९-६१, मि . स्यादि-विशेषके लिए। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] मक्षित जैन इतिहास । हीमित मानते हैं। और करते हैं कि वैदिक अनुश्रुतिकी व्याख्या पुणों और काव्यों के माधारसे कहना उचित है।' पुमणोंमें ऋषभदेवका वर्णन ठीक वैसा ही है नैपा अन शास्त्रों में मिस्ता है। बतएव युक्त वेमंत्रके ऋमदको जैन तीर्थकर मानना उपयुक ही है। श्री विरुपाय डि जे वैदिक विद्वान और श्री स्टीवेन्सन साश्चात्य द्वि न भीक माहित्यमें प्रयुक्त ऋषम नामको जनताका ही बोधक मानने हैं। अत: यह मान्यता ठीक है कि उन धर्मके मंधापक ऋषभदेव हीका उल्लेख वैदिक माहित्यमें हुमा । उनक मानिरिक्त किसी दूसरे ऋषभदेवका पता किसी भी अन्य श्रोतसे नहीं चलना ! पन्युन बौद्ध माहिस्यमे भी जैन धर्मके मादि संस्था क ऋदेव ही प्रमाणत होते हैं। १-मावनुकणिक (लंदन) पृ. १६४ । २-असा इंडिया भूमिका। ३-जैन पश्यदर्शा, भाग ३ अंक ३ पृष्ठ १०६. l'rof. Slevenzon remarket: )! is seldom that Juinas and Brahmanas nice, that I do not cer, how we can teluve them credit in this instance, where they rosu' -Kalpisutra, Introduction p. XVI. ४-न्यायविन्दु अ. ३ एवं मञ्जुश्री मस्का में भा जैनधमक आदि मन् पुरुषरूपमें ऋषभसका उल्लेग्व इस प्रकार हमा है:"कपिक मुनिनाम ऋषिवरो, निग्रन्थ-सीकर ऋषभः निग्रन्धरूपिः।" -भार्य-जुधी-मूलाल्प (बिन्दन) पृष्ठ ४५. इस उलेखके सम्बन्धमें जमन प्रो. ग्लॉसनॉपने विचन करते हुये लिया था कि बौदोंने लोकका संकेतमय चित्र उपस्थित करते हुये एक मंडसमें एकमतके महान संस्थापकको मुगया नहीं था। ("......Buddhists could not omit the great propbet of a religion which...... had acquired glory all over India. -Prof Helmuth von Glassenapp ). J As, III, p. 47. : Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राकथन। wwwwwwwwwwwwsmmswwmommawmommam कुछ लोगोंका ऐसा खयाल है कि वैविक तारोमेसे ऋषमदेवको लेकर जैनोंने अपने मतको प्राचीन रूप देने के लिये चौवीस तीर्थरों की मान्यता गढ़ ली है-जैन धर्म भ० पार्श्वनायसे पुराना नहीं है, किन्तु यह कोरा खयाल ही है-इसमें तथ्य कुछ नहीं है। हिन्दू भवारों में लोकके उन प्रमुख महापुरुषों को ले लिया गया है जिनका मध किसी न किसी रूसमें भारतवर्णसे या उन महापुरुषों को लोकोरकार वृत्ति ही उनकी गिनती भवतारों में करने के लिय म धारशिला मानी गई। यही कारण है कि अबतारों में मन्तिम दो बुद्ध और कति माने गये हैं ' ऋषभ जैनोंके मूल पुरुष हैं। जिम प्रकार वैदिक धर्मानुयायी होते हुए भी बुद्धको भवतारों में गिना गया, उस तरह ऋषभदेव भी वैदिक धर्मानुयायी नहीं थे और फिर भी वह अवतार मान गये, क्योंकि उन्होंने महमी लोकारका किया था, लोको मचा मत्मबोध कराया था। हिंदू पुगों यष्टन: उनको एक स्वतंत्र पाम हंसवृत्तिप्रधान धर्मका प्रतिष्ठापक कहा है। जैन भी यही कहते हैं। अतएव यह मानने के लिये कोई कारण नहीं है कि जैनियोंग ऋषभदेवका नारित्र ब्रह्मणोंस लिया भवा ऋषभदेव जैन महापुरुष नहीं थे। जिस प्रकार बौद्ध धर्मके संस्थापक भ. बुद्धको अवतार माना गया, उसी तरह जैनधर्मके संस्थापक ऋषभदेवको भी हिन्दुओंने भतार माना है। हम माम्बा बैनियों की मान्यता कि चौबीस ती हु, प्रमाणिक सिद्ध होती है। - १-भागवत ध२.. ८ लाक ३७-३८ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | पार्श्वनाथजी संस्थापक नहीं हैं। इसके विदीत इस मान्यता में तो बरा भी तथ्य नहीं है कि जैनधर्म म० पार्श्वनाथ डी चला। प्रो० हर्मन जैकोबीको हठत यह स्वीकार करना पड़ा था कि म० शश्वनाथको जैन धर्मका संस्थापक मानने के लिये कोई आधार या प्रमाण नहीं है-जैनी ऋषभदेवको पहिला तीर्थकामान्त है और उनकी इस मान्यतामें कुछ तथ्य है।' प्रो० दामगुप्ता भी ऋषभदेवको ही जैनधर्मका संस्थापक प्रगट करते है और स्पष्ट लिखते हैं कि महावीर जैनधर्मके संस्थापक नहीं थे। किन्तु आजकल राजनैतिक प्रक्रिया के वश हो पढेर नेता भ० महावीरको डी जनधर्मका संस्थापक बनानेकी गलती करते हैं। और सर्वप्राचीन जैनशामनको वैदिक हिन्दुओंका प्रतिगामी दल या शास्त्रा घोषित करके सत्यका खून करते हैं; किन्तु निष्पक्ष अथवा १०] 1-" But there is nothing to prove that Parsva was the founder of Junism. Juin tradition is unanimous in making Rishabhs, the first Tirthankara as its founder )......There may be something historied in the tradition which make him the first Tirthankara. Pref. Dr Hemaun Jacobi A, IX 163) २- ए हिस्ट्री ऑव इण्डियन फिलॉसफी - अ० ६ १० १६९...... । ३- माननीय पं. जवाहरलाल नेहरूनं यद्यपि एक स्थल धर्मको वैदिक धमसे भिन्न लिखा परन्तु दुमरे स्थल पर जनों का हिन्दू ओ० भ० महावीरको जनधर्मका संस्थापक लिखनेकी गलती की है। - ( हिन्दू० पृ० ७९ व १३६ - १३८ ) r. 'Modern research has shown that Jains are not Hindu dissenters.-Justice Krishnamurti Shastri, Actg. Chief Justice of Madras High Court. ~ (I. L. R. 50 Mad. 328.) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ memommmmmmmeMAIMIMNSWmRNAammmmmmmmmmmme ___प्राकथन । [१९ इतिहास जैनोंको भारतकी प्राचीनतम लोक ससा और धर्मके. बनुयायी ही प्रगट करते हैं। सिंधुके पुगतसमें जैनधर्म । . __ भारतका पुगतत्व भी इसा मतका पोषक है। सिंधु उपत्यकामे मोहनजोदड़ो और इसे पांच हजार वर्ष पहलेकी मुद्रायें और मूर्तियां मिली हैं। उनका रूप. ध्यानमुद्रा, कायोत्मर्गस्थिति और उन पर भक्ति रिह ठीक वही है जोकि जैन मूर्तियोंमें मिलते हैं।' श्री रामप्रसादजी चंदाने लिखा है कि वैदिक क्रियाकांडी मतको छोड़कर शेष सब ही भारतीय ऐनिहासिल मतों में योग क मान्य सिद्धान्त रहा है। उसमें भी जैन तीरों के निकट ध्यान योगका महत्व विशेष था। उनका कार्यात्मन भासन तो निरी-निरा जैन साधना हीकी चीज है। इस मामनमें योगी बैठना नहीं. खड़ा हो गहना है। मादिपुगण (१८ वांम) में प्रथम तीर्थङ्क। ऋषम या वृषभदेवके प्रसंगमें कार्यात्म बामनका वर्णन किया गया है सिंधु Jainism prevailed in this country long befve Brshmansim came into existence or held she field, and it is wrong to think that the Jains were originally Hindus and were subsequent y converted into Jainism.'- Hon'ble Justice Rangneckus, ut the Bombay High Court. (A. L. R. 1939, Bombay 377.) 2. "The Jains bave remained as an orgar.ised coniniunily all through the history of India from before the rise of Buddhism down to day."-Port. T. W. Rhys Davids. २-मोइन०, मा. १, पृ. ५२-७८ मॉडर्नरिण, अगस्त १९३२ • १५६-१५१. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] संक्षिप्त जैन इतिहास | उपस्वका (Indus Valley) से उप हुई मुद्राओं पर केवल बैठी हुई मूर्तियां ही ध्यानम्श्न अनि हैं, इतना ही नहीं, बल्कि उनपर कायोत्सर्ग बासन में खड़ी हुई ध्यानमश्न बाकृतियां भी अंकित हैं। अतः यह स्पष्ट है कि उस प्राचीनका हमें सिंधु उपत्यकामें योगचर्या प्रचलित थी । कर्जन म्युजियम मथुग में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित तीर्थङ्कर ऋषभकी एक मूर्ति है। उसका सादृश्य मधुकी मुद्राओं पर अंकित कायोत्सर्गस्थितिकी आकृतियोंसे है। ऋका भाव चैलते है और तीर्थंकर ऋषभका चिन्ह बैल ही है। अतः नं ३ से ५ तककी सिन्धुमुद्राओं पर जो आकृतियां अंकित है वे ऋकी ही पूर्वरूर हैं। ' सिन्धु-मुद्राओं (Indus Seals) पर अङ्कन नम कार्योत्सर्ग भाकृतियोंमें ही जैन मूर्तियोका मान्य हो, केवल यह बात ही नहीं है, बल्कि मोडन जो-दो और ऐसी मूर्तियां भी मिली हैं, जिसकी कोई भी विद्वन निःपड जेन मूर्तियां कहता है; परंतु विद्वज्जन उन्हें जैन बहने से इसलिये हिचकते हैं कि वे ई०पू० आठव शताब्दिसे पहले जैन धर्मका अस्तित्व ही नहीं मानते। किंतु उनकी यह मान्यता निराधार है। भारतीय साहित्य तो ऋषभदेवको ही जैनधर्मका संस्थापक मानता है. जो राम और रणसे भी बहुत पहले हुए 1 थे । मोहन जोदड़ो के ऐश्वर्यकाल में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि roar नेमिनाथका तीर्यकाल चल रहा था । अतः वहांके लोगों में जैनधर्मकी मान्यता होना स्वाभाविक है। काठियावाहसे उपलब्ध एक रात्रमें स्व० प्रो० प्राणनाथने पढ़ा कि सुमेर नृपने बुशदनंबर प्रथम मॉडर्न रिव्यू आगस्त १९३२, पृष्ट १५६-१५९ د Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्राकथन । १३ गिरिनार पर्वतपर जिनेन्द्र नेमिकी वंदना करने भाये थे'। वह उस सु-प्रातिके शासक थे जो मूलमें सु-राष्ट्र (सौ-राष्ट्र= काठियावाड़) के. निवासी थे । सुमेर लोग और जैनधर्म । २ रक्त ताम्रात्रमें सुनृाको रेवानगर के राज्यका स्वामी' ठीक वैसे ही लिखा है जैसे कि उपगन्त कालमें विभिन्न राजवंशोंने अपने मूल पुरुषके निवामन्थानकी अपेक्षा अपनेको उस नगरका शासक लिखा है जैसे राष्ट्रकूट राज' कोहलूगधीश्वर - शिलहार वंशके राजा स्वयंको 'नगर पुग्दम' व ' लिखते थे यह रेवानगर नर्मदा नदी के तटपर जैनों का एक प्राचन केन्द्र था और आज भी तीर्थ रूप में जैनी उपक्की वन्दना करते हैं। बेबीलोनके उपर्युक्त ननुशदनेजर नरेश अग्नेको रेवानगरके राज्यका स्वामी' घोषित करके यह स्पष्ट करते हैं कि वे मूचनः भारतके ही निवासी थे विद्वानोंका मत है कि सु जातिका मृरस्थान सुगष्ट्र है और इस सु जातिके लोग बड़े व्यापारी थे। उनके के जड़ा राष्ट्र ईंगन मेसोपोटीमिया, अरब, मिश्र और भेजेटेनियन समुद्रतक और दृष्ी ओर जावा, सुमात्रा, कंबोडिया और चीन तक बाया आया करते थे । इन सुजातिके लोगोंने विदेशोंमें उपनिवेश बनाये थे और इनका धर्म जैन धर्म था। सुमेर लोगोंका मुख्य देवता 'सिन' (चंद्रदेव ) मूनमें जून' 3 १- "जैन" (गुजराती - भावनगर) ता० ३ जनवरी १९३७, पृ० २ | २ - निर्वाणकाण्ड गाथा देखो | ३- जे. एफ. हेबीन्ट कृत प्रागू ऐतिहासिक समयकी राजकर्ती जति 'और विधान भारत, भाग १८ पृष्ठ ६२६-६३१ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इस्लिाम। कहाना बा, जिसका अर्थ होता है सर्वज्ञ ईश' (Knowing Lord) उस कन्नर' ( Light=काश ) भी कहते थे। बैनषमे में माप्तदेवको मवज्ञ और मदर्शी माना गया है और वह ज्ञानपुंबके प्रकाश कहे गये हैं। चन्द्रदेव दयं एक तीर्थकका नाम था । मूलमें 'सिन' शन्दक अर्थ 'सर्वज्ञ-ईश' को भूलकर मु-लोग चन्द्रमाको पुनने मंगे। बैनी भी सूय और चंद्रके विनानोमें कृत्रिम जिन मंदिर और जिन प्रतिमा माना उनकी नियति वन्दना करते हैं। म. पार्श्वनाथ अपने पूर्वमद जब सामन्त कुमार गजा थे, तब उन्होंने महामह यज्ञ अथवा जिनपूजा विधान किया था और सूर्य विमानमें स्थित जिनेन्द्रकी वह विशेष पूना काने लगे थे। मालुम होता है सभीसे मु.जाति एवं अन्य नियों मूर्य एवं चंद्रकी पूजानेका प्रचार हुमा था। सुमे। और न्धुिकी मुद्राओंप. इन देवताओंके नाम अर्थात् सिन, नत्रा, श्री भादि पढ़े गये है. बत: म विवेचनसं भी जैनधर्मका मान जोदडोके ऐश्वर्यकालमें प्रचलित होना सिद्ध है। विद्वानों को जैन पुगों की मान्यताओं में ऐतिहासिक तथ्य सूमन गा है और वे अरिष्टनेमिका भी ऐतिहासिक पुरुष मानने लगे हैं।' सिन्धु मोर सौवी या सोट्रक हातsvm W जैन पुगों और यायो विशेष प्रकाश पानेको संभावना है। - १-रिक मा. ७ परिशिष्ट पृ. २७-३०, २-माग भyaवाचनाब' (स) पृष्ट २९-३७, ३-६कि. मा.७ व मा. ८के • परिशिष्ट देखो। 4. Lord Aristanemi, Appiadis, D.p. 89-90. so ....le Pauranic literaware of the love son containe, some Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन । . . [१५ जैन देवता मोहनजोदड़ोंमें। प्रो. प्राणनाथने सिन्धु उपत्यकी मुद्रा (Indus Seal)नं. ४४९ १५ जिनश्वर' (जिनि {श:) शन्द पड़ा था। वह सिन्धुलिपिको ब्र झोलिपिका पूवरूर ही मानते और यही सिद्ध करते हैं। मुद्राओं पर जो नाम और चिह मलित हैं उनसे भी मोहनजोदड़ो के लोगों के धर्म सम्बन्ध हिन्द और जैन धर्मो सिद्ध होता है-बी, हो, क्री आदि तांत्रिक देवताओं का लेम्ब रन मुद्रामों में हुमा है।' जनमतमें श्री, हीं. धृत, कीर्ति बुद्ध और लक्ष्मी मुख्य छ: देवियां मानी गई हैं जिनका भावास मध्य लोक है। मुत्राओं जोमसिका, बेल, हाथी, गैंडा, सिंह, सा, मगरमच्छ करी और वृक्षति भक्ति है, वे ही चिन्द जैन तीर्थकरों का मतियों भी मिलते हैं।" very valuable miterials of historical importanc., owing to the lives of the.rruthank-tasts. Risabha or Adirath and AristaNemi, the end Tiriharkoli, being ini in:iely connected with some anciert Indiin historical pers..1C, " -l'. C vinji, kane pe 175 10 foutncte 16 १-६९क०, मग ८ रिभिष्ट पृ. १८. 2. • 'The n..mes and symbols un llares illnexed wou'd appear to disclose a conneclion between the cid religious cults of the Hindus anil Jainas with thuse of the India's people.........1 is interesting to note that the Puranas and the Jaina religious bucks buth assign high plueks to these gods ( of Indus people )" - rof Pran Nath; I.HQ. VIII, 37-29 ३-इएका., भा. ८ पृट १३२ । ४ प्रतासारोबार, ९७८-०९ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिस मेन इतिहाम। नं. १ (Ph. cxVI) मोरनं. ७ (Ph. CXVIII) की मुद्रामोर एक पंक्ति के नंगे गेगी खो दर्शाये गये हैं। उनके. मागे एक भक्त घुटने टेके हुये बैठा है, जिसके हाथमें छुरी है। उसके मन्मुख एक पारी रूड़ी है और बारीके सामने एक वृक्ष है जिसके मध्यमें मनुष्याकृति बनी हुई है। यह दृश्य पशुबलिका बोषक बताया जाता है । भक्त वृक्ष मियन देताको चरीकी बलि चढ़ाकर पण काना नाहना 4g तो ठीक है किन्तु छ नंगे योगी क्यों अंकित किये गये हैं ! वृक्ष श्रया यशाम उनका कोई माय किसी माय सोनम नही होता। लगभग वीन वर्षकी बात है। • an' के विशे के लिये एक रंगीन चित्र हमने बनवाया था। 34 चित्र में भी उपर्युक्त मुद्रा के मान ही दृश्य बनायाम अंकित कराया था-34 मय हम मुद्राका हमें पता भी नहीं शाचित्र और इस मुद्राक भात केवल इतना है कि चित्रमें परीके पानस घोड़ा और वृक्षक स्यानार यज्ञ एवं बधक कित हैं। चित्रमें म० महावी. योग में : यज्ञ के भावसं चित्रित किये गये हैं। इसी प्रकाउपर्युक्त मुद्राओम छ योगी बकरीकी बलि न चढ़ानेका उन्देश देने हुए ही न होने हैं। जैन कथा ग्रंथों म० नेमिनायके ममय हु छ ! द मुनियों के मस्तित्वका पता चरता है। मतरव निधु: इन मुद्राओंस भी बाईसापधान दिगम्मर योगियों का मत 34 समय प्रचलित प्रमाणित १-रिक, मा. ८ पृ. १३३. . . २-अंतगत खाओ (मामदाबाद) ० १...। . . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। इसी प्रकार हरप्पासे पास मानवकी नंगी मूर्ति, (पोट ०१.) बो काकी ष्टिसे द्वितीय है एक दिगमा योगीकी ही मति प्रमाणित होती है, क्योंकि कम मौर उसके हाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में बने हुये हैं। खेद है कि मूर्तिका शिरोभाग मोर घुटनोंसे नीचेका भयोमाग अनुपलब्ध है। पर तो भी धाका माग मूर्तिको कायोत्सर्ग मुद्रा स्थित नम प्रमाणित करता है। मत: इस मूर्तिको एक दिगम्बर जैन श्रमणकी प्रतिमा मानना बेना नहीं है। इसी तरह मोहन-जो-बड़ोसे उपलब्ध एक पदामन मूर्ति (प्लेट नं. १३ चित्र नं० १५ १६) जिपके सिप सो फम बना हुमा है, बिल्कुल भगवान सुरवं अथवा पार्श्वनाथको पनपन मूर्तिके अनुरूप है। उसे हम निम्संकोच जैन मूर्ति कह सकते है। वेसी मूर्तियां जैन मंदिरों में पूजी जाती है। अतएव पूर्व विवेचनको दृष्टिमें रखते हुये यह मानना ठीक है कि मोहनजोदड़ो के लोगों में जैनधर्म भी प्रचलित था। उन लोगोंका समर्क द्राविड़ नानिक लोगोंमें या बौर द्राविड़ भी बैन थे, यह बात विद्वजन प्रगट कर चुके हैं।' गतएक इस साक्षीसे भी म. ऋभदेवको जैनधर्मका संस्थापक मानना ठीक है। भारतीय पुरातत्वमें तीर्थकर । पुगतत्व में मथुगका देवशैलीका बौद्धात। और उस परकी मनिक पटना कनके पाससे पास मौर्यकालीन दि० जन प्रतिमाय खंड. .. Short Studies in the Science of Comparative Keligion p. p. 243-244 २-प्रेमी. पृष्ठ २७९-२८.. ३-सिमा, भा. १३४ ९६. . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] संक्षित जैन इतिहास । गिरि उदयगिरि (मोडीसा) तेगपुर (पासशिव) गौर डंक (काठीकबाई) की गुफाओंकी जिन मूर्तियां ईवी पूर्व पाठवीं शताब्दीसे ईस्वीपूर्व पहली शतानी तक चोवीस तीबरों की मान्यताको प्रचलित प्रमाणित करते है। हाथीगुफाके शिकालेखमें स्पष्ट लिखा है कि नन्द सम्राट लिग जिनकी नित मूर्तिको मगर ले गये उसे सपाट खाविक वापस कलिंग ले माये थे। इन उल्लखोसे जैन तीरोंकीमान्यता पक ऐतिहासिक बाता प्रमाणित होती है। मतः ऋषमदेवको ही नोंका आदि पुरुष मानना ठीक है। उपगन्तकालमें। अलमदेवसे उद्धन होका जैनधर्म और जैनी लोकव्यवहारमें नयर हुए थे। ऋषभदेशक पुत्र भात भारतके पहले सम्राट थे और उनके द्वारा हिंसा-संस्कृतिका विकास विश्वमें हुनाया। महिसासंस्कृतिका बह अरुणोदय काल था। उस समय ही श्रमण और न मण-दो भिन पामगओं पर होगया था। ऋषभसे पुष्पदन्त तक तीर्थरों द्वारा बडिमा धर्मका पृण प्रचार होता रहा था। किन्तु दस तीर शीतलनायक ममयस माडिसा-संस्कृतिक सूर्यको पावहरूपो गहुने प्रात कर लिया था। उस समय तक बो बाबण वर्ग ब्रह्मचर्यका पालन करके मात्मानुभति म्म था, वह शिथिगचाका शिकार हुमा । वैदिक ऋषि मुण्डमालानन हि परको सिप राया-हाथी. घोडा. 1. No:es on the Remains on Dhxuli & Caves of Udaygiripes २-करपंहुचरिय, प्रस्तावना, पृष्ठ ४-४८. ३-दो आयलॉजी भार गुजरात, पृष्ठ १६६-१६८. ४-अविमोखो. मा. ३४ ४६५-४६७. । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ momeomommommommommommemories m ame कन्या. पुर्ण मादिका दान देना उसने स्वीकार किया। इस घटना सायही बामण वर्गमें एक अन्य विधारबाग निकी, जिसमें 'माया' नहीं, परिग्राको-शरीर पुष्टि और इन्द्रिय लिप्साको प्रमुख स्थान मिला जिसमें डिमा-गक्षमी माहिसा देवीके मासनपर बैठो। बीस तीर्थकर मुनिसुव्रतनामजीके ममय तक वह इतनी बलवान होगा कि खुल्लमखुल्ला कि बलिदानों और रज्ञोंका विधान किया गया। वैदिक ऋचाओंका शब्दार्थ प्राण काके रिमा और बामनाको पोषण मिला, गजा बसुने हम हिमा प्रवृत्तिको भागे बढ़ाया ! महिमा प्रधान श्रमण विचारधारा क्षीण होगई। "महाभारत" और कुत्तनिपात" से भी यह प्राट है कि पहले ब्राह्मण बहिसक यज्ञोंको काता-शाकि चावलों को होमता था, परन्तु पन्त वह पशु यज्ञोंको कान में संख्य हुमा था। इस हिंसक प्रवृत्तिसे देशमें तामसिक पाशविस्ताका पावल्या होने लोक मृढ़ता फैली। देवताओं के कोप और भूतप्रेतके भयसे मानव घबहा गया । पशुबलि देका उसने उनको प्रसन्न करने का स्वांग रचा। भूनों और रक्षक मावास-वृक्षोंकी भी पूना होने लगा। इंद्र, वरुण नाम मादि देवता भी पूजे जाने खगे। उनका अलंकारमय माध्यात्मिक रूप जनताकी दृष्टि से बाहर हो गया। हिंसा खिखिला रमा, पान्तु श्रमण इससे पाडाय नहीं। तीर्थकर नमि और नेमिने पुनः हिंसाका झण्डा ऊंचा उठाया। उनके तीनकालमें कामिनीकंचन भोर मच-मसकी वासनामें कोक बहा माहा बा। नेमिने बारे में घिरे हुए पशुओंके रूपले युगवर्ती घोर रिसाको देला का नारायण बामाकीमतोषभोगोनिक मिचेर Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.] संक्षिा बैन इतिहास। . . या। नेमिने इस शिक्षाकी नृशंसता महाभारतमें घटित महान् मानाहत्याकाण्डमें अपनी, गांखोंसे देखी थी। महाभारत युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। मानवके नैतिक पतनके उस मन्यतम भयानक को देखकर उनका विवेक जागृत हुआ होगा-तभी तो नेमि पशुओंकी विपिनाहट सुनकर श्रमण साधनाके साधक बने थे। कोकका मानव तो गर्थिक व्यक्तित्वका पुजारी बना हुआ था। द्रोण सामाचार्य अपनी मान-रक्षाके लिये पंचालके दो भाग करानेमें कारण बना था। धर्ममूर्ति युधिष्ठिर सती द्रौपदीको जुएमें दाव पर लगा बैठे थे। यादव मुगपानसे अपने कुलका ही नाश कर बैठे थे। मिने कामिनी कंचन और मद्य मांगके विरुद्ध बगायत की। उन्होंने अपना विवाह नहीं किया-बगत चढ़ीकी चढ़ी रह गई। नेमि श्रमण माधु हुये तो उनकी भावो पत्नी गजुल भी पीछे नहीं-वह साध्वी हो गई । लोकमें तहलका मच गया । उसने रुककर कुछ सोचा और तीकर नमिक बहिसामई उपदेशसे वह प्रभावित हुभा । मानव समाजमें प्रतिक्रिया जन्मी । भारतमें उपनिषदों द्वारा भात्मविद्याका प्रचार किया गया। भारतके बाहर भी अहिंसा बळाती हुई। किन्तु हिंसा ही मिटनेवाली न थी। पशुयोंके साथ शुष्क शान और हठयोगको अपनाया गया। अनेक मत प्रतिक मागे जाये, बिनोंने मनमाने ढंगसे हिंसा-बहिंसा समन्वय कराने के प्रयत्न दिये। मगवान पार्श्वनाथने हिंसा-संस्कृति और दिगम्बर योगमुद्राको गाये बड़ाया महिला वर्मका प्रभाव को कबापी हुमा । ईरानमें हो F IR मासान पानाच' नामक पुस्तक (बस) देखे। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प रीष६०... पूर्व कारमें वास्तु म (Zoroaster) 1 बाग हिंसक पबिधानका विधान हुमा बताया जाता है, वही वस्तु द्वितीय (Zoroaster II) ने पूर्व सन् ७०० में अपने उपदेश नसिक पलिदानोंका ही निकरण किया था। ईस्वी पूर्व दूसरी तीसरी शताब्दी में रचे गए बरिष्टीयमके पत्र' (The Letter of Aristeas) में स्पष्ट लिखा है कि यहूदी भादि पाचीन भारततर बोके अन्य कृत भाषामें लिखे गये और उनमें महिंसक पसिनानों का ही विधान था। यूनानमें पिबागोर (Pythagoras) एवं नय तत्ववेताओंने महिंसाका प्रचार किया था। माशंशत: जैन सीकरों और श्रमणों द्वारा महिला संस्कृतिका विकाश विश्वव्यापी हुमा था। इन तीर्थकरों का वर्णन हम प्रस्तुत इतिहासके प्रथम भागमें कर चुके है। __ मगवान महावीर । उपरान्त मन्तिम तीर्थकर भ० महावीरने एक सर्वतोमुखी काति मातमें उपस्थित की थी, जिससे समान व्यवस्थामें उदार माम्यवृत्तिका समावेश हुमा; लोक जीवन परोपकारमय महिंसा वृत्तिका पोषक बना। पशुओंको भी त्राण मिला और गोपनकी वृद्धि हुई। मानव बीपन नैतिकताके ऊंचे प्रस्तर पर पहुंचा। कोई भी मानव दास बनाकर नहीं सखा गया, पुरुष ही नहीं, खियां भी घर छोड़कर लोकोद्वारके पुनीत कार्यमें लगी थी; मानवों में राष्ट्रीय एकीकरणकी भावना जगी थी। १-२०मा० १२ पृ. १४३.१४४ मोर ऐ०, मा." पृ. १४-१९ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] संक्षिप्त जैन इतिहास | बहुतेरे राज्य प्रजातंत्र रूप में शासित हुवे और सम्राट् मेणक विकारने ईरानियों को भारत सीमा में पैर नहीं भरने दिया । उन्होंने अपने मित्र पार्बतीय नरेशकी सहायता करनेके लिये जैन युवक बीरबर जम्बूकुमार के सेनापतित्वमें सेना भेजी थी। श्रेणिकने मगध राज्यका महत्व बढ़ाया का। यह म० महावीरके अनन्य भक्त - एक कट्टर जैनी थे । अन्य राज्य | नंदवंशके राम्रा भी जैनी थे और उन्होंने मी महिंसा संस्कृतिको बागे बढ़ानेका उद्योग किया था। नाखिर मौर्य सम्र टू चंद्रगुप्त द्वारा भारतका राष्ट्रीय एकीकरण हुआ था। केंन्द्रगुप्तने यूनानियोंसे मौर्चा लेकर उनको भारत से बाहर निकाल दिया था और अफगानिस्तान के प्राचीन भारतीय प्रदेशको भारत में मिला लिया था । श्रुतकेबली भद्रमाहु म्रट् चंद्रगुप्तके धर्मगुरु थे और उनके निकट ही उन्होंने जैनमुनि दीक्षा धारण की थी । सम्राट् अशोक और सम्प्रतिनं धर्मलेखोंको जगह जगह पर खुदवाकर अहिंसा धर्मका प्रचार किया था और विदेशों में धर्मप्रचारक मी मेले थे। अब इंडोग्रीक शासक भारतमें घुड़ भाये और उनका दमत्रव (Damotorius) नामक राजा मथुणसे भी आगे मगधकी ओर बढ़ गया था, तब कलिङ्ग चक्रपर्ती जैन सटू ऐक स्वाश्वेक भागे माये और ज्यों ही उन्होंने मगण सम्रटू बृहस्पति मित्रको परास्त किया, वो ही दमत्रयके के छूट गये और वह मथुम छोड़कर भाग गया। एकवार पुनः भारतको स्वाधीनता प्राप्त हुई ! किन्तु साम्प्रदायिक विषमता के कारण भारतीय राष्ट्रीयता अधिक - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकयन । २३ पपई । मर्दभिल्ल राजा शासन-मदमें न्यायको शुरू गये । जैन पपरमार हुआ। कालकाचार्य उसके प्रतिशोधकी भावनासे शकस्थान पहुंचे और शकशाही राजाओंको सिंधु सौगष्ट्रमें किया काये और गर्द भिल्ल राजाके अत्याचारका अन्त किया ! उपरान्त सम्राटू विक्रमादित्यका प्रभुःख सारे भारत पर एकसमान व्यःप्त हुआ। आचार्य सिद्धसेनने सम्राट् विक्रमादित्यको महिलाधर्मका पुजारी बनाया था । वंशके राजा मा जैनधर्मसे प्रभावित हुये थे। उत्त' भारत के गुप्तवंश के राजा लोग यद्यपि वैष्णव वर्गके श्रद्धलु थे, परन्तु वे भी जैनधर्म से प्रभावित हुए थे। दक्षिण भारत में कदम चालुक्य, राष्ट्रकूट, गंग, डोय्पल, शिलाहार, ग्ट्ट पल्लव, चेट पण्ड्य आदि राजवंशोंका बैनाचायने पथ प्रदर्शन किया था। रविवर्मा, अमोघवर्ष, नयसिंह, कुमारपाल आदि शासकों के धर्मगुरू बड़े २ जैनाचार्य थे। उनके द्वारा राज्य संचालन अहिंसा नियमोंके आधार पर किया जाता था । प्रस्तुत इतिहासके द्वितीय और तृतीय भागोंके पई खंड ग्रथोंमें हम इन सबका सप्रमाण इतिहास लिख चुके हैं। उनका यह सिंहावलोकन इस बासको स्पष्ट करनेके लिये यहां किया गया है कि बेनोंने वस्तुतः भारत के राष्ट्रीय निर्माण और राजनीतिमें एक महत्वशाली सक्रिय भाग किया है, क्योंकि कुछ लोगों की ऐसी अंति है कि जैन धर्म कभी भी राष्ट्र-प्रधान धर्म नहीं रहा है। ऐसे लोगोंको जैन इतिहासका नवकोकाम करके अपने ज्ञानका संतुलन कर लेना चाहिये । हमारे इतिहासके तृतीय मानके चार खंड प्रकाशित हो चुके, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] संक्षिप्त बनाइविधाम । मस्तुशांचा खंड है। इस खंड में होस साम्राज्य के मकाके उपरान्त ठिापित विजयनगर साम्राज्य मन्तर्गत चैनधर्मके इतिहासको संकलित करना अभीष्ट है। पांचवा खंड। . होरल साम्राज्यकी म्याप जैनाचार्य द्वाग जैनोत्कर्षके लिये हुई थी और उस काल में जनोंका उत्कर्ष भी विशेष हुआ था। किंतु भी गमानुन द्वारा वैष्णवधर्मके प्रवास और होमनरेश विष्णुर्दके धर्मप्रवर्तन जैनोत्कर्षका सूर्य अस्ताचरको खिसक चला था। उस अबसान काल में भी जैन गजकर्मचारियों, व्यापारियों और साधारण जनता द्वारा जैनका प्रभाव स्थिर रखनका सद्प्रयास हुआ था। किन्तु उसीसमय दक्षिण भातपर मुपलमानों के नाक्रमण हुए । जिनके कारण होरमा साम्राज्य ही बर्जरित हो गया। जैनधमकी पति विषम स्थिति हो गई-जैनोंकी भाशायें विलीन हो गई; पान्तु यह परामत नहीं हुवे । माता जैनकी र.ज्यमान्यता नष्ट हो गई और उसका स्थान वैष्णवर्मने ले लिया, फिर भी जैनधर्मको बड़े उस प्रदेशमें गारी जमी हुई थी, इसलिये उसे न तो वैष्णधर्म निकाल सका और नहीं ही मुसलमानों के माक्रमण ! होम्सक नरेश बाला चतुर्षके पामपने उसके सादारों को साधीन होने का मौका दिया । उपर जनताने हनुम किया कि देवकी बाके लिये एक बयान शासककी नावश्यकता है। होमक परेशाने सजिमालीगी। साथ ही कोई प्रभावसालापर्व Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकपन । [२५ mmommommmmmmaNAKAMANIRANASIAwesome भी उस समय नया जो जैन शासनको फिर जागेगा । दूरी गोर नेतर भाचार्य विद्यारण्य मादि अपनी प्रतिभासे चमक रहे थे। बनताको उन्होंने मुसलमानों के माक्रमणसे सावधान किया । साही सरदारोंने संगठित होकर एक हिन्दू साम्राज्यको स्थापित करनेके किये बनताको उत्साहित किया। इस मनोवृत्ति और राष्ट्रीय भावनाका परिणाम विजयनगर साम्राज्य था। पाठक मागेके पृष्ठोंमें उसकी स्थापना और राज्य शासनके इतिहासके साथ जैनधर्मकी ऐतिहासिक स्थितिका परिचय अवलोकन कीजिये। वस्तुत: जैनधर्म भ० ऋषम द्वारा उद्धत होकर मानकर अपनी महिंसा-संस्कृतिके माध्यामिक बलपर जीवित रहा है। जैन शासन महिंसा धर्म पकाशमें लोकव्यापक और शक्तिशाली सत्ता रह चुका है। जैन शासनने मानवको उसकी महानतामें प्रगट होने दिया। वह महा मानव हुमा। लोककल्याणकका मादर्श उसने उपस्थित किया । विजयनगर साम्राज्य कालमें जैनधर्मके इस विशाल रूपकी नामा सर्वत्र चमकती थी; पाठकगण वस्तुस्थितिको भागे पढ़िये। SAREETHER -- STI Page #43 --------------------------------------------------------------------------  Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका उसा मध्यकालीन इतिहास. विजयनगर-साम्राज्य उसमें जैनधर्म और जैनियोंकी ऐतिहासिक स्थिति। -संक्षिप्त जैन इतिहास। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] संक्षिस जैन इतिहास विजयनगर साम्राज्यका इतिहास । प्रथम संगम राजवंश और जैनधर्म । भारतकी पूर्व स्थिति। भारतवर्षकी प्राकृतिक रचना ऐसी रही है कि उत्तर भारतके निवासियों का सम्बन्ध दक्षिणके भारतियोंसे कम रह सका है। भारतका प्राचीन रूप से कुछ अटपटा था-तब उसका विस्तार अफगानिस्तानसे भी कुछ मागेतक फैला हुमा था। एक समय मगष भोर नेपालके नीचे तक समुद्रकी खाड़ी फैली हुई थी और राजपूतानामें भी समुद्रजा हिलोरे ले रहा था। उधर दक्षिण भारतमें मलय पर्वतसे पश्चिम दक्षिण में स्थलभाग मौजूद था, जो अब समुदके उदरमें समाया हुला है। उस समय द्राविड़ और मसुर नातिके मूल निवासी सारे भारतमें फैले हुये थे, जिनके अवशेष भाज भी बिलोचिस्तान, सिधु भौर दक्षिणमें चन्द्रहल्लो मादि स्थानोंर मिळते हैं। यह मूल निवासी द्राविड सर्वथा समय नहीं थे। वह धर्म कर्मको पहिचानेवाले मुसंस्कृत और सभ्य मानव थे । जैन शास्त्रोंसे स्पष्ट है कि दक्षिण भारतमें पहले-पहले म० ऋषभने बहिंसा संस्कृतिका प्रचार किया वा और उनके पुत्र कामाल दक्षिण भारतके पहले सम्राट और पहले गगर्षि हुये थे। दक्षिणके प्राचीन ग्रन्थ बोकप्पिरम् पौर सिम्प्पदिकारम् महाकाय सह ग्रंथोंसे वहां पर जैन संस्कृतिक प्राचीन बस्तिताका ताता है, जिसका समर्थन पुरातत्यसे भी होता है। मा० १ १ और २ मोर 'मपा.' देखने। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ememommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm विजयनगर साम्राज्यका इतिहास। [२९ वैविक मार्यधर्म, मालम होता है, दक्षिण भारतमें चैनधर्म के बहुत समय बाद नाया। 'रामायण' से स्पष्ट होता कि वैदिक ऋषि जगत्यने वहार सर्वप्रथम ब्रमण धर्मको फैलाया श्री। पयपुगण से स्पष्ट है कि नर्मदा तटके सुरोंमें जैनधर्म का प्रचार देवों और दैत्यों के संघर्षकालमें हुमा थी । भागवत से स्पष्ट है कि ऋषभदेवके धर्मको कोंक, बैंक और कुटक देशके राजा महंतन वहां प्रचलित किया था। कोंक देश स्पष्टतः कोकणका और दक्षिणके वेङ्गि' देशका चातक है। कुटकसे संभवतः कणाटक और गंगवाहि प्रदेश भाभिप्रेत है। यह देश एक अत्यन्त प्राचीनकालसे जैनधर्मके केन्द्र रहे हैं। इनम ही. उपरांत विजयनगर राजाओंके शासन चक चला था। विजयनगर राज्यकी भोगोलिक स्थिति । होयसल साम्राज्यके भयावशेषोंपर ही विजयनगरके हिन्दू साम्राज्यका निर्माण हुआ। परिणामतः विजयनगर साम्रज्यका विस्तार होरमक सम्राटोंके शासित क्षेत्र तक पारम्भमें सीमित होना बाविक है। विजयनगर साम्राज्य दक्षिणके कर्णाटक. मसा कोकण भादि प्रदेशों में फैला हुआ था। वह भूमि उर्वरा और बहुमूल्य वृक्षों और धातुओंसे परिपूर्ण थी। विजयनगर साम्राज्पकी समृद्धिमें वह भूमि एक मुख्य कारण थी। - १-विर, पृ. ५ । . २-पद्मपुराण (मई) प्रथम सृष्टि खंड १३ म.। ३-'तस्य किसानु चरितमुपारण्य कोङ्क बेक कुटकाना राज नमोपशिवकावधर्म उकायमाणो भवितव्येन विमोहित:.........संपवतंविष्यते । +कको १९ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिा जैन इतिहास women - SCENSES गजनैतिक स्थिति। यह संकेत किया जाचुका है कि मुसलमानोंके भाक्रमोंसे दक्षिण भारतके हिन्दुओंमें भाशंका और बेनी बढ़ गई थी। लोग अपनी बान और माल लेकर सुशित स्थानोंको भागते थे। स्वयं होरमल माटको द्वागसमुद्रक पतन पर अपनी राजधानी वहांसे हटाकर तिरुवन्नमलाईमें स्थापित करना पड़ा थी। देवगिरिके यादव गजा और वारंगलके कारतीय नरेश मुपलमानों का लोहा मान चुके थे और कृष्णा नदीसे उत्त में मुसलमानों का बहुमती राज्य स्थापित हो गया था। भलाद्दन खिलजीके सेनानायक मलिककाफूरने सन् १३०६ ई० में दक्षिण भारत पा भाकरण किया था और होरपक्ष नरेश वीर बलाक तृतीयको व कैदकर लेगया था। किन्तु सुल्तानकी माज्ञाके उ61 मुक्त कर दिया गया था। मलिककात होरक्षक साम्राज्य १५ माविकार जमाकर ही संतोषन नहीं हुभा-उपने मागे बढ़कर मदुम्के पांड्य गजाओं को भी पगम्त किया और गमेश्याम एक मस्जिद बनाकर उमने अपनी विनय-यात्रा समाप्त की थी। वह सन् १३११ ई. में दिल्ली लौट गया था और दक्षिणमें मुपलमानी सताकी रक्षा के लिय पia सेना छोड़ गया था। अमीर खुसरूने लिखा है कि मलिककाफूर इस दक्षिण विजयमें ९६००० मन सोना, जाहिरात, ही मादि बहुमूल्य सामियो, ५१२ हाथी और १२००० घोड़े षटकर दिल्ली ले गया था। मुहमानोंके इस त्याचारसे हिन्दु के हदयों में उनके पति घृणा और प्रतिहिंसाको भावना बागृत रोगई थी और मोने उनको अपने देशसे बरane Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साम्राज्यका इतिहास । [३१ निश्चय किया था। किन्तु अभी वह संभलने में भी नहीं पाये थे कि सन् १३२७ ई० में मुहम्मद तुगलक के सेनापति बढाउद्दीनने दक्षिण पर आक्रमण किया था। इस बार मुसलमान लूटमार करके ही संतोषित नहीं हुये, बल्कि उन्होंने दक्षिण में इग्लामकी नड़ जमानेके लिए लोगोंको जबरदस्ती मुसलमान बनाया । बहाउद्दीनने कहिके राजाको मार डाला और उसके लड़के को मुनलमान बनाया था । इस आक्रमणका प्रभाव दक्षिण भारत के लिए अतीब हानिकारक सिद्ध हुआ। कोई भी हिंदुधर्म सुरक्षित न रहा और समाज व्यवस्था भी छिन भिन्न होगई । मलिकका के दिल्ली लौटते ही होटल मंग्श बोर बल्ल तृतीय मुक्त हुये और उन्होंने अपना पृत्रे गौरव प्राप्त किया था । काकतीय नरेश कृष्णा नायकको अपने साथ लेकर उन्होंने मुसलमानोंसे मोर्चा किया और वारंगल से मुसलमानोंकी निकाल कर बाहर कर दिया। वीर ब्ललने +नू १३४० ई० में दक्षिण भारत से मुसलमानों को निर्मूल करने के लिये मदुगर विशाल सेना लेक आक्रमण किया था । मुसलमान शासक पराम्स होगा, किन्तु वीर बल्लाउने उसको मुक्त कर दिया । यवनने हिन्दू नरेशकी इस उदार वृत्तका उत्तर कृतघ्नता में दिया। मुसलमानोंने धोखे से गलको आक्रमण कर दिया। हिंदू सेनायें भगदड मच गई और हम गढ़में वीर बल्लाल भी बीग्गतिको प्रस हुये। उनके पश्चत् सन् १३४२ से उनका पुत्र विरुराव बल्लाक चतुर्थ शासनाधिकारी हुआ था; किंतु वह अपने पूर्वजों के समान प्रतापी और शक्तिशःकी नहीं था। इस प्रकार विजयनगर समय दक्षिण भारतकी राजनैतिक स्थिति एक अत्यन्त शोचनीय दायें के ▾ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mommmwammam . ३२] संवि जैन इतिहास । ' वो हिन्दुओंके दिक टूट रहे थे और सा यह गनुभव कर रहे के कि किस तरह अपनी खोई हुई म्वाधीनता पार करें। विजयनगर राज्पकी स्थापना।। साही सम्पदायों के विवाशील पुरुष मनुभव कर रहे थे कि किसी पराक्रमी और बुद्धिशाली शासकके नेतृत्व में हिन्दुओंका मुसंगठित राज्य स्थापित किया जाये। उन्होंने यह भी देखा कि होयसल नरेशोंके सामन्त महामंडरेश्वर राजा हरिसर और बुक अतीव शक्तिशाली और चतुर शासक है। अत: एक संघ बुलाया गया और उसके निश्चयानुसार हरिहरके नेतृत्व में एक मुगठिन और समुदार गज्यकी स्थापना सन् १३५६६० में की गई। यद्यपि वह एक राजतंत्र था, परन्तु उसका ध्येय विशुद्ध राष्ट्रीयता बी-साम्प्रदायिक ताके जुमेको हिन्दुओंने त उतार फेंका था । एक गष्ट्रकी भावना उनके हृदयमें तभी जागृत हुई बाकि यवनोंके भयंकर बाकमणोंने उनकी बलिं खोली और साम्प्रदायिकताके विषका घातक परिणाम उनकी दृष्टि में चढ़ा। वैष्णव, , जैन, और लिंगायत जो भागसमें बड़ा करते थे, उनको एक संगठित-शक्तिमें परिवर्तित कानेका उद्देश्य विजयनगर साम्राज्यकी बढ़ बमानेमें कारणभूत मा ! सन् १३४६१० में हरिहग्ने अपने भाईयों-नुक. माय तथा मणकी सहायतासे लोकमतको मान देते हुए दक्षिण भातकी स्वाधीनताको अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये तहमदा नदी के तौर पर विजयनगर राज्यको स्थापना की ।' कतिपय १-०, पृ. ८-११, मैकु पृ. ..७ । । -मो.मा. ३ पृ. .. भोर इंहिम्न. मा. १ पृ. २१-१३. .. . . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साम्राज्यका इतिहास (१३ विद्वान इस घटनाको सन् १३३६१० में पटित हुई बताते है। अपने मतकी पुष्टि में ऐसी शिलालेखीय साक्षी उपस्थित करते। विसमें होसक सम्राट् कबीर बलाक तृतीयके समबमें ही हरिहरको महामंडलेश्वर शासनकर्ता और विरुवा बल्लाको सामान्य शासक घोषित किया गया है। किन्तु नवीन ऐतिहासिक सामिग्रीके समय र मत ठीक नहीं जंचता । होसक स्माटोका यह नियम वा कि अपने महामंडलेशर सामन्तों को अपने २ प्रान्तमें शासन करनेकी छूट देदेते थे। उनके ही अनुरूप विजयनगर समाटोंने भी सामन्तोके लिये होम विरुद्ध महामंडलेश्वर' बाल क्वाथा और उन्हें पान्तीय शासनाधिकार भी किया था। हरिहर होरपक नरेश वीर बल्लाळके पाकमी सामन्त थे। उन्होंने इसी लिये हरिहाको सहतका शासन al नियुक्त किया । हगिडाने होरपळ साम्राज्यकी खाके लिये ही उस सगी प्रदेशमें किले और दुर्ग बनवाये थे। उनके भाई भी होस साम्राज्यको रक्षा ही क्या ! पहिक कहिये हिन्दू राष्ट्रकी १-श्री वासुदेव उगध्यायने मि• गरस मादिकी भाति इस पुरातन मतका प्रतिपादन किया था। -वि., पृ. १६ । २-सामन्तोके दानपत्रों में सम्र का उलेख न होनेसे यह नहीं कहा वासवा कि वह शासक स्वाधीन होगया था। वीर बलाने देश. नयाकी भावश्यक्ताके समय अपने महान पद और सामन्तोंके पदोका ध्यान ही नहीं रखा। एक शिलालेखमें बलाल तृतीय दंडनायक मेदगिदेव भोर अलिय मायके साथ शासन करते लिखे गये हैं। (का. ११२) ऐसे ही और भी उल्लेख है। विग्यनगर गज्यकालके शिक्षासमे.. प्रान्तीय शासकों द्वारा प्रकाशित किये गये हैं। उनसे यह सिद्ध नही होता कि शासक स्वाधीन थे । विशेषके लिये शियन हिरीका सायी मा. ८१में प्रसापित प्रो. गोरेलायो । - - - - - - - -. ... .... . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५] संचित Farm बाके लिये अपने शौर्यको प्रकट कर रहे थे। होम्सने काटी नरेशके माय गष्ट्रकी खाके लिये ही एक संघकी स्थापना की थी। बस: या पतिमापित नहीं होता कि हरिहर कौर उसके मायने होससे बगावत करके बनेको स्वाधीन शासक घोषित किया का। साथ ही एक शिकालेखसे यह स्पष्ट है कि होय्सक नरेखों में सर्व मन्तिम विरुपाक्ष बल्लासका गज्याभिषेक हुनाभा मतभी शासनाधिकारी रहे थे। हरिहरने सन् १३४६ के पहले महाराजाघिरायन पारण ही नहीं किया था। इसी कारण विद्वजन सन् १३१६ ई. में विजयनगर साम्राज्यका श्रीगणेश हुमा मानते है। विजयनगरका प्रथम राजवंश ( काकतीय नहीं।) विजयनगरके भादि शासक हरिहरके राजवंशके विषय मी विद्वानों में मतभेद है। सीवेक, विल्सन मादि विद्वान उनका सम्मान काकतीय सशसे स्थापित करते हैं। उनका कथन है कि हरिहर मोर बुक काकतीय नरेश प्रतापरुद्रदेयके कोषाध्यक्ष थे। किन्तु महमानों के रंगल पर माक्रमण करने पर वह वीर बलाकी शम्नमें पहुंचे थे। जिनोने को अपना महामंडलेश्वर' नियुक्त किया था इसमें शक नहीं कि हरिहर और बुक वीर बल्लारू तृतीयके महामंडलेश्वर सामन्त होकर रहे थे, परन्तु यह स्पष्ट नहीं कि काकतीय वंश बस हुये थे। होरसलनरेश वीर बल्लालकी शत्रुता कारतीयनरेश तारुद्रसे थी-1 मका बलाक जाने शत्रुके वंशको महामंडधर पद पर नियुक्त करते ! अत: विनर नरेश भाटीय गजांशसे मानना ठीक नहीं है।' - १. ११, सो, मा. २.०१. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साम्राज्यका इतिहास। [१५ कदम्पवंशी मी नहीं। राइस मा० ने विजयनगर राजवंशको उत्पत्ति कदमाशके राजामोंसे अनुमान की थी; यद्यपि अन्तमें उन्होंने उनको यादपंक्षी स्वीकार किया था। कदम्बकुलसे उनका सम्बन्ध ठीक बैठता ही नहीं हैं, क्योंकि हरिहरके भाई माप द्वारा कदम कुरुके नाश किये बानकी बात इस मान्यता के विरुद्ध पड़ती है। कोई भी व्यक्ति अपने हायसे अपने कुलका नाश नहीं करेगा।' मतएव विजयनगर नरेश कदम कुलके नहीं कहे जा सकते । बल्ल लवंशसे सम्बन्ध । सर्वश्री हरास, वेष्य और कृष्ण शात्री प्रभृति विजन विजयनगर नरेशोंको बल्लारू सम्र के सामन्त रूपमें उमा हुये मामले है किन्तु श्री गमशर्मा हमके विपरीत विजयनगर मान ज्यको कम्पिक राज्यके ध्वंशावशेषों पा खड़ा हुमा घपित करते है। इस प्रसंगमें यह बात वह भूल जाते हैं कि बहाउद्दानके भाक्रमणमें कम्भिक बिलकुल नष्ट हो गया था। इसके बाद उसका अस्तित्व ही न सा।' किन्तु होरपक राज्य सम्बन्धमें यह बात नहीं हुई। बल्लक नृप इस माक्रमणके बाद भी अपनी सत्ताको स्थिर रख सके और मदुगके मुसलमानोंस उन्होंने मोची लिया था। इस माया र मानना पड़ता कि हो गजामोंकी ही बस उस समय दक्षिण -विद पृ. २० भोर में०, पृ. १११. २-अमीखे, मा. २. पृ. ५-१४. 1-विरेण गमतीर्थ के साथ सेगम नामक - बरा से; किन्तु इंदिर और उनके साथ नहीं थे । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवित बैन इतिहास। भारत में जन्त तक सोपरि रही थी। हरिहर और दुक नहीके महामंडलेश्वर थे। होटपक राजांशके समास होने पर ही उन्होंने सासन मासंमाका बामौर विजयनगर राज्यकी स्थापना की थी। पतः यही युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि हरिहर मावि विजयनगर नरेशोंका राजवंश भी वही था नो होरपक नरेशोंका था। संगम (यादव) राजवंश। होमनरेश अपनेको यादम-कुछ-चन्द्र श्रीकृष्ण का वंशक भौर द्वाराबती पुरवराधीश्वर घोषित करते थे। हरिहर और बुकने भी अपने को यादव गजकुलसे उत्पन या कृष्णके वंशज लिखा है। के संगम नामक रामाके पुत्र थे। मत: यह मानना ठीक है कि विजयनगरके राजा यादपकुलोत्पन्न होसक राजवंशसे संबंधित थे। संगमनरेश। विजयनगर राज्यके मादि शासक और संस्थापक हरिहर एवं इदके पिता संगमनरेश थे। उनके नामकी अपेक्षा यह राजवंश 'संगम' नामसे प्रसिद्ध हुआ था। संगम चन्द्रवंशी यादव नरेश थे। छनके पिताका नाम अनन्त और माताका नाम मेषाम्बिका था। १-संऔर., भा० ३ खंड ४ । २-"सोमवश्या यतः सध्या यादवा इति विभुताः । बस्मिन् यदुकुले क्लाध्ये सोऽभून्छी संगमेश्वरः ॥ बेन पूर्व विधानेन पालिताः सकला प्रजाः।" .., ::-हिर नि.का नेोर दानपत्र, ए... ४.. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साम्राज्यका इतिहा। [-३० measurememmamaenwwwrommomumerom उन्होंने किस प्रदेश पर शासन किया, या ज्ञात नहीं है। परन्तु विजयनगरके संस्थापकों के पिता होनेके कारण शिलालेखों में उनकी भरि मरि प्रशंसा की गई है। हिमायके सदृश गंभीर भौर पीर थे। कार्तिकेयके समान वीर, प्रकाशके मान तेजस्वी और प्रमायुक्त ये।' उनके चरणकमलोपर गजाओंके मणियुक्त मुकट झुके रहते थे। उन्होंने मुसलमानों से सफरू युद्ध किये थे, उन सब बातोंको देखते हुये संगम एक प्रतापी सामन्त प्रमाणित होते है। पादार-सोवररामन-कथे' नामक ग्रंथमें देवगिरिक राजाधिराज रामदेवके वंशज कम्प राजेन्द्रका चरित्र दिया हुआ है। इन कम्प राजेन्द्रनं कम्भिक राज्यको उन्नत बनाया था। वह कुन्तक प्रदेश पर होसदुर्गसे शासन करते थे। उनका राजदुर्ग कुम्मट बा गुम्मट नामसे प्रसिद्ध वा। यहां शेष, वैष्णव, जैन सभी सम्पदायोंके लोग सानन्द राते थे। बालुक्यकाका द्योतक एक प्राचीन जैन मंदिर का भी वहां अपनी बीर्णशीर्ण दशामें मौजूद है। इन कुम्मटनरेशकी राजकुमारी मारम्मका विवाह संगमदेवसे हुमाया। इस प्रथमें संगमको 'देव' और 'नरपा) पैसे प्रतिष्ठासूपक विरुदोंसे सूचित किया गया है। यह संगम कम्पिक नरेश रामनाषके साथ बलाक, काकतीय पौर मुसलमानोंसे माना।' ५-वि०६०, पृ. २३. " सोमवश्या यतः इलाध्या यादवा ति विश्रुताः । तस्मिन् यत्कुले मलाध्ये सोऽभून्छोसंगमेश्वरः ॥ वेन विषानेन पाकिता: सफा : " लोर दानपत्र । (क. १४.) २-विह, पृ. २४. १-मीयो०, मा० २०, 4-१४, ८९-१.६, २.१-१११ एवं २६१-२... Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MyAwame mammumm .३४] संक्षित बैन इतिहास । सनहीं सकते कि विजयनगर संस्थापक हरिहरके पिता संगम पोर: बसंगम एक व्यक्ति हैं। लावास और विजयनगर । कहा जाता है कि संगमका मूलस्थान मैसूरके पश्चिमी भागमें 'कास' नामक स्थान था।' मतः पश्चिमी मैसूरसे बाकर हरिहर नौर बुक कर्णाटकको राजनीतिका संचालन करने लगे और जन्त: विजयनगरके संस्थापक और पहले शासक हुये। वहां पर पहले गन्गुन्डि नामक छोटामा नगर बमा हुमा था, वह ही उन्होंने विजयनगर या विजयानगरकी नींव डाली। अनगुन्डिके पूर्वी और दक्षिणी दिशाओं में टुङ्गभद्रा नदी बहती थी। विजयनगर वह ही बसाया गया। उसकी स्थापना हिन्दू राष्ट्रकी विजय और समृद्धिके लिये की गई थी। इसलिये उसका नाम विजयनगर रखना उचित ही था। निकालेखों में उसका उल्लेख विजेगानगर, विधानगर और हस्तिनापती नामस भी हुआ है। जनगुण्डिको हस्तिकोण भी करते । भौर विजयनगरकी स्थापना मनगुण्डि-म्यान R हुई, इसीकारण उसका दूसरा नाम हस्तिनावती भी हुमा। किन्तु विधानगा तो वह बादमें कहा गया पतीत होता है, जबकि माधवाचार्य विधारण्यका सम्बन्ध हरिहरसे जोड़ा गया। निम्सन्देह हरिसर और बुक कट्टर १-विह, पृष्ठ २४. २-मी., भा. २. पृष्ठ २८४. 1-ASM , 1939, p. 155 गेहलका सि .४१. v-ASM., 1940, p. 148. ५-ASM., 1943P. 188 नगरवाजुक . .. ASM., 1982 p. 107. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mammommommmmmmmHARMAWENARMANAN विजयन साम्राज्यका तिहास । देणाबोर विरुणायके भक्त थे। ये मेरी मठकी बन्दना करने की गये थे; परन्तु यह मप्रमाणित नहीं कि माधवाचार्य विचारण्यने उनको राज्य स्थापनाकी प्रेरणा की और उसको समृद्धिशाली बनाया। वास्तवमें बात यह है कि हरिहरके एक प्रमुम्ब दंडनायक और सेनापतिका नाम भी माषप मा। माधवाचार्यके भक्तों ने दोनों को एक मान लिया और माधव विद्यारण्यको ही सेनापति माधव बना दिया। किन्तु यह स्पष्ट है कि दो भिन्न व्यक्ति थे। माधवाचार्य विद्यारण्य हरिहरके धर्मगुरु अवश्य थे, परन्तु उनका सम्बन्ध विजयनगरकी राज्य बस्वासे कुछ न थी। इसलिये उनके नामकी अपेक्षा विजयनगर उस समय विद्यानगर कहलाया जबकि विजयनगर राज्यको स्थापनाके पाद विद्यारण्यका सम्बंध जोड़ा गया था। विद्याकीति' नामक पुस्तकमें उल्लेख है कि विरुपाघनदेवनं विधायको तंत्रमतानुसार विजयनगरीका पुनः निर्माण कानेकी अज्ञा दी, क्योंकि वह नष्ट हो चुकी थी-यद्यपि एक समय उसका विस्तार दो योजनका था और उसकी गिनती चहे. नगरोंमें थी। हम लस्व में भी स्पष्ट है कि विजयनगर विद्यानगरके पहलेसे ही विद्यमान था। किसी कारणसे अप उसका हाम हुमा ना विधायने उसका पुनरोद्धार कराया । १-हेराम और भोमा० मा० ३ पृष्ठ ७०-७३. - पीठेपर संपाता नगरी विण्याहूया । भाषामविस्तरता बोनसम्मिता । मतंग इति तन्मये राबते सर्वकामदः । पुरी दिवानी अयमागता | संयोग्य सर्वतत्रापि भूयोपि नगीमिमा सम्माकिया महान महावये।' (कि. . ...) .: . . . . -A.S. M., 1932, p. 108. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] संवित जैन इतिहास । विधारण्य द्वारा पुनरोद्वार होनेके कारण ही विजयनगर विधानगर नामसे सिद्ध हुमा प्रतीत होता है। विजयनगरका वैभव। विजयनगरका वैभव महान् था-यह लोकके महान् नगरों से एक था। मानक उसे हम कहते हैं। मद्रास प्रान्तके वर्तमान बल्लारि जिलेके अन्तर्गत होमपेटे तालके में वह हम्मिग्राम है। वास्तबमें विजयनगरके मंशावशेषका प्रतीक ही हमिहै, जो नौ वर्गमीकमें फैले हुए है। दादासे यात्री और व्यापारी उस नगरका विशाल रूप देखने जाते थे, परन्तु भान वह धराशायी है। उसका पूर्व वैमा उसके खण्डहरों में कुल पड़ा है। उसके भनूर रूपको देखकर विदेशोंके यात्री दंग रह पाते थे। सन् १५१२६० में मन्दुमजाक नामक बात्री विजयनगर देखने नाया था। उसने लिखा था कि वैसा नगर कहीं दृष्टिमें नहीं बाग गौर न उसकी बराबरीका कोई नगर दुनिया में सुनाई पड़ा। यह नगर सात कोटोंमें बसा हुमा था। सातवें कोटमें गजमहरू थे। प्रत्येक वर्गके व्यापारी वहां मौजूद थे। डीग, मोती, लाल मादि नवागत खुळे बाजार विकते थे। ममीर और गरीब सभी बसाहरातके कंठे, कुणा मोर अंगूठियां पहनते थे।' पन्द्रहवीं शताब्दिमें दमक (सिरिया) से निकोकोकॉन्टि (Nicolo Conti) नामक एक 1. The city of Bidjanagar is such that pupil of the eye has never seen a place like it, and the ear of intelligence has never been informed that there existed anything to equal it in the world. It is built in such a manner that seven citadels and the sunne number of walls caclose each other etc." -Major Pp 33–76. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साम्राज्यका इतिहास। [११ पर्यटक भारत भाया था। उसने भी विजयनगर देखा मा। विक नगरको वह पर्वतोंके निकट पसा हुमा विशाम्नगर बताता है। उसने लिखा है कि विजयनगर साठ मीलके क्षेत्रमें बसा हुमाया भोर उसकी दीपा पर्वतोंसे बातें करती थीं-बहुत ऊंची थी।' यहाँकी सड़को तक पर बहुमुल्य बड़े ल हुये थे। १४ ये उल्लेख विजयनगरकी विशाब्ता और विभूतिका बखान स्वतः करते हैं । इस नगरमें भनेक जिनमंदिर शोभायमान थे; निन से कुछ भब भी मौजूद है। यही संगमगजवंशीकी और उसके उत्तराधिकारियों की राजधानी यो। मालम होता है कि विजयनगरका निर्माण नहीं हुमा था, तक हरिहर और नुकबल्लाकों की राजधानी द्वारा समुद्र (इलेविड) से ही शासन करते रहे थे। हरिहर प्रथम । संगमके पांच पुत्र-१ हरिहर, २ कपण, ३ बुक, १ मारण और ५ महा नामक थे। इनमें हरिहर सर्वश्रेठ और विजयनगरके संस्थापक थे। फिरिस्तान लिखा है कि उत्तरके मुसलमानी नाक्रमणकी माशंकासे वीर बल्लाउने अपने जातिपालों की एक महती समा की।' इसी समा, हरिहर और उनके भायोंको विपर्मियों के नामों को विफल कानेका महती कार्य सौंपा गया था। विरुपाक्षपाकी किबंदी की गई और महामंडलेश्वर पदपा हरिहर निकत किये गये। विद्रगुन्ठकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि हरिहरने किसी मुसम्मान मुस्तानको R-Major Pt., II P. 6. x. असिमामा....।। २-विह.. १.१५-१६ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १) संवित बैन इतिहास wwe किनाशाहिरकी वीरताका परिचयास महती कार्यसे स्वतः हो । बलाके मकाळमें हरिहर सामन्त रूपमें ही शासन करते रहे। उनके सुबह शासन और दुम्य शौर्यन ने बनप्रिय बना दिया । बता होस राज्यकी समाप्ति पर हरिहर ही बनताके निकट मान्य शासक हुये । संगम राजवंशके वह पहले नरेश और विनय नगर राज्य संस्थापक हु ! हरिहरकी सत्ताको दक्षिण भारतके प्रायः समी छोटे शासकोंन मान्य किया था। उसके भाइयों ने भी उसे अपना सबाट स्वीकार कर लिया था। वे सा उसके शासन में प्रांतोंके कषिपति रहे थे। कम्पण दक्षिण पूर्वका अधिपति था। बुक द्वारा. समुदमें शासनाधिकारी था। मारप्पा प्राचीन बनवासी राज्यका शासन प्रबंध करता था। होमर के साधीन जो शासक थे उनमेसे कतिपय शासक कदम्प, कोकण, तेलेगु और मदुगके मुसधमान शासकोंसे मिलकर विद्रोही हुये थे और दिल्ली के तुगलक मुल्तानने भी हरिहरको परास्त करनेका प्रयास किया था. परन्तु यशस्वी वीर हरिहरने उन सबको पास्त करके देशमै सुख और शातिको स्थापित किया बा। मंग कलिंग और पाख्य देशोंमें भी उनकी सत्ता मान्य हुई बी। इसकR अभद्रासे लेकर पांच देश तक समस्त माग हरि. भाबीन हावा। सन् १३५१ ई. में बुकको उसने अपना सुपरमपनाकाला। सपने मातामोंके सहयोगसे सन् १३४६ १० से ११५५ . क सपालपमें शासन किया था। सन् ११५. वासी दुनावा। - लोमविधिम् । मु सबाणा: पवितः ॥' (२००२)। २-पि. पु. १.५१. .. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m o msomeonewomaaamaARESHMIRMIRAM विजयनगर साम्राज्यका इतिहास। [५३ हरिहरके शासनमें जैनधर्म। यपि हरिहरनरेश विरुपाक्षदेवके भक्त थे, परन्तु उनके शासनपास जैनधर्मको भी माश्रय मिला था। विजयनगर स्माटोंने समुदाय नीति धारण की थी-उनके निकट उन मबको ही संरक्षण प्राप्त वा, को मुसलमानों के विरोधी थे। जैनधर्मकी भी उनके निकट प्रश्रय मिका था।' हरिहर प्रथमके शासनकालमें बेल्लारी जिलेका रामदुर्ग नामक स्थान एक प्रमुख जैन केन्द्र था। यहां मूरु संघके नाचार्य पसिद्ध थे। सन् १३५५ ई० में मोगराज नामक जैन व्यापारी ने शान्तिनाथ जिनेश्वरकी प्रतिमा वहां प्रतिष्ठित कराई थी और उत्सम मनाया था। सास्वतगच्छ, बलात्कारगण और कोण्डकुन्दान्वयके नमकीर्ति नाचार्य शिष्य माघनन्दि भाचार्य भोगराजके गुरु थे। मनोंको अपना धर्म पालने और उसका प्रसार करने की पूर्ण सुविधा प्राप्त की। हरिहरके सम्बन्धी भी कई जैन थे, जिनको उन्होंने अपने भाषीन महामंडलेश्वर नियत किया था। हरिहरने मानी इकलौती बेटीका विवाह बल्लाळ गाजमार बालप्पा दंडनायकके साथ किया बाल राज्यके जैन राजाओंको सब ही मधिकार उन्होंने प्रदान किये। गर्ष यह कि विजयनगर राज्यमें जैनोंको पारम्भसे ही सम्मान और संरक्षण मास वा बुकराय प्रथम । हलके उतारिकारी उनके भाई दुमदुबे, बोमन् ११५५० . -संगर, १० २९८-९९।२-मे.,.५८।३-दक्षिणा, पृ. १३८ । ४-सिमा• मा... ४. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५] संधित जैन इतिहास । हरिहरको मृत्युके पश्चात् रामसिंहासनपर बैठे थे। वैसे बह बलाक तृतीयके समयसे ही राज्यके दक्षिणी भागका शासन प्रबंध करते थे। हरिहरको मृत्यु के साथ ही तेलुगू पांतमें विद्रोह प्रारम्भ होगया था, किन्तु प्रतापी बुकने इन विद्रोहियोंको शीघ्र ही परास्त कर दिया था। बुक्के युद्ध-कौशक और तरूवारकी चमचमाइटसे शत्रुभोंके दिक पास जाते थे । बुक्ने मान्ध्र, मा और कलिङ्ग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। परंतु बुकका अधिक समय बहमनी राज्यके प्रसिद्ध शासक मुहम्मदशाह (सन् १३५८-१३७७ ई०) से युद्ध करनेमें बीता था। पहले बुकने मुसलमानोंको पास्त करके उनके कई किलोपर मषिकार बना लिया था, किन्तु बादमें दौलताबाद के नपापकी सहायता पाकर मुसलमान कामयाब होगये थे। सतहबार हिन्द इस युद्धमें मारे गये थे।बुकको यह युद्ध मुसलमानों के अत्याचारोंके कारण सोहना पड़ा था। माखिर दोनों शासकोंमें संधि होगई थी। उन्होंने महाराजाधिरानकी पदवी धारण करके अपने नामके सिकभी चलाये थे।' जैनोंका संरक्षण। राज्य शान्ति स्थापित हो जानेर बुकरायने हिन्दूधर्मको उमत बनाने के प्रयास किये। मरीमठमें जाकर उन्होंने अपने गुरु माषषाचार्यकी बन्दना की और कई गांव मेंट किये। वेदोंके टीकाकार सायणाचार्यको भी उन्होंने प्रश्रय दिया। और शासन व्यवस्था उनके देखरेख में भागे पढ़ाई। किन्तु वैदिक महानुपायी होते हुए भी देवरायने धेनोंको अपना धर्म पालन करनेका अवसर दिया था। -०, ११-४१. २-०, - - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साम्राज्यका इतिहास। (५५ विजयनगर साम्राज्यकी स्थापनासे १७ वर्षों बाद ही सन् १३६३ 10 में बैनधर्म विषयक एक धार्मिक विवाद उठ खड़ा हुमाया। इस विवादका निपटारा जिस निष्पक्षमावसे किया गया, उससे यह छिपा नहीं रहा कि विजयनगर साम्राज्यके अन्तर्गत जैनियोंके मषिकार सुरक्षित है-विजयनगर सम्राट का राजधर्म भले ही वैदिक मता हा, परन्तु उनके द्वारा जैनधर्म में हस्तक्षेप होनेका कोई भय नहीं था। हरिहरराय प्रथमका पुत्र विरुवाका मोडेपर मलेराज्य प्रान्त र महामा. मेश्वर रूपमें शासन कर माथा : यह विवाद उसी के सम्मुख उपस्थितः हुमा। विवाद हेदरनाडके अन्तर्गत तड्हाड नामक स्थानके प्राचीन बैन मंदिर पार्श्वनाथ बस्ति' की नमीनसे सम्बन्ध रखता था । हेरानाटकी बदिकमतावलम्बी जनता उस जमीन पर अपना अधिकार बसा रही थी। गजाने इस मामलेको नौच करने की माशा दी और मलेराज्यको राजधानी सारंगकी चावड़ी (कोकागार ) में मामलेकी बांच पड़ताल की गई। इसमें दोनों पक्षके प्रमुख पुरुष नुहाये गये थे। मल्लप मादि जैन नेताओंने उपस्थित होकर अपने दावाको प्रमा. जित किया। मन्तमें सर्वसाधारण जनताकी सम्मनिसे प्राचीन प्रषाके अनुसार ही मंदिरकी नमीनकी सीमायें निश्चित कर दी गई गोर उसकी पौर मायदाद भी सुरक्षित बना दी गई। सर्व सम्मतिसे वह निर्णय पत्थर पर खुदवा दिया गया।' वैष्णवों और बैनोंमें सन्धि। उपर्युत पटनाके केवळ पाच वर्ष बाद ही बुराव प्रथमके १-का., माग ८१.२०५-२०००, १० २८०-२८८.. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] जैन इतिहास समक्ष मी एक ऐसी हो साम्प्रदायिक समस्या उपस्थित हुई। सन् १३६८० के एक शिलालेख से पता पता है कि स समय नैनों (भव्यों) भोर श्री वैजय (भक्तो) में वापसी तनातनी होगई थी। वैवाने नियों के अधिकारों में कुछ हस्तक्षेत्र किया था। इस पw मानगोण्डि, होसपट्टण, पेनुगोड और कल्लेडनगर नादि सब ही नाओं ( जिलों ) के जैनियोंने मिलकर सम्राट्की सेवामें न्यायकी प्रार्थना की थी। देवरायने ठारह नामों (निकों ) के श्रीवैष्णवों और काविल, तिरुमले, कांची, मेल्कोटे मादिके भाव योको एकत्रित किया और उनको नापसमें मेसे रानेका मादेश दिया था। नरेशन जैनियों का हाय वैष्णवोंके हावर रखकर कहा कि पार्मिकतामें अनियों और वैष्णवों में कोई नहीं है । जैनियों को पूर्ववत् ही पचमहापाप और कलशका अधिकार है। जैन दर्शनकी हानि और वृद्धिको वैष्णवों को अपनी ही हानि वृद्धि समझना चाहिये। श्री वैष्णवोंको इस विषयके शासन केस समी देवालयों में स्थापित कर देना चाहिये । जबतक सूर्य और कद्र हैं तम्तक वैष्णव जैनधर्मकी रक्षा करें। देवगयका बह शासन सभीको मान्य हुमा। इस निष्पक्ष न्यायका विवरण श्रवणबेलगोलकं शिलेस नं० १३६ (३४४ ) शक सं० १२९० में गरम है। इसके अतिरिक्त लेखमें कहा गया है कि प्रत्येक नगृहसे प य प्रति वर्ष एकत्रित किया नाबमा शिक्षा देण्योबके देवकी रक्षा के लिये बांगेम मंदिसके बादल सर्व - -hoda... ११-१९५ ८ .. . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयवराबायकाविहासा . किया जायेण। बोरस शासनका संघम करेगा राज्यका (m) संपका भौर (वैष्णप) समुदायका द्रोही अरेगा " TRAसनका परिणाम यह हुमा कि जैन और वेष्णा प्रेमपूर्वक मने हो नही गे; बहिक एक दुसरेके पार्मिक कार्यों में सहयोगी मी हु क्योंकि इसी सके अंतमें लिखा हुमा कि लडके विसेहीके पुत्र बमुविसट्टिन बुकरायको प्रार्थनापत्र देकर तिरुमले के बारे बुलाया और उक्त शासनका जीर्णोद्धार कराया था। जैन और वैष्णबौने मिलकर बसविसट्टोको · संघनायक' को पदवी प्रदान की थी। जैन और वैष्णयोंन एक सारस जैनधर्म की जय' का नारा लगाया गा। यानोंसे धर्मायतनोंकी रक्षाके लिए दोनों ही सम्पदामा करिषद्ध होगये थे और मापसी वैमनस्यको भूककर संगठित हुये थे। ___ राष्ट्रीय संगटन और मतसहिष्णुता। साम्प्रदायिक ताका बन्त काके पार संगठन कानेकी उस भावना उa समय वैष्णव, शै. जैन-सभी के होम हिकरेले सी थीं । यानोंस अपने धर्म और देशकी क्षा कानेका बोस होम उमड़ा हुजा था। इसका उदाहरण करामल्लिकी शान्ती बस्तीक म्यंम लेबमें दबनेको मिलता है। उसमें कहा गया है कि "धमादि योग गुणकि धारक. गुरु और देवोंक भक्त, कलिकाकी कालिमाक प्रशासक का सिद्धान्तके गनुयायी, after किया. गोके विधायक सात करोड़ मोहदोन एकत्रित संप, देखोगल, पुस्तक गाके सम्पल सिम्यको पोटि विमान १-शिसं., भूमिका • १.२..... . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] संक्ति मेन इतिहास। व्यापमहापापका विकार प्रदान किया।" गौर घोषित किया कि "बो कोई इसमें ऐसा नहीं होना चाहिये, कहेगा शिषका दोही खरेगा।' पारस्परिक सौहाई और मतसहिष्णुताका यह कैसा सुन्दर उदाहरण है ! इसमें मूल कारण विजयनगर सम्राटोंकी उदार नीति पौर सममान दृष्टि की। निस्सन्देह बुकगयके राज्यकालमें शैव, वैष्णक क्या बैन पोका प्रचार निर्वित रूप हुमा का। हरिहर द्वितीय । बुकगयके पश्चात उसका जेठा पुत्र हरिहर द्वितीय लगभग सन १३७९ १० में विजयनगर साम्राज्यका अधिकारी हुमा । इस वर्षक उसके सर्व प्रथम लेखमें हरिहर द्वि०का सम्बोधन · महाराजाधिराज रावणमेश्वर' रूपमें हुमा है। संगमवंशका यह पहला शासका जिसने रामसिंहासन पर बैठते ही सम्राट्की महान पदवी धारण की बी। इसकी माताका नाम गौरी बा। सायणाचार्य हरिहस्के भी सममंत्री रहे थे। बहमनी मुलतानों से हरिहरका भी घोर युद्ध हुमा बा, जिसमें हिन्दुओं को करारी चोट खानी पड़ी थी। हरिहरनं चालीस बाल रुपमा देकर बहमनीके शासकको शान्त किया था। उपरान्त हरिहरने चोक, चोर और पाय राजाओंको पास्त किया था। इस विम्योपयामें . ' शार्दूमदमंजन' कहलाया था। हरिहरका राज्य दूर दक्षिण क विस्तृत होगया था। मुसलमान शासकोंसे सफल गो मेनेके लिये विजयनगर साट्का इस प्रकार शक्तिशाली होगा वितही या। हरिहरने अपने इस विशाल राज्यको कई 't-4000, बमिका पृ. १०१. " ... Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवा । 15 w e Ke मन पस्या की थी। उसके लोक ललित'मान्तीका बसमा मिता-(१) उदयगिरि राज्य () विषय, (३) गुण राज्य (१) मलेह (पाचीनवनवासी) गज्य तुलराज्यतया (७) राज्य गम्भीरराम। इन प्रान्तोरस ने राजमारों नौ पतिष्ठित व्यक्तियोंको प्रान्तीय शासक निक्स किया सिरका शासन अन्य इतना सुम्पपस्थित था कि उसकी स्पतिवारीबोर कैल गई थी। हरिहर दि. के धर्मकार्य । हरिहर द्वारा भारतीय संस्कृतिक सम्युदयका प्रयास हुमाया। सरको विकासका पुजारी बा; पान्तु मन्य मतोंक पति मी भार वा। वैदिक मतके स्कर्षके लिये हमे बो किया उसके कारण दिकमार्ग स्थापनाचार्यः' भोरपतवांween 'काया वा। हमने समयका एक बड़ा दानवीर 'उस गार्मोकर्षके लिये मूहबद्री भोर वैन मंदिरोंको बाबका पनी धर्मसहिष्णुताका परिचय दिया था। हरिहरके गर्मचारी भी बैन थे। हरिहरके गनदरमा वाजिवंशके माल मधुर नामक वैन विद्वान् रामावि थे, जिनका एक विरुद्ध ' मनावस्थान ना ' वीर हरिहायकी एक सनी, जिनका नाम दुब्ये धर्मसे प्रमादिन हुई थी .. उनहोंने गजमंत्री गम नारा १-fat., पृ४१-४३ । २-बिह.. पृ. ४५-४६।३-मा. भाव साउथ इणिवा, भाग २ (मी वेल)। ४- ०, पृ. ३०५ ।५- ०३७६ । ६-मे०, पृ. ३.१ पृ. २४५. ३०.. . ११४ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.] संवि जैन इतिहास । निर्मावित जिनमंदिरके कि दान दिया। इस प्रकार. रिस्गको शासनकाल में भी जैनधर्म अपने पूर्व गौरवको प्राप्त करने में समान भा। श्राणवेगोरके शिलालेख न० १२६ (३२९) से हरिए द्वि० की मृत्यु मादपद कृष्णा दशमी सोमबार शक संवत् १३२६ (सन् १९०५) को हुई प्रमाणित है।' बुक दि० व देवराम प्रथम । सन् १४०११० के पश्चात् हरिहरका ज्येष्ठ पुत्र देवराव या विजयनगर साम्राज्यका माविकारी हुमा । किन्तु किन्ही विद्वानोंका यह भी मत है कि देवायस पडळे उसके भाई बुकगयद्वितीबन के दो वर्ष (सन् १४०४ से १५.६६०) गज्य किया। इसके पक्षात् देवराय प्रथमने सन १४०६ १० में सन् १४२२६० शासन किया था। बुकाय द्वितीय मुद्रबिदुरीको 'गुरुग-स्वि' नामक वैन मंदिरके लिये दान दिया था। सेनापति गप्पने चिंग पेटके जिलेके एक जैन मंदिके लिये नुब्रायके पुष्प निमित दान दिया था कि वह राजकुमार थे। साक्षतः दुक द्वितीय भी जैनोपा सदय हुये थे। देवगयका दैनिक जीवन । नुकायके गरुकालीन शासन के पश्चात् देवगव प्रथम शासनविकारी हुऐ। 46 रंगीको तबियतका शामक । सिना .१-घिसं०. भमकः पृ. १९३। २-११, पृ. ४६३-g. जय हिस्ट्री. भा. ११. ८९। ४-28., पृ. ४५. ५- ०, पृ.१.५ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर सांबायको इतिहाम। mummomemamam HIN। एक सकारकी भकीपर मोहित हो गया और उससे विवाह काना चाहा, परन्तु यह भकी इस कार्यसे समय नवी गौर भागकर बहमनी राज्यमें सी गई। इसी बहानेसे बहमनी नरेश फिरोजशाहने मुद्रा पर चढ़ाई कर दी। सात महमदखाने द्वापर अधिकार कर लिया। देवगयने परास्त होना मानों से सब काकी. जिसमें विजयनगर राज्यकी हानि विशेष हुई। कापुरके जिले यवनोंको देदिये गये और संरूप द्रव्य-होग, मोती मुस्तानको देने पड़े। मुमहमानोंने दो हमार नाचनेवाले र और युवतियां भी मांगी एवं देवरायकी पुत्री विवाह करके हीर संतोगिन हुमा कहा जाता है । इमस दुशाका मूळ कारण देवरामन रागरंगमें फंसा हना बा। किन्तु उसके मन्त्री लक्ष्मीधरन उसका बहुत कुछ सुधार किया और राजव्यवस्थाको सुचारु रोतिसे चाल सखा बार दसरे रानमंत्री ने भी मज्पकी दशा सुधारनमें पर्याय भाग किया। देवराय व जैनधर्म । .. इगाके कारण ही देवाय द्वारा मदिरों और विद्वानों को भूमि सानमें दीगई थी।' प्रवणबेळगोरके शिलालेख नं. १२८ (३३७) सकसं. १३३२ से स्पष्ट है कि देवाय प्रथमकी भीमादेवी नामक रानी नपर्मानुयायीं थीं। उनके गुरु नाभिनपचारुकीति पंडितापार्क थे। अपने गुरुके उपदेशसे भीगदेवीने मवमवेल्गो के मंगायीपनि मापक मंदिर सानिधनाव भगवानकी अधिकारी -are, ar८, २-in. av, Rim Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१२. सपके सब-सिस्ने विवर्मनी बनावास्तिको नाम दिया था। उसने कगिरिक और विको मी मलेयूर ग्राम भेंट किया था। रानी मीयादेवीकारण देखाव प्रथम बैन गुरुभोंकी मोर नास हुये थे; विसके कारक सनका बीवन मबार ही पक गया । जैनधर्मको उन्होंने कई समानकी दृष्टिसे देखा था। हुम्माकी भावती-पस्तिक शिमलने प्रगट है कि वर्द्धमान मुनिके प्रमुख शिष्य धर्म गुरु एक महान् मायाता पौर मुनियों एवं गवानों द्वारा संहा थे। उनके पालकमक गबाधिगम परमेश्वर सम्राट् देवराव (बम )के राबमुटसे प्रमायुक हुये थे। मत: मालम होता है कि रानी भीमादेवी बोर राममंत्री हिगाके प्रबलासे सम्राट् देवराय (पक्षम) का मन्तिम जीवन शांति और धर्ममय बन गया था। सन् १४२२६० में उनकी मृत्यु होगई थी। विजयराम । - देवरायके पश्चात् उनके पुत्र विनयापने कुछ कातक शासन सत्र संभाग था। उसने बहमनी नपाको वार्षिक कर देना बन्द कर दिया था, जिससे चिढ़कर सन् १९२३ ई० में महमदसान विजयनगर सचढ़ई कादीबी। हिंदू सेना इसबार भी मुमहमानोंका मुकाविण कर सकी। हिन्दुओंकी क्षति हुई और बहुतसे हिंदू, मुसम्मान पना दिये गये। इस दुर्गतिमें विजयने पहमखासे संधि की और RORIमदा किया और बहुत-सा बन बामदखांको दिन! विषय राज्य प्रभा दुसी ही। १ ०,११९, २-०, पृ. १२९, ३-०. १९९ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साहास ९ मझम् शासक राहि . विजय पवार उसका पुत्र देवार द्वितीय विश्पनरको सपासिंहासना सन् १९२१० में बालन हुमाया। देवराया विजयनगर रायस गोम्प और विस्तार बढ़ाया था। उस - मत दक्षिण भारत में काके समीपसक फैला हुमाया। भारफारका भार उसके भाईको और शेष दक्षिणका गज्यकार्य उसके मंत्री को सौंपा गया था। एक मावश शासक वा । शासनकालमें संगमकी देशकी विशेष मातिईबी। ऐसा स हिान् थे मोर पंखो नाममदाता का। बाके - दुखका. उसे पूरा ध्यान था। उसने राज्यमें पति वैवाहिक चन्द कर दिया था और खेतीकी अतिके लिये नहरें खुदवाई थीं। शिक्षा प्रचार के लिये भी देवरायने दान दिये थे। उनके प्रमुख राममंत्री रूगप्प जैन और उनोंने विजयनगर राज्यको शक्तिशाली जमाने में पूरा माग लिया था। युद्ध और शासनप्रबन्ध। देशक प्रत्येक न्दूिको विषयमा राज्यकी मुसम्मानों द्वारा सटकीवी-बहमनी शासकोंसे हारकर पियन समानोंको बाब सन्धि करना की दी। जनताके इस दुखको सपने की चीना मोर पानी बोरीको की दो पहियामा म RREARS TRोरपात सेना के गये किरिन सैनिकोको पात बानका पुस्तकालय Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४) संवित बैन इवितामा बीपना दी थी। दोबार मुसम्मान पनुपारियोंने साठ हबार बिन्दू सैनिकों को धनुषाण सानेमें निष्णात पनाया बा। इस मार देवरायने विशाक और मुड़ सेना तैयार कर की और इसे मेरा सन् १९१३ई. को रायचूर द्वापर चढ़ गया। देवराने अद्ग, रायचूर भोर कापुरके प्रसिद्ध किले जीत किये गौर कृष्णा नदी तक अधिकार जमा लिया। लिक बीजापुर भोर सागरतककी पृथ्वीको रौं । विजयनगरको यह बात बहुत महंगी पड़ी-इसमें विजयनगरके कई राजकुमार काम जाये और जन धनकी भी विशेष हानि हुई। इस बीतसे चिढ़कर मुसकममानी सेनाने अधिक बोर दिखाया । हठात् देवरायको मुसलमानोंसे सन्धि करना पड़ी।' विदेशी यात्री। देवरायके शासन काल हटलीसे निकोलो कॉन्टि (सन् १९२१) पौर शनीदूत भन्दुकाजाक (सन् १४१२) दो यात्री भारत माये और विजयनगामें भी रहे थे। नोंने विजयनगाको कि, मन्दिरों और सुन्दर महलेसे सुसजित पाया । भारतके समस्त बरेशाने देवराव ससे अधिक शक्तिशाली थे। राजाको बारों रानिया पी। निकोको कॉन्टि तत्कालीन मासको तीन भागों में बंटा हुन art -(१) इरानसे सिन्धु नदी तक, (२) सिप स्टसे बंगाकोर (३) माशेष मास शेष भारतको नापनसम्पनि मानौर संहतिमें सबसे बड़ा चढ़ा लिखता है। भारतीयोंकन देविकवी मार उसने यहाासियों का मनोरम्बार - ०.५०-५१ . । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साम्राज्यका इतिहास। . [५५ पा। उनके विशाक मपन सुन्दर सिंहासनों. कुर्सियों और मेघोंसे सुपजित मोर पनगतिसे मापूर थे। माना समाव मस्यंत गया । बन्दुमजाकको इनके शाह रुखने सपना दूत बनाकर मेगावा। इससे देवगायकी शक्ति और महताका बोध होता। निस्सन्देह वह एक महान शासक था। देवराय दि० व जैनधर्म । देवराय द्वितीयका प्रताप और गौरव उसके पार्मिक कार्योसे द्विगुणित होगया था। उसने बामणों और जनों को समानरूग्में दान दिये थे। ब्रमों के लिये यपि वह वृक्ष तुरुप कहा गया है, सन्तु जैनों को अपनाने में वह किसी प्रकार पीछे नहीं रहा था। देवाबने अपने नाम और पुपको याबदबन्द्र विवाकर स्थिर रखने के लिये पान सुपारी बाजारमें राजमहलके पास त् पार्श्वका एक उतुंग बिनास्य पाषाणका निर्माण कराया था और कहा उत्सव मनाया था।' होंने हडिक चन्दनाय देवा, मुहबिदुरीके त्रिभुवन तिan चैत्वालय, वारंगके नेमिनाथ जिनालय मादि की जिन मंदिरोंको भूमि दान दिया था। बैन विद्वान मल्लिनासूरी कोकावाने देवगयकारलेल बाट बोर.पाप प्रौढ़ देवरा रूप किया था। देवरायन इन जैन विद्वान् को अपने न्याय विभागमें उबापदपर नियुक्त किया था। देवरायकी -मेगा. (Myjor), ३-२६ - भा. २ पृ. ५-२४ । : 2-Devaraya II, The tree of heaven to the Brahmanas yer patronised: jaines.........in order that his fame and merit night last as long as the moon & stars caused a temple of stone to be built to the Arhat Parsya."-S. R. Sharma, on.,8 1 -सिमा., भा. १ पृ. ११४, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस क्षेत्र विकास। समानुसार नोंने वेशपाक' नामक बाबा, बिले वैश्य, नगर-पणिक, वणिज, पाणि, व्यापारी, रुस, तृतीयानि, समातीयमेदव. उत्तरापथनगरेश्वर, देवतोपासक नादिशब्दों का विस्ता विवेचन करके यह सिद्ध किया था कि गेग कोमरिसे मिला। काबीके एक शिकाखमान शब्दों का प्रयोगमा थाविमानगरको मन वार्ता और व्यापारिक समृद्धिको बा एनकर बहुतसे नारी मन मानसे वहां पहुंचे थे। उस और दक्षिणक व्यापारियों का मतभेद उपस्थित हुमा, तब देवरायने उसका निर्णय करने के लिये मल्लिनायसरिको नियुक्त किया था। और नोंने बत करके उपर्युक पुस्तक लिखी थी।' समाज शासके इति लिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण है। विजयनगर साट्ने देशको हराकर ma बनानमें बैन न सही विद्वानों का सहयोग पास किमा इससे स्पष्ट है कि देवराय पूजाके सुख-दुसका गगनलमा विदेशोंसे व्यापार करनेकी विषाय उसने व्यापारियों को दी थी। परम भोर ईरानके अतिरिक्त पुर्तगासे भी नापार सम्बंध स्थापित किये थे। हाशितः देवायके शासनकाल में देश विशेष समृदिशाम पमा था.'सन् १११६१० देवकी मृत्यु क्या हुई, Raran सदी मत होगया। उसके पश्चात् संगसकी पनाति मामला मल्लिकार्जुन विवाद देवरा पयत् उसके दोनों पु तिकानुन और दिल्याने सन् १९१0.00 HAMPIONS 14 मा. 1-18 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर साकारास ५० mmmmmmmmकम राज किया था। इसके शासनका विलो शकिडीन समझकर करों बोर शत्रुनोंने सामान दिया था, किन्तु हमजीके नया मोरील राजाको महिार्नुको पास्त किया था। फिरिस्ता सपनाको मुस्तान मसान्दोनकी सयुके पश्चात (सन १४५८) के बाद हुई साता है। कि बोडोसाके सबको यह पाजवीट गई। उसने विषयमा well सानाका म्हेन्य नहीं परिचाना-हिन्दू शासक अपने स्मार सक्तिगत मानामानमें बह गये। मोडीसास सस पोज विजयनगर के विरुद्ध बहमनीके मुस्तानसे बामिल पोर दोनों मिक कर तैलिंगाना र माक्रमण कर दिया। कपिलेहाने कर्णाटकको बीतकर काशी तक अपना अधिकार बमालिया। पब्पिराबाने भी यह गच्छा र समझा-उसने भी सन् १९६९० में विजयनगर माक्रमण किया। पायः सीमाके सभी प्रान्त साम्राज्यसे प्रथा होसतंत्र हो गये। हिन्दूराष्ट्रका प्रम खटा में पा गया। बास्तपमें संगमनरेशोंने राज्यविकारा होने म यह यान ही भूम दिया कि उनको ) विन्दराज्यको संगठि कर मुसलमानोंसे म्रािष्ट्रकोपमा काना है। विजयनगरकी शक्ति क्षीण हुई बानकर बहमनी सुबतानोने उस पापाकमों का तांप दिया। विषयनगावपानी अनुगोस स्टादी गई थी। मल्लिकार्जुन मायः १५६६० तक शासन काल हा पातु विजयनगाको खोई हुई शक्तिको वा पापस न बसा पान्तोक सब ही नायक स्त्र रूपमें दान देने गये केन्द्रीय होमगार्जुमा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] संचित न इतिहास । नाममात्रके किये गमा हुमा सन् १९६९से १९८१ गातार अनमोके पाक्रमणोंसे विजयनगर राज्य छिन्न मिल गया । प्रान्तपतिनासिंह सालयका प्रमुख मारे साम्रज्यमें फैल गया। नरसिंह सम्राटकी सहायताके लिय सिम्मको भेजा था। पन्त गमवंशका सूर्य गहु गृप्त हो चुका था। अतः सन् १९८६ १०में विरुपाक्षके साथ ही संगमवंशका अन्त होगया थी। इन दोनों अंतिम विभयनगर समानों के शासनकालमें भी जैनधर्म बनतामें पूर्वरत प्रबलित हा। विरुपाक्षके राजदापारमें जैनाचार्य विशारकीर्तिन वादियों को परास्त करके जयपत्र प्राप्त किया था। संगम-गज-वंश-पक्ष। संगम १-रिसर प्रथम कम्पण २-बुक (१३५५-७७) मुदप मारण संगम द्वितीय ३-हरिहर वितीय (१३७७-१४०४) ४-पुक द्वितीय (१४.४-६) ५-देवराय प्रथम (१४०६-२२) ६-वीर विजयगय (९४२२) •-देवराव द्वितीय (१४२१-४६) e-शिम (४-६५) ९-विक्ष (१४१1-1४८५) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर के मालुम गज ५९ विजयनगरके सालुव एवं अन्य राजवंश और उनके शासनकालमै जनधर्म । संगम व सालुव राजनरेश । विजयनगर संगम-वंशके राजामौके पथ त सालु शके रामाबौने शासन किया था। संगमवंशकी ओरस वंश बालों को दक्षिणका शासन-प्रबन्ध सौंग गया था। प्रारम्भसे ही संगमवंशका इन नामोसे घनिष्ट सम्म का। यहांतक कि प्राट् देवराय द्विाने अपनी बहन हिरियादेवीका विवाह सालुा-नरेश तिरसे किया था और टेक नामक पदेश उन्हें प्रदान किया था। संगमवंशके मन्तिम दो रानामोंके समयमें मालुसनरेश नासिंह विजयनगर गज्यके दक्षिण मागमें प्रान्तपति थे । १४ चन्द्रगिरिसे अपना शासन करत थे । मल्लि जुन मोर विरुपाकी शक्ति क्षीण हुई जानकर प्रान्सपतियों में सर्व अवम नरसिंह मालुग्ने गन्य प्रबन्ध अपने हाथमें ले लिया था। इस पकार सालुवंशका राज्य सन् १९८६ से बारम्म हुमा।' सालुवनरेश जैनधर्म । सालुबनरेश मुमतः संगीतपुरके शासनाधिकारी थे और अन.. पर्मको उक्त बनाने के लिये वे हमेशा कटिद्ध रहे। उन गायोंकि ही कुटुंबी देवराव बहनोई तिमालाये। मालम ऐगहोंगरे . १-०, . ५९-६. ०, मा. २११५९. २- र.मा. सं १'पृ. १५९. - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि विजयनगर के संगम राज्यमें तिनके भाई गुणको दक्षिण भागका शासनमार मौंम गया तमीसे पन्द्रगिरिमें मान थे। नरसिंह एक प्रतापी नरेश था। उसने मोदीसाके रामा पुरुष उम मोर मुपामानों के नामों को विका किया था। किन्तु यह सही प्रान्तीय नायकों को अपने पापीन नहीं रख सका था। उसने राजाविगज कामेश्वर' की उपाधि धारण की थी। इमादी नरसिंह। सन् १४९३०में उसका भका सम्पादि नासिंह शासनाविकारी हुआ था और स्न् १५.२ ई. तक यह शासन करता हा था । सलु नासिंहने सेनापति नरेश नायकको उसका संरक्षक नियुक्त किया था, इसलिये शासन में उसकी ही मानताबी। नरेशने कापरीके सदा दक्षिण प्रतिको जीवहां विश्वस्तम बनवाया मुसलमानों को भी उसने पास्त किया ।' लब नरेश पीर नासिंह। मरेश लवं नल था । उसने गवातिसमोर -- मान मुस्तानको पास किया था। उसने सन् १५०५.. विजयनगा में सामन किया था। उसके बाद तुपा Tm शासक बीर नरसिंह सन् १५०६ में शासनाधिकारी हुमा । उसको की श्रीमान् महाराजाधिगज-मेश भुजबम्पा जाति महारा माकी महानताकी सूकमा सिम्म उस योग्य मंत्री था। मालिके माई रुष्णदेवरायने मुसम्मानोंके भाक्रमोंसे शिकामगरको की बीमोर से HिASI परिसि१-१०, . १-४ -2. 44-4. - - - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजवनमा । [१९ सन् १५०९६० में वीर नरसिंहके पथात् श्री कृष्णदेवाने नगरका शासन मार अपने कुशाहायोम किया था। हिन्दू और गुरुम्माम बादशाहोंमें इसकी तुलना नहीं की जा सकती। विदेशियों उष्णदेवकी भूरी भूरी प्रशंसा की है।' पनि उसे तप सुन्दा लिला था। बपि कृष्णदेवराय वयं वैष्णपमतका अनुयायी था, पर उसने भों और जैनोंको भी दान दिये थे। यह संस्कृत और तेलुगु भाषामोका विदून और कविया। उसके दरबार में बने कवि रहते थे, जो दिमान' कहे गये है। कृष्णदेवरायका पता विक्रमादित्यके समतुल्क माना जाता था। वह गजा मोजके नामसे अपनी विपारसिकता, न्यायपाणला मोर व्यवहारकुशताके काग्न प्रसिद्ध था। २१ वर्षकी युवा नपस्या गमसिंहासन पर बैटा था; परन्तु अपने बुद्धिकोशरसे गस्यपस्थाको मुह बनाने में ग सफल हुमा का। पहले उसने बार्षिक सुधार किया : तासात उसने संगठन करके सेनाको बान पौर युवाशक बनाया। सालु तिम्मने हष्णदेवकी विशेष सहायताकी थी। उसने दस हजार हाथियों, चौबीस बार इसबारों और एक बाल यादोंकी शक्तिशाली सेना तैयार की थी। इस विशाल सेनाको कर उसने एकेरी. मदुग मादि प्रान्तोंके शासकोंको परास्त करके में पूर्वग्न कर देने के लिये बाध्य किया। इस प्रकार केन्द्रीय शकिको ठीक करके वह वास्तविक समाट् बना। सन् १५१३ में उसने मोदीसकेगमा गणपति RAN R नाक्रमण किया गौर से पापीन कर दिया-उसने कर देना सीकर लिया ५१५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] किस क्षेत्र विकास 1. में हवन बिगानाको जीत लिया था। गजपतिने कृष्णदेवसे सन्धि की गौर अपनी राजकुमारी भी उसको ब्याह दी थी। गोविंद माला लिंगानाका शासक नियुक्त किया गया था। इसके पश्चात सन् १५२०६० में कृष्णदेवने एक लाख सेना लेकर गादिब्यात पर नाक्रमण किया और उनके रायचू', मुद्र, मोदनी मादि दुर्गाको छीन लिया। परास्त हुये मुसलमानोंने कृष्णदेवरायके बीवनकालमें विधवनगर पर माक्रमण कनेका साहस नहीं किया। रायचूरके युद्ध में मुसम्मान सेनापति सलाबतखां पकड़ा गया था और बहुतसी सामिग्री हिन्दुओं के हाथ लगी थी। तीसरी युद्धयात्रामें कृष्णदेवने गमेश्वरम् तक सदूर दक्षिण प्रदेशको जीत लिया था। रामेश्वरम्में उसने विवयोत्सव मनाया था। उसने सन् १५३० ई. तक सफर शासन किया गा। पुतंगारके गवर्नर बलबुर्कसे व्यापारिक सन्धि करके उनको पश्चिमी किनारे पर किला बनानेकी भाज्ञा दी थी। इससे विजय नगरका व्यापार बहुतढ़ गया वो। कृष्णदेवराय और जैनधर्म । . ष्णदेवरायने भी संगमवंशके नरेशोंके पदचिन्हों पर चलकर प्रत्येक धर्म और पायका बादर किया था। उनके विशाक हदसमें मजाके प्रत्येक वर्गके लिये य न बानोको उनोंने अपने विषद साम्राज्यके दोनों मुदायीं छोरोघर दान दिया था। चिंगळपेट विपके कांजीवरम तालुके वित्तिारु नामक स्थानमें त्रिकोषक क्य-सिको मोने सन् १५१६ गौर १५१९. में दो .: - ... .-.. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरके सामाजल। अट.किये थे। सन् १५२८. में.मोने पिरी : बिके. बालकेके चिप्पगिरि नामक सनके जैन मंदिरको भी दान yि था। उस दानपत्रको उन्होंने बेहटरमण मंसिकी दीवार की नहित कर दिया था।' होंने पारपारके बिनमविरको भी बार दिया था। वादीन्द्र विद्यानन्द । जिस प्रकार उस समयके रानामों में प्राट् कृष्णदेवराव महानू प्रतापो नरेन्द्र थे, उसी प्रकार उस समबके योगियों में बादी विधानन्द सोंगर थे। वह कृष्णदेवगायक गजदरबार में लाये थे और परमादियोको अपने काव्य तर्क और ती बुद्धस परास्त किया था। समान ईस जैन यागिरानका समुचित सम्मान और अभिषेक किया था। इसप्रकार एकबार फिर बैन प्रमों की प्रतिमा राजदरवारों चमकी थी। सम्राट अच्युत । किन्तु कृष्णदेवरायकी मृत्युके प्रश्वात विजयनगर साम्राज्यको समृद्धिको तिर काठ मार गया । मुसलमानों ने इस समय पुन: नाम काना वारंभ किया। इस संकटाका कारमें कृष्णदेवके माई बच्युतने राज्यका कार्यभार संभाला था. पन्तु 46 मुभम्मानों के समक्ष निर्व प्रमाणित हुमा । मुसलमानोंने रायचू । मुद्रसके प्रान्तोंको एकर कि अपने अधिकार कर दिया। अच्युतने सस्तानको कावा १-मे, .१. x n (MSS) . .. २- ०, पृ. ३.१-१०४ वि. . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर किसानोई विकास मंत्री थे। किन्तु र पी केन्द्रीय शक्तिको स्किन सके। प्रायः सभी पान्त सतंत्र हो गये। इस विकट परिस्थितिम गच्युतको शौर्य बागृत हुमानच्युसने सामन्तोंको पाने के लिये उन पर कर दी और सपको मत अपने नाधीन कर लिया । किन्तु रिन्द संगठनका ध्यान बाबाको रहा और न सामंतोंको । वे रागरंगमें फस गये। बच्युत सन् १५१२० में सर्गवासी हुना। पाम वैष्णव शासक था। चैन इनके राज्यमें भी बादी विधानंद द्वारा उत्कर्षको पास हुमाया। अच्युत और पदाशिव। महम मक्ता चुके है कि अच्युतके बहनई तिम्मके सपने राज्यका शासनस्त्र था। मच्युतके पश्चात उसकी रानी बस्ददेवी पुत्र बेहटको गसिंहासन पर बैठाना चाहती थी और उसका हक भी था, किन्तु तिम्म स्वयं राज्याधिकारी बनना चाहता था। अपने स्वार्थ के समक्ष हिन्दशासक हिन्दुधर्म और हिन्दू हितोंको भाग। हठात् गनी गावदेवीने बीजापुर मुस्तान मादिकशाहके पसी भेज दी मोर वेस्टकी रक्षा करने के लिये कहा मेवा। विमा विजयनगर पर चढ़ माया-पना भी उसके साक जे गर्म; किन्तु तिम्मने उसे पचास लाख रुाय और लकड़ों हाथियों की स देकर शान्त कर दिया-मादिलशाह पाप बीजापुर कट गया। पनेरी हत्या करपाके सपना प्रभाव जमावा | उसम प रामराको ! उसने ति प्रको गहोसे हरायके 1-लि., . .१-७१. २-०, पृ. १२१. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर म राजवंश। 4 Meोसमसिंहासन पर बैठाया! रामरामकृष्णदेवकरामा मार शमशक्के संरक्षणसे तुलुश नष्ट होनेसे पप गयो। सदाधिक्का नाममात्र वासन। __जिस समय सदाशिवका गतिक हुमा इस समय बह रहा पर्वका शक्तिरहित बालक । उसके बहनोई रामरायने उसकी वापर स्था की और उसके लिये कई किले जीते थे। शासन संबाहामकी मशक्ति रामरायके हाथों में ही थी। सन् १५५२१०में जासदाशिपने साब पाक कैडाये तो रामायने उसे कैद कर लिया और सारमें केवल एकबार उसके दर्शन पाको कराने लगा। इसका स्पष्ट भई यही कि रामराय स्वयं सदाशिषके नामसे शासन करता था-सदाशिव उसके हाथों में कठपुतली था । इस प्रकार सन १५७० ई. तक सदाशिव नाम मात्रका शासक रहा था। कृष्णदेवके पश्चात जैनधर्मको रामाश्रय नहीं मिला; बपि प्रनामें वह पूर्ववत् प्रचरित म्हा! रामराय (बारविदु वंश)। रामराय मारविदु वंशका प्रथम राजा था, जिसने विजयनगर पर बांसन किया । पनाको संतुष्ट रखने के लिये उसने सदाशिवको सबा बनाये रखवा भोर फिर जब रामगय राजा बना तो किसी ने उसका विरोध नहीं किया। इसपकार रामरायसे विजयनगरके शासकोंका चोया समक्ष पाम्म हुआ। गमराव एक प्रतापी गवा बा-काके समाने श्री-की-पीया स्वारी की। पुर्तगाकी लोगोंको मी उसने ०४-०५. २-वि., ७६. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] संक्षिप्त जैन इतिहास : सहायता दी और गापारको बढ़ाया था। पुर्तगालियोंकी नसबके माक्रमणको विजयनगरको बसनाके नायक तिमोजाने विफल किया था। इसके पश्चात् पुर्तगालियोंने मयिकी थी और विजयनगरके राजदूतका अभूतपूर्व स्वागत गोमा किया था। मुसलमानोंको भी उसने बुरी तरह हराया था। उनकी मस्जिदोंमें मूर्तियां स्थापित करके उनको मंदिर बना दिया था। अहमदनगर बिलकुल नष्ट कर दिया गया था। इसपर सब मुपलमान शासक संगठित होकर सन् १५६५१०में विजयनारपर चढ़ माये । रामायके मुसलमान सेनापतियोंने उसे धोखा दिया और तालिकाटके युद्ध में वीर मराय खेत रहा ! मुमहमानोंने तुरी साह लटा, मुसलमान ५५० हाधियोपर लादकर विज्यनगरसे तक बनराशि लेगये। मुसलमानोंने हिंदूओंको पता किया और मंदिरों तथा राजमहलोको नष्ट कर दिया । छ महीने तक मुसम्मान सेन विजय. नगामें पड़ी हुई लटमार करती रही। बैसा अत्याचार शादी कभी कहीं किया गया हो।' सार्वभौमिक पतन । इस भयंकर पराजयका प्रभाव यह हुमा कि इसके पथात दक्षिणका कोई भी हिन्दू शासक पुन: एक विशाल साम्राज्यके निर्माण करनेका साहस न कर सका | हिंदू समाज्यका एकदम पतन हुमा। परिणामतः ब्रामण भोर बैन संस्कृतियों का हास हुमा। साहित्य, कापौर ब्यापारको भी सति हुई एवं पुर्तगाली नादि विदेश भी १-शि. . .१-८४. - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरके सालुन र अन्य गजवंध। . [६. ठौर टौर पर भग्ना अधिकार जमा बेठे ! रामरायके पश्चात तिरुम, श्रीरंग प्रथम, श्रीवेटपतिदेव और मोरंग द्वि० नामक गायोले 'विजयनगरपर शासन किया अवश्य पान्तु वे विजयनगरके संस्थापन ध्वंयकी रक्षा करने में असमर्थ रहे। श्रीवेटकी उदारतासे ईसाइयोंने भी यहां जाने पर जमा लिये और बहुत से हिन्दुओंको ईसाई बना लिया । प्रजा असंतोप बढ़ गया । सर ही सामन्त स्वतन्त्र होगये। विजयनगरके राजाओंका कोई प्रभाव ही नह! शाहजी और मौजुमलाने मन्तमें उनकी राजधानी पर भी अधिकार जमाया और विजयनगर साम्राज्यका पन्त कर दिया ! उनके स्थान पर मगठा राज्यकी स्थापना हुई। (१) सालुष-वंशवृक्ष। (३) भाविदु-वंश-वृक्षा। नरसिंह गाय हम्मादी नरसिंह तिम्मल (२) तुलुत्र-यश-वृक्ष । नरेशनायक श्री/ग प्रथम वर नरसिंह श्री कटपति देव भीरग दितीय अध्यत सदाशिराय Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] ... . सात जन विकास (३) विजयनगरकी शासन-व्यवस्था तथा उनके सामन्तों और राजकर्मचारियोंमें जैनधर्म । हिंदू संगठन। हरिहरने का विजयनगर राज्यको स्थापनाकी तो उन्होंने होसक 'संजाओंका भादर्श अपने मम्मुख रकबा बा-होरसल शासनप्रणालीका 'अनुकरण करके उन्होंने राजप्रबंध प्रारम्भ किया था। उसी प्रणालीके गनुरूप पश्चात्के सही विजयनगर राजामोंने अपने शासनको चलाया था । अलबत्तः वे लोग हरिहर बुक मादि महान् नरेशोंकी उस भादर्श नीतिको भुम बैठे थे, जिसके कारण प्रजावर्गमें साम्पदायिक विदूषका अन्त होकर पारम्परिक संगठन द्वाग एक महान् हिन्दू गष्ट्रको पुन: स्थानका मुम्ब स्वप्न मूर्तिमान होने जा रहा था। विजयनगरके उपान्तकालीन राजा लोग हिन्दु राष्ट्र निर्माणको बात ही भूक गये थे और वे मापसमें लाने लगे थे। विजयनगरके पतनमें वही एक कारण मुख्य था। सम्राट् और उसका मंत्रिमंडल । वैसे विजयनगर राज्यका शासन प्राचीन भार्य प्रबाके अनुसार सम्राटके माधीन चालित हुमा था, परंतु सम्राटको पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होते हुए भी उच्छृखस्ताकी नाशकाको मिटानेके लिये उनको एक मंत्रिमंडल के साथ शासन करना अनिवार्य बा। सम्राटको वैसे पूर्ण अधिकार माथे पर ये मंत्रिमंडकी सम्मतिका संपन कदाचित Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शान व्यायाम नपर्म। [१९ दी करते थे। किन्तु म माम नहीं होता कि विजयनगर साम्राज्य, रानियोंकी स्थिति क्या थी ! होरपल--गनियों की तरह उनको शासनाघिकार शायद नहीं मिला था-कोई भी रानी प्रान्तीय शासनकी भी, अधिकारिणो नहीं बी! इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि बह शासन-नीतिसे निरोड मारिचित ती थी, क्योंकि कृष्णदेवरायके. समयमें हम दो रानियों को शासन-प्रबन्ध सक्रिय भाग लेते हुये पाते, हैं। मन्दुकाजाक और निकाको कॉन्टि नामक विशो यात्रियों के वर्णनसे भी यही प्रगट होता है कि रानियां गजाके भोग-विलासकी, बस्तुमात्र थीं और माने पति के साथ पायः सती हो जाती थीं। राबाकार हजार कामिनियों से विवाह करता था। राजाकी महानताके विषयमें भब्दुलाजाकंने लिखा है कि विजयनगरके राय (राजा) से अधिक शक्तिशाली नरेशको भारतमें ढूंढनका प्रगस करना निर्यक है। कॉष्टि लिखता है कि भारतमें सभी गनाओं में विजयनगर नरेश, विशेष शक्तिशाली है ! मंत्रिमंडलका मन्तररूप। विजयनगरके शक्तिशाली नशोंके सुचारु राजप्रबंधके लिये बो. मंत्रिमंडल नया राजसमा थी, उसमें (१) प्रधान मंत्री, (२) पान्तीय सुवेदार, (३) सेनापति, (७) राजगुरु, तथा (५) कविगण, • निराक किये जाते थे। स राजा उसका प्रधान होता था। उनकी समावि भोर भी छोटे छोटे कर्मचारी नियुक्त किये जाते थे। १-. ०१12-Major, P SI Pt. ILp.. -bid, Pt I p. 23 & P. EP. 6. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षित बैन इतिहास । इस राजममाके सदस्यों की नियुक्तियां प्रायः बाकी इच्छानुसार होती बी गनपानीके प्रबंधके लिये नियुक्त पुलिसका रच अधिकारी भी इस शासन सभाका सदस्य होता था। इन सबमें प्रधान मंत्रीका पद ही महत्वपूर्ण होता था। कोषाध्यक्ष भी नियुक्त किये जाते थे, बो नाव-व्यका हिसाब रखते थे। भाट, पान कानेवाला, पंचांगकर्ता, खुदाई करनेवाला, लेख-निर्माता तथा शासनाचार्य भी महामंत्रीके पापीन होकर अपना२ कार्य करते थे। न्यायका कार्य सेनापति सुपुर्द बापरन्तु पधान न्यायाधीश स्वयं राजा ही था। दण्डमें जुर्माना किया. बावा या मथवा दिव्य परीक्षा (Ordeal) तथा मृत्युदंड दिया जाता था। देवरायने प्रायश्चित्तका दंड भी दिया था।' शासन-विभाग। राजा शासन-सभाके अधिकारियों सहित पनाकी हित दृष्टिसे शासन किया करता था। प्रजाको धार्मिक संस्कृति और बाबा समृद्धिको अभिवृद्धि करने का ध्यान राजाको था। देशमें शान्तिपूर्ण सुव्यवस्था हने पर यह अभिवृद्धि सम्भव थी। इसलिये ही शासन-प्रबन्ध चार भागों में बांटा गया था । (१) केन्द्रीय शासन, (२) प्रान्तीय शासन, (३) नाधीनस्व राज्य शासन, (१) प्राम प्रबन्ध । केन्द्रीय शासन राबा और मंत्रिमण्डस्के भाषीन था। ब्रमण, क्षत्रिय और वैश्य के कोग मंत्रीपदा नियुक्त किये जाते थे। प्रान्तीय शासनका बार पान्तपति सामन्तों को नायकोपर निर्भर बा। राजकुमार गौर सबसमधीही पाय प्रताप शसक नियुक्त किये जाते थे। कोई Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था बनधर्म। [७१, प्रांतीय शासक ऐसा भी होता था वो राजघरानेसे सम्बन्धित होते : हुये भी अपनी योग्यता और विश्वासपात्रताक लिहाजसे उस पदर नियुक्त किया जाता था। पतिपतियों को अपने२ प्रतिमें स्वतंत्र शासन करनेका अधिकार था। भूमिकरका तीसरा भाग बह राजाको देते थे चौर राजाकी सहायताके लिये सेना भी रखते थे। यह कोकनायक पवमा महामंडलेश्वर कहलाते थे।' ग्राम-व्यवस्था। ___प्रांतीय नायकों को ही यह अधिकार था कि 'नाडू' (परगना) चौर ग्रामोंके प्रबन्धके लिये मला मग अधिकारी नियुक्त करें। नाद नाधिकारी सपही गांवों के कार्यका निरीक्षण किया करता था। ग्राम अधिकारका पद वंश पराम्परा- गत होता था। किन्तु प्रामका प्रबन्ध 'प्राम-पंचायत' द्वारा किया जाता था । मापसी झगड़ेको स्य काना, दण्ड देना, गांवकी रक्षा करना भादि कार्य ग्राम पंचायत ही करती थी। ग्राम कर्मचारी मुरूपन: सभाग ( लेखक ), कायस. (पुलिस) बनायगर होते थे। ग्राम पंचायत सब बातों का वार्षिक-विवाण. शासकके पास भेजा करती थी। केन्द्रिय शासनको मुहद खनके लिये एक यह क्रमिक राज व्यवस्था कार्यकारी थी। वैसे केन्द्र में भी. एक विशाल सेना, चतुर पुलिस और रहस्यविद् गुप्तचर रहा करते थे। सैनिकों का वेतन नकद दिया जाता था। सेनापर होनेवाला यह सा. हीन्यपदारवधुनों (रियों) पर गाये गये करसेपसूक किया जाता, मा सेनाके वविमाग (१) पैदरू, (२) इसबार, (३)हावी, (७) १-वि०, पृ. १२९-१.....२-पही १५१. ... Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mewatimemumauwoo ७..]. संमिशन इनित अनुपधारो. (५) और तोपखाना थे। विजयनगर राज्य सेवास। भी अपना एक बेड़ाबा। मुखकमान सैनिकामी सेपाने रखेगाते थे। राजपकी गाय साधारणतः भूमिकासे मुरूपतः और मकरोसे हुमा करती थी। धान्यका छठा भाग कर-रूपमें वसूल किया जाता था। विशेष अवस्थामें भूमिकरमें परिवर्तन भी होता था। पम्प करोंमें (१) चुंगो, (२) पशु वनेका कर, (३) नायकर, (१) अंगक. .., (५) मय कर, (६) कारखानोंका कर, (७) विवाह-का, नादि सम्मिलित थे। बावका तीसरा भाग राजकीय महसने त्यानारामको सामिग्री पर खर्च किया जाता था। और जायका नाममा सेनाले अर खर्च होगाता था। व्यापार। नरम, ईशन, पुर्तगासनादि देशोंसे विभयनगा रामानों राजनतिक सम्पर्क स्थापित किये थे, जिसके ारण विन्यनगा राज्य व्यापार खूप ही चमका बा । बनेक भारतीय व्यापासे दूर कर देशोले व्यापार करते थे। उनके अपने बहाब थे। उनमें वे मेगा शो नौर रेशमी कपड़ा, उन, हीरा, माहरात, मसालेकी चोमें, तीस गोर काफी माफर विदेशोंको लेनाते थे। विदेशी मेंग जाने देशों सामानमार विश्वनगरके बड़े नगरोंके कमसेन च । भन्दुमज्जाकने सिकि विजयनगर सम्पने तीसी - बे, जिनमें निकलन, मिस्.ि (Syrial वन, स ार - FिR-RR५. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्थानधर्म। [७३० mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmसुनसानमाविकोंसे व्यापारी बाते मोर गाते थे। फोरम(Orms), कालीकट, मंगोरे भोर खंभात उल्लेखनीय.दरमाइथे। बोस्सा समुद्र के मध्य स्थित था। भन्दुक रज्जाककी हिमें उसके समक. दूपरा बंदरगाह दुनिया में नहीं था। (Ormaj... has not its equal on the surface of the globe). कागेकटका बन्दरगाह भी ओस्मनके समान सुरक्षित और बड़ा दरमहा भबीसीनिया, निस्वाद, नंजीवार और हेमानस नाम माविकतर भावा करते थे और यहांको सुरक्षित स्थिति और पापारिक सुविधाके कारण अधिक समय तक ठहरते थे। यहाँ रहे चतुर और साहसी नाविक (Sailors) गते थे। उनके कारण समुद्र के लुटेरे कालीकटके महाजोंको टनेका साहस ही नहीं करते थे। निकिटिन (Nikitin) नामक यात्री के शो में खम्भात उस समय सारे भारतीय महासागर बहाजोंके लिए प्रमुख बंदरगाह था और वहां प्रत्येक प्रकारकी व्यापारिक वस्तुयें तैयार कीजाती थीं। साशतः विजयनगर राज्यों बापाकी मुपस्थित वृद्धिस देश समृदिशाकी हुमा था। यहांक कोग बहुत ही सभ्य और उचकोटिका जीवन व्यतीत करते थे। भावना निकिटिन नामक ( Athanasius Nikitin ) यात्रीने लिखा है कि भारतमें दैनिक जीवनका व्यय अन्य देशोंकी पेश अत्यधिक वा। नाब जिस प्रकार जमरीकाको समृदिने यहाँका दैनिक 1-Major PEp. -4 पृष्ठ १३-१७३-ही, मा. २०१९। 4-Living. in India is remexper weitosinjor-P: 28% Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१] संधित जैन इतिहास। बीवन माविक खी बना रखा है। वैसे ही भारतकी वकालीन समृद्धिने भातीयोंका जीवन-व्यय भाषिक खींग बना दिया था। उनका रहन सहन ऊंचे दर्जेका था। नागरिकोंके आदशे कायें।। भारतीय उस समय खूब भरेपूरे थे। राजा और पत्रा, दोनों ही नामोद-प्रमोदके साथ-साय दान-धर्ममें भी काफी रुपया खर्चते. थे।होंने नयनाभिराम मंदिर और प्रासाद बनाये थे। विजयनगरकी सहकॉपर होग, मोती, गल, जवाहरात नहकर उन्होंने अपनी समृद्धिसाकीनताका परिचय दिया था। किन्तु इस धनको उन्होंने ईमानदारीसे संचित किया था। व्यापारीगण देन लेनमें सच्चाई और ईमानदारीका बर्ताव करते थे । धर्म-पुरुषार्थको भागे रखकर ही वे अर्थ पुरुषार्थकी सिद्धि के लिये बम करते थे । मन्दुल रज्जाकने लिखा है कि वित्र. बनगरके बन्दरगाहोंमें रक्षा और न्यायकी ऐसी मुव्यवसायी कि बड़ेसे बड़े धनी व्यापारी अपना माल लगनेमें हिचकते नहीं थे। कालीकटमें वे निस्संकोच अपना माल बाजारों में भेज देते थे। भारतीय व्यापारियोंकी ईमानदारीका उनको इतना भरोसा था कि वे हिसाब जांचने अथवा अपने माकी खरगिरी खनकी भी मावश्यकता नहीं समझते थे। चुंगीके राजकर्मचारीगण भी इतने ईमानदार थे कि वे व्यापारियों का माकपने सुपर्द कर उसकी पूरी निगरानी रखते थे-व्यापारियों की २-'विचित्रवरि तत्रास्ति विब्याभिषं, नगरं सौपसंदोहाशिवाचा ॥२६॥ । मणिकरिमो मुलाः . सेतसेतुमिः, . दान पनि निशाना बाति वारि५१-पिगिति-सिमक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था व जैनधर्मं । [ ७५ तनिक भी हानि नहीं होती थी। इन व्यापारियोंमें बहुतसे बड़े२ व्यायारी जैनी होते थे । जैन व्यापारियोंने देशको समृद्धिशाली बनाने में अपने सत्साहस और सत्य धर्मका परिचय दिया था। वे अपनी मारिक संस्थायें बना कर व्यापार करते थे । धार्मिक सहिष्णुता । विजयनगर साम्राज्य में धार्मिक सहिष्णुता भी एक उल्लेखनीय वस्तु थीं। विदेशियों और मुसलमानों तक को अपने धर्म नियमोंको पालने की सुविधा प्राप्त थी, मुसलमानोंके लिये राज्यकी ओरसे मस्जिद बनानेकी सुविधा प्राप्त हुई थी। मुसलमान राजकर्मचारीगण भी समुदाह और हिन्दू धर्मातनों के प्रति सहानुभूति रखते थे। उन्होंने हिंदू मंदिरों को दान दिये थे । पारस्परिक सौहार्दका यह सुन्दर नमूना था। पुर्तगाल के ईसाई पादरियों को भी अपने मतका प्रचार करनेकी छूट थी । किन्तु इतने पर भी इन विदेशी मतोंको सफरता नहीं मिलती थी। उनके प्रचारको योगिगट् विद्यानन्द सदृश महात्मा निरर्थक और निष्फल बना देते थे। वास्तव में जनता में वैष्णव, शैव और जैन मत इतने गहरे पैठे हुये थे कि विदेशी मतोंकी ओर वे आकृष्ट ही प्रायः नहीं होते थे। 'कालीकट में गऊनच निषिद्ध था और कोई भी वहां गो मांस नहीं 1- Major, Pt. I pp. 13-14 २ - वि० पृ० १६८ । १-कोर के शिलालेख नं० १६ से स्पष्ट है कि दिलखा नामक मुसलमान अफसरने मुसलमान शासक सिताबकि लिये एक हिन्दू मंदिरको भूमिदान दिया था। दस्तमजीखांने ११ जून १५५६ ई० को देवापुरके मंदिरको दान दिया था। - ( ASM., 1941, pp. 153 - 154 )४ - वि०, पृ० १६८. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on] . सविन विदास । mammommmmm खा- N-न्दु जाकका यह लिखना विजयनगर साम्राज्यमासे नगला रखता है। जैनधर्मको रामाश्रय प्राय बा। समय पर बह विसनगरका राजधर्म मी रहा था। विजयनगर सम्राटोंकी उसके पति, समुदार दृष्टि थी। उनके राजदरबारों में जैन भागों पंडितो. मोर. कवियों को सम्माननीय पद प्राप्त था। विजयनगर शासनके प्रारम्भमें दिगन बादकुशक जैनाचार्योका प्रायः समार. वा-इसीलिये बह मैनेता वादियों के ममकलमें नहीं टिक पाते. थे; किन्तु बादी विषानन्दने इस. कमीको पूरा करके जैनधर्मकी भपूर्व प्रमावना की थी।' समाज व्यवस्था। विजयनगर साम्राज्यमें समान व्यास्था अपने प्राचीन. रूप भलित थी । मुसम्मानों और ईसाइयों के प्रचारको लक्ष्य करके वर्णाश्रम धर्मके पारने में अहाना करती जाती थी। विजयनगर राजाभोंक विनों में सवर्णाश्रमाचार-प्रतिपावनतत्परः' मनवा 'वर्णाश्रमधर्मपालिता' इस बात के योतक है कि राबायोग वर्णाश्रम- धर्मकी रक्षा में तत्पर । बराचर्यजी के समय ही वर्णाधमी पौराणिक सिन्दूधर्मका पार कर रहा था किन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय, क्षेत्र और co" In this harbour one may find everything that can be desired. Ope thing alone is forbidden namely to kill a row or to eat ils flesh: whosoever should be discovered slaughtering or. cating one of these animals, would be immediately punished with date -Major I. p. 18. २-१, पृ. १९६-१६॥ पोपटक सगा भावीवीपक, निज परिहर दिः (११४ KASM. 1938. p. 319) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmomenammaNIN विजयनगीवासन बास्नानधर्म। . छद्रोंक तिरिक्त मौर भी जातियां हो चको यो। मोमें पर्णाश्रमकी कट्टरता मी पूर्ण रूपमें प्रविष्ट नही हुई थी, 'जनमें बैनाचार्य और कुरुको मान्यता पूर्ववत प्रचलित थी। 30 वर्णके जैनी परस्पर विवाह सम्म करते थे। इनमें मी सेठी वाणि"बनेट नानीदेशी, अमरावतीकोटे, तदेयर कुक, कडितलेगोत्र गादि बातियोंका बनना शुरू हुमा था। स्त्री समाज। समाजमें स्त्रियों का सम्मानीय स्थान था। पालक-बालिकाओं को समानरूपमें शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी। कन्याओं को संगीत, नृत्य, चित्रकारी नादि ललित कलायें विशेष रूपसे सिखाई जाती थी। त्रियों का पतिके साथ युद्ध, यात्रा और पणिजमें नाकर भाग लेने के तल्लेखोंसे स्पष्ट है उस समय सियों में परदेका रिवान नहीं था।' विदेशी यात्री भी यही लिख गये हैं १+ दक्षिणमें पादेकी प्रथा मात्र भी नहीं है। किन्तु उस समय बहु विवाह प्रथाका बहुपचार था। सर्वसाधारण लोग भी अनेक विवाह करते थे। दहेजमें गांवतक दिये जाते थे। शुद्र मपनी कन्याओंको बेचते भी थे। इन समाननियमों का पान न करने लोग जातिपहिष्कृत कर दिये जाते थे। इस प्रकार समाजमें वैवाहिक प्रया कठोर और बुराईस खाली नहीं थी। लियों में पतिक साब नल मानेकी नृशंप मती-प्रथा प्रचलित थी।' १-वि०, पृ. २००-२०१ १+Not did they try to hide their women.-Major, p. 14 २-Major, II. 'p. 23'वि . १.१ ।।-विह. "पृ. २०१२. . Major, IL. P. 6. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास जैन लियोंमें भी कोई २ इस कोक प्रथाका मेष- मनुकरण करती । राजमहलों और वैष्णव मंदिरों में संगीत और नृ यके लिये गणिकायें भी होती थी। जैन महिलाओंको उनकी अन्य बहिनों की अपेक्षा अधिक वाधीनता प्राप्त थी। वह धर्मकायोको करनेके लिये स्वाधीन थी। अनेक जैन महिलायें मार्यिकायें (साध्वी) होकर लोककल्याणमें निरत रहती थीं। वे स्वतंत्र रूपमें दान भी देती थीं और अपने धर्मगुरुयोस शिक्षा भी लेती थीं। दायभागमें भी उनको अषिकार प्राप्त था ! उनमें अनेक कवियत्री और पंडितायें भी थीं। उनके सौन्दर्यको प्रशंसा विदेशियों ने की थी। वे बाध्य सुन्दरियां होती थीं। जैन संघ व्यवस्था। दक्षिण भारतके जैनियों में प्राचीन संघ व्यवस्था मन भी मौजूद थी। मुनि और मार्यिका संघके साथ श्रावक संघ भी मौजूद था। माथिकायें अपना संघ मलंग बनाकर नहीं रहता थी; मलिक ने मुनि संघके वाचार्योकी शिष्या कही गई है। इसी तरह श्रावक-श्राविका · भी अपने गुरुके संघमें सम्मिलित होते थे । मुनि संघ कई अन्तरमेदों में बंटा हुआ था। शिलालेखों में मूल संघ. साम्यती गच्छ, १-मनि धके लेख नं. ५४ में लिखा है कि कमलाक्षी महालक्ष्मी अपने हदय जिनेन्द्र भगवान. निप्राय गुरु. और अपने प्यारे पत बग्यिनन्दनका ध्यान रखते हुए साहसपूवल मिमें बठी और सती होगी .ASM , 1942, P. 185. २-वि०, पृ. २.१ । ।-बेलोर (Bolour) मे हुने भन्दुलाजाने होकी सियों के अन्य मसानों जग पाया। ("Women reminded one of the bualty of Hauris." -Major, I, p. 80 ). Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था व जैनधर्म । । ७९ कोण्ड कुन्दान्ययके अतिरिक्त मूक संघ का गू'गण-पुस्तक गच्छे; मुक संघ देशीयगण - पुस्तक गच्छे मूक संघ-पलात्कारगणै; द्राविद्वान्यम यापनिका - संघ; इंगलेश्वर संध; मूळ संघ-सूरस्तगण चित्रकूटान्ययै; श्रीमैणदान्बय - देशीयगण इत्यादि संघों और गणका पता चला है । यह नाम भी प्रायः क्षेत्रकी अपेक्षा से खखे गए हों । काणुर, देशी, द्राविड़, चित्रकूट इंगलेश्वर बादि नाम क्षेत्रोंके ही घातक है । जैनमठ बेल्लूर के ताम्रश्न नं० ६२ से स्पष्ट है कि सन् १६८० के पहले से दक्षिण भारत में वैष्णव मठोंकी तरह जैन मटोकी स्थापना हो गई थी। दिल्ली, कोल्हापुर, जिनांची और पनुगडेमें जैन भट्टारकोंकी गद्दियाँ थीं। यह सब भट्टारक लक्ष्मीसेन कहलाते थे और वस्त्र पहनते थे । (ASM., 1939, p. 190) जैन मुनियोंका चारित्र । यद्यपि दि० जैन मुनिगण अनेक संघों और गच्छों में बटे हुबे अन्तु उनके बाचार-विचार प्राय: एक समान थे। वे सब ही मैनधर्मकी प्रभावनायें दसचित थे। चूंकि मंदिरोंकी व्यवस्थाका मार और सम्पतिका उत्तरदायित्व विभिन्न भाचार्यों पर होता था, इसलिये उनमें विविध क्षेत्रों और स्थानोंकी अपेक्षा संघ और गच्छ बने हुये थे । मालुम होता है कि उस समय विदेशी लोगोको भी बेनथमे में 1-ASM., 1931, p. 114. २ - बहो, सन् १९३३.१० २६६ ३ - वही, १९३४ १० १७६.४ - बही, सन् १९४०, पृ० १७१-१७१. ५ - वही, १९३८, १०८३-८८. ६-१० १८२७ नही १९४२, १०२८६. ८ - यही १९४३, १० १९४ - १११० ... Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया था। किनीमायावनिका रायके समान गामाते थे. जिससे उन सब परदेशसे सट। जर मर्तिपूजक गते थे। उनके जैनधर्मानुयायी और राज्याधिकारी शोकरानि होमेपर जैनाचार्योने उनका एक बड़ा संघानिका यामक स्थापित किया प्रतीत होता है। उसे पानीय' का अपवंश मानमा कुछ ठीक नहीं चला ! उनका मा संघ पनानेकी नाप"सता यूं पड़ी होगी कि वे विदेशी और उस समय वर्णाश्रमी महराका प्रभाव नियोंग मी पावा! नई २ उपमातियां भी बनेगी थीं। एक लेख में उस समय अठारह नातियों का उल्लेख है, जिनमें अछूत भी सम्मिलित थे और उन सबने मिलकर केशवमंदिर बनाया था। वैष्णवोंमें यह दावा नोंकी देखादेखी प्रचलित ही प्रतीत होती है। मुनियोंका महान व्यक्तित्व । दिगम्बर जैन मुनि निगरम्भ और निष्परिग्रह कर अपनी मामाका बर्ष और लोकका पकार कानेमें नित थे। उनकी महान् पद्रियोंसे स्पष्ट है कि वे चारित्र, विद्या और शानमें बड़े पढ़े. एवं देवेन्द्रों-नरेन्द्रोद्वारा पूज्य थे। भट्टारक धर्मभूषणको एक मेख में "मिनेन्द्रमाण रोक"-"देवेन्द्रपूज्य"-"चतुर्विधतान चिन्तामणि" पौर "मिनमंदिर-वीर्णाद्वारक" कहा गया है, जिससे प्रगट है कि . .१-संह, मा. ३ खा २ पृ. १६२-१६३. -ASM. -1989.: p. 101. १-पंचमाती वा लेखन.. ४.. ASM. 1934176 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरवासनाला नर्म। [८१ पुनिया विनवपति कीन मोर मंदिरों के संरक्षक होते थे। मंदिरोसे मारने हुए थे, उनकी नामदनीसे 8 मंदिरका नाचार्य (१)माहार, (२) मेषज्य, (३) नमय, (४) मोर शाम दानकी व्यवस्था मदिर कासाबाइस प्रकार मुनिराज भोर मदिर कोकोपकारक साधन बने हुये थे। लोगों पर उनका बच्छा प्रभाव पड़ा हुमाया। जैन सिद्धान्तके सार मुनिजन अन्य सिद्धान्तोंक भी पारगामी होते थे। इसीलिये निधर्मक स्थम माने जाते थे। ज्ञान-अंधकारका नाश करने के कारण वे अविवलित-बोष-नीप' और 'समोहर' कहे बाते ' बनता ज्ञान-प्रमा करना उनका परम कर्तव्य बा । जो माधु हानी पानी नहीं होते थे, उन्हें साधुवेश माना जाता था और कसा वाताव किये ज्ञानहीन सधुदेषो केन अपना पेट भागाती सामते मार्गशतः मुनिष विवेकपूर्वक लोककल्याणमें निरत था। आपिकाये। मुमुक्षु महिलायें पा छोड़कर सर करूपाणमें निरत होती थीं। सके संघका नेतृत्व भी संभवतः मैनाचार्य कति थे; क्योंकि लेखों में बके गुरु जैनाचार्य रह गये हैं। यह माथिका ज्ञान-ध्यानमें १-गणित्ति वशिलालेख-सिमा०, भा० १० पृ. ३-४. २-केपि स्वादापाणे परिणता विद्यावहीनतम योगीशा भुवि संभव कि नंतरिक्ष । गणिगित्ति वर्गात शिलालेख ।' ३-गदर (विगेरे) के लेख न. ४४ में इलेकरियर नामक पाक्षिक गुरु नदिमाक है। मलसंप कोरकुम्दान्वयसे सम्बन्धित (ASM., 1936, p. 178.) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] संवित बैन इतिहास।.. . Mon समय बिताती हुई ठोर-ठौर बाकर बनताको नामबोध की बीपालिकामों भोर बियोंको शिक्षा दीक्षा देती थीं। वे स्वयं नियम पातीं थीं और भाविकाओंको उनको पाने के लिये सारित करती थी। मन्तमें समाधिमरण पूर्वक वह अपनी ही पूर्ण करती थीं। श्रावक श्राविकायें। साधुओंके पवित्र जीवन और उनकी सत्संगतिका प्रभाव भावक माविकानों पर पड़ा था। वे लौकिक धर्मका पान करते हुये नामशुद्धिके मार्गमें भागे बढ़ते थे। जिनेन्द्रकी पूजा करना गौर दान देना उनके मुख्य धर्म-कर्म थे। वो और पुरुष समान रूपों जिनेन्द्र पत्रा एवं अन्य धार्मिक क्रियायें करते थे। प्राविकाबोके अपने धर्मगुरु होते थे; जो उन्हें धर्मपालन के लिए उत्साहित भार सावधान करते थे। जैन कुछाचारका पान ठोकसे हो; इसस ध्यान नाबायोंके साथ २ प्रमुख सापक भी रखते थे। स्तनिधिक अन शासक बोम्मगौडका जीवन एक मायके बादत्रको कम करता है। जिनकरण रोक थे-गुरुः क्त थे। दूसरे देव नौर गुरुके भागे नतमस्तक नहीं होते थे। हमेशा सम्बकत्वमें गत रहते नौर जैनमतकी पदिके लिये तत् गते थे। बैन नारकी , १-लेन्तियाने समाधिमा बिमा । (ही) विन्दिगनाले स्थान सन. १५ से स्थाकि अमान्नेसिया नामक माविकाने anam और समाधिपूर्वक पापविन किये(ASM., 1939,P193) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्थापनधर्म। [१] विका उनोने मेशा ध्यान सा का।' मिमंदिसमोर चर्तिकी बनवाना, शाम लिखकर भेट करना, पाठशाम स्थापित करना, .x बीपर्मायतनोंका उद्धार करना नादि धर्मकार्य थे जिनको मायक किया करते थे। मंदिरों में नदीकर द्वोपके बिनाव्यों की भी रखना कराई जाती थी। भावक भाविकायें जिनमूर्तियों के अतिरिक सीयों और गुरुलोंकी पूजा करते थे। मामें चापकों के साथ एक भी चढ़ाये जाते थे, जिनके लिये मायक मंदिरोंको बाग वानमें देखें थे।'भाबक और मुख्यतः श्राविका अनन्तबा माविका पान करके उनका ग्यापन को उत्सबसे मनाते थे। शासनदेवोंक्षेत्रपा क्षणीकी भी मूर्तियां बनाते थे और उनको पूजते थे। गन्तमें समाधिमाण पूर्वक अपनी बीवन कीला समात करने में लोग गौरव बनुभव करते थे। समाधिमाण भयबा सल्लखानावत गुरुकी बाबासकी किया था सकता है। गुरु महाराज यह समझ लेते है कि भक्तका बीवन - 1-ASM, 1942, 181-181. '...अब ना धर्ममगन कुलाचारं गल बेसेंदतागिरेमालु पुनरियं मार पुन्या सत्कीति तनिधिय मधिणं बोम्न मेरु धयमनु ।'- मनमताबद्धव - - सम्यानाकर तिलक' इत्यादि। 2-ASM., 1941. P 2043 Tbid, 1942, p. 186. x लेविर थम केस नं. ३५ Ibid 1937, p. 185. 3-Ibid., 1942, pp 40-11 ४-18 निधिलेख नं. ३६ से स्पष्ट है कि हर मादप्णने निधो के सिं मिदान दिया था। (ASM, 1931, pp 164-165) 5-lbid., 1939, p. 152. 6-lbid, 1930, p. 175 7-Ibid 1911, 204. 8-Ibid 1912pp. 181-185.' Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mastanisaniamayan weat तो उसे सलेसनाने में देते है और न अकसे हो, इसके लिये निषिक कर देते हैं। गुरुनोंक पास्की समयसमा प्रचार समुचित पवा। मलेखनाके समय में निन्द्रदेवका ध्यान भोर णमोकारमंत्रा स्मरण करते हुवे एवं नियोको पाते हुये मुमुक्षु स्वर्ग-सुख पाय फाते थे। स्वर्गवासी बन्धुणोंकी स्मृतिम निषि और वीरगल बनवाये जाते थे। इसन जिलेके गोवर नामक स्थानसे जो · निषधिकल ' (निधिका शिलापट) पाठ हुना है. 88 पर तीन भागों में तीन दृश्य नाकीर्ण है। तक मानों पाहे ही इन दो श्राविकाओं के चित्र उत्कीर्ण हैं, जिन्होंने सल्लेखमा विषिसे माम विसर्जन किया था। वे वीरवर सत्य म्गेरेकी पलियां गौर भाचार्य नयकीर्तिदेव सिद्धतिशकी शिना भी। पतिक बीगतिको प्राप्त होने पर उन्होंने लेखनावत लिया था। इसके उपर दूसरे श्यमें दोनों श्राविकायें देवागनामोंसे वेष्टित विमानमें स्वर्गको बाती हुई दिखाई देती है। इस दृश्यक प्रदर्शनसे सलखना-का माहास्य बनताके हृदयमें घर कर जाता था। तीसरे दृश्यमें मिनेन्द्र भगवन्की मूर्ति बहिन है, जिनपर दो देवाशनाय चमर ढोल रही है। "जिनेन्द्रकी भक्ति ही स्वर्गमुखदायिनी है"-इस सत्यका बखान निधिलके इस दृश्यसे होता था। सारांशतः नैनाचारको पालन पानेका समुचित थान संघमें रक्खा बाता था। साम्प्रदायिक विद्वेष और पारस्परिक प्रमाव। . किन्तु इसने पर भी, यह मानना पड़ेगा कि उस समय वर्गRAH, IOS.P.T+ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शान म जैनधर्म। 18 memmmmmmm समान विनामकी माना थी। यपि विपत In सार पार्मिक नीति थी, फिर भी वैष्णा मोर शैव जनाको र देते रस्तार से जाते थे। अरुणदेवराय सदर महान् भोर रसर सनके राज्यका में ही नृशंस पटना घटित हुई थी। कानू बिके भीक नामक स्थानका शासक शान्तपुत्र वीशि धर्मका अनुसार और भनेकान्तमय (जैनधर्म) का विशेषी ।। सन् १५१२१० प्रकससे स्प है कि उसने श्वेवार नियों का कलेमाम कराम को' लेसमें उसके इस नृशंस कर्मकी गणना उसके धर्मकृत्यों की है। भला इससे ज्यादा और क्या अत्याचार हो सकता था! ऐसे भया स्थिति नाचायोंके लिये धर्मको स्थितना कठिन होस काकहीं कहीं तो बैनधर्मातनों में विनन्द्रपना भी न हो पाती थी।' कहीं-की मदा-सदा सावक माविकानों पर उनके पडोसी विमियों के भावार-विचार का प्रभाव पाता था। जनी उनके देखादेखी गोमूहाने जाते थे; 4 विनयको ता भी न भूखते थे ! क्ष्मीदेशी मी ई-मिमें बामरी, र मरते दमतक बिनदेव भोर मेन धर्मगुरुले भूनी ! एलिनाकी चैन पस्किके लेख ०५६ से स्टी कि पोका चौकीदार और उसकी मां बम्प एवं केतिष और उसकी पत्नी चन्दुदेवीने सन्यास मरण किया और कामस्तिलिंगदेवमें जीन हो गये। यहापर कास्तिलिंगदेव' नाम शैव मतके प्रभावको बक करता है- बैनी काम्देवमें विलीन हुए-सर्गवासी हुये' बायो स्थानशिकीन हुहगये। या मिनेन्द्र देवक R-MAHISHAahidiGPALI Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५] संक्षिस बैन इतिहास। लिये मोग' देनेका' भी लेख हिंदू मंदिरों में बमोगका स्मा है। किन्तु इसके साथ ही, यह बात नहीं मुबई जा सकती कि उस समुदार कामें नियों की मान्यताओं का प्रभाव भी हिंदुओंरहा था। पट्ट पर्णाश्रमी होते हुये भी, हिन्दुभोंने जोको धर्मका स्थान दिया था, यह नियोंकी समुशार पर्मनीतिका ही परिणाम समझना ठीक है। यही नहीं, हिन्दुओंन बैनी देश देवियों को भी अपनाया था। सिद्ध भगवान और पद्मावतीदेवी उनके निकट पद्माक्षी देवी और सिद्धेश्वर' देव होगये थे। जैन मुनियों के दिगम्बर मेषका प्रभाव शैव भोर वैष्णव साधुनों पर पड़ा था-उन्होंने भी पामहंसवृत्ति' बाण की थी। उनकी मूर्तियां भी पनासन मिनमति मिती जुब्ती बनाई गई थी। जैन ही नहीं, हिन्दुओं . उस समय मुसलमानों का भी असर हुमा था-बनार्दनका एक नाम मला ल नाव' इसी समय रखा गया था। दिलबरखा जैसे मुसमान बा हिन्दू मंदिरोंको दान देते थे, तब यदि मल्लाह' के नामसे हिन्द नपने देशको पुकारने लगे, तो नाचर्य ही क्या ! मत सहिष्णुः शामें ही ज्ञानधर्म चमकता है और मानव अपना मोर पाया हिक सप सकता है। प्रान्तीय शासक बैनी थे। इस प्रकारकी समुदार धर्म-प्रवृत्तिके काळमें विजयनगरके कतिपय - 1-Ibid. -Ibid. ३- ०, मा. २ पृ. १६-१०। -४-परिणयचा नादि Re | ASM., 1961 P.254-Ibid.t-bid. -Ibids 1911. pp. 150-154 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AmAImammeenamoonam विजयनगरकी शासन व्यवस्थापनधर्म। [८.' (सबाट बौर उनके वंशज ही बैनधर्मके अनुयायी रहे. यही नहीं, परिक विजयनगर साम्राज्य के कई पान्तीय शासक भौर सेनापति भी बैव धर्मके माननेवाले थे। जैन धर्मकी मान्यताने उनके जीवन समु. दार बनाये थे। जैनी शासक न्यायशील और पनाके रक्षा होते थे; बैनी सेनापति शौर्यके नागार और न्यायके नापार थे; जैन गणिक साहसी, देश और धर्मके रक्षक मौरबर्द्धक थे। सासंशतः जैनधर्मका प्रभाव उस समय भी मानव जीवनको समुनत बनाने में कार्यकारी था। विजयनगरके राजकुमार और जैनधर्म । विजयनगरके सम्राटोंके अतिरिक्त उनके रामकुमारोंने भी बैन धर्मको प्रश्रय देकर उसे उन्नत बनाया था। गजमार हरिहरने कनकगिरिक जैन मंदिरके लिये दान देकर अपनेको सर्वप्रिय बनाया था। नोंने जिनेन्द्रदेवको भी विजयनाथदेव कहकर पुकागवा। इससे बिनदेवमें उनकी मास्था स्पष्ट होती है।' उनके पुत्र राजकुमार विरुपाक्ष भी उन्हीकी तरह जैन धर्मपर सदय हुए थे। मलेगपर बाबा शासन का रहे थे त उन्होंने तामाकी श्वनाथ पस्तिकी अमीनका निषष्या न्याय काके मेन पावकी रक्षा की थी। . विजयनगरके सामन्त और जैनधर्म । . विजयनगरके सामन्त शासकों कोजस्य, बास, साल, बेस्सोप्पेके शासक और कारकरके मेरस मोरेवर विशेष स्लेखनीय १, बिनोंने बैनमतको लत बनाने में सक्रिय भाग लिया था। छोटे सन्तोब पापविनाटके शासकसदर, मोगमुनाट विदिल, १- ०, पृ. १९९. २-ही, . २८.: ' . ' . .. ? - - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] संविधान विकास पार्नुअसीमे, नम्मेहल्लि इत्यादि स्थानोंके महान बेनधर्म - मक थे। यह सामन्तगण विजयनगर स्मारोंकी छान बनेर प्रान्तपर स्वाधीन शासन करते थे और समय २१ बाके किये युद्ध भार सम्मान प्राप्त करते थे। कोहल एवं काल के जन शासक। कोजलववंशके नरेशोंने जैनधर्मके लिये भूमिदान दिये थे, परन्तु जन्तमें वे भी वीरशैव धर्ममें मुक्त हुये थे। वीर शैव होने पर भी उन्होंने जैनोंको समसे देखा था। चंगनाडके चाय नरेश भी वीर शैव धर्ममें दीक्षित हुये थे; किन्तु फिर भी वे बैनधर्मको मुग । नसके! पालव नरेशोंने अपने स्वामी विश्वनगरके समाटोकी भार धर्मनीतिका जनुकाण किया था। उन्होंने नियों और पीर बोका परस्पर मेल करानेके सद् प्रयास किये थे। कहते है कि अपने इस प्रयास सफल हुये थे। जैनों और सैमें परम संबंध स्थापित हुये थे। उस समयके बने हुये ऐसे शिवलि मिले, दिन पर दिगम्बर जिन मूर्तियां बनी हुई है । उनको quida वीर शैयोंको विरोध था और नहीं ही बैनियोंको।' बाम नरेश चैनधर्म के पारीस चुके थे। एक चाम नरेश चिक हनसोगे स्थानपर त्रिकूटाच-जिन-पस्ती' नामक विनमंदिर मामा की। परेखों के समर्थका परी १- ०, मा. १ २ पृ.१५६. एवं मे०, पृ. १११. १ . ११५।-in.. मा.. .५१ मे १.१५. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरको स मर्म। [८१ सासरत चालमनरेश विक्रमरा (सन् १५५७१०) समान है। इस दानपत्रमें मिनेन्द्रको मंगलाचरण के है कि बाङ्गल्यानरेशने नासीभट्ट नामक ब्रामण विद्वानको एक बार मेर किया। सम्भव है, नसीभट्ट भी नर्म मुक्त हो। मंग वासरको स्थाबाद मतका उपासक सिद्ध करता है! राजमंत्री मोम्मरस । सन् १५०९६०में चेनबोम्मरस नामक वी साल नरेखके राममंत्री थे। बोम्मके वंश बनेक पुरुष सामंत्री रहे मोर वे सजनधर्म-सहाव-प्रतिपालक' कागते । सोम्यक मंत्री • सम्पत-चूड़ामणि' कहे जाते थे। नाम पर मते थे, वहां उनके कारण बैनधर्म उन्नत बना हुमाया। वहां - मान्य बनी रहते थे। उन्होंने बोम्ममंत्री के साब मिका मायरोकने गोम्मटस्वामी मूर्तिक पलिभर' (urbour) का जीर्णोबार कराया। दंडाधिप मजारस। किन्तु हा नरेशों के राजकर्मचारियों में दाविप मारसका स्थान सर्वोपरि है। रस मल्सेनाके सेनापति रमावती मिधर्मके मनन्य मक और प्रतिमा-मम्पक कवि भी। सके पिता महापमु विलास बाला-नरेशक राजमंत्री और कारक मक क्षेत्रके शासक (बासराय) । उनकी माता देवि भी। मारक मार्मि - माथे। की fat. बाप मरस स मिट की! पिन्त माहिसा सवार १-मेश. पृ. ११६।२-ही. पृ. 10 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.] संसिन इतिहास । . . . ससक होते हुये भी मरसका शौर्य और भुषविक्रम मेकविरूपाता। बेडर नामक पासी कोग सभ्य बीवनके लिये फरक हो रहे थे, बसा संस्कृतिकी गति मतिको मागे बढ़ानेके लिये बेडरोंको शक्तिहीन करना नावश्यक वा। वीर मरस जंगली बातिके उन कोगों के विरुद्ध बा हटे। घोर युद्ध हुमा । अन्तमें बेडर परास्त हुये! चाला नरेश विकमराम यह सुनकर प्रसमा हुने । महरसके चौकी उन्होंने प्रशंसा की | मरसने अपनी इस विषयको 'बेपुर' बसाकर मूर्तमान बनाया था। उन्होंने कलहाल, चिलुकुण्ड, मल्लराज पण, पालुपारे गादि स्थानोर दुर्ग बनवाये थे और कई अन्य स्थानों पर ताबा खुदवाये थे। मगरसने कई जिनमंदिर बनवाये थे, परन्तु उनमें 'यमगुम्बासति' नामक जिनमंदिर उल्लेखनीय बा। उस मंदिरमें बनाने म. पार्श्वनाथ, पद्मावतीदेवी भोर चनिगमगकी मूर्तियां स्थापित कराई थी और बड़ा सव मनाया था। संगीतपुरके सालुबनरेश और जैनधर्म । बपि बाङ्गलब नरेशोंने चैनधर्मोत्कर्षके लिये जो कार्य किये प्रशंसनीय थे, परन्तु संगीतपुर. बेरसोंपे और कारकरके सामन्त शासकोने जैनधर्म के लिये भटूट परिश्रम किया था। संगीतपुर (हा. हल्लि) से काइयगोत्री चन्द्रवंशी सामनरेश तोम देशर शासन लते थे। सन् १९८८1. एक शिलेसमें बो संगीतपुरका १-० १. ११५-११६ मारके प्रसंग द्वारावतीसे भारी के साथ मारपूर्ण देश से थे और साल पर पान पाते थे। (. ) ...... . . . . . .. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmamerammamminewwwomewwwmomematomoooommeme विजयनगरकी शासन व्यवस्थापनधर्म। [९१ विवाण दिया है, उससे TA नगरकी समृद्धि और बहार धर्मके पावल्यका पता चला है । उममें लिखा है कि तौलवदेशमें संगीतपुर सौभाग्यका ही निकेत वा-उसमें उसंग चैत्यालय बने हुये थे। बहर मुखी, उदार और भोग विकासमें निमम नागरिक रहते थे और हाथी घोड़ेसे वह भगपुरा वा संगीतपुरमें महान योद्धा, उचकोटिके कविगण, बाती और पता रहते थे। यह नगर सास्तीका नागस होरहा बा, क्योंकि वहां उच्च साहित्यका निर्माण होता था। संगीतपुर मपनी कलित कलाओं के लिये भी प्रसिद्ध था। उस महान् नगामें उस समय महामंडलेश्वर सालुवेन्द्र शासनाधिकारी थे। यह सालुपेन्द्रनरेश बिनेन्द्र चंद्रगुप्तपमुके चरण चंचरीक बने हुये थे। उनका हृदय सत्रय धर्मके किये मुड़ मंजूषा था। उन्होंने संगीता मतीय उत्तुंग और नबनाभिराम जिनचैत्यालय बनवाये थे, जिनमें विशाल मंस और सुन्दर मानस्तम बने हुये थे। धातु और पापाणकी भव्य मूर्तियां भी न्होंने निर्माण कगई थीं। नगरमें मनोरम पु वाटिकायें बनवाकर उन्होंने नगरकी शोभाको बढ़ाया था। नागरिक उनमें बाकर मानन्दकेलि करते थे। इतने पर भी सालुवेन्द्र नरेशको इस बातका ध्यान था कि नगरमें धर्ममदा अक्षुण्ण रहे। इसीलियर मंदिरोंको धर्मव्यवस्था ठीक रखने के लिये सतर्क रहते थे। मंशिक नियमित धर्म क्रियायें होती रहे, इसके लिये नोंने दान-व्यसम्पा की थी। देवपूजा, परिषि दान और विद्वानोंको सिलान किये भी व्यवस्था की गई थी। सारांश कि सालपेन्द्र नरेशन रामपके. भाव और पर्म मर्यादाको ठीक तरहसे निवाहा बा। मिनेन्द्रके, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] रानमन्त्री । पालगेन्द्र नरेश रानमन्त्री पर अभया पाणये। हमी सम्बंध होस । रानमर्यादाको स्थिर रखने में सका लेखावीत सायबा। इसी प्रसन्न होकर मालुवेन्द्रवे उनको भोगेको नाक ग्राम मेंट किया। किन्तु पद्म इतने समुदार और धर्मकाये कि उनोहमाम जिन वर्मक उत्कर्षके लिये दान कर दिया। संभवत: मोने अपने नाम पर 'पाकापुर ' नामक ग्राम बसाया और सन् १९९८ ई० में उन्होंने उस प्राममें एक अन्य जिना निर्माण कराकर उसमें भ० पार्श्वनायकी मूर्ति विमलमान की भी। महामंडलेश्वर इन्द्रा बोराकीच्छानुसार उन्होंने उसके लिये भूमिदान दिया। ___महामंडलेश्वान्दगरस भी महामंडलेश्वर संगिगनके पुत्र थे। मालुमेन्द्र नरेश समक्त: संगिरायके उरेष्ठ पुत्र थे। इन्दसम्मति मालुपेन्द्र मामसे भो विरूपात थे। उनका नाम सैनिक प्रवृतियों के कारण खून ब हा ग। सन् १४९१ के एक लेखमें उनके शौर्यका बखान है और लिखा है कि उन्होंने शौर्यदेवताको जीत किया था ! विडिक (वेणुपुर ) की पर्वमानस्वामी बसदिसे प्राचीन भूमिदानका पुनरुद्धार करके उन्होंने बैनधर्मको उस बनाया था। सालुन मल्लिरापादि जैनधर्म के माश्रयदाता। मागे संगीतपुरके मालुस नरेशों में साहस मल्लिराव, माला देश. समोर सालणदेवतपर्म की अपेक्षा उल्लेखनीय है। कृष्ण की माता मामा निजलगर प्रवास प्रशाकीबानी न १५३... के वानरसे साBिi Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासनानधर्म। १५ siniminimadindianiminishinnintendednewslimmemeबसिद ने गुरु बादी विधानरको प्रश्रय दिया था। साल मलिक मोर सालुन देवरायके राजमारोंमें वादी विधानंदने परवादियों से सफल बाद किया था। कृष्णदेखने उनके पादयोंकी पना की थी।' सीश रामानोंने विजयनगरके सासिंहासमा विकार किया पायह लिखा नाचुका है। गुरुराय और भैरवनरेश जैनधर्म प्रभावक थे। सन् १५२९६० के एक स्टेखसे स्पष्ट है कि सम यक शासनकालमें गुरुगय संगीतपुरम शामनसूत्र संभाले हुये थे। समका सम्बन्ध बेरसोप्पेके शासकोंसे था। मरेन्द्र गुरुगय भी अपने पूर्वजोंक अनुलत जैनधर्म के अनन्य भक्त थे। वह सत्रय धर्मपूजा--जिनपर्म पत्रको फागनेवाले ' र्णिम जिनमंनिग और मूर्तियों के निर्माता' और विनमंदिरों की शिविरों का स्वर्णकलशोको बढ़ानेवाले' कहे गये। इन विरुदों से उनकी जैनधर्मके प्रति श्रद्धा स्यं वक्त होरही है । इसी वंशके नौवनाशने भाचार्य वीरसनकी नासानुसार येणुपुरको त्रिभुवन चूडामणिसाती' की इतर वेके पत्र पाये थे। उनके गमगुरु पंडिआचार्य (बीसन ! ) थे और कुलदेव म. पार्धनाय थे। उनकी गनी नागदेवी मी जैन धर्मकी उपासिका थी। उन्होंने वहीं मंदिरके सामने एक सुन्दर मानस्थम बनवाया था। उनकी दो पुत्रियां लक्ष्मीदेवी और पंडितादेवी नामक बी। वे निन्तर जैन साधुनोंको दान दिया करती थी। भैरव मोश बम रोगपत हुये तो उससे मुक्त होने के लिए उन्होंने जिमनाके हेतु दान दिया। (-०. १. ११४-१८. २-मेगा. (MSS). .. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५] ....संचित न इतिहास माTE: माता राजवंशमें बेन धर्मकी मान्यता ही नहीं, बलिक BAR महती की उसके द्वारा हुमा था। रसोप्पेके शासकगण और जैनधर्म । बेसोप्प पागासोप्पेके शासकगण भी विजयनगर सम्राटोके सामन्त और पारम्भसे ही जैनधर्मके अनुयायी थे। उनका सम्बय संगीतपुर और कारकरके जैन नमामोंसे बा। उनके कार्यान गेसोप्पे का नाम जैन संघके इतिहास जमर बनाया था। चौदावी शतानि मन्तिमपादमें मजमप ममा मङ्गगन नामक नरेल सपने धर्मकर्मके लिये प्रसिद्ध थे। नक्कासि उनकी गनी थी। सबकुल्में निरन्तरधर्म कायोकी चर्चा रहती थी। उससे प्रभावित होकर मंगरामके पानोई पाण्णरसने म. पार्श्वनायकी पूजा के लिये भमिदान दिन भोर मंदिका जीर्णोद्धार कराया, अपनी स्वर्गीय गनी तगादेवीकी मामाको शांति पहुंचाने के लिये उन्होंने यह दान दिया था। मंगरामके पुत्र नरहयषणास थे । उनकी रानी सातादेवी बोम्मणसेडिकी पुत्री थी। यह दम्पति अन्तरजातीय क्षत्रिय-श्य विवाह सम्पका जीवित मादर्श बा। सान्तकदेवो जिनेन्द्रदेवकी ननस उपासिका बीं। 1-उपवास करते हुये पवित्र जीवन व्यतीत का बनाने समाधिमाण किया था। इम्मडि देवगप अंडेयर । सन् १५२३१० में निरिसोपके बाद शासक इम्मति देवास बोडेकये बिनका सुभस्मत नाम देवमय बा। कपासकोसकी । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी सन यावा नपर्म । ९५ रानी भैरवाय मनथे। मेवा गिरिसोयरामकी रामबाबी| इसलिये ही उनका पुत्र गिरिसोपेका शासक हुमा। एक बामपनमें नगरी (गिरिमोन) है , तुलु. कोरण नादि देशों के बासनाधिकारी कहे गये है। देवा मी बैनधर्मके द्धालु थे। स्वयंर्म नियमों का पालन करते थे और अपनी पत्राको भी धर्म ऋजु करते थे।सन् १५२३. में यह स्मणेश्वाको सल जिनपरतीके बर्शन करने गये मोर बन्दुपाल नामक ग्राम मन्दिरको इसलिये किया कि उसकी भायसे चन्द्रनाय मिनेन्द्रकी पूना मोर उनके कल्याणक सब निरता किंग जाते है। दशोयाणके भाचार्य चन्द्रअमदेवके सुपुर्द यह दान व्यवस्था की गई थी। इस दानपत्रके अंतमें गंगा, गोदावरी, भोपर्वत-तिरुमले नामक स्थानों के साथ अन्त (गिरना) का भी उल्लेख है, जिससे प्रतिभासित है कि गिरिसोप्येक निवासियों को तीर्थगन गिरिनारका परिचय था। उन्होंने अर्जयसपर ऋषियों के दर्शन किये थे । नृप महि देवाय न केवावमशूको बलिका कर्मश भी थे। वह मम्पूर्ण राजनुद्धि-कोश के स्वामी और सप्त-1-अगों में निष्णात थे। इनका शौर्य बताया। साहित्यरसिक भी थे। उन्होंने शान्तिजिनकी मन्ब मूर्ति भी प्रतिक्षित काई बीजो बाजार मद्रासके संग्रहालय में मौजून है। देवगन प्राणवेगोरके गोबरामीका महामस्तकाभिषेक रस्पन्द्रक समान विशेषतासे मनाम था। यह महान बस्य सन् १५३९ • से पटित हुमा था। उस समय अनुहिन पतिका पापवेगोपने कर्मचारों को बंधनमुकर दिया Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामा मया पतिविम्मित होना समाविकीसोनागरिकोने विवर्म-मन्दाकिनी सी उमस बार पाठक मागेके एक प्रसंगमें पड़ेंगे। कारकरके बैरम कासक और मैनधर्म । कारकाके मेस्स बोडेपपर शासकगण भी विजयनगर साम्राज्य पकिसाठी सामन्त थे। उनका सबकुल मथुरा के प्रवंशी नमामोसे सविसबा, जिनमेंस गना साकारका पुत्र जिनदताय दक्षिण मास्तमें मार शासनाधिकारी हुमा था। उन्हीं बिनदतमयके वंशज कार के मेरा नरेश थे। इस वंशके मादि नरेश रामु पोम्बुपके निकट रिपसे नामक म्यानपर महरू बनाकर हनेगे थे। एक विमोश सपने महासे दक्षिणकी मोर मीन देखने गये तो म्होंने कहा एक कारे वृक्ष के नीचे गाय बोर सिंहको पाव साब पेमसे ममतापूर्वक बैठे हुये देखा । उस म्यानको महत्वशाली जानकर होने वही एक सुंदर जिनमंदिर बनवाया और उसमें अपने कुछदेवता मेमीस्वामीकी मूर्ति स्थापित की। कार वृक्ष तेक गड नौर सिंहको पट्टा पाने के कारण उन्होंने अपनी गजधानीका नाम भी बरकमला बा । उनकी विरुनाबली निम्न प्रकार भी: स्वस्ति श्री महामण्डलेश्वर, रिगयागंड, नाडिदमागे लप्पुक mis, मरे होकर काय, मरेता गेलुब, मल्लवंटर.... विक, परमही होबर, नरपतनाकु-मंडलिका-ड, गुन्जिनियर-is, मुख-पुरवायचा, सुवर्णाशस्थानाचार्य, मी वीर मेवेन्द्र B, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था व जैनधर्म। [९७ सोमवंश, काश्यपगोत्र, सत्पात्रदान- जिनधर्मधुरम्बर, कारफळ सिद्ध सिंहासनामीश्वर ।"" इस बिरुदाबक्री से भैरव नरेशके व्यक्तित्वकी महानता स्पष्ट है। जिनदत्तराबके समान ही वह बीर और जैनधर्मके जनन्य मक थे। उनके पश्चात् कारककमें निम्नकिखित रामामने शासन था। १- पांख्यदेवरस अथवा पांड्य चक्रवर्ती, २- लोकनाथ देवरस, ३-वीरपांख्यदेवरस, ४ - रामनाथ भास, ५-मैक्स मोडेन, ६ - वीर पांड्य मैग्स थोडेप, ७- अभिनव पांख्यदेव (पांडय चक्रवर्ती) ८- डिरिब भैरदेव ओडेय, ९-१०मडि भैरबराब, १०- पाण्डयट मोडेव ११ - इमडि नैरमराय १२ रामनाथ १३ - वीर पांख्य । यह सब डी राजा जैनधर्मके उपासक महान् वीर थे। देश और धर्मकी रक्षा के लिये वे सदा तत्पर रहते थे । अन्तमें कारक के इस राजवंशको भी बोर शैवोंने अपने धर्म में दीक्षित कर किया था। इस पर भी वे बैनधर्म के सहायक रहते थे ४ प्रथम नरेश पांख्यदेवराजने सन् १३३४ में कार करूके पास हरिवनगडीकी गुरुगलवस्ती नामक जिनमंदिरको दान दिया था। राजा कोकनाबास द्वारा तुलुपदेशमें जैन धर्मका विशेष प्रचार किया गया था । 'बल्ला करायचित चमत्कार' विरुद घारी श्री चारुकीर्ति पंडितदेक उनके शिष्य थे। कारकरमें मूकसंघ क्राणुरगण के भाचार्य मानुकीर्ति मारिदेव के पट्टशिष्य कुमुददेव भट्टारकने म० शान्तिनाथका भव्य > कलकी केफियत - जेसिमा० भा० ३ १० १९ । २-बही ...३२ । ३-मेजे०, १० २८० । ४-वही. पृ० ३६१।५-मे• १० १२९ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९०] मंसि निर्माण किया था। राजा नायके में म. १३३१० में उनकी ज्येष्ठ ममनियों या राज्यविभरिक सा मंदिरको ममिदान दिया था। दोनों में बोलती और सोमवेयी जैनधर्मकी जनन्य उपासिका थीं। मध्यापिकरिया बाल अधिकारी अपनी धार्मिकता के लिये प्रसिद्ध थे। बोनाकी विलालीमें समस्तभुनाय'-'श्रीकृषीवलम' और महामवापिस बिहनोंसे साकि वह एक हद तक साधीन शासक थे।' इनसोगेके भट्टारकगण और मैग्ष नरेश। उपरान जब काकलके इन जैन शासकोंपर किंगाल मतन्त्र पमा पहा, तो हनसोगेके जैनगुरु मागे माये और उन्होंने इन राजाओंका मन पुनः स्याद्वाद सिद्धान्तके प्रति ऋजु किया। इनसोगेके भट्टारक ललितकीर्तिमरूपारिदेषके उपदेशसे मैनेन्द्र नरेश और चन्दामा पुत्र वीरपाख्य नृपन्दने कारकळमें एक विशाखकाय गोम्मटपतिमा निर्मापित कगई की। स विशाल मूर्तिकी प्रतिमा महोत्सव बुधबार सन् १५३२ को सपसे किया गया बरकरके निकटवर्ती ग्राम तिरिमाडिमें स्थित हरे नबीसदिको मीदोंने दान दिया था।' सन् १५३१.में बी नरेश पाणयेगोरके गोमवर मूर्तिके लिये दान दे चुके थे। पुरा weafww. सना पाने कोकोने nिt डोहापा। डिरिवारिक व्यापारियो उनके मोसेन .. ., . , २-० - १९, -- बेस्मा., . २९. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर की शासन व्यवस्था व जैनधर्म । [९९ १४०५-७६ १० में वहाँको तीर्थडर बसलिका मुलमेट बनाना था। बीरपांख्य का अपरगाम पाण्डय क्ष्मापति भी अनुमान किया गया जिन्होंने भव्यानन्द शास्त्र रचा था x शासनकर्ता काललदेवी । सन् १५३० १० बोख्यिकी बुआ और भैरवेन्द्र नरेशकी छोटी बहन का देवी यागु खसीमे नामक स्थान पर शासन कालीं थीं। यह रानी भी नवने भाई मसीओ के अनुरूप चैनधमकी उपासिका थीं। उन्होंने अपने राज्यमें जैनधर्म प्रचारका विशेष प्रee किया था । बाजि भव्यजीवों (जैनियों ) का प्रमुख केन्द्र था। कल बस्ती के पार्श्वती फालदेवीके कुलदेवता थे। जब उनकी पुत्री रामदेवीका असामयिक स्वर्गवास हुआ तो कालदेवीने उनकी स्मृतिमें अपने देवताकी दैनिक पूजा और उत्सबके किये भूमिदान दिया था । -कुछ समय पहले उसी कल्ली (मंदिर) को कोलिय नामक मल्लाह दान दिया था। शनीन मल्लाह के दानको भी बढ़ा दिया था। कालक महादेवी द्वारा जैन धर्मका उत्कर्ष विशेष हुआ था।* राजा इम्मडि भैरवेन्द्र और जैन धर्म । सम्पति मैरकेंद्र बोडेबर अपनेको पट्टि पोम्बुचपुर का शाधिकारी कहते थे। उन्होंने कारकको विशाक' चतुर्मुखसति" नामक मंदिर निर्माण कम के जनक- भक्तिका परिचय दिया था। १६ मार्च १८६ १० को प्रतिय ३८. १६२ - २- मे० १० १२०-१२१. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १..] ... संविबेन इतिहास : हुमाया। सन् १५९८ में उन्होंने कोप प्रामके सावन वायके म. पार्श्वनायके निमित भी दान दिया था। पनायकने इन भगवान्की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी। सन् १९१६ १० में हमति भैरवेन्द्रने कारक के विशालकाय गोमटेश्वर-मूर्तिका मामस्तकाभिषेक उत्सब बड़ी शानसे मनाया बा। भैरवेन्द्रने ककि पदम्को भाश्रय दिया था, जिन्होंने भ० तिकीर्तिकी नाज्ञानुसार •कारका-गोमटेश्वर-चरिते ' प्रवरचा भी। हिरियङ्गाडिकी गम्मनपरबस्ती नामक जिन मंदिरको भी संभवतः इन्हीं भैरवराज मोरेयरने दान दिया। ही इमडि भैरवनरेशका एक शिगलेख कारकककी पहाड़ी र स्थित चौमुखा मंदिरमें निम्न प्रकार है: सारांशतः कारकरके भैरव पासुनरेशों द्वारा बैन धर्मकी उमति विशेष हुई थी। विजयनगर कारके वे स्वाधीन शासक थे। “श्री जिनेन्द्रकी कृपास भैरवेन्द्रकी जय हो। श्री पार्श्वनाम सुमति ! मी नेमि बिन बळक यश दें। मी बाह, मल्लि, मुक्त ऐप है। पोम्बुचाकी पावती देवी इच्छा पूर्ण करे। पनसोगाके देवीगणके गुरु कतिकीर्तिके उपदेशसे सोमकुली, जिदपकुडोल्पा, मेव राजाकी बहन गुम्मतम्बाके पुत्र, पोमच्चपुरके स्वामी, ६१ राबायो मुरूप, गनगाके रामा, न्यायशासके ज्ञाता बापगोत्री हमति भैरवने कविका (कारकर) की पाबनगरी में भी गोमटेक्साके ..- .. ३८५। १-मे माdme, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था निर्म। [१.१ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmसामने किया चैत्यालय बनवाया गया तथा शामिाहम . १५०८ चैत्र सुदी ५ को भी पर, मल्लि या पुस्तकी मति चारों सम्फ स्थापित की पश्चिममें २४ तीर्थकर स्थापित किये। उनके भाभिषेकके लिये तेस्पारू ग्राम दिया। इन्द्रपन छंदमें सर्व महाराबने रचकर लिखा है।' इस वर्णनसे माह भैरवनरेखा ऐशर्य, धर्मभाव और विद्यापटुता स्पष्ट है। भैरव भरसूनरेशोंके धर्मकृत्य । भैरव परसनरेशों के शिलालेखोंसे उनका नर्म प्रेम और प्रदान स्पष्ट है! सन् १९०८१०में २० माट्रपरको मा भैरवदेवाने समाधिमरण किया तो उनकी निषधि बनाई गई । भैरबरसा रामानोंक सामन्त भी चैनधर्म के प्रभावक रहे थे। हापलिमें सासवेन्द्रक्षितिपय संगीतपुरके पंडितार्य परमगुरुके उपदेशसे १३ जून सन १९८१को चंद्रपम जिनकी पतिमा और मानस्तंम निर्माण कार्य थे। मुहमटकसमें बक गुरुके शिष्य चेनरायने एक चैत्य निर्माण कराया। उनकी रानी गंगान्वयी भामिनीदेवी प्राचार पाने में थी। १. भने सन् १९९०१० को नोने सल्लेखना विधिस प्राण दिसत किये। सं० १३५१ में अमिना बारकीर्तिके शिष्य मेरो त्रिभुवनचूडामणि वैय नामक मंदिर मालातकीपुर, बेल्गोपुर, चंद्रगुण और होमावरमें बनाये थे। वेणुरके चन्द्रमिनमंदिरको बनाने वीर सेव गुरुकी भावानुसार पीतम्से मंडवाया था। इसकी गनी नागने मानस्लम बनायाापौष ग १ पुषपर सं० १९८५ को२-या , पृ. १५०-११२.२-२०, मा. ९१...१-०१. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२३ 4 बगिरहिरे भैम्य बहुत बीमार थे, तो उन्होंने विधिरेन्द्रनामको भूमिदान दिया। उनके छोटे भाई चैरास और राय बेल्गो के पंडितदेव के शिष्य थे। क्षेमपुरमें भैरवदेवीने मंडप बनाया था तुमचाके अभिशंख्य नरेश मकधारी कतिकीर्तिके शिष्य थे (मैरे०, भा०९ पृ० ७३-७४ ) । अवशेष सामंत और जैनधर्म । लक्ष्मी बोम्म और उनके पति बोम्मरस । अवशेष सामन्तोंमें आबलिनॉड-नरेश, सोडाराम और कुछ टूर के प्रभु, मोरागाड, विदिकर, बामुझिसी में नग्गेहलिनादि स्थानोंके शासक मी जैनधर्मके भक्त और उसकी प्रभावना करनेवाले थे। सोहराब बीर गौड़की पुत्री और ममहाप्रभू तनधि झकी रानी क्ष्मी बोम्मक बैनधर्मकी दृढ़ श्रद्धल उपासिका थी। उनके गुरु महात्कारगण के सिंहानन्द्याचार्य थे; जिनके उपदेशानुसार लक्ष्मीने अनेक धर्म कार्य-और उपवास किये थे । सन् १५७२ ई० में उसने समाधिमरण किया क्ष्मी बोम्मले पति बोम्मरस भी जैन धर्मके हढ़ उपासक थे। वह सब और स्वपनिधि दोनों स्थानों पर शासन करते थे। शिका केल म दोनों स्थानोंकी तुलना अमरावती और मक्काती की गई है; जिससे उनका बैभवशाली होना स्पष्ट है। किन्तु या मुक्तः निधिमें ही रहते थे। वह हरिहर द्वितीयके सामन्त थे। प (बोम्मरस ) के बिरुद 'श्रीमान् भानुव महापम्, सिरोमणि, बहावभूमकादिश्य उनके ऐधर्य हैं। १-३० पृ० ३२० - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनमस्कीवास व्यस्तरबैनधर्म १०१ अधिक १८ कम्मणों की गौर-जाने एक पंचायत बनसीgat की, उसके प्रमुख महे थे। माशय कि प्रवा मसको भाका बहिलपी मानती थी। वह एक मादर्श शासक बोये। जैक पर्व के रोम-रोममें समाया हुमा था । उनको साक्षात् पुकार पर मेहरा नाता था। धर्मके मंगलरूप नकुलाचारका बम्होंने पुनरोदा किया था। उनकी सत्कीति मुनाविल्यात् थी। उनकास सपना इसी लिये ब्रमने प्रतिज्ञाकी की कि 'मैं जिनदेषके अतिरिक किसी बम देवको नमस्कार नहीं करूंगा। उस समय जैन की स्थिरता के लिये इस प्रकारको प्रतिक्षायें काना मायकी। बिनदेव ही एकमात्र उनके हरयासन १५ विराजमान थे। बता कामदेवकी गति के लिये उनके चित्र स्थान ही नहीं था। रामबुकियों और परदायों के लिये वह महोदा थे। कामदेवको उन्होंने बीत लिया था। शान्तिनाब उनके पिता भोर पा उनकी माता बी1 बाईसेन उनके गुरु थे। नी मात्र उनके सगे सम्बन्धी थे। ऐसा उनका वात्सल्य धर्म था। निसन्देह एक महान वीर, कीतिब, सम्बतबसाकरतिकक, नमानिनस, और सकोगनासमान मानने को कोई नहीं था। मानन्द गौरपयुक्त विकर मोगर ब्रमने सासं० १३०१ में सन्यास माण के वर्गहरेकको मान किया था। ( ASM., 1942, pp. 181-184 Taranaadi lavorip: No. 68). स्वानिषिके सामन्त बननमा । (निवि) के सामन्त बैनर्मक Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१] ... संवित बैन इतिहास । अनुयायी थे। मादिगोड़के पुत्रका नाम भी बोम्मण वाहमा बन्द्र मन्पारिदेषके शिष्य थे। सन् १३७२१० में उनोंने समाधिमाण किया था। उनका एक रामकर्मचारी भी उन्हीं गुरुका शिष्य था। उस समय जैनगुरु भावकोंको धर्ममार्गमें प्रसर करते रहते थे। सोहरायके महापम् सम्मगौड़ कयरोगसे पीड़ित हुये । सन् १३९४० में वह पाट-पर्वतोंकी ताटीमें नगियकोय नामक स्थान मौषधि उपचार के लिये ना रहे थे। परन्तु उनको स्वास्थय काम नहीं हुमा । बह और माये और अपने गुरु सिद्धांतदेवकी शरणमें पहुंचे। गुरु महाराजने उनका अंत समय निकट जानकर उसल्लेखना व्रत दिया। पंच नमस्कार मंत्रका बाप करते हुये उन्होंने विधिवत प्राण विसर्जित किये थे। इस वह सोहरायके महाप्रभूओं द्वारा धर्मका उत्कर्ष विशेष हुमा वा। .. भावलिनॉडके महाप्रभु और जैन धर्म । सोहराब स्तवनिधिके शासकोंके अनुरूप ही बालिनॉडके महाप भी बैन धर्मके मनन्य उपासक थे। उनके संरक्षणमें बैन धर्मका उत्कर्ष इस प्रदेशमें ऐसा हुमा था कि वैसा उस समय न्या कहीं भी नहीं हुमाया। भापकिनॉडके महापम शासकोंके साथ बहक सम्बार, सबमहिलायें और नागरिक भी बैन धर्म प्रमाणनाके . १-मे. पृ. १३५। 8-" The Mabaprabhus of Avaliand by their stead-fastmono to the service of the Jaiaa Dharma bad nised religious soul to a height which it rarely attained anywhere in those daya." .:-Dr. Salators, मे . . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था जैनधर्म। [१.. कार्य करने में नमसर रहे थे। चौदहवीं शताबिके मध्यसे. पन्द्रहम शताधिके प्रथम पाद तक ही जैन धर्मका उत्कर्ष खूपही हुमा। रामा और प्रना-सही नैन धर्मके पाचार-विचारोंमें रंगे हुये और बैन नियमोंको पालने में गर्व करते थे। वे धार्मिक जीवन बिताने के साथ ही मन्त समयमें धर्म विधिपूर्वक ही अपनी ऐहिक की समाप्त करते थे। जैन गुरु निरन्तर पायक संघको धर्म पाने के लिए सावधान करते रहते थे। भनेक प्रायकोंकी निधिका नाम भी भावचिनाइकी धार्मिकताको पगट करती है । सन् १३५३ ई. में श्री रामचन्द्र महधारिदेयके शिष्य कामगौड़ने समाविमरण पंचनमस्कार मंत्रकी माराधना करते हुये किया था। उनके धर्मावरणका प्रभाव बनता पर इतना अधिक था कि उसने स्वयं उनकी स्मृतिको स्थिर रखने के लिये निषधिका बनवाई थी। स्न १३५४ में जब मगोडने समाधिमरण किया तो उनकी पनी चेनकने उनके वियोगमें सहगमन' किया। चन्दगोरके छोटे भाई सिद्धांतदेव गुरुके शिष्य थे। सन् १३६६ में उनोंने भी सन्यास लेकर वर्गगमन किया था। से कार पक्षन वर्षों तक सन्यासमरण करना भावरिनाडके गौड़ प्रभुमोमें एक माननीय गया ही बी। बालिनाडके महामुोंने ती यं या बाद बनताके समक्ष उपस्थित किया था। भागफिनाइके महापभूदगोरके पुत्र वेचिगौर नाचार्य श्री रामचंद्र मापारिदेके शिष्य थे। अपने गुरुके पचपदर्शनमें धर्म नियमों का पान करते थे। गन्न समय मोने गुरुनानासे नमस्कार मंत्रका स्मरण करते हुये सन् २००६ में समाधिमण किया था। इस मी -पनी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.६] संक्षिन इनाम । पुहिनोनिने सहमम'-याका अनुसरण किया बा-उसने भी बने पसिके बाब मानी ऐहिकीका समा कर दी थी। इसपर मालिके बक प्रमुमोंने इसरान-मतिको जिनधर्म-मक्तिको चिरस्थायी बना के लिय निधिका बनाई मी! शासनाधिकारी महापम् पेगौड़की पतीनी अमिगोन्टिनं मी सन् १९९५ में समाधिमरण किया था। यह सबगुरु मिद्धांतिपतिकी शिष्या बीं। १३९८ में महाप दगोर शासन कर रहे थे। उनकी रानी बन्दगौन्दि भाचार्य विषकीतिकी शिष्या की। धर्म-कर्म करने में वह सचेत रहती थी महोन भी अपनी ऐहिक जीवनलीग सन्यासमरण द्वारा समाप्त की बी। नापलि-शासक महामु रामगोड़के पुत्र हाल्वगौड़ मुनि भद्रदेषके शिष्य थे। सन् १९०८ ई० में होने भी अपने गुस्से मल्लेखना किया था। सन् १९१७६० में जन महाप्रभु भयगौड़ शासन कर रहे थे, तब उनकी पनि कालगोन्डिने भी समाविमान किया बान लेखोंसे पाठक समझ सकते है कि उससमय नावलिनॉस्में बेन धर्म किस पहारिक रूपमें उन्नत हो रहा था। पटाके शासक और जैन धर्म । इसी प्रकार छप्पदाके शासक भी जिनेन्द्र भक्त थे। पाकि ट्रम्य बामणोंका गायब, किन्तु बाम पाकर नर्मदा बोली हावा ही कामांशकी शनी माग्देवीको कमी प्रमाहिती बी, सन् १०. में पास निशि नामदायोंने सकार Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगर की शासन व्यवश्था जैनधर्म। २०७ 'नाका' मला गौर उन्होंने भी जिनमंदिको दान देकर अपनी उस्ताका परिचय दिया। इस मंदिरकी व्यवस्था कन्दणिके तीर्थके श्री मनन्दि आचार्य करते थे।' सावन्त मुद्दय्य । सन् १२०७ ई० में कुश्टूरम साबन्त मुहय्यने भी एक सुंदर जिनमंदिर बनवाया था | मूकसंघ काणू' गण तित्रिणी कगच्छके अनंतकीर्ति भट्टारक उनके गुरु थे। बल्लालदेव के राज्य-भूषण वह समझे नाते थे । वह धर्मात्मा और दानवीर श्रावक थे। खेचमूपतिके वह बोम्य उत्तराधिकारी थे। मार्गुडि नामक स्थान पर भी उन्होंने जिन मन्दिर बनाकर दान दिया था । १२१३ में कुप्पटूग्में श्री कलितकीर्तिमुनिके शिष्य शुभचन्द्रने समाधिमरण किया था। गोप महाप्रभू । कुप्यपुर के प्रान्तीय शासक ( Governor ) गोव महाप्रभु भी नैनधर्म के अनन्य भक्त थे। नैनधर्मको धारण करके वह ऐसे पवित्र डुबे कि उनका चारित्र धर्म स्वर्ग के किये सीडियां ही माना गया ! गोप चामूप गौड थे और उनके गुरु मूढसंघ देशीयगण के सिद्धांताबायें थे। उन्होंने जैन सिद्धांत में उनको पाहत बनाया था। कुछ टूमें एक विमान बनवाकर उसके लिये खूब दान दिया था। इनके पुत्र सिरियण्ण श्रीपति बांधव पुरके शासक थे और पौत्र महापवान गोव थे। गोपणके दुर्गके शासक नियुक्त किये गए थे । उन महाप्रभु दोधर्मन (१) गोपाई नौर (२) पाई नामक थीं और दोनों ही अपने पतिके समान जिनेन्द्रभक्का थीं। एक दिन चामुक १-मेबै० पृ० १५८-१५६, २० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८] संवित बैन इतिहास । गोप महामने कोकको अपने बनवका परिचय देना ठीक सम! अपना नामहित सापनेके साब रोकहित साधना भादर्श बैनका कर्तव्य है। उनोंने खुप मानन्दोत्सव मनाया-पक्षियों के साथ खूब भोगविलास किया और उनको संतुष्ट करके उन्होंने इन्द्रियजन्य मुखामाससे मुंह मोड़ लिया । वैराग्य उनके मन भाया । जमणोंको उन्होंने गठ, नात्र, स्वर्ण मादिका दान दिया। जिनेन्द्र भगवानका स्मरण किया और धर्म साधनोंमें लीन होगये। मोमलक्ष्मीके बरदास्तका भवसम्बन लिये हुये पह स्वर्गवासी हुये । भव्योंने उनके धर्म को सराहा । उनकी धर्मपलिया भी पीछे नहीं रही। उन्होंने भी प्रामणोंको दान दिया और मनशुद्धिपूर्वक सिद्धांताचार्यके पादपोंको नमस्कार करके धर्मसापनमें जुट गई । निरंतर वीराग भगवान्का ध्यान करके वे भी सगको सिधारी।' करियप्प दंडनायक। मोग्सुनातु उस प्रतिके शासक श्री करियप्प दंडनायकने सन् १४२६ में चोकमय जिना निर्माण कराया था और उसके लिये भूमिदान दिया था। उनके गुरु पुस्तकगच्छके श्री भाचार्य शुभचन्द्रजी सिद्धांतदेव थे। वहांके नन्य शासकोंके विषय में अधिक रामनायक। विदिहरके शासक रामनायकने सन् १९८७१. में २७ मई १-० पृ. १.९ सोशल ए पोलीटि ब हन के विजयनगर एमावर, मा.२... २४५...: . . . : Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था पजैनधर्म। [१.९ (जेठ मुदी ५ सं० १९१० शक) को वहां पर्वमानस्वामी वस्ती' नाम एक सुंदर जिन मंदिर निर्माण कराकर इसमें बादिनाथ भगबानकी पतिमा विराजमान की थी। रामनायक सान्तार सादार के और उनका सम्बंध मादिया (Adiyas) लोगोंसे था। वह एक महान् वीर थे। इससे पहले पिर एक अन्य जिनमंदिरका निर्माण श्री भगदान्धय, देशीयगण, नागरपकगुडिके नाचार्य शुभचंद्रदेखने कराया था। कडितले गोत्रके मल्लिने उसमें जिन प्रतिमा विराजमान कराई थी। उनको जिनेन्द्र भक्ति प्रशंसनीय थी।' विजयनगरके अनेक सेनापति और राजमन्त्री जैन थे। इस प्रकार विजयनगर बाटोंक प्रान्तीय शासकगण और सामन्त बन जैन धर्मके पोषक और अनुयायी थे। उन्हीं के अनुरूप विजयनगर सम्र टोंके सेनापति और मंत्री भी जैन धर्मानुयायी थे। उनमें सेनापति इरुगपका वंश प्रसिद्ध था। उस बंशमें कई पीढ़ियों से मंत्रीगण होते भाये थे। सम्राट् बुक्करायक महापधान वैव दण्डेश थे, जो अपनी दानशीलता, संयम और विद्य के लिये प्रसिद्ध थे। अपनी गजनीतिके लिये बह प्रख्यात् थे। उनकी राजनीति सामान्य हो रही थी। कविगण उनके गुणोंका बखान करने में मशक्य थे। जैसे १४ नीतिनिपुण थे, 1-ASM. 1943, pp. 113-115. २-"श्री बुकरायरस बभूव मन्त्री भी चदण्डेश्वरनामधेयः। नीतियदीया निखिलामिया निश्शेषयामास विपक्षमेकम् ॥२॥ . दानं चेकपयामि.लुब्ध परी. गाहेत. सन्तानको। . बेदग्ध यदि सापखकिया.SA ... ... .: शान्ति-सातापिनीया स्मृति महा। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ee राकमी भी थे। एक वीरगळमें सम्मान किये कहा गया है कि उन्होंने कोणके युद्ध में अपने शोका परिचा दिया था-सैकड़ों कोणियोंको उन्होंने तबारके घाट उतारा था। बिनेन्द्र भावान्के वह मनन्य भक्त थे। हो सकता है कि उपर्युलिखित युद्ध में उन्होंने बीरगति पाई हो; क्योंकि वीरगलमें उनको सर्गपुस्व प्राप्त किया लिखा है।' बपि उनकी सन्ततिका परिचय मिलता है, किन्तु उनके वंशके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। उनके तीन पुत्र (१) मङ्गप्प, (२) रूगप्प मोर (३) बुखण्य नामक हुये थे। वे तीनों शीक धर्मसे मषित मौर खत्रय धर्मके भाराधक थे। राजमंत्री इरुगप्प । इनमें से उपेठ पुत्र मनपर अपने पिताके पश्चात् राजमंत्रिपद र भासद हुये थे। वह महान् गुणवान थे और बहादुर भी थे। नैनागमके ज्ञाता और अणुव्रतोंके मागषक थे। उनकी धर्मपत्री नानको सीताके समान यो; जिनसे उनके दो पुत्र (१)वैचर, (२) और (रु नामक हुये थे। हरिहर द्वितीयके मंत्रियों में तात्र बचपदण न्तुले सस्य वीना ॥३॥ तस्मादजायन्त जगदजयन्तः पुत्रास्त्रया भूषित काशीलाः। येभ प. मानत मध्यल की च भवन स्वा सदि १-का. ८ (5b, १५२. - .... २- तिमानिनी सुरके। महितगुणोऽमा पनि मnि ... माणपोयोmara.. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी यायानधर्म। १९९ मानाकये। सन् १९९१ । १२९८ लोन महापधान' कहे गये हैं। उनके गाधीन मोरे होयसा देशपर शासन mar II इससे स्पष्ट है कि मेर . प्रदेसके एक भाग शासनाधिकारी भी थे।' संमतः दमों मजप एक ही व्यक्ति थे। मङ्गपके भाई गोप्य की संनापति थे। और दोनों ही जैनधर्म के अनुयायी थे। सेनापति कप और इरुगप्प। मङ्गपके दोनों पुत्र च और गाभी सेनापति थे। भी अपने पिताक समान गधा के स्लम थे। दोनों बायोडा थे। उनमें रूगप्प दण्डाधिपकी प्रसिद्धि बांधकयो। युद्ध क्षेत्र के लिये प्रयास करते थे तो उनकी घाहियों की खोस राजाम आते थे कि गदल बनका भाकाशमें छा जाते थे और सूर्य किरणों को अच्छादित कर देते थे, जिसके कारण भत्रुके कम स्वत: मुंद जाते -शत्रु उनकी भानमान लेते थे। रुगेन्द्रका प्रक उनके भमसे ही व्यक्त हो रहा 4-पुण्यशाको जीबी महामा प्रकाशमें गाने ही प्रगट होती है। रु :प्पके जन्म के सातो उनके मित्रों के मां सम्पतिकी वृद्धि हुई थी और उनकी लिस हासमोठे थे । बह र बारों पर बात१-सीमा भा. १९ पृ. ५ व १०, १.१.. २-"वासायी पनिपतरिया घाटीपर घरपोर खुर भारततिभिः । मे मानुरेऽHिIोकम् । बायकोचिजमातीविनाcartm.. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११] संडिस जैन इतिहास | १-माहार, २-अभय, ३- भैषज्य और ४ - ज्ञानका दान वह दिया करते थे। उनसे हिंसा, असत्य, चौर्य, परदारा संभोग और कोभ दुर्गुण दूर रहते थे। वह परम धर्मनिष्ठ जैन जो थे । वह सद ही धर्म पमागनामें निम्त रहते थे। जिनेन्द्रदेव की कीर्तिगाथा सुनने में उनके कान सदा ही बगे रहते थे। जिहा निरन्तर जिनेन्द्रके गुणगान से पवित्र होती रहती थी । शरीर सदा उनके डी समक्ष नत- बिनस रहता था और उनकी नाक केवळ जिनेन्द्र चरणकमकों की परमसुगंधी सूचनेमें मन रहती थी। जिनेन्द्रकी सेवा के लिए उनका सर्वस्व समर्पित था। निस्सन्देह दण्डाचिप इरुप गजभक्त धर्मात्मा और पके जैन थे । सन् १३८२ ई० में उन्होंने चिंगकपेट जिलेके तिरुप्परुचि कुणरु नामक ग्रामके प्राचीन " त्रैलोक्यनाथ बन्ती” नामक जिनालय के किये भूमिदान दिया था । उससमय हरिहररायद्वितीय शासनाधिकारी थे। यह भूमिदान इरुगपने राजकुमार बुक्कके पुण्य-बर्द्धन हेतुसे दिया था। इससे ज्ञात होता है कि इरुगपने पहले चिंगलपेटमें बुकके भाधीन रहकर राजसेवा की थी। उस मंदिरका मंडप भी सेनापति इरुगपने अपने गुरु पुष्पसेनकी नाज्ञासे निर्माण कराया था । उपरान्त वह विजयनगर राजधानी में जाकर स्म्राट् इव्हिस्य द्वि० की आज्ञा का पालन करने बगे थे । उनको राजमंत्रीका महतीपद बड़ी मस हुआ था। विजयनगर में उन्होंने नयनाभिराम कुन्थुजिनालय निर्माण कराया था जो १६ कावरी सन १३८६ ई० को बनकर तैयार हुआ था। इस मंदिरको उन्होंने श्री सिंहनाद्याचार्य के उपदेशसे बनवाया था । कह इम १६२ । २-मेबै० १० २०५ । • Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ momomommommommemom विजयनगरकी शासन मास्वायनर्म। [११३ मस्त मंदिरको गाणिगिति वसति' कहते है। अनुमान किया जाता कि किसी धर्मात्मा तेलिनने इस मंदिरका जीर्णोद्धार करावा वाइसलिये इस मंदिरकी प्रसिद्धि " गणिगित " ( लेकिन ) का मंदिर बामसे हुई थी। इस मंदिरके सम्मुख एक दीपम पर शिगळेस नतिजो संस्कृत भाषा २८ श्लोकों में निपद्ध। इसमें श्री हिन्याचार्यकी गुरुशिष्य पागा निम्नप्रकार लिखी हुई: मुस-ननि:संप-बलात्कारगण-सारस्वतगन भाचार्य पद्मनन्दी भधारक धम्मभूषण प्रथम अमरकति सिंहनन्दी गणभर भाक धम्मभूषण बदमान महारक मुनि धर्मभूषण द्वितीय नाचार्य पवनन्दीमे शिलालेखमें कुन्दकुन्दाचार्य मामिप्रेत है। उसमें उनके पवि नाम (१) कुंकुंद, (२) वक्रगीय, (३) महामति, (१) एकाचार्य नौर (५) गृद्धपिच्छ प्रगट किये गये है। इसके बने जोक्से विदित होता है कि उस समय श्रमण परम्पगमें १-माचाग्यः कुशाल्यो पानीको महामतिः । येकाचार्यो पिक बामपंचा। " - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११.] - संबित न इतिहास । साधुवेषियों का बाहुस्म हो गया था। केवाजानी पेट भरनेवाले माधुवेषी कहे गये हैं। भ. सिंहनन्दीको इस शिलालेखमें जिन धर्मरूपी पवित्र प्रासादका स्तम्भ कहा है। ३३ लोकसे पट है. किवंश इलाका धनुष लोगोंको सम्पाचारित्रकी शिक्षा देता था। हरिहरनरेशकी राजक्ष्मीको श्रीवृद्धि उन्होंने की थी। सिंहनन्दीगुरुके परणों के बह भक्त थे। उनके सुचारु शासन-सूत्रसे विजयनगर समृद-. शाली हुमा था। वहाकी सड़कोंमें बहुमूल्य व जड़े हुये थे। ऐसे विशाल नगामें रूगने कुंथुजिनालय बनवाया था। इरुगप्प केक योद्धा और राजनीतिज्ञ ही नहीं थे वह एक महान साहित्याथी और विश्वकर्मा भी थे। सन् १३९४ में उन्होंने कूणिगल नामक एक सुन्दर सरोवर निर्माण किया था। इस सरोबाके निर्माण सम्बन्धी शिलालेखसे मष्ट है कि इरुगप्प संस्कृत भाषाके श्रेष्ट विद्व न् थे। उन्होंने संस्कृत भाषामें "नानार्थम्नाकर" नामक ग्रन्थकी रचना की थी। इगर न केवल हरिहर द्वितीयके राजमंत्री थे, पक्षिक सम्राट देवगन द्वितीयके शासनकालमें भी वह उस महती पद पर नियत रहे थे। सन् १४२२ में उनाने का प्राणवेल्गोड तीर्षकी यात्रा की तो गुरु श्रुतमुनिकी बंदना करके उन्होंने गोमटेश्वाकी पूजा के लिए रेल्गोक नामक ग्राम मेंट किया था। सन् १९९२ में यह वैन सेनापति गोवे (Gos) और चंद्रगुत्तिके वायसराय थे। इस प्रकार सेनापति गम एक विश्वसनीय सेन्यनायक, तुर शिसवेता गौर सफल शासक पासाब गुण- साहित्यपविता प्रमाणित होते है। खोपरिर्वात मग साठ वर्षे (१३८३-१११११), Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्वां जनधर्म । (११५ डरता है। दक्षिण भारत के इतिहासमें इसने दीर्घकातक शासन व संभागनेवाला कोई दूसरा सेनापति नहीं दिखता! महान् रुगना किन्तु वह विदित नहीं कि उन्होंने किस स्थान किस समय अपना गौरवशाली इह जीवन समा किया था।' दण्डेश चप्प। इरुगप्पके भाई दण्देश वैचप्प भी एक त्मिा बैनी थे। सन् १९२२ में श्रवणबेळगोळके एक शिलालेखमें उनका बल्लेख भन्यामनी' रूपमें हुमा है। रुगप्पकी भांति यह भी धर्ममार्गको पवित्र करनेगले कहे गये हैं। (पवित्रीकृत-धर्ममार्गान ) मगद् विजेता मी वह कहलाते थे। सन् १५२० में वेचदण्ड नायक मम्राट् देवराव द्वितीयके महाप्रधान थे। इस समय उन्होंने समाज्ञ नुसार बेलगोको गोमटेशकी के लिये बेलमे प्रामकी वृत्ति प्रदान की थी। कूषिराज प्रधान मादि राजकर्मचारी। रुगक समकालीन राबकर्मचारियोंमें कूचिराम ब्रामण, महा पवान गोपचार, गुण्डदण्डनाथ प्रमृति प्रमुरूप व्यक्ति थे। श्री कृषिजनाचार्य चन्द्रकीर्तिदेयके शिष्य थे, जिनके गुरु मूबसंव इंगुळेश्वर पलिके मार्य शुभचंददेव थे। इनोंने सन् १५०.के. संगमग कोणम चंद्रप्रम भगवान् प्रतिष्ठित काये थे। महा पान गोप चाम्। निदुःनक दुर्गके अध्यक्ष थे। जैनसंपके जैनेन्द्र. समयाम्बुषि-द्धन-पूर्ण-पन्द्र' कहते थे। उनका वंश जैनताके कि १ ०, पृ.१५-१... .२- ०, ५. १५.. ३-मे०, १...-., १९८.८ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११4] जैन इतिहास | बात था। उनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। गुण्ड दण्डनाथ बाप जैन नहीं थे, किन्तु उनकी उदार वृति थी । अपने एक किलेखके मकाचरणमें उन्होंने जिनेन्द्रका भी उल्लेख किया है। " कम्पणगौड़ और जैनधर्म | गयिनाड के शासक मसनहल्लि कम्भणगौड़ भी उल्लेखनीय जैन राज्याधिकारी थे। उनके गुरु श्री पण्डितदेव थे। सन् १४२४ में उन्होंने होटहलि नामक ग्राम श्रवणबेलगोकके गोम्मटदेवकी पूजा के लिए भेंट किया था। उन्हीं की तरह बल्लभराजदेव महाभर मी एक नादर्श. बैन थे। वह महामण्डलेश्वर श्रीपनिराजके पौत्र और राजय्यदेव महामरसुके पुत्र थे । उन्होंने चिनवर गोबिन्द सेट्टिके नावदन पर हेमाश्वसदि नामक जैन मंदिर के लिए भूमिदान दिया था। हरिहर द्वि० के राजमंत्रियों में भी एक बल्लभराय महाराज थे, जो वीर देवरस और मलिदेवी के पुत्र थे। वह चालुक्य चक्रवर्ती कहलाते थे। * संभक है उन्होंके वंशज बल्लभराजदेव हो । हरिहररायके एक अन्य राजमंत्री मुहम्य दंडाधिप थे। उन्होंने संभवतः मधुर जैन पंडितको लाभ दिया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि विजयनगर के राजकर्मचारियोंमें श्री जैन धर्मकी मान्यता थी । ४ जनताका धर्म और केन्द्र स्थान । इस प्रकार राज्याश्रयको पुनः प्राप्त करके जैन धर्म जनता में भी चमक उठा था। जब कभी साम्प्रदायिक कट्टरता से बैष्णवादि लोग 1- Ibid, 292. 2- Ibid, 309 - 0 १० ३१० ४-मी०, १९/४ 5-Ibid. 5 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्थापनधर्म । [११७ नोंको बास देते थे तो राज्यसे उनका संरक्षण किया जाता बार पहले ही पाठक पढ़ चुके हैं। इस प्रकार मनता भी जैनधर्मकै मारिसक वातावरणमें मुख अनुभव का सीबी। उस समय जैनकेन्द्रोम शंगेरि सहस भी स्वान थे जो फसे जैन सर मतोंके गहने हुवे थे। प्रमुख और केन्द्रस्थान ये थे । भगणवेल्गोल, कोपण, कुश्ट्रा, उद्धरे, शंगेरि, मन्दसिके, कोलापुर नादि । श्रवणबेलगोल। श्रवणबेलगोल पुगवनकाल से ही एक महान् तीर्थरूपमें मान्यता या जैनों मोर वैष्णवों में परस्पर असहिष्णुभाव बढ़ गया तो सबाट करावने दोनों में सन्धि कागदी थी, यह किला माचुका है। इस समय अपनवेलगोलके गोम्मट्टदेवको रक्षाका भार श्री वैष्णव मेवा सातव्य पर पड़ा बाबो तिरुमलेके निवासी थे। श्री गोम्मटदेवकी विशाल मूर्ति उनके संरक्षणमें रहकर मान भी कोको भारतीय गोर बैन बादर्शको व्यक्त कर रही है। साम्पदायिक-सहिष्णुमाया कैसा सुखद दृष्टांत है। उस समय सभी नी सानंद अषणपेस्गो. की यात्रा करते थे। बीस सिपाही गोमटेश्वर-मतिकी रक्षा के लिए हर समय नियत रहते थे।' सम्राट बुकरायन बहाक सभी मसिन बीगोंदार काकर उन्हें नयनाभिराम बना दिया था। देवराय प्रथमकी रानी भीमादेवीने काही मंगायी-बस्ती में शांतिनावस्वामीकी मतिको पतितापित किया था। इस मंदिको समकियोंमें शिरोमणि मंगावी मानकी (Dancing sil) बाबा हा . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] संवित जैन इतिहास । अभिनव चारुकीति पंडित थे 'नजरायण्डनके भावक संपने यहाँकी बात्रा करक बलिवाड़का वीर्णोद्धार कराया था। सचमुच प्रवणबेस्गो उससमय विजयनगर साम्राज्यमें प्रमुख जैन तीर्थ माना जाता वा मोर दूर दूरसे यात्रीगण बन्दना करने माते थे। सन् १३९८में उस प्रदेशके शासक हरियण और माणिकदेव थे, जिनके गुरु मवणबेल्गोरके चारुकीर्ति पंडित थे। सन् १४०० में तो प्रवणबेलगोलकी त्राको बहुत ही अधिक संख्यामें यात्री भाए थे। यह बात वहाँक शिकालेखोंसे स्पष्ट है। श्रवणबेल्गोलके जैनोंकी एक खास बात यह भीमी कि उन्होंने तत्कालीन राजनीतिसे अपनेको अछूता नहीं सखा बा। गजनीतिसे अछूता हकर कोई भी समुदाय महत्वशाली और शतिपूर्ण नहीं बन सकता। प्रवणबेलगोलके जैनी "चैनं बयतु शासन" स्त्रको प्रकाशमान और प्रभावशाली बनाये रखनेके लिये नोंकी पुरातन रीति नीतिको अपनाये रहे। राजशासनसे उनका सम्पर्क रहा। उन्होंने राज्यकी छोटो-सी छोटी बातको भी नहीं मुलाया । सन् १.०१ में जब सम्राट् हरिहरराय द्वितीयका स्वर्गवास हुमा, तो उनोंने इस घटनाकी स्मृतिमें एक मार्मिक शिलालेख रचा राग। ऐसे ही सन् १९५६ में देवराय द्वि०की निषन-वार्ताको दो शिका. मेस पुरक्षित किये हुए हैं। इन शिलालेखोंसे नोंके रानप्रेमका परिक्य भोर सम्बंध स्पष्ट होता है। . . .निस्सन्देह मवणवेल्गोड भारत-विख्यात् तीर्थ होरहा बा । दूर दुरकोसे पनाम सेठ लोग संघ मेकर अपनवेल्गोकी बाबाके • "-bid 209. 2-Tbrd 3i4. - -ybid. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्थापनधर्म। [११५ mi momwwwwwmomwrimmamimmi बिनाते थे और पा करके दान देते थे। सन् १५.७ में मोमकुडके कतिपय यात्री बन्दनाके किये जाये थे। सन् १४०९में गंगवतीके निवासी और भाचार्य चन्द्रकीतिक शिष्य मावष्णन बेल्गो के गंगसमुद्र नामक स्रोपरकी भूमि खरीदकर गोम्मटस्वामीकी पुजाके लिये भेंट की थी। मायण भव्य भाव थे और सम्यक्ताचूडामणि भाते थे। इस दानके समय प्रवणबेलगोलके पट्टश्रेष्टीगण मौर दो गौड़ उपस्थित थे। सन् १५१० में श्री पंडितदेवके शिष्य यस्तायिने वहाँ पर्वमानस्वामीकी मूर्ति स्थापित कगई थी। सन् १५१७ के मगमग बिडित नामक स्थानसे करिय गुम्मटसेट्टि एक संघ लेकर प्राणवेल्गोक पहुंचे थे और उनने स्नाय व्रतका उपापन काके संपका नादर-सत्कार किया था। विजयनगर साम्रजपमें उत्तर भारत मुख्यतः माग्वाइसे बहुतसे हिन्द नाकर बस गये थे-उन लोगों का उधर पाना बाना बना ही साताबा। इनमें बहुनसे जैनी भी थे। श्रवणबेलगोलके लेखों में हम मारवाड़ी जैनोंका विशेष लेख है । सम्राट देवराय द्वितीयक समयमें इन लोगोंका स्लेख "उत्तमपथ-नगरेश्वदेवतोगसक" रूपमें हुआ है। सन् १९८६ में मारवाड़ निवासी मूलसंधी श्रीनगमुजे बगद नामक मात्मा सज्जनने एक जिनमतिमाको स्थापना वणवेल्गोकमें कीवी। सन् १९८८ में पुरस्थान नामक स्थानसे गोमट भूपासमानोराबारी कविकांशी बने सम्बंधीजनों मति प्रणवेल्गो की दवा पिलाये थे। उस विषमकामें उत्तर भारसे यात्रियों का १-०, १९५. - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.] संमिशन इतिहास । चंदनाके किये माना उस तीर्थक महल और यात्रियोंकी तीकिकी घोतक है। सन् १९९० में भी मारवाइसे मट्टारक नमचंद्रके किअमबर्मरुचि और ब्रम गुणसागर पंडित श्रवणवेल्गोको बनाने गाचे थे। सन् १५०० में प्रवणबेल्गो के मठाधीश श्री पंडितदेह प्रयास गोम्मटेश्वरकी विशाकमर्तिका महामस्तकाभिषेक उत्सव समारोह मनाया गया था उस समय स्वयं गुरुजीने गौर बेगुरुना के नाम गोड तथा मुतग होमेनहालक गवुडगरने मठ एवं मझायो-पस्तिके लिये दान दिये थे। सारांश यह कि भाणवेल्गोक उस समय सांस्कृतिक सम्पर्कका केन्द्र बना हुवा था। तर भोर दक्षिण-दोनों ही देशोंके जैनी ही बाते और पास्पर मिस्ते जुब्ते थे।' कोपण तीर्थ। अषण वेल्गोके उपरांत दक्षिण भारतमें दूसरा पान तीर्थ कोपण का यह पाठकों को पहले ही बसाया मा चुका है। विजयनगर सामाज्य-काळ मी कोपणका पार्मिक और सांस्कृतिक मास क्षेखनीय हावा। इस मौर्यकालीन तीर्थकी महतोगों के मन पड़ी हुई थी। विजयनगर समाट कृष्णदेवरायके समयमें कोय राज्य-सीमा मानी जाती थी। उससमय कोषपके आसक सिम्ममय नाये। वह केशवोपासक थे। उन्होंने सन् १५२१३ कोपणके सेवा मंदिरको दान दिया । मंदिर मू: मंदिर स्योंकि इसकी दीपोर बबीबी जैन पस्किो म १... - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था जैन धर्म [१२१ विजयनगर कालमें वह शैवमंदिर बना किया गया। इस घटनासे कोपण पर शैवोंका प्रभाव व्यक्त होता है। प्राचीन काकी सभ्ह कोपण एक मात्र जैनतीर्थ और जैन सांस्कृतिक केन्द्र तब न रहा। फिर मी बडी जैनका प्राबल्य था। इस समयके प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री बादी विद्यानन्दजीने अन्य स्थानोंके अतिरिक्त कोपण सीमें भी बड़े २ जैन उत्सव रचाये थे और अपूर्व धर्म प्रभावना की बी । जैन व्यापारी और भेष्टी निरन्तर इस तीर्थ की भी वृद्धि करने में कमे हुये थे और भी वादी विद्यानन्द, श्री माषनन्दि एवं म० माष चंद्र श जैनाचार्य वहांसे सदैव धर्मामृत बरसा और हिंसा संस्कृतिका प्रसार किया करते थे । सन् १४०० में सकल-कला-प्रवीण चौर श्री शुभचंद्रदेव के प्रमुख शिष्य चन्द्रकी र्तिदेवने वहाँ चन्द्रममजिनकी 'प्रतिमा इस माबसे निर्माण कराई थी कि वह उनकी निधि पर बिराजमान की जावेगी ।' सचमुच श्रावकगण इस तीर्थ पर भार साधुजनों की संगतिमें धर्म सेवन करते थे और उनके निकट तरण और वृतोद्यापन करके बात्महित साधते थे। ऐसे ही एक समय अब कोपण में मुकसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ जलेश्वर शाखाके नाचार्य माधवचन्द्र भट्टारक विराजमान थे तब उनके निकट इमवर्गे नामक पाटनगर के कुलाग्रि - सेनबोब अधिकारी देवष्ण माये। देवष्ण नक • जयके सुपुत्र धर्मात्मा श्रावक थे। म० मानवचंद्र उनके गुरु थे । उन्होंने गुरूसे दो (१) सिद्धचक्र और (२) मुख्य कमी नामक ग्रहण करके पान किये थे। अब उन लोंका उपाय करके उन्होंने १. मे० १० १९८-१९९० • Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१] संवित बैन इतिहास । पंचपरमेष्टीकी एक मर्ति प्रतिष्ठित कराई थी।वही ही एक समय मापनंदि सिदान्तचक्रवर्ती भी हहे थे। उनके प्रिय शिष्य बोपण पौर उनकी पत्नी मकौव्वेने हा एक चौबीसी-ट्ट स्थापित किया या। सम्राट् कृष्णदेवरायके राज्यकाळमें सं० १५१३ शाके (१५२१ 1.) में भंडारी अप्परसय्यके पुत्र भंडारद तिम्मप्पटयने हिरियसिन्दोगि नामक प्रामका दान कोपण वीके लिये किया था।' ईस्वी मठारहवीं सदी में देवेन्द्रकीति भट्टारकके शिष्य पर्द्धमानदेयने वह छाया-पन्द्रनामस्वामीकी जिनमति निर्मापित कराई थी। इस प्रकार १८वीं शताब्दि तक कोपण जैनधर्म का केन्द रहा था। उपांड काकी विषमता और जैनगुरुगोंके गमावमें उसका हास हो गया। कुप्पटर। - कुण्ट्ररकी प्रसिद्धि भी जैन केन्द्र के रूसमें १५ समय तक विशेष हो गई थी। यह पहले ब्रामणोंका केन्द्र था, किन्तु कदम्ब गनी मालदेवीके स्वंगसे यह जैनोंका भी प्रमुख स्थान हो गया। बैन मुनिगण यहां माकर रहते और धर्मोपदेश देकर हिंसा संस्कृतिको मागे बढ़ाते थे। चौदहवीं शताब्दिमें वहां श्रुतमुनि रहते थे। उनके. शिष्य देवचन्द्र एक प्रसिद्ध कवि थे. जिनकी प्रशंपा अच्छे २ कवीन्द्र करते थे। श्रुतमुनि भी साहित्य स्पना करते थे। सन् १३६५६.में इन्होंने ही संभवत: मल्लिगेण सूरिहत सज्जन वितपल्लमकी कर्नाटकी वास्या किसी बी। ये देशीयगणसे सम्बन्धित थे। देवचन्द्रजीने . १-कोण, ०.५२-पा, पु. ११, -कोपण, पु. १., ४-कोपन, ... Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्थापनधर्म । [ १२३ कुदरमें एक जिनमंदिरका जीर्णोद्धार कराया बस्न १२६७ में उनका समाधि मरण हुमा था। सन् १९०२ में कुष्परकी प्रसिद्धि दर२ तक कैक गई थी। नगरखंडपदेशमें यह प्रमुख नगर बायांक एक मिनमंदिरको कदम रामाओंसे शास्न पत्र आता । उसी बैत्यालयमें प्रसिद्ध चन्द्रपम रहते थे, जो पार्श्वनाबके बाये। उनके पिता दुर्गेशने पंडितदेवको उनका गुरु निर्धारित किया था। इन विद्वानों द्वारा वहां निरन्तर जैनधर्मकी मापना होती थी। सन्१५०८ ..के एक शिलालेखमें कुटाकी प्रशंमामें लिखा है कि "कर्णाटकदेश सब देशो सुन्दर था। उस कर्णाटक प्रदेशमें गुतिनाबा, जो १८ कम्पों में विभक्त था। उस कम्पों में सर्व प्रसिद्ध नगर खंड नाडुवा । कुष्ष्ट्र। उसकी ही राजधानी थी। शिलालेखमें कुप्पटूाको नगरखंउका भूषण कहा है, जो पर्व चैत्यालयों, कमलसरों, कामपाटिकामों और गंपशाकि चावलों के खेतोंसे मुशोभित था । कण्ट्रका वह विशाल वैभव भव्य प्राक्कों की उदारताका ऋणो था। मावकगण ऐसे संकीर्ण-हृदय नहीं थे कि अपने नामके लिये रुपया केवल साम्प्रदायिक कार्यों में स्वर्चते हों, बल्कि ये कोकहितके कार्यो सपने धनका सदुपयोग करते थे। उस समय भावकगण देशकी गणनीति पौर समृद्धिपक कार्योको करने के लिये अग्रसर हो रहे थे। नी के शासक निर्माता (King Makers ) ही नहीं, नगरनिर्माता 1-"भव्य-बन-धर्मावादि संततं सके -चत्यालयदिन्द -गालिद उचानदि गपशामि-त्-क्षेत्र निकायदिन्द स्मरणीयं बेसु-विमुरामिक - -.- सालिन्द्र मलति के रवैरिगोट-कोल्याच्या मुहै मिनमा रे-मेरेा परिसम्मोह:- .-110 - - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] संचित न इतिहास । भी बने हुये थे। विजयनगर साम्राज्य के प्रमुख नगरोंके निर्माणमें जैनोंका हाय ही सर्वोपरिया। देश के बड़े व्यापारी और योगी लोग थे। अपने धर्म की प्रभावना एवं लोकहितके कार्योको करने के एक दूसरेसे पर्दा किया करते थे।' स्तवनिधि। स्तबनिधि सोहराब तालुकमें एक प्रमुख नगर भौर बैनधर्मका केन्द्र था । वहाके शासकगण जैनधर्मानुयायी होने के साथ साथ उसके अनन्य प्रचारक थे, यह पहले लिखा बाचुका है। स्तबनिषि समृद्धिशाली नगर था, जिसकी तुलना एक शिकालेसमें इन्द्रकी नगरी बलकारतीसे की गई थी। वहां नयनाभिराम विनमंदिर बने हुये थे. जिनमें निरंतर बैनाचार्योका धर्मोपदेश, जिनेन्द्रकी पूजा-अर्चा और दान-पुण्य हुआ करता था। श्रापक श्राविकायें निरन धर्मनियमों का पाटन करके सन्यासमरण किया करते थे। उनकी स्मृतिमें निषधि वीरगल बनाये जाते थे। ऐसा ही एक निपषिका यहाँसे मिला था, जिसमें एक भव्य बाविकाका चित्रण किया गया है। निस्सन्देह स्तनिधिकी प्रसिद्धि इसनी मषिक थी कि शैष बामणोंने भी अपने एक केन्द्रका नाम 'तबनिषि' सखा बा, बोकि हसन बिले में थी। मी नमसेन ने अपने कलह धर्मामृत' (१११२६०) संभवतः इसी स्वपनिषिका उल्लेख किया है और बिसाकि वहाके नावामी (मति) प्रसिद्ध थे। पपि का पविधि सोया -... 11-11४. १-०.११५. १-AMINOD ११.१..-IA,XI.P.B.s-bidrp.it Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्थापनधर्म। । १२५ सतम्बा , पान्तु एक अन्य स्तनिधि वेगाम बिकेके निपाणी नामक स्थानसे दक्षिण दिशामें दो मीका। बार भी जैन मंदिरोंक संबर से प्राचीन स्थान सिद्ध करते हैं।' सत्रहवी शताब्दिमें इस स्वनिरिकी गणना तीयामें होती थी। यह बात साम्य साधु शीकविम्यके निम्नलिखित उल्लेलसे होती है बो उदोंने अपनी 'तीर्धमाग" में लिखा है: "चारणगिरि नवनिधि पास, रायबाग हुकेरी बास । देव पणा प्रावक धनवंत, पंचमना तहं बहु सतवंत ॥१०॥ पंचम वनीक डीपी कंसार, वणकर चोथो भावक सार । भोजन मेला कोइ नवि करि, वैगंबर श्रावक ते सिरि॥१०॥ शिवातणी सीनि वली जैन, मरहठ देसि रहि आधीन । तुलजादेवी सेवि घणा, परता पूरि सेवक तणा ॥१०॥" इस उल्लेखसे उस समय पंचम, छीपी, कंसार वणका और चतुर्थ पातिके भावकोंका मस्तिस्य भी प्रमाणित होता है, उनमें वात्सल्य धर्मका इतना अभाव था कि वे साथ २ बैठकर भोजन भी नहीं कर सकते थे। यह वर्णाश्रमी हिन्दुधर्मका प्रभाव का कि जिसने भावकके मूल सम्यक्त्व गुणोंसे मी जैनोंको गहिर्मुख कर दिया था। उस समयके यह बैनी राबवागके निकट उपस्थित तनिधिको वीरत मानते थे। मावस ऐसा होता है कि सोहगम जिलेके प्राचीन स्तनिधि तीर्थकी पसिद्धिको सुनकर और यहां पहुंच न सकनके कारण उप महाराष्ट्र देख उसकी पुनः स्थापना की गई थी। की पाश्वनाथ मति 1-JA., X. 49-52. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | · . नतिशयपूर्ण होनेके कारण चिन्तामणि पार्श्वनाथ' नामक प्रसिद्ध हुई थी । बढाँकी एक अन्य पार्श्वमूर्ति जो किसी बक्ष्मीसेन भट्टारकको बेलगाम जिलेके हुकेरि ग्रामके पास मिली थी, उसको उन्होंने सन १८८० ई० में लाकर एक बड़े प्रतिष्ठा महोत्सबके साथ स्वयनिधिमें बिराजमान किया था। इस मूर्तिको श्री बीरमन्दि सिद्धांतचक्रवर्तीक शिष्य सरदार सेनासकी दादी कच्छेयादेवीने निर्माण कराया था । यह स्तयनिधि एक पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी पर ही परमके परकोटे में पांच जिनमंदिर बने हुए हैं। परकोटेके भीतर एक मच्छासा मानस्तंभ बना हुआ है। यह मुख्य मंदिर के सामने स्थित है। इस पहाड़ीके पास ही ब्रह्मनाथ और पद्मावतीदेवीके भी मंदिर है। इस तीर्थकी कुछ ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक मासकी नमावस्याको उत्तरीय कर्णाटक और दक्षिण महाराष्ट्र प्रदेशके जैनी कन्दना करने जाते है । वर्षान्त में वहाँ एक बड़ा मेला भी लगता है। जब तो वहाँ 'एक जैन गुरुकुल भी स्थापित हो गया है ।" सारांशतः स्वयनिषि प्रधानकेन्द्र दो क्षेत्रों में रहा था । उद्धरे । • सोहराब तालुक में दूसरा प्रधान नगर द्धरे भी जैनकेन्द्र था । 'होटल राजाओंके समय से ही वहां जैन धर्मकी प्रधानता थी । बाज कक्का उद्रि ही प्राचीन उद्धरे क्या उद्धवपुर है । स्म टू रिडगाव द्वितीयके राज्यकार में उद्धरेके जैन नेता बैचप्प थे। वह बहु प्रसिद्ध पर्दामा और देशभक थे। सन् १३८० ई० के एक शिलालेख से 1-Ibid. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था जैनधर्म । [१२७ सकिना माधवराय बनवासे १२०००के प्रान्तीय शासक थे, तब एक उपद्रव उठ खड़ा हुमा । कोकण प्रदेशके कतिपय नीच पुरुषोंने विद्रोह कर दिया। गनसेनाका नेतृत्व गरा कर रहे थे। यह बड़ी बहादुरीके साथ कोंकणियोंसे बड़े और इसी युद्ध में बीरगतिको. प्राप्त हुये। उन्होंने विद्रोहियोंको परास्त करके जिनेन्द्र के चरणों में सीनता प्राप्त की। महान थे वह ! सेनापति सिरियण्ण। वैचप्पके पुत्र सिरियण्ण भी जैनधर्म के अनन्य भक्त थे। उनके पिताने जहां देश और राजकी सेवा पाणोत्सर्ग किये थे, et सिरियण्णने धर्मप्रभावनाके लिये अग्नी ऐहिक जीवनको समाप्त की थी। उनकी प्रकृति बचपनसे ही निवृत्ति-पाक थी। उनका विवाह हुआ। अपनी पत्नी पदाम्बिके के साथ उन्होंने भोग भोगे। किन्तु वह हद सम्यक्त्वी थे। भोग उनको भुग से उपते थे। एक दिन उन्होंने अपने गुरु मुनिभद्रसे निवेदन किया कि वह उसको परम सुखधाम-मोक्ष मत करनेकी नाज्ञा है। गुरुने उनको भव्य गनकर साधु दीक्षा दी । साधु सिरिय धर्मसापना में लीन होगये। सन् ११००१० में उन्होंने समाधिमरण किया । उसमय नाकाशसे पुष्पवर्षा होरही थी और मेरि, दुंदुनि एवं महामुरुम बाजे बाहे थे। वह जिनेन्द्रकोंमें जीन होगये।' उदरे- गुरु परम्परा । सो बैन गुरु बाबाष्णरूपमें प्रवाहित ही थी। इसठिये १ मे, १. ११५-11. .. .. .: Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] संक्ति नलिकास। हब गुरुमोंकी पा 'दरे- के नामसे प्रसिद्ध होगई की। इस गुरुकुल मुनि भद्रदेव प्रसात थे। न्होंने हिसगावस्तिका निर्माण किया जौर मुलगुंडके जिनमंदिरका विस्तार वडाबाबा। उसका समय सेवगणसेवा-सेनगणके नाचार्य इन यतिरामका बादर करते थे। न्होंने सपथरण करके समाधिमरण किया था। पन्तसमय मी र मागमका व्याख्यान करते रहे थे। उनके समाधि स्थल पर उनके शिष्य पारिपेणदेवने एक निधि बनाई थी। हुलिगेरे। सोहराब तालुकमै एक अन्य बेनकेन्द्र हुगिरे नामक बा। सन् १९८३१० के एक शिलालेखसे शात होता है कि हुबिगोके मालम-पर्वात् पणिक संघ अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध थे। दुब्गेिरेमें इनार, कोण्डारे, हानुगड, चिकविगलिगे, हरियाबिगलिगे, बाचौगानाह, होसनार, कम्बुनालिगे, ऐडालिगे. हिरिक मागि, चिकमहाकिगे, बम्याकिनाड, हेदनाड, कृजिनाड, होरना, कोनाड, गुत्तिमष्टादशकम्यण, बोलविगेरेनाड, होबत्तिनाड, हसिके इत्यादि स्थानों के पणिक एकत्रित हुये थे। उन सबने मिककर कुग्गेि. की संकलिमसादिको दान दिया और शासनपत्र लिखा था । उससमक प्रधान-दण्डाषिप मुद भी उपस्थित थे। मुद दण्डनायक पृथ्वीसेट्टि' पहनते थे। वह जैन श्रेष्टियों में उस समय एकास थे। इन बणिक संघोंके पिकांश सदस्य यदि इसममय बीर शेष धर्म में दीक्षित हो गरे, अंत पने पूर्वजों धर्म बैनमतको भा नहीं गये थे।' १-40 • ३१७. -वही, पृ. ११-१३८ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था बैनधर्म । [११९ शबदुर्ग और दानवुरूपाइ । बेकारी और कुप्पट मिकोंमें रामदुर्ग और दाममुरूपा बैन केन्द्र थे। शबदुर्गों मूळ संबके भाषायोका पह था । इस संपके सारस्वत गच्छ कास्कारगण कुन्दकुन्दान्यय के माचार्य अमरकी र्तिके शिष्य मुनि मापनन्दि थे । उनके उपदेशसे सम्राट् हरिहर प्रथमके शासन कालमें जैन श्रेष्टि भोगराजने शान्तिनाथ जिनेश्वरकी प्रतिमा प्रतिनि कराई थी। रामभागसे उपब्ब्य रससिद्ध मूर्तियों के नासन लेखसे मूकसंघ चन्द्रभूति और मापनीय संघ के चन्द्रेन्द्र, बाद मौर तिम्मन्न नामक प्रायका पता चलता है। इससे भी रामदुर्ग केन्द्र होना है। दावुपके जैन व्यापारी प्रसिद्ध थे। बढी उनकी विधि मिली है।' शृङ्गेरि व नरसिंहराजपुर । शृङ्गेरिडोटस काळसे ही जैन केन्द्र था। वह नरसिंहराजपुरसे प्राचीन था। नरसिंहराजपुरकी प्रसिद्धि तो चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही हुई है। वहाँ 'शान्तिनाथ बस्ती' नामक एक जिनमंदिर है, जिसके मुकनायक शान्तिनायकी मूर्ति सन् १३०० की प्रतिष्ठित मानी जाती है। मूर्निकी स्थापना उद्धरेकी बगियन्येगन्ति नामक मार्मिकाकी शिष्या चन्दियकाने कराई थी। सोडवीं शताब्दी तक नरसिहरानपुर एक समृद्धिशाकी चैन केन्द्र था। बहकी 'चन्द्रनाथ बस्ती' नामक जिनमंदिरमें विराजमान चतुर्विंशतितीर्थंकर और जगन् सीकरी मूर्तियों के शासन-लेखोसे स्पष्ट है कि बोंगारदेवी से डिके १- मे०, पृ० ३३८-११९० Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३) संकि nिent पुत्र दोङग सेट्टिने पनाविशति तीन महिने प्रतिष्ठा कराई बी गौर नमिसेडिके पुत्र गुम्मण सेटिने अन्त तीकी मूर्ति पशिक्षित कर सिंगनगद्दे जिन मंदिस्में विराजमान की थी।' क्छनावबस्तीके मूकनायक चन्द्रप्रमकी मूर्ति श्वेतापानको इतनी सुंभार है कि मानों माठ वर्षका बालक ही बैठा हो- कोर बनाहमाकी है।हमदा नदी से निकालकर विराजमान की गई थी। पार्श्ववस्ती' मंदिर । शेरिकी पावनायवस्ती नामक जिनमंदिक्ष १२वीजान्दिन है, बो नगरके मध्यभागमें है मौर जैनों के प्रमुखको पकरा है। १६वीं शताभिके मध्य तक शरिमें बैन यात्रीगण गाते रहे थे। सन् १५२३ में देवनसेष्टिने बनन्तनाबकी प्रतिमा इस मंदिस्में विराजमान की बा। बोम्जरासंट्टिन चन्द्रनायमूर्तिकी पतिष्ठा कराई थी। महगिरिमें मन् १५३१ में एक जिनमंदिर था, जिसको योन्दिातिमरपकी पत्नी वयम्ने दान दिया था। उनके गुरु मल्लिनाव देव थे। जिनंन्द्रमंगलम् । इनके अतिरिक्त छोटे छोटे चैन केन्द्र भी विजयनगर सामने बिलो हुये मिळते थे। सन् १५३३-३४ के एक शिणसाने विदित है कि सम्राट अच्युत देवगतके वासमा पुरय पास. स्तन मिनेन्द्रमंगलम् गोर बम्जुको? बोसनी । पिनलगाम नाम अनत्वका बोलब म' . १-पड़ी, .. १५६. २-411 2 - - Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शालानधर्म। । १९९५ डिमिति कामता वाहन केन्द्रोंसे तामिक देश बेनपक नातसास ताता है। तामिळनार में कुहगोडका जैन मन्दिर पसिद्ध था। उसको रामराज मोडेगाके पौत्र और हिमायके ज्येष्ठ माग राजपने अपने पिता मलिग मोडेलके पु०प हेतु ममदान दिक था। यह दान मम्राट् सदाशिवायके शासनकालमें दिया गया था।' चिकानसोगेके मादिनाप नामक बसी जिनमंदिर में बादश्वर, शांतीपर और चन्द्रनाथ तीर्थकरों की मूर्तियां ब्रमणों के नेता चिकमयके पुत्र और चारुकीर्ति पंडिनदेशके शिष्य पंडितरपने १५८५ १० पति कगकर विराजमान कई थी। विकासोगे इस समय भी जैनोंका केन्द्र बना हुआ था। पाकुरु, मलिक आदि केन्द्र । तुलादेशमें भी जनों के केन्द्रम्यान पाकुरु, भूहिक, पडणम्बूक, हिमार और कापू नामक नगर थे। बाहारु तो तुलादेशकी गजबानी मी सी थी। वहांका मादीपामेधा पनि नामक मित्र मंदिर प्रसिद्ध था। उस मंदिको सांतार नसभाबने सन् १९०८ में दान दिया था । सन् १९९९-१५०० के म उसी मंदिको श्री चाहकीर्ति दिने भी दान दिया था। मंगर तालुका महिक और परपणम्पूरुके मैन मंदिर रल्लेखनीय थे। पापणम्पूरुकी inla सदिको सन् १५१२ में किसी गमकुमारने बान दिया था। हिमहरि बोकनावर बसविल्यात दी। और सिदिला होगा ससमय उस १-०, १. १५८-१५९। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५] . संक्षिस बन इतिहास । जैन धर्मके महत्वशाली मस्तिस्यको प्रमाणित करती है। इस मंदिरको १६वीं शतानिके मन्तिमपादमें विजयनगरके शासक (Viceroyt ने,दान दिया था। कापू डिपि तालुकमें वा मोरया भी हट्ट. बाइडिके समान ही प्रमुख चैन केन्द्र था। वह किन्हीं हेगडे सरदारकी राजधानी था। सन् १५५६ में पांगावंशके मदहेगडे. जिनधर्मके अनन्य भक्त और उपासक थे। नोंने कणरगणके नाचार्य देवचन्द्रदेवको मल्लारु नामक ग्राम भेंट किया था। इन देव. पद्रदेवके गुरु मुनि चंद्रदेव और दादागुरु अभिनयमादि कीर्तिदेव थे। का प्राम कापूके प्रसिद्ध जिनेन्द्र धर्मनावकी पूजाके लिए दान किया गया था। शिलालेखमें काकी तुझ्ना हम दानके कारण ही वेल्गोक, कोपण और ऊन्तिगिरि (गिरिना) से की गई है । इस दानको भर करनेवाले जैनके लिये जो शापका भय दिया है, उससे स्पष्ट है कि उस समय बेलगोलके गोम्मटनाय, कोणके चन्द्रनाथ और अन्तके नेमीश्वर प्रसिद्ध थे। कापके जैन इन पवित्र स्थानोंसे परिचित थे। कारकल। , कारकल भी इसी समय एक पमुख बैन केन्द्र था। बिनदरके शव साता गनाओंने स्वी चौदहवीं शताब्दिके बारम्भमें कारकको मनी राजधानी बनाया था। यहाँक शासक कोकनायरसने तलादेशमें बहार्मका खूप प्रचार किया था लामाविषयमस्कार भी चाहतीकि पंडितदेव उनके गुरु थे। लोकनावरसकी बड़ी बहनें बोम्मदेवी और सोन्मादेवी थीं। उनोने मल्लप अधिकारी नादि राबकर्मचारियोंक १-मेब, . ३५९-३९.। . . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासन व्यवस्था बैनधर्म। [१५५ साब सन् १९३१ में कारका की शांतिनाव पसीको दान दिया था, जिसे मुसंवकणगणके भानुकीर्ति मापारीदेव पट्टशिष्य कुमुदचंद्र भट्टारकदेवने निर्माण कराया था। मोकनाथरसके समस्तभुगनालय श्रीपृथ्वीवल्लभ' और महाराजाधिराम विरुण उनको एक स्थापीन शासक प्रमाणित करते है। इनके कुछ समय पश्चात् कारकडके शासकगंण बपि लिंगायत मतसे पभावित हुये थे, फिर भी वे जैनधर्मक सहायक रहे थे। इनसोगेके जैन गुरुमोन कारकरके गबामोंको 'पुनः न धर्मका भक्त बनाया था और तानोने बैनोत्कर्षके कार्य किये, वह पहले लिखा जा चुका है। किन्तु कारकल में जैन म्युदय बहाक मापकोका हाव भी कुछ कम न था। सम्माज्ञान प्रकाश करके बेचैन धर्मकी सची प्रभावना करते हते थे। सन् १५७९में कारकरके कतिपय बायकोने हिरियनगडिके बम्मनपर-बस्ति नामक मिनमंदिरमें निरन्तर शासपणचनका प्रबंध रहे, इसलिये नकद वान 'दिवा बा। कलितकीर्ति भट्टारक बाधकर्ता नियुक्त हुये जो विचारकर्ता कराते थे। सन् १५८६ में हमरि भवेन्द्र मोरेयर, बो पहिपोमुचपुरके शासक कराते थे, उन्होंने "चतुर्मलपति" नामक विनमंदिरका निर्माण कराया । जिन मंदिरों में इस समय तक चारों प्रकारको दानशाकाय पणती मी थी, जिनके कारण सांस्कृतिक केन्द्र बने हुये थे। कांप नामक स्थान बनाने म. पानावकी मति साधन चैत्यालय स्थापित की थी। भैरवेन्द्रले की पूजाके लिए भी ममिदान विवाना। १-०, १९९-३५१. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] वियन साम्राज्यमें यद्यपि वर्णाश्रमी पोमणिक धर्मका • बार गुणा बा, फिर भी मैनधर्म बीविता , क्योंकि जनतामें उसकी बादी पेठ हो गई थी। इस समय जैन धर्म पर पड़ोसी हिन्दू अर्मका प्रभाव पा और उनमें नाति-पांतिकी उति भोर पहाताका श्रीगणेश हुमा बा, यह पहले भी लिला बाचुका है। ऐसे समबमें यो वेणुरु जैसे नगण्य प्राममें भी बैन शासकोंका प्रापल्य उल्लेखनीय या वेणूरुमें सन् १६०१ में तिम्मराजने माणवेगोगके श्री बाहकीर्ति पंडिसके उपदेशसे गोमटेशकी विशालकाय मर्ति स्थापित की यो । से वेणरु भी एक प्रमुख केन्द्र और वीर्य होगया । बेलूर । इसी १४ शताब्दिसे १७वीं शतानि तक बेलर भी बैन न केन्द्र रहा था, यद्यपि कह हिन्दू धर्मका गढ़वा। बहार बीच मन्दिर पास', 'पादिनापेर भोर शांतिनाथेश्वर सति: नामक बन गये थे। बेलग्में मूलसंषके देशीयगण वरपालि और मानायके गुरुभोंकी सम्परा स्थापित होगई थी। इसका प्रभावका किन संघ गण-गबसे गाये बढ़कर कि-'समुझ में भी निमक होगा। सन् १९३८ में रके हयाद्रि नायको शियों और कैनों में बहुमा को पेवारके न nिian सीने विश्वास से भास: याने सेना प्रमाणित है। विजयनगर सामानी Amit पालेको विशी, कहार, बेन बलियोको Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयनगरकी शासबसस्थानधर्म। [१३५ वषिष्ठता घोषित किया था। इनके शिष्य का सकसहिने नागमंगाय न १६८० में भी विमाय पाया निर्माण करावा । पेनुगोड भी बैन केन्द्र था। वह पार्श्वनावपस्सी बी, जिसके पास ही जिनमूषण भट्टारकके शिष्य नागमयकी निषषिकी।' सकार.जैन धर्म विजयनगर साम्राज्यमें अपना मापाकी मस्तिस बनाये हुपेया। ममता उसके मार्य प से शानपान और प्रभावकारी नहीं थे, मो शासकोंको जैन धर्मका मलालु बनाये सते। फिर भी वे समयके अनुसार बदलते हुये बैन धर्मके पयामें बहीन येभोर antasi ससकोंको मावित करने में सफल होते थे। का दियमासको भी उसना महत्व प्राप्त नसा क्योंकि उनका स्वान सपारी महारकोंने लि। किन्तु इसका भी बही कि दिगम्स मुनियों की मान्यतामें कोई मन्तर पहावा बिहे ही वैसी पूज्य हटिस देखे .ते थे। उनमें साधुवेषी, उदरपोषक मधुनोंका जमाव नहीं'; किन्तु ऐसे माधुरेषियों की खुली भर्समा की माती बी-शिमलों में भी उनका बलख हुआ मिकता है। सारांशतः बैन संघमें इस समय गहरं परिवर्तन हुए थे। nokan - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षित बैन इतिहास। । तत्कालीन जैन साहित्य और कला। दक्षिण भारतके जैनाचार्य । बैनधर्म नहिंसा-प्रधान रहा है। हिंसा माना नपने सरस्वती पुत्रोंको हमेशा करुण और शांत इसमें निमम बनाये रही। वैन भाचार्यों और विद्वानों ने 'स्वान्तः सुखाय' ही नहीं और नहीं ही मात्र 'सत्य-शिष-मुन्दाम' की उपासनाके किये साहित्य-सुबन किया, परत्युत उनका ध्येय साहित्य रचना द्वारा लोकोपकार काना वा-कोकको सम्पदान प्रदान करना था। अपने इस ध्येयकी सिद्धिके लिये दक्षिण भारतके बेन भाचार्योने दक्षिणात्य होते हुये भी कन, तामिक, तुम नादि देशी भाषायोंके मतिरिक्त संस्कृत और प्राकृत भाषाणों में मी रचना की। संस्कृत साहित्यक बगतकी भाषा मी, तो पाकृत नोंकी निज भाषा थी। पचपि विजयनगर साम्राज्यमें भी निन्तर युद्ध होते रहे, किन्तु स विषमतामें भी जैनाचार्य एवं मन्य मन:पी सत्यं शिवं. सन्दरको नहीं मुळे। इसलिये ही हम देखते हैं कि इस काम्मे मी साहित्य मोर कके जन्ठे नमुने सिरजे गये थे। . कपड़ गन्न मापायें। विजननगर साम्राज्यका बहुमाग का मापीया।बता बनाने सभापाको सामिकौर मराठी भापागोंकि साब मुलाया नहीं। इस समय मी नागरी, अमिक, कमर पोर माठी एवं संस्कर भापापोंजमार दक्षिण भारत में होना बाकी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साली साहितबोर कला। [१३० नागरी जो 'नागर-माया ममतीबी, भावीन परितिक रूप मर्यात पुरानी हिन्दी हो सकती। संस्कृत भाषा-साहित्य । होरपक गजाओंके समयसे ही सम्हत भाषानोंक न साहित्यका केन्द्र उत्तम की मोर बढ़ गया था, किंतु विद्यानगर हाटाने -संस्कृत भाषाको अपनाया था, यपि उनको मातृमपा तेलुगूबी। संस्कृत ता भी देवाणी' कराती थी। तासासका बापित 'कि शास्त्रेण रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचिंता वर्तते । परिवार्य होगा । विजयनगाके सम्राटों, सामन्तो मौर सेनापतियों, जिनमें जैन की उल्लेखनीय थे, ने अपने बाहुपासे देशको मुक्षित बना दिया था और उन शांतिपूर्ण पहियोंमें विद्वज्जन मारित्व वृद्धि करने में सलीम हुये थे। सायणने वेदोका भाष्य इसी समय मिला था। संस्कृत के इस बकर्षमें हाथ बंटाने के लिये जैन विद्वान् पीछे न रहे। कर्णाटकी होते हुये भी वे संमत भाषाको स्वनामों में प्रवृत्त । तापमें तो श्री सोमपमाचार्य, श्री हेमचन्द्राचार्य प्रभृति दान विद्वानों ने संस्कृत साहित्यकी श्रीपति की थी। श्री सोमप्रभावाने 'नाकाव्य रचकर गोको नाच सक दिया था, जिसके एकही कोकके सौ वर्ष होते ये बक्षिणास्य कवियों में श्री वीरनन्दिनाचार्य एलेखनीय है। इसका बन्दममका संस्कृत साहित्यकी अनूठी रक्ता । सो बादिराजका एकीयस्तो निन्द्र स्तुतिकी बहुपति या की कन्या मागोम वीर्षक रूपमणीवविजय और बारविका मी पाये गये है। पर्याय:स्विर Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] in श्री.दिनाहिये, जीनका कारनाम मुसबा गौर हादविधापति'-वाह विधानों के माता महाते थे। उनकी एक अन्य स्कना 'यशोधरवरिश' मी।।' १२वीं शतानि वादीमसिंह बोपदेव गवचिन्तामणि और क्षात्रचूडामणि' नामक चम्पकालय श्री संत साहित्यको बोलनीय रचनायें हैं। मुनि कल्याणकीर्ति रचित 'जिया कहोदय', 'ज्ञानचन्द्र.भ्युदय', 'तपमेदाटक', 'सिवराज', watषर परित्र मावि ब भी उल्लेखनीय है । मेय समगुरु कारक मठाधीश श्री मिलकीतिजीके वह शिष्य थे। नोने का सं. १३५० में 'बिनयज्ञ फकोदय' या था। 'काम' 'मनसे' गादि कमलतियां भी उनकी यी हुई है।" पाव मुनिका बयानहोस' ज्योतिष शासकी बल्लेखनीयरमा ।कारको पांच-भाववंशीय रामा पाण्यापति भी संस्कृत साके यो कवि थे। उनका का हुमा 'भयानल Sures है।बहारक चालीर्तिमीने 'गीतवीतराग' की रचना करके कति गोरके गीत-गोविन्द ' महाकान्यकी समकोटिकी उतम रचना जैन Prem wलमें भी कम करती है। महाकवी सगीत शासके भाता थे, इसलिये उनकी बहना संगीत समोर साको ठोकसे निकाली है। वहीतिका बसस्थान प्राक्टिवेशान्तर्गत सिंj .-CSL, P. 286495.डॉ. मरियाने इसी प्रवियो और एलीमा स्पषिता । पदिगो की बालि भाले । की सोचना बार। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन जैन साहित्य र कला । [ १३९ था। उनकी रामराजगुरू, समंतकाचार्य, माहादवादीश्वर उपाधियों उनकी विद्वता और महताको स्पष्ट करती हैं। वह अपनेगोका के मठाधीश थे। इन्होंने अपनी यह रचना गंगवंश के राजकुमार देवराज के अनुशे से शक संवत् १३२१ के पश्चात् स्त्री थी, 'प्रमेशखमाका 1 ''पार्श्वाभ्युदयटोका' नादि कई टोका अंब भी उन्होंने रथे थे।' कविवर विजययणका 'शृंगारार्णव चंद्रिका' नामक अलंकार शास्त्र मी इस समयकी उल्लेखनीय रचना है। इसको उन्होंने सन् १२६४ के कगभग कामराय बंग नरेशकी प्रार्थनापत्र रचा था। इस प्रकार भनेक अन्य जैन विद्वानोंने संस्कृत साहित्यको अपनी सत्कृतियोंसे समकंकृत किया था जिनका इतिहास लिखा जाना बोहनीय है । कमड़-साहित्य और जैन कविगण | विजयनगर सम्राटोंके शासन काढमें भी कमड़ साहित्यको सात बनाने में जैन कवियोंने ब्ल्लेखनीय भाग किया था। जैनधर्म और कथा साहित्य के अतिरिक्त उन्होंने सर्वसाधारणोपयोगी साहित्यकी मी रचना की थी। किंतु विजयनगर साम्राज्योंमें स्मार्त और पौराणिक हिन्दु धर्मका प्रारूप होनेके कारण जैन कविगण उससे अछूने नहीं रहे थे। जो बातें जैनधर्म के अन्दर नहीं मिली थीं उनको भी इस समय बैसे ही अपनाया गया, जैसे कि भावकक कुछ अज्ञ जैनकवि कर्तृत्वबादकी गंध अपनी रचनाओंमें कूटकर भर देते हैं। यह समयका माय है। विवक्षणही नक्नेको इस प्रभावसे सुरक्षित रख पाते हैं। केशिका (सन् १९१७) स्वयं बैग में उनके पुत्र मल्लिकार्जुन Alat-p-48, 10:26. · Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.]. संचित चैन इतिहास | भी जैन थे। मल्लिकार्जुनगे 'सुक्तिसुचार्णव' नामक कलड़ अन्य - सार्वभावसे दिखा। उसके भादि मंगलाचरणमें जिनेन्द्रदेवको नमस्कार किया, परन्तु भीतर सुक्तियों में निग स्मार्त-त्र सण-धर्म भर दिया । बाम विद्वान यह देखकर माचर्यचकित है !' मल्लिकार्जुनका पुत्र 'केशिराज द्वि० (१२६० ई० ) भी कवि था । उसके रचे हुबे चोकपालक चरित, सुभद्राहाण, प्रदोषचंद्र, किरात और शब्दमणिदर्पण ये, परन्तु उपलब्य केवळ अंतिम ग्रंथ है। यह कलड़ व्याकरणका अद्वितीय ग्रंथ है।" कवि वृचिराज (११७३ ई०) महाकवि पोलके समान · मार्मिक श्रेष्टकवि थे, परंतु उनकी कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है। ककि - बोय्पण पंडित सुमनोजंस प्रतिष्ठा प्राप्त प्रसिद्ध कवि थे। कवि अगाल (१९८९ ६०) कविकुल ककमवासयूमा घिनाथ, काव्यकर्णवार, भारती बालनेत्र, साहित्य विद्याविनोद, जिनसमय सरस्सार के लि-मराक यादि विश्दों से सुशोभित थे। वह किसी राजदरबार में उच्चकोटिके कवि थे। उनका रवा हुआ 'चंद्रप्रभपुगण' मिळता है। 'पार्श्वपंडित' - (१२०५ ई०) सौंदसिके स्टुराजा कार्तवीर्य चतुर्थका समाकवि था । पार्श्वपंडित कविकुलतिलक कहलाते थे। इनका पार्श्वनाथ पुराण' अद्वितीय गद्यपद्यमय ग्रन्थ है। कवि जम भी अपने समयके प्रसिद्ध कवि थे और मल्लिकार्जुन के साले थे। चोकुरुके राजा नरसिंहदेव के वह सभाकवि, सेनानायक और मंत्री भी थे। वह एक बड़े धर्मास्या • 6 १- मैभारि० १९३१, पृ० ८०. २-कमेक०, १० २९. 6. • Jowal-Mirror of Grammar " remains to this day the standard early authority on the Kannada language. -Prof. 8. R. Sharma. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन जैन साहित्य और कला। (१५१ भी थे। नोंने किका दुर्गमें मनन्तनावका मंदिर और बारसदके विजयी पार्श्वनायके मंदिरका महाद्वार बनाया। शोषरचरित, अनन्तनाथ पुराण और शिवायस्मरतन्त्र नामके तीन अन्य उसके रचे हुए मिलते हैं। मटुकवि मा दास सन् १६०० के जगमग हुए थे। यह बैन ब्रामण थे और अपने नाम के साथ जिनगणपति, गिरिनगराधीश्वा नादि विश्व लिखता था। 48: वह किसी नगरका राजा प्रगट होता है। इसका स्वा हुमा " "हुमत " नामक ज्योतिष ग्रन्थ सर्वोपयोगी है। मंगगजका खगेन्द्र मणिदर्पण' भी सोयोगी रचना सम्राट हरिहरायके समयकी है। यह कवि सुरूलितकवि विगत' •विधुवंशकलाम' मादि विग्दोंसे समलंकृत पाकवि सामने साल भारत सन् १५१० में रखकर कृष्ण और पासपरित्रका व्याख्यान किया था। यह सारसमल्ल नरेशका समावि सात 'कर्णाटक-संजीवन' नामक कोष भी मिकता है, जिसमें से भारम्भ होनेवाले शब्दों का संग्रह है। महविद्रीके क्षत्रिय रखाकर वर्षाने सन् १५.७ में भरतेश्वर चरित', 'अपरामित शतक' भोर 'त्रिकोक शतक' नामक ग्रंथ रचे थे। इस समयके प्रसिद्ध जैनवादी जमिनमावी-विद्यानन्दिका रचा हुमा (सन् १५३३) 'काBAHILY भी बल्लेखनीय रचना है। दक्षिणके प्रसिद्ध अभिनय वैयाकरणों में महाकलदेवकी गणना की जाती है। मोने तक शमानु. शासन' स्वर मा साहित्यको श्रीवृद्धि की की। संस्कृत भाषा १- ०, पृ २३-11. - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] सकिन हाल । भी माने प्रचना की थी। सन् १६०१ में उनीने या रका था। इस प्रकार कला साहित्य प्रांगणको अनेक बैन कवियों सुशोमित किया था। जैनकला-विजयनगर साम्राज्य-कार में साहित्यके साथ कमकी भी प्रचुर पृद्धि हुई थी। काकी श्री दिमें भी जैनोंका सहयोग अपूर्व बा। काका प्रधानकार्य मानव हृदयमें स्फूर्ति मोर उल्लासको नागृत करना है। कलाकृति से मात्मविभोर बनादे, यही काकी विशेषता है। जैनकला इन बातों में सर्वोपरि रही है। यह · स. शिव.सन्दरका मूर्तिमान रूप है। इस समयकी निर्मित विशालकाय गोमटेश्वाकी भन्ब मूर्तियां, जो वेणूर और कारकसमें है, इसकी साक्षी है। सत्यमोर शिव (निर्वाण) उनमें गुथा हुमा है और उनका सौन्दर्य निहारते रहने की वस्तु है। ग्यो (विजयनगर) के जैन मंदिरों के विषय में भी यही कथन चरितार्थ होता है। वह स्थान अतीव रमणीक है। उसपर का कारकी पैनीछैनी र मेमाकी पत्री वसूलने वहां नयनाभिराम मंदिर बनाये थे। विजयनगरकी मयुग-कलाके ये अनूठे नमूने थे। द्राविड़ शैलीको अपनाकर विजयनगरके शिलियों ने एक निगली ही विजय नगर शैलीको जन्म दिया था। उनके मंदिर और मतियों कहा दर्शनीय नमूने है। उनका लक्षण कार्य और संग देखनेकी बात है। नोमे सारे देशको ही नमी कलासे में दिक 1-Jainism and Karnataka Culturo po -100. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन साहित्य और ला। Em हे म पाटकोके परिज्ञाग उन बोके बोल परिचय कराते है, नो कम्मकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण हैं: (१) विजयनगर वा हम्पीके शापशेष ९मारने केले हुये है, मो उसके गत वैभवकी साक्षी रहे है। मी. नुमति शाखीने उनको देखकर लिखा है कि "एक साधारण विचाशीदर्शक मी इन ध्वंशावशेषों को देखकर इसके गत भको मासानीसे पास लेगा। हम्पीके प्राचीन स्मारकों में यहां के जैन मंद. ही सर्व प्राचीन हैं। नहार ये मंदिर है. वह स्थान इतना सुंदर कि इसे नगरकी नाक कहा जाय तो भी अन्युक्ति नहीं होगी। घरों पर भी हास हटनेकी इच्छा ही नहीं होती। हरिके शिकामय या भय मन्दिर BMI एवं.विक्षा एक चट्टानके ऊपर एक ही पति सुबर देगसे निर्मित है।' इनसे कुछ जैन मंदिर विजयनगास भी पाचन, परन्तु कई मंदिर विजयनगरके शासनकालके है भोर वर्शनीय हैं । एकसि तो स्पट देवगय द्वितीयन ही विजयनगाके पान सुगरी गमा बनवाया था। यह मंदिर मणियोस कृत नबनामिरामा । कम्पतिको बानेवाली मह मिति नामक मंदिर भानी विशालताके लिये प्रसिद्ध था। इसे जैन सेनापति रुगनं सन् १३८५ में बनवाया था और किसी मा हिमने इस नीर्णोद्धा कराया था। इस मंदिग्के मागेकी दीपाश्रम वनीया पगती मंदिरके नीचे उतर जैन मंदिरों का सबसे सही उसके शिलिए देखा पोकाबाट १-३ -८. Primamate Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] सावित बैन इतिहा।। विजयनगर सम्राटोंडी छावा जैनधर्मका बम्युदय विशेष हुमाया उनमें की सम्राटोने जैन मंदिरोंको दान दिये थे, पर जिला है। बुकगय द्विने मूडविदरेके मंदिरको, देवराय दिने बहर, मंगछ। मादिके जैन मंदिरोंको और कृष्णदेवरावने चिम्पेट मिलके कोयनाव बिनायको दान दिये थे।' उनका अनुकरण केन प्रजाने किया था। परिणामतः सारे देशमें काका अद्भुतः प्रदर्शन हुमा का। (२) महविदुरे (महबद्री) बक्षिण कमा जिले का प्रमुख केन्द्र था। उसे लोग जैन काशी' कहते थे। वहां विजयनगर समायोंके समयके बने हुये अनेक जिन मंदिर हैं। उनकी बनावट हिमाल प्रदेशके देवस्थानों जैसी ढा (Sloping roofs of flat overlapping slabs ) छतदार है, जिनमें पाषाणके झरोखे और स्म होते हैं। यह इस बोरके जैन मंदिरोंकी खास बनावट है, बिसका प्रभाव हिन्दु मोंके मंदिरों और मुसलमानोंकी मस्जिदोंपर भी पड़ा है। मुसम्मानोंने तो जैन मंदिरोंको ध्वंश करके उनको मस्बिदों में परिवर्तित कर दिया तभीसे यह जैनशैली उनकी मस्जिदों में मिलती है। मंदिरों की भांति जैनोंके स्थंभ भी थे। मूविरेमें . १-अनीम एड कर्णाटक.कलना, पृ. ४५-४६. . . . . . 2-"The Jains seem to have left behind them. one of their. peculiar siyles of temple architecture; for the Hindu: temples and even the Muhammedan mosques of Malabar are all built in the style peculiar to the Jains, as it is still to be seen in the Jain bastis at Mudbidre & other places in the south kanara district. Logan, Malabar, pp. 186-188. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन व महिला मोर कला। १९५५ की भी ता| am एक संभ ५२ टच, सेकसका बद्भुत नमूना। निस्सन्देह नोंकेर म मातीय किंवा समस्त पूर्वीयका निरा।' स्थंम मंदिरों के सम्मुख बोगने ही होते है और मानमराते है, सन्तु मैनों ने मंदिरोके मीन भी मापकतासे विक बम बनानेकी निराकी प्रथाको अपनाया था। मूबिदुरीमें ही सासकूट जिनालय में लगभग एक हमार स्म होंगे और ऐसे बने हुये है कि एक स्थंभ इससे मिल्कुल निगम और सुन्न । उनका तरण कार्य भी जन्ठा है, जिसकी समानता माया मोर नमरी काकी कलामें मिकती.' महादीको वेणुगुर भी कहते थे। प्राट देवरायकी मासे यहां सन् १५३० में त्रिमुगन- चूममणि-त्याज्य बनाया गया था, निममें मून्द्रीकी जैन याने म० चन्द्रपम तीयेश्वरकी मनमोहन मूर्तिकी ग्यापना की थी। यह मूर्ति सपने परिका सहित चमकती 1- Anothet reculiar contribution of the Jainas, not only no Karnataka but also to the whule of Indian or even Kastern art, is the free-standing pllar, found in front of almost every broll or Jaina umple in Karnatak. -rof. S R. Sharma, TKC., P. 109. o lo the whole range of Indian art, there is nothing, perhaps, equal to these Kapara pillars for good taste. A partir cularly elegant example, 521/2 ft. in height, faces a Jaina bermple at Mudbidre. The material is granite, and the design is of singulur grace" - Sir Vincient Smiib (History of Fine Art in Inr'ia, p. as. .8-Jainism & Karnataks Culture, a ne . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] संक्षिप्त बैन इतिहास । दुईपोतकी विशाकार मन्य प्रतिबिध है। सन् १.४४ ६० में भन्दुमजाक नामक राजदूत ईगनसे भारत माया बा। उमनें इम मति और मंदिरको देखकर लिखा था कि उसके समान लोकमें दूपी वस्तु नहीं है। मंदिरचा वनका है। उस सपको बह पीताका बनाता है और विशालकाय प्रतिमाको निरी सोने की लिखता है, जिसकी अखिम दोका बड़े हुये थे। वह लिखता है कि मूर्ति स्तनमे नाई गई है कि वह सर्वथा मुहौल भोर कलामय है. मानो को मोर ही निहार रही है। ज्ञात होता है कि उस समय मंदिर से ही बनकर तैयार हुआ था और उसपर सुनहरी रंगकी dिi इसलिये ही भन्दुर रज्जाकको उसके पीताका होनेका प्रम होगा पौर मूर्तिको उसने सोनकी लिख दी। माज भी जैन मंदिरों में पीतकी मूर्तियों पर सोनेकी लुक फिरी हुई देखकर बहुत से लोग को सोनेकी मान बेटते थे . साशित: उस समय मूडस्ट्री में एक बड़े कर कलामय जैन मंदिर बोम्म बने हुये थे। वहांक जैन सवालों गम महस मा दर्शनीय थे। (३) अंग्रेरि मैन केन्द्र होने के साती कामय 1-MAia distance of three pansings from Mangalor, he (Abd-es-Razzak) saw a temple of idols, which hlas ir.. equal' in the universe...... It is en riely formed of cast bronze. le ha's four estrades. Upon that in the frout stands a human Boguto, of great size made of gold; its eyes are formed of two rubies, placed so artistically that the slaine seems in luok met you. The whole is worked with wonderful' deliciwj perfection." -Major, India in the Agtk. Cette derni . p.-20. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m m mmmmmmmmsamasummer मकालीन बैन साहित्य मोर कला। [१५७ मंदिरोंको भी किये हु । म नगरके हदय की पार्श्वभर बस्ति । नामक सुन्दर मंदिर बा, बिसके गर्भगृह, सुखनासि, यक्षिणा, पाल और चौकोर स्मों सति नरंग मोर मुसमंदर दर्शनीय प। यह सन् १९००से पूकी कृति दी। गर्भगृहमें एक फुट उंची कृष्ण पाषाणकी जिनमूर्ति विराजमान है। नवरंग तीर्थर पार्थकी तीन मतियां है। कमी भागमें भी बिनमति है। नीचे के मागमें एक मुनि-पति मजकी भाति बनी हुई है, वो एक गनीको पर्भासदारहे है गनीपर उसकी परिचारिका चंगर का रही है। समय सना है। मंदिर निगोड निवासी विजयनारायण कातिसहित मारिट्टिकी..स्मृतिमें बनाया मया था। (1) अङ्गदिमें कई जिनमंदिर शनीय है, जिनमें नेमिनाव राप्तीका लोग्ण एक सुन्दर कलाकृति है. वो बस्तिहल्ली के नादिनार मंगिक तोग्णके समान है। यह दिक्षास और यक्ष-यक्षियोंकी मर्तियां मा कामय बनी हुई है। . (५) मेलिगे नामक छोटेसे ग्राममें जो नीहाली 2 मीक दूर दक्षिण में है, अनंतनावगम्ती नामक जिनमंदिर दर्शनीय है। या मंदिर सन् १६०८ में पुन: बनाया गया था। मानाम बहुत ही अन्दर कातिti सके सम बनी हुई शिलि नयनाभिराम बैसर स्टेटमें इसके बोड़ा दुसरा कोई भी प्राचीन ममी है। I-ASM-1931.P.5. -1b9 % 8:. . .. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] संचित न इति । मंदिर बोम्महिने बनाया था, जिनकी मूर्ति भी बनी हुई है। (६) हुम्युचा नवा विश्वनागपुर भी दक्षिणमासमें प्रमुख मैन केन्द्र था। इसे जिनदतराबने बसाया था। वहांकी पार्धनाव बस्ती भोर पयावती बस्ती नामक प्राचीन मंदिर पुनः १६ वी शाब्दी में प्रेनाइट (Granite ) पापाणके केादि-शैलीके बने हुये अन्दर है। पंरकूटपन्ती' मंदिर इनसे प्राचीन द्राविड़ शैकार, विसको सन् १०७७ में बलदेवीने बनवाया था। उसका नामकरण 'वीं तिलक मर्वात पृथ्वीका गोरख (Glory of the world) उसकी महानता स्वयं प्रगट करता है। किंतु इस समय इस मंदिरा सुन्दर मानवंम तोरणद्वार, विशालकाय द्वारपाक और कतिपय जिनेन्द्र मतियां ही शेष है। स मंदिका पुनः वीर्णोद्वार हो चुका है। पर्वतार मी न कलाकी वस्तुयें।।' (७) कम्बदल्लीकी पंचकूटवस्ती एवं अन्य जैन मंदिर की बल्लेखनीय है । वहाँका मानधम बहुत ही सुन्दर कामबार पनिमको कामोर गाँवका नाम भी इस स्थपकी अपेक्षा कम. बाली पड़ा है। (The pillar is one of the elegant in the stato and has given the village its name. ASM.,-1989, p. 10) पतिनाव होस बीती 3-lbid, 1936. pp. 38-39. " The finest architectural piece in the neaple in the Kanasthnmblea in front...bone old piller is the Mysore state. . . . . . . . 1-ASM. 1929, . १९९% e0-10८. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन जैन साहित्य और कला । १४९ नमूना है। उस अंकित पशुओंकी अकृतियों बड़ी ही समीप और सुन्दर हैं | पूर्वीय बस्तीकी छत अनूठी कलामय है (८) गुडिंब दे Gndibando Kolar District) जैनों का एक समृद्धिशाली केन्द्र था। बड़का 'चंद्रनानवस्ती' नामक जिन मंदिर आज मा प्रसिद्ध है। वहाँके दो मंदिर और पद्म नामक पर्वत, अ जैनमुनि तपस्या करते थे. उल्लेखनीय हैं। चंद्रनाभ-विद्याबस्ती मंदिर विजयनगर- शासन-कालकी कृति है। इस मंदिर के नवरंग स्थंभों और मुखमंडप विजयनगर शैलीकी शिकला के नमूने हैं। स्वंगों पर गौ, सर्प मो', अर्द्धचन्द्र एवं अन्य देवी-देवतानोंकी सुंदर भाकृतियां अनि है। नवरंगकी उनमें मध्यवर्ती पद्म सुंदर बना हु है। दोस्ती में भी कामय लक्षण कार्य दर्शनीय है। मंदिर - मूर्तियोंके अतिरिक्त जैनोंने हम समयमें भी अपने बीरों को -स्मृति बीरगल और निषधि बनाकर सुरक्षित रखी थी। सेनापति decoratinल एक युद्ध बीरका स्मारक है, तो दूसरी भोर मन्दि भट्टारककी शिष्या भ. विकाका निषधिकल एक मर्मवीर महिला की स्मृतिको सुरक्षित रक्वे हुये है । ' इस प्रकार संक्षेप में विजयनगर फाळके जैन साहित्य का दिग्दर्शन कराया गया है। 1-Ibid., 1989, pp. 44–49, 2-ASM. 1941 pp. - 86-37. 2-Ibid, 1938, १० १७१. • ! :i Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m १५.] सक्षित क्षेत्र इतिहास । जेनबर्मक पतनके कारण। दक्षिण भारत के निर्माणमें चैनो का हायस्वी १२ वी शतानि मोगरि था। देशका शासन, वाणिज्य, सामाजिक नेतृत्व मौर साहित्य एवं कला जैनोंके ही भाषीन होरहे थे। किन्तु होउसक हारेत . विष्णुवर्द्धनके वैष्णव हो जानके पश्चात् नोंकी इस श्री वृद्धिको काठ मार गया। उनकी भाचार्य पाम्पा विक्षुण्ण होगई नसके कारण उनको राज अपसे हाथ धोने पड़े। राजदरवारोंमें • बैनं बस्तु शासनं ' सूत्रको बाजाल्पामान बनानेवाले नाचार्य ना विलाई ही नहीं पड़ते थे। राजनीति संचालन और देश माग निर्माणमें भावे पूर्वपत नेतृत्व करने के लिये क्षीणशक्ति होगये थे। •गष्ट्रीय प्रगतिमें स्वस्थ्य भाग लिये बिना कोई भी संम्बा या संघ लागे नहीं बढ़कर शक्तिशाली नहीं हो सकता', इस स्तरको विजयबगर का न भूले नहीं थे, परन्तु वे मान्तरिक पत्रों एवं बार पाकमों के कारण ऐसे बरिस होगये थे कि कुछ भी नहीं कर सकते थे। विजयनगर शासनकालने मी जैनों में स्थापि वादी विद्यानन्द साहुये मोर उन्होंने जैन जयतु शासन' सूत्रको चमकत करने के लिये कुछ ब्ठा न रखा, परन्तु पाठक नानते है कि मकेका चना पाइनहीं फोड़ता। फिर भी उनके सदूपयलोस जैनधर्म कहीर और समीर गबाश्रय पानेमें सफळ हुमा भोर बनतामें उसकी मान्यता बिल नहीं हुई। ... नाक इस पतनके कारण बन्लाजमें उनका पात्र संगठित होना चावकि उनमें गिर गाव पर ." 1 : Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन धर्मके पसन के कारण। . १५९ जाने के कारण एवं मार न मंदिरों का सम्पत्ति संक्तिों जाने के कारण कम हो गई थी। सपा पाश्रमी हिंदूधर्मकी प्रधानताका प्रभाव भी उनपर पहा । मध्यकालमें बहुतसे ब्रमण भार अन्य हिन्द नपर्म दीक्षित कर लिये गये थे-मेन हो बानयर भी वे अपने वैदिक संस्कारोंको भुका न सके । जैनों में भी बाति-मर पोषक र नापनका भाव कोगों में पाका गया। यstan fe जैन ब्रमा जानेको श्रेष्ठ मानते और जिनन्द्र के अभिषेक और qrका षिकार उन्होंने माने नाधीन का foया। बम पुरोहितोंकी नान या पुरोहित ईका दम भान रगे। दिगम्बर नागोंक: पान भट्टाकोन ले लिया। उनमें मो - नीवका दुर्भाव बागृत होगया । वह संभवत: भिन२ जातियों के गुरु होनेका कारण बा। यह ऊंच नीरका दुर्भाव मध्ययुगमें करप, बन पंचम, बतुर्थ, बंट नादि मातियों के लोगोंको अमधर्म में दीक्षित लेने के कारण मस्तित्व माया था । उदाहरणत: बंट, पंचम नादि को हिंदुओं में मात्र मी शद्र माने जाते है किंतु जैनों में उनका सामाजिक पद है। बमबान नै मानेको श्रेष्ट मानते थे . उनके गुरु भट्टाक भी बंट में तिगुरुगोस अपनेको र मानते थे। नमक कमान मा. • नमाना शासनक मखा था। अनूठे रीति-रिवान चालक पखे जिनके का जैन न केवल छिन मिन ही हु क जैनधर्म के मुझको भी पिल्लाबेठे। अपने पड़ोमी हिन्नुमोकी नाही मी संबके लियेन महारको गौर सापायोंकी मान्यता Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संविस जैन इतिहास | और अपने २ मंदिर भी बग २ बना बैठे। यहां तक कि आपक होते हुये भी एक दूसरे के यहां भोजन नहीं करते थे। वे अनेक छोटी छोटी उपजातियोंमें बंट गये। उनके अपने न्यारे न्यारे गुरु थे। ऐसे जो अपनेको दूसरे बड़ा मानते थे, अन्तरंग की इस दुरवस्थानेनको संघ भावनासे विमुख का दिया और भागे चलकर जैन संघ अमाव हो गया, उधर जैनपर बाहरसे भो माक्रमण हुये । जैनोंकी रंग करूने उनकी विद्या और कलाको भी हीन बना दियाउपर वैष्णाय और शैवोको अवसर मिला। उनमें रामानुज, माधवाचार्य प्रभावशाली गुरु हुये जिन्होंने जैनोंके विरुद्ध नान्दोलन मचा दिया। अनेक जैन कोल्हू में पेल दिये गये। भाव भी दक्षिण के हिन्दुओंमें एक त्यौहार इस घटना को जीवित बनाये रखने के लिये मनाया जाता है । लोक जैन, वैष्णव और लिंगायत होगये एवं कई जैन मंदिर शैव मंदिर अथवा मस्जिद बना लिये गये । इस विषम स्थितिमें चरनेको ओवित रखनेके लिये जैनोंने अपने पड़ोसी वैष्णवादि हिन्दुओं की रीति नीतिको अपना किया। मां पहले चैनधर्मका प्रभाव वैष्णवों पर पड़ा था, वहाँ अब वर्णाश्रमी हिन्दू कर्म जैनों को अपने रंग में रंग लिया | इतिहास अपनेको दुहराता बो है। जैन अपनेको अंगून और शक्तिशाली बनाये रखने में ऐसे ही कारणोंसे नसफल हुये थे । इतिशम् । : 1 1 अकोगंज (एटा), बीरनिर्वाण दिवस २१-१०-१९४९. - कामताप्रसाद जैन । Page #170 --------------------------------------------------------------------------  Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वानपीठ प्रत्यावारकाची परिमादित। - - - -