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११८] संवित जैन इतिहास । अभिनव चारुकीति पंडित थे 'नजरायण्डनके भावक संपने यहाँकी बात्रा करक बलिवाड़का वीर्णोद्धार कराया था। सचमुच प्रवणबेस्गो उससमय विजयनगर साम्राज्यमें प्रमुख जैन तीर्थ माना जाता वा मोर दूर दूरसे यात्रीगण बन्दना करने माते थे। सन् १३९८में उस प्रदेशके शासक हरियण और माणिकदेव थे, जिनके गुरु मवणबेल्गोरके चारुकीर्ति पंडित थे। सन् १४०० में तो प्रवणबेलगोलकी
त्राको बहुत ही अधिक संख्यामें यात्री भाए थे। यह बात वहाँक शिकालेखोंसे स्पष्ट है। श्रवणबेल्गोलके जैनोंकी एक खास बात यह भीमी कि उन्होंने तत्कालीन राजनीतिसे अपनेको अछूता नहीं सखा बा। गजनीतिसे अछूता हकर कोई भी समुदाय महत्वशाली और शतिपूर्ण नहीं बन सकता। प्रवणबेलगोलके जैनी "चैनं बयतु शासन" स्त्रको प्रकाशमान और प्रभावशाली बनाये रखनेके लिये नोंकी पुरातन रीति नीतिको अपनाये रहे। राजशासनसे उनका सम्पर्क रहा। उन्होंने राज्यकी छोटो-सी छोटी बातको भी नहीं मुलाया । सन् १.०१ में जब सम्राट् हरिहरराय द्वितीयका स्वर्गवास हुमा, तो उनोंने इस घटनाकी स्मृतिमें एक मार्मिक शिलालेख रचा राग। ऐसे ही सन् १९५६ में देवराय द्वि०की निषन-वार्ताको दो शिका. मेस पुरक्षित किये हुए हैं। इन शिलालेखोंसे नोंके रानप्रेमका परिक्य भोर सम्बंध स्पष्ट होता है। . . .निस्सन्देह मवणवेल्गोड भारत-विख्यात् तीर्थ होरहा बा । दूर दुरकोसे पनाम सेठ लोग संघ मेकर अपनवेल्गोकी बाबाके • "-bid 209. 2-Tbrd 3i4. - -ybid.