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संक्षिप्त जैन इतिहास |
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नतिशयपूर्ण होनेके कारण चिन्तामणि पार्श्वनाथ' नामक प्रसिद्ध हुई थी । बढाँकी एक अन्य पार्श्वमूर्ति जो किसी बक्ष्मीसेन भट्टारकको बेलगाम जिलेके हुकेरि ग्रामके पास मिली थी, उसको उन्होंने सन १८८० ई० में लाकर एक बड़े प्रतिष्ठा महोत्सबके साथ स्वयनिधिमें बिराजमान किया था। इस मूर्तिको श्री बीरमन्दि सिद्धांतचक्रवर्तीक शिष्य सरदार सेनासकी दादी कच्छेयादेवीने निर्माण कराया था । यह स्तयनिधि एक पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी पर ही परमके परकोटे में पांच जिनमंदिर बने हुए हैं। परकोटेके भीतर एक मच्छासा मानस्तंभ बना हुआ है। यह मुख्य मंदिर के सामने स्थित है। इस पहाड़ीके पास ही ब्रह्मनाथ और पद्मावतीदेवीके भी मंदिर है। इस तीर्थकी कुछ ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक मासकी नमावस्याको उत्तरीय कर्णाटक और दक्षिण महाराष्ट्र प्रदेशके जैनी कन्दना करने जाते है । वर्षान्त में वहाँ एक बड़ा मेला भी लगता है। जब तो वहाँ 'एक जैन गुरुकुल भी स्थापित हो गया है ।" सारांशतः स्वयनिषि प्रधानकेन्द्र दो क्षेत्रों में रहा था ।
उद्धरे ।
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सोहराब तालुक में दूसरा प्रधान नगर द्धरे भी जैनकेन्द्र था । 'होटल राजाओंके समय से ही वहां जैन धर्मकी प्रधानता थी । बाज कक्का उद्रि ही प्राचीन उद्धरे क्या उद्धवपुर है । स्म टू रिडगाव द्वितीयके राज्यकार में उद्धरेके जैन नेता बैचप्प थे। वह बहु प्रसिद्ध पर्दामा और देशभक थे। सन् १३८० ई० के एक शिलालेख से
1-Ibid.