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________________ ७१] संधित जैन इतिहास। बीवन माविक खी बना रखा है। वैसे ही भारतकी वकालीन समृद्धिने भातीयोंका जीवन-व्यय भाषिक खींग बना दिया था। उनका रहन सहन ऊंचे दर्जेका था। नागरिकोंके आदशे कायें।। भारतीय उस समय खूब भरेपूरे थे। राजा और पत्रा, दोनों ही नामोद-प्रमोदके साथ-साय दान-धर्ममें भी काफी रुपया खर्चते. थे।होंने नयनाभिराम मंदिर और प्रासाद बनाये थे। विजयनगरकी सहकॉपर होग, मोती, गल, जवाहरात नहकर उन्होंने अपनी समृद्धिसाकीनताका परिचय दिया था। किन्तु इस धनको उन्होंने ईमानदारीसे संचित किया था। व्यापारीगण देन लेनमें सच्चाई और ईमानदारीका बर्ताव करते थे । धर्म-पुरुषार्थको भागे रखकर ही वे अर्थ पुरुषार्थकी सिद्धि के लिये बम करते थे । मन्दुल रज्जाकने लिखा है कि वित्र. बनगरके बन्दरगाहोंमें रक्षा और न्यायकी ऐसी मुव्यवसायी कि बड़ेसे बड़े धनी व्यापारी अपना माल लगनेमें हिचकते नहीं थे। कालीकटमें वे निस्संकोच अपना माल बाजारों में भेज देते थे। भारतीय व्यापारियोंकी ईमानदारीका उनको इतना भरोसा था कि वे हिसाब जांचने अथवा अपने माकी खरगिरी खनकी भी मावश्यकता नहीं समझते थे। चुंगीके राजकर्मचारीगण भी इतने ईमानदार थे कि वे व्यापारियों का माकपने सुपर्द कर उसकी पूरी निगरानी रखते थे-व्यापारियों की २-'विचित्रवरि तत्रास्ति विब्याभिषं, नगरं सौपसंदोहाशिवाचा ॥२६॥ । मणिकरिमो मुलाः . सेतसेतुमिः, . दान पनि निशाना बाति वारि५१-पिगिति-सिमक
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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