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होता है। इसी प्रकार हरप्पासे पास मानवकी नंगी मूर्ति, (पोट ०१.) बो काकी ष्टिसे द्वितीय है एक दिगमा योगीकी ही मति प्रमाणित होती है, क्योंकि कम मौर उसके हाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में बने हुये हैं। खेद है कि मूर्तिका शिरोभाग मोर घुटनोंसे नीचेका भयोमाग अनुपलब्ध है। पर तो भी धाका माग मूर्तिको कायोत्सर्ग मुद्रा स्थित नम प्रमाणित करता है। मत: इस मूर्तिको एक दिगम्बर जैन श्रमणकी प्रतिमा मानना बेना नहीं है। इसी तरह मोहन-जो-बड़ोसे उपलब्ध एक पदामन मूर्ति (प्लेट नं. १३ चित्र नं० १५ १६) जिपके सिप सो फम बना हुमा है, बिल्कुल भगवान सुरवं अथवा पार्श्वनाथको पनपन मूर्तिके अनुरूप है। उसे हम निम्संकोच जैन मूर्ति कह सकते है। वेसी मूर्तियां जैन मंदिरों में पूजी जाती है। अतएव पूर्व विवेचनको दृष्टिमें रखते हुये यह मानना ठीक है कि मोहनजोदड़ो के लोगों में जैनधर्म भी प्रचलित था। उन लोगोंका समर्क द्राविड़ नानिक लोगोंमें या बौर द्राविड़ भी बैन थे, यह बात विद्वजन प्रगट कर चुके हैं।' गतएक इस साक्षीसे भी म. ऋभदेवको जैनधर्मका संस्थापक मानना ठीक है।
भारतीय पुरातत्वमें तीर्थकर । पुगतत्व में मथुगका देवशैलीका बौद्धात। और उस परकी मनिक पटना कनके पाससे पास मौर्यकालीन दि० जन प्रतिमाय खंड.
.. Short Studies in the Science of Comparative Keligion p. p. 243-244
२-प्रेमी. पृष्ठ २७९-२८.. ३-सिमा, भा. १३४ ९६.
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