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________________ साली साहितबोर कला। [१३० नागरी जो 'नागर-माया ममतीबी, भावीन परितिक रूप मर्यात पुरानी हिन्दी हो सकती। संस्कृत भाषा-साहित्य । होरपक गजाओंके समयसे ही सम्हत भाषानोंक न साहित्यका केन्द्र उत्तम की मोर बढ़ गया था, किंतु विद्यानगर हाटाने -संस्कृत भाषाको अपनाया था, यपि उनको मातृमपा तेलुगूबी। संस्कृत ता भी देवाणी' कराती थी। तासासका बापित 'कि शास्त्रेण रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचिंता वर्तते । परिवार्य होगा । विजयनगाके सम्राटों, सामन्तो मौर सेनापतियों, जिनमें जैन की उल्लेखनीय थे, ने अपने बाहुपासे देशको मुक्षित बना दिया था और उन शांतिपूर्ण पहियोंमें विद्वज्जन मारित्व वृद्धि करने में सलीम हुये थे। सायणने वेदोका भाष्य इसी समय मिला था। संस्कृत के इस बकर्षमें हाथ बंटाने के लिये जैन विद्वान् पीछे न रहे। कर्णाटकी होते हुये भी वे संमत भाषाको स्वनामों में प्रवृत्त । तापमें तो श्री सोमपमाचार्य, श्री हेमचन्द्राचार्य प्रभृति दान विद्वानों ने संस्कृत साहित्यकी श्रीपति की थी। श्री सोमप्रभावाने 'नाकाव्य रचकर गोको नाच सक दिया था, जिसके एकही कोकके सौ वर्ष होते ये बक्षिणास्य कवियों में श्री वीरनन्दिनाचार्य एलेखनीय है। इसका बन्दममका संस्कृत साहित्यकी अनूठी रक्ता । सो बादिराजका एकीयस्तो निन्द्र स्तुतिकी बहुपति या की कन्या मागोम वीर्षक रूपमणीवविजय और बारविका मी पाये गये है। पर्याय:स्विर
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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