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________________ ८२] संवित बैन इतिहास।.. . Mon समय बिताती हुई ठोर-ठौर बाकर बनताको नामबोध की बीपालिकामों भोर बियोंको शिक्षा दीक्षा देती थीं। वे स्वयं नियम पातीं थीं और भाविकाओंको उनको पाने के लिये सारित करती थी। मन्तमें समाधिमरण पूर्वक वह अपनी ही पूर्ण करती थीं। श्रावक श्राविकायें। साधुओंके पवित्र जीवन और उनकी सत्संगतिका प्रभाव भावक माविकानों पर पड़ा था। वे लौकिक धर्मका पान करते हुये नामशुद्धिके मार्गमें भागे बढ़ते थे। जिनेन्द्रकी पूजा करना गौर दान देना उनके मुख्य धर्म-कर्म थे। वो और पुरुष समान रूपों जिनेन्द्र पत्रा एवं अन्य धार्मिक क्रियायें करते थे। प्राविकाबोके अपने धर्मगुरु होते थे; जो उन्हें धर्मपालन के लिए उत्साहित भार सावधान करते थे। जैन कुछाचारका पान ठोकसे हो; इसस ध्यान नाबायोंके साथ २ प्रमुख सापक भी रखते थे। स्तनिधिक अन शासक बोम्मगौडका जीवन एक मायके बादत्रको कम करता है। जिनकरण रोक थे-गुरुः क्त थे। दूसरे देव नौर गुरुके भागे नतमस्तक नहीं होते थे। हमेशा सम्बकत्वमें गत रहते नौर जैनमतकी पदिके लिये तत् गते थे। बैन नारकी , १-लेन्तियाने समाधिमा बिमा । (ही) विन्दिगनाले स्थान सन. १५ से स्थाकि अमान्नेसिया नामक माविकाने anam और समाधिपूर्वक पापविन किये(ASM., 1939,P193)
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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