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________________ विजयनगरकी सन यावा नपर्म । ९५ रानी भैरवाय मनथे। मेवा गिरिसोयरामकी रामबाबी| इसलिये ही उनका पुत्र गिरिसोपेका शासक हुमा। एक बामपनमें नगरी (गिरिमोन) है , तुलु. कोरण नादि देशों के बासनाधिकारी कहे गये है। देवा मी बैनधर्मके द्धालु थे। स्वयंर्म नियमों का पालन करते थे और अपनी पत्राको भी धर्म ऋजु करते थे।सन् १५२३. में यह स्मणेश्वाको सल जिनपरतीके बर्शन करने गये मोर बन्दुपाल नामक ग्राम मन्दिरको इसलिये किया कि उसकी भायसे चन्द्रनाय मिनेन्द्रकी पूना मोर उनके कल्याणक सब निरता किंग जाते है। दशोयाणके भाचार्य चन्द्रअमदेवके सुपुर्द यह दान व्यवस्था की गई थी। इस दानपत्रके अंतमें गंगा, गोदावरी, भोपर्वत-तिरुमले नामक स्थानों के साथ अन्त (गिरना) का भी उल्लेख है, जिससे प्रतिभासित है कि गिरिसोप्येक निवासियों को तीर्थगन गिरिनारका परिचय था। उन्होंने अर्जयसपर ऋषियों के दर्शन किये थे । नृप महि देवाय न केवावमशूको बलिका कर्मश भी थे। वह मम्पूर्ण राजनुद्धि-कोश के स्वामी और सप्त-1-अगों में निष्णात थे। इनका शौर्य बताया। साहित्यरसिक भी थे। उन्होंने शान्तिजिनकी मन्ब मूर्ति भी प्रतिक्षित काई बीजो बाजार मद्रासके संग्रहालय में मौजून है। देवगन प्राणवेगोरके गोबरामीका महामस्तकाभिषेक रस्पन्द्रक समान विशेषतासे मनाम था। यह महान बस्य सन् १५३९ • से पटित हुमा था। उस समय अनुहिन पतिका पापवेगोपने कर्मचारों को बंधनमुकर दिया
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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