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जैन इतिहास समक्ष मी एक ऐसी हो साम्प्रदायिक समस्या उपस्थित हुई। सन् १३६८० के एक शिलालेख से पता पता है कि स समय नैनों (भव्यों) भोर श्री वैजय (भक्तो) में वापसी तनातनी होगई थी। वैवाने नियों के अधिकारों में कुछ हस्तक्षेत्र किया था। इस पw मानगोण्डि, होसपट्टण, पेनुगोड और कल्लेडनगर नादि सब ही नाओं ( जिलों ) के जैनियोंने मिलकर सम्राट्की सेवामें न्यायकी प्रार्थना की थी। देवरायने ठारह नामों (निकों ) के श्रीवैष्णवों और काविल, तिरुमले, कांची, मेल्कोटे मादिके भाव योको एकत्रित किया और उनको नापसमें मेसे रानेका मादेश दिया था। नरेशन जैनियों का हाय वैष्णवोंके हावर रखकर कहा कि पार्मिकतामें अनियों और वैष्णवों में कोई नहीं है । जैनियों को पूर्ववत् ही पचमहापाप और कलशका अधिकार है। जैन दर्शनकी हानि और वृद्धिको वैष्णवों को अपनी ही हानि वृद्धि समझना चाहिये। श्री वैष्णवोंको इस विषयके शासन केस समी देवालयों में स्थापित कर देना चाहिये । जबतक सूर्य और कद्र हैं तम्तक वैष्णव जैनधर्मकी रक्षा करें। देवगयका बह शासन सभीको मान्य हुमा। इस निष्पक्ष न्यायका विवरण श्रवणबेलगोलकं शिलेस नं० १३६ (३४४ ) शक सं० १२९० में गरम है। इसके अतिरिक्त लेखमें कहा गया है कि प्रत्येक नगृहसे प य प्रति वर्ष एकत्रित किया नाबमा शिक्षा देण्योबके देवकी रक्षा के लिये
बांगेम मंदिसके बादल सर्व - -hoda... ११-१९५ ८ .. .