Book Title: Sangha Kartvyadi Praja Samaja Kartavya Granth
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir © For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिग्रंथमाळा-ग्रन्थाङ्क नं. ७३-७४-७५-७६-७७ जैनाचार्य श्रीमद्बुद्धिसागरसूरिविरचितसंस्कृतग्रन्थो ७३ संघकर्तव्य. ७४ प्रजासमाजकर्तव्य. ७५ शोकविनाशक. ७६ चेटकबोध. ७७ सुदर्शनासुबोध. छपावी प्रसिद्ध करनार, श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारकमण्डल. हा. वकील शाह मोहनलाल हिमचंद. मु. पादरा. (गुजरात) प्रथमा आवृत्ति प्रत ५०० वीर सं. २४५० सने १९२४ विक्रम सं १९८० फाल्गुन पूर्णिमा. किम्मत रु. ०-१२-० For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमदावाद - शाहपुर नबी पोळमां आवेला भी प्रजाहितार्थ मुद्रालयमां पटेल डाह्याभाई दलपतरामे छाप्यं. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेदन. श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि ग्रन्थमालाना ग्रन्यांक नंबर मणका ७३-७४-७५७६-८७ तरीके श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिविरचितसंस्कृतग्रन्यो अनुक्रमे ७३ संघकर्तव्य ग्रन्थ. ७४ प्रजासमाज कर्तव्य ग्रन्थ, ७५ शोकविनाशक ग्रन्थ. ७६ चेटकबोध. ५७ सुदर्शना सुबोध. छपाची बहार पाडवामां आव्या छे अने तेनी सस्ती पडतर किंमत राखवामां आवी छे, ते ग्रन्थोने सुज्ञो वाचो अने आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करो तथा आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानना रसिकबंधुओ आवा ग्रन्थो छपाववामां आर्थिक सहाय करशो एम प्रार्थवामां आवे छे. अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडल. हा. वकील. शाह. मोहनलाल हिमचंद. मु. पादरा.-(गुजरात) For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ले. बुद्धिसागर. प्रस्तावना. अस्मत्कृत भजनसंग्रहनवमाभागमा सुदर्शनासुबोध प्रन्थ गुर्जर भाषामा छपायेल छे. ते संबंधी भजनसंग्रह नवमा भागमांनी प्रस्तावनामां कंइक लख्युं छे, तेनो संस्कृतभाषामा पद्यबंधरचना चि. १९७९ मां विजापुरमां चोमासामां सुधारा वधारा साथे करवामां आवी छे तेमां प्रसंगोपात्त केटलाक श्लोकोनो उमेरो करवामां आव्यो छे. गुजराती पद्योना भाषांतरनो पण संस्कृत श्लोको रचतां केटलेक स्थाने फेरफार करवामां आव्यो छे. संघकर्तव्यग्रन्थ, प्रजासमाजकर्तव्यग्रन्थ, शोकविनाशक अने चेटकबोध ए चार ग्रन्थो भजनसंग्रह दशमा भागमां गुजरातीमां रचेला छपान्या छे ते चार ग्रन्थोनो संस्कृत भाषामां पद्यमां अनुवाद करतां सुधारो वधारो करवामां आव्यो छे. वाचको गुजराती ग्रन्थो अने संस्कृत ग्रन्थो बन्नेने साथै राखीने वाचशे एटले स्वयमेव सुधारो वधारो समजी शकशे. संघकर्तव्य, प्रजासमाज कर्तव्य, शोकविनाशक, चेटकबोध, अने सुदर्शना सुबोध ए पांच ग्रन्थो विजापुरमा वि. सं. १९७९ ना चोमासामां रचवामां आव्या छे, तेमांना श्लोकोनुं अशुद्धि शुद्धिपत्रक आ साथे आपवामां आव्युं छे. श्री जिनेश्वर सर्वज्ञमहावीरप्रभु भाषित जैनधर्मना श्रुतज्ञानना अनेकनयोनी सापेक्षाओने ध्यानमा राखीने आ ग्रन्थो रच्या छे, छतां तेमां जिनेश्वरप्रभु महावीर देवनी आज्ञाथी जे कंइ विरुद्ध उत्सूत्र लखायुं होय तो तेनो सर्वसंघनी आगळ मिथ्या दुष्कृत दउछु सज्जनज्ञानीओ आ ग्रन्थो संबंधीमां भूलचूक संबंधी जे सूचनाओ जणावशे तेनो द्वितीयावृत्तिमां सुधारो aare करवामां आवशे. इत्येवं ॐ अँई महावीर शान्तिः ३ मु. प्रांतिज, फाल्गुन पूर्णिमा. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्व م س س م ا ॥ संघकर्तव्यादिग्रन्थानां शुद्धिपत्रम् ॥ पृष्ठ श्लोक पंक्ति अशुद्धं शुदं सव ३ २२ ५ ददत्स्वभोग संघार्थ, ददद्भोगं स्वसंघार्थ शंसंजानन् शमाजानन् ४ ३० २ मोहवारक मोहवारक: माचर माचरेत् प्रजासमाजकर्तव्यग्रन्थः १९ २० प्रकारेदक्षः प्रकारदक्षः निराश्रितानां निराश्रितस्य ज्योतिषं वहे ज्योति रावत ५४ १० वन्हिः १९ ७७ १६ शोकविनाशकग्रन्थः २३ ११२ ६ मात्म्यैक्य मात्मैक्य भ्राम्यती भ्राम्यति २८ २६ १४ संधारयः संधारय २६ १५ संपूरयन् संपूरय भवेतदा भवेत्तदा ३६ १३ यदाऽत्मनो यदाऽऽत्मनो ३१ ४१ ८ ऽन्तोनि हिंसा ऽन्तर्निहिंसा ३६ ७३ ११ निरत्ययाऽत्मा निरत्ययाऽऽत्मा ३३ ५२ १० नियोजिते वियोजिते वहिः धर्म धर्म For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पृष्टं श्लोक पंक्ति ४ ३ १८ ३ ?९ ४९ ४९ १५ %%%%% ५५ २२ ५५ २२ ५८ ३६ ५८ ५९ ५९ ६१ ६३ ∞ A G ३८ १२ ४२ १० ४५ १९ ५२ ३ ७० १८ ७५ १५४ १ ६६ ८४ १४ ६८ ९९ १३ ७५ १५९ १७ ७० ११८ १८ ७७ १७४ १९ ७९ १९२ १६ १०३ ४२६ १९ ८१ २०५ ૨ ८१ २०७ ८५ २४९ ११ www.kobatirth.org ६ ur चेटक बोधग्रन्थः अशुद्धं वृन्दान् घोस यः सुदर्शना सुबोधः जैनधर्म भवाब्धि सदात्म य मानवास्ते सेवा परीषहादि नरा सुखार्थ कापटय वाङ्नः ભ वाङ्नः दृष्ट्या दण्डयन्ते गृह्णन्ति भक्तिमुक्तिश्व मुरव्याभ्या मद्वाधेयें धर्मिणः बुध्वा For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्धं वृन्दम् द्यः स यो जैनधर्म भवाब्धिम् सदाऽऽत्म ये मानवास्ते } सेवां परीषहार्दि नराः सुखार्थम् कापट्य वाङ्मन: दृष्ट्या दण्ड्यन्ते गृह्णन्ति भक्तिर्मुक्तिश्व मुख्याभ्या मदबोधैर्य धर्मिणः बुद्ध्वा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्टं श्लोक पंक्ति १०२ ४१५ १७ ९३ ३२९ १७ १०१ ४०२ ११ १०६ ४५३ १७ অস্তজ कर्मभ्या बध्वा गृहाऽवासे बहा यतदि शुद्धं कर्मभ्यां बद्ध्या गृहाऽऽवासे बहौ यत्तदि दुःखं चेतनानां चान्धः स्या सर्वे दुखं चेतनाना अन्धः स्वा सवे काय कार्य ११५ ५०६ ६ ११५ ५०९ १५ ११९ ५२७ ८ १२० ५३४ १५ १२१ ५३८ ११ १३० ६१५ १३८ ६८४ १४ १५० ७४१ १५४ ७६१ ४ १५४ ७६२ ६ १५६ ७७२ ७ १५८ ७८२ ९ १६० ७९३ ११ । १२५ ५६३ ५ १२७ ५८५ ९ त्वबोधनात् गच्छेतक्षणं दुःखदः गुणाढ्यो MC vow १ . त्वद्वोधनात् ग छेक्षणं दुःस्वदा गुणाढयो सदतिः द्रुग. आवि भवति प्रभवो पापादुःखं सद्गतिः यद्गुण आविर्भवति प्रभवो पापादुःखं " For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धन्यवाद. आ उपयोगी ग्रंथ प्रसिद्ध करवाने माटे नीचे जणावेल बंधुओए अमने द्रव्य सहाय आपी छे जे माटे ते बंधुओनी धन्यवाद पूर्वक अत्रे नेांध लेवामां आवे छे. भविष्यमा मंडळना अन्य ग्रंथो प्रसिद्ध करवामां सुज्ञ बंधुओ सहायभूत बनशे एम इच्छीए छीए. १०१) शा. भोगीलाल नगीनदास. विजापुर हाल पुना. ५१) शा. शंकरलाल भोगीलाल. विजापुर हाल पुना. ५०) शा. मोहनलाल जेसंगभाइ सदगत् नीमीते मु. विजापुर. उपर जणावेल स्वधर्मी बंधुओनो अंतःकरण पूर्वक आभार मानवामां आवे छे. लेखक, आत्माराम खेमचंद. मु. साणंद. श्री अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी. For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भजनसंग्रह भाग ९ छपाइ बहार पडयो छे. मूरीश्वरजीनी आभ्यंतरभावनाना प्रतिविंबरूपरसथी छला. छलसुंदर पद्य.थी भरपूर आ पुस्तक खरेखर गुजरातना काव्य भंडोळमां अगत्यनो उमेरो करे छे, ते जाणीने खरेखर दरेक गुजरातीने आनंदज थशे. आ संग्रहमां वैराग्य, अध्यात्म ज्ञानचारित्र तथा नीतिना तरंगो छलकाता होवाथी जगत्मां तेनो प्रचार एकदम थवानी जरूर छे. वळी तेओए जैनजगत्ने हालनी मंदावस्थामांथी जागृत करवा साम् अने लोकोने कर्तव्यपरायण करवा. सारु जुदा जुदा पात्रोद्वारा अनेक विषयो चर्ची जैनजगत्ने तदन नवी ढबे कर्तव्यदिशानो मार्ग जणाव्यो छे. जेथी जैन जगत् खरेखर प्रगतिशील बनी जशे. अने जैनजगत् खरेखर वखतसरनी कार्यप्रणालिकारूप मार्गमां विचरशे. हालनी स्वराज्य अने स्वदेशनी अध्यात्मिक भावनाने पण आ ग्रंथमां योग्य स्थान मळ्युं छे, एटलुंज नहि पण बाह्य स्वराज्य अने बाह्यस्वदेशनी साथे आभ्यंतर स्वराज्य अने आभ्यंत. स्वदेश के सर्वविश्वजनोनुं परमादर्शध्येय छे, अनेक गूढतत्त्वाथी भरपूर तथा ज्ञाति अने धर्मना भेदभावरहित दरेकने समान उपयोगी आ पुस्तक छे. एक वार वांच्याथी हाथमाथी मूकवानुं मन थशे नहीं. सुंदर पाकुं वाइन्डींग पृष्ठ ५८० किंमत रु. १-८-० पोस्टेज अलग. For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजीग्रन्थमाळामां प्रगट थयेला ग्रन्थो. ० ० ० २१५ किंमत. ०-८-० ०-४-० ०-८-० ०-८-० ०-८-० ०-८-० ०-८-० ०-८-० १२-० ०-१२-० ग्रथांक १ क. भजन संग्रह भाग १ लो. २०० * १ अध्यात्म व्याख्यानमाळा. २०६ * २ भजनसंग्रह भाग २ जो. * ३ भजनसंग्रह भाग ३ जो. * ४ समाधिशतकम्. ६१२ ५ अनुभवपचिशी. २४८ ६ आत्मप्रदीप. ३१५ * ७ भजनसंग्रह भाग ४ थो. ८ परमात्मदर्शन. ४०० ९ परमात्मज्योति. ५०० * १० तत्त्वबिदु. २३० * ११ गुणानुराग. (आत्ति बीजी) २४ * १२-१३. भजनसंग्रह भाग ५ मो तथा ज्ञानदीपिका. * १४ तीर्थयात्रानुं विमान ( आ. बीजी) ६४ * १५ अध्यात्मभजनसंग्रह १९० * १६ गुरुबोध. १७४ * १७ तत्त्वज्ञानदीपिका १२४ ३०४ ०-१-० ० ०-६-० ० ०-२-० ० ०-६-० ०-४-० ०-६-० For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १० १८ गहूंलीसंग्रह भा. १ * १९-२० श्रावकधर्मस्वरूप भाग १ - २ (आवृत्ति त्रीजी ) * २१ भजनपदसंग्रह भाग ६ ठो. २२ वचनामृत. २३ योगदीपक. २४ जैन एतिहासिक रासमाळा. * २५ आनन्दघनपद ( १०८ ) संग्रह भावार्थ सहित. * २६ अध्यात्मशान्ति ( आवृति बीजी ) २७ काव्यसंग्रह भाग ७ मो. * २८ जैनधर्मनी प्राचीन अने अर्वाचीन स्थिति. * ३६ विजापुरवृत्तांत. ३७ साबरमतीकाव्य. ३८ प्रतिज्ञापालन. ३९-४०-४१ जैनगच्छमतप्रबंध, संघप्रगति, जैनगीता. ४२ जैनधातुप्रतिमा लेखसंग्रह भा. १ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ११२ ९६ * २९ कुमारपाल ( हिंदी ) २८७ ३० थी ४ - ३४ सुखसागर गुरुगीता. ३०० ३५ षड्द्रव्यविचार. २४० ४०-४०-१-० ०.१२.० ०-१४-० ०-१४-० १-०-० 2-0-0 २०८ ८३० ३०८ ४०८ ८०८ १३२ १५६ ९० १९६ ११० ०-३-० ३०४ ०-३-० 0-2-0 0-2-0 ०-६-० 0-8-0 ०-४-० 0-8-0 ०-६-० १०-५-० १-०-० ?-0-0 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०-८-० ०-२-० ०-२-० ११२ ४३ मित्रमैत्री. ४४ शिष्योपनिषद्. ४५ जैनोपनिषद्. ४६-४७ धार्मिक गद्यसंग्रह तथा सदुपदेश भाग १ लो. ९७६ ४८ भजनसंग्रह भा. ८ ९७६ ४९ श्रीमद् देवचंद्र भा. १ १०२८ ५० कर्मयोग. १०१२ ५१ आत्मतत्त्वदर्शन ५२ भारतसहकारशिक्षण काव्य १६८ ५३ श्रीमद् देवचंद्र भा. २ १२०० ५४ गहुली संग्रह भा. २ १३० ५५ कर्मप्रकृतिटीकाभाषांतर ८०० ५६ गुरुगीत गुंहलीसंग्रह. ५७.५८ आगमसार अने अध्यात्मगीता ४७० ५९ देववंदन स्तुति स्तवन संग्रह. १७५ ६० पूजासंग्रह भा. १ लो. ६१ भजनपदसंग्रह भा. ९ ५८० ६२ भजनपदसंग्रह भा. १०. २०० ६३ पत्रसदुपदेश भा. २ ५७५ नीचेना ग्रन्थो बेत्रण मासमां बहार पडशे. ६४ धातुप्रतिमालेख संग्रह भाग २ ३-०-० ३-०-० २-०-० ३-०-० ०.१०.० ०-१०.० ३-८-० ०-४-० ३-०-० ०.१२.० ०-६-० ०-४-० १-०-० १-८-० १-०-० १-८-० १९० For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ जैनदृष्टिए ईशावास्योपनिषद् भावार्थविवेचन. ६६ पूजासंग्रह द्वितीयावृत्ति तथा अन्यपूजाओ सहित भाग २ बीजो ६७ स्नात्रपूजा. ०-२-० ६८ श्रीमद् देवचंद्रजी अने तेमनुं जीवनचरित्र. संस्कृत ग्रन्थो. नं. ६९ शुद्धोपयोग ७३ संघकर्तव्यग्रन्थ ७० दयाग्रन्थ ७४ प्रजासमाजकर्तव्यग्रन्थ ७१ श्रेणिक सुबोध ७५ शोकविनाशक ७२ कृष्णगीता ७६ चेटकबोधग्रन्थ ७७ सुदर्शनासुबोध. * आ निशानीवाला ग्रंथो सीलकमां नथी, उपरनां पुस्तको मळवार्नु ठेका'. वकील मोहनलाल हीमचंद. (गुजरात) पादरा.. शा. आत्माराम खेमचन्द. साणंद. भांखरीया-मोहनलाल नगीनदास. मुंबाइ कोटबजार गेट नं. १९२-९४ बुकसेलर, मेघजी हीरजी. पायधुनी-मुंबाइ. शेठ. नगीनदास रायचंद भांखरीया. मु. मेसाणा. For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संघकर्त्तव्यग्रन्थः ईशो जिनो महावीरः संघधर्म मुपादिशत् । संघो ज्ञानक्रियाभ्यां सोऽनन्ततीर्थात्मको मतः ॥१॥ संघोहिजङ्गम स्तीर्थः प्रणमन्ति तमीश्वरम् । गङ्गातोऽपि महागङ्गा, सर्वधर्माकरो यतः ॥२॥ साधुसाध्वीगणश्राद्ध-श्रावकश्राविकान्वितः । संघो ज्ञेय श्चतुर्वर्णी, मुक्ति स्तंपूजयेन्नमेत् ॥३॥ तीर्थकरसमः संघः सर्वतीर्था स्तदन्तरे। सवाचैव प्रभोरर्चा, देवाः संघे सति ध्रुवम् ॥ ४॥ सङ्घार्चेव प्रभोरर्चा, न शक्तिः काऽपितत्समा ।। जैनधर्म सजानाति, वर्द्धयत्याऽऽत्मगौरवम् ॥५॥ संघाज्ञायां ममाज्ञाऽपि, विशत्येतन्निबोधत । क्षेत्रकालानुसारेण, यत्कुर्यात् मत्समंचतत् ॥६॥ यक्षेत्रेयत्र कालेवा, धर्मः स्याद्याश्चतक्रियाः। संघाज्ञयाचताः सन्ति, मदाज्ञायांच मान्ति ताः॥७॥ यत्कर्म संघवृष्ट्यर्थ, सर्वे धर्मा स्तदन्तरे । विशन्ति संघसेवासु, तपस्यायमसंयमाः ॥८॥ निर्जरानन्तपुण्यंच, संघसाहाय्यदानतः।। व्रतंविनाऽपि संघस्य, देवोऽसौ सेवया भवेत् ॥.९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) । सर्वसंघस्य वृद्ध्यर्थे सङ्केतो जक्तिसेवयोः । जक्तिं कुर्वत्सु नक्तेषु, ये मां पश्यन्ति ते प्रियाः ॥१०॥ भक्तयभिन्मयि संघेच, न कुर्य्यात्खेदनीहियः । ईदृशेषु सुभक्तेषु, व्यक्ताऽऽत्मा भगवान् जत्रेत् ॥ ११ ॥ भावेन संघ सेवाचेद्, यात्यनन्तभवाघकः । संघस्य निन्दकः शत्रुः पापी दुर्गतिभाग् जवेत् ॥ १२ ॥ योजानातिनयान्सप्त, ज्ञान माविष्करोति सः । विद्यां सर्वविधांज्ञात्वा मयि जक्तः स्थिरोभवेत् ॥ १३ ॥ मत्संघ चालयत्येव, शासनं सर्वरीतितः । असम्यगपि सम्यक्स्यान् मद्भक्तः सद्गतिं जजेत् १४ सम्यग्दृष्टियुतः संघ, ऋजवस्तस्यदृष्टयः । मृषाशास्त्रादिकंतस्य, सम्यग् जवति बोधतः ॥ १५ ॥ ईदृक् संघस्यसेवाभिः सर्वपापक्षयो भवेत् । दोषे सत्यपि निर्दोषः संघः सर्वगुणालयः ॥ १६ ॥ मदाज्ञयैव तद्विद्धि, संघो यत् परिवर्त्तयेत् । क्रियास्तु परिवर्तते, देशकालानुसारतः यत्राऽज्ञानं तमस्तत्र, तत्त्वं न परिवर्त्यते । अनादितो हि तत्त्वानि, अचारास्तादिसान्तकाः १८ परिवर्तनशीलाहि, आचारा देशकालतः । सर्वसंघे नयापेक्ष-, मते क्लेशं नवाचरेत् ॥ १७ ॥ ॥ १९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साम्येन संघ मुक्तिः स्यान्नमोहो मम सविनाम् । विद्याशक्तिप्रचारंच, कुर्वन्संघः प्रवर्द्धते ॥ २० ॥ दुष्टाद्धि व्यसनादरः संघोऽतीव प्रवर्द्धते ।। न धारयेत्कदापीया, क्षममाणः क्षमापयेत् ॥ २१ ॥ ददत्स्वनोगं संघार्थ, नीत्याशक्तिं नियोजयेत् । गाम्भीर्यौदार्यनीतिष्ठः प्रेमकृच्च परस्परम् ॥२२ ।। सहमानः समर्थोऽपि, आराध्यः संघईदृशः। रक्तः परोपकारेषु, आसक्तो भक्तिसेवयोः ॥२३॥ ममोपदेशं संजानन्, संघः सत्यगुणान्वितः । स्वाऽधिकारेषु यत्कर्म, धर्म जानश्चतत्कृतौ ।। २४ ॥ एवं संघस्य मंतव्यं, यात्याऽऽध्याऽऽत्मिकसद्गतिम् । अन्यजीवेदयां कुर्यात् , धर्मिणां प्रीतिमाचरेत् ॥२५॥ सम्मत्यैकीप्रवर्तेत, सर्वकार्ये विवेकवान् । दूष्ययुद्धं च संत्यज्य, दृढोगुरुसुरार्चने ॥ २६ ॥ कृत्वा साधर्मिकप्रीति, प्राणिहिंसानिवारकः । दुष्टं चाजिमुखे रुन्ध्याद्, दुष्टाऽन्यायादिवारकः ॥२७॥ साधुसंघस्य सम्मानं, कुर्यादाऽऽत्मप्रबोधनम् । सज्ज्ञानं सर्वलोकेभ्यो, दद्याद् गर्व न कारयेत् ॥२८॥ संघः परात्मतामेति, सात्त्विकी वृत्तिमाचरन् । सर्वार्पणं च संघाय, कुर्वन् गर्व न धारयेत् ॥२९॥ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ४ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " || 30 || ॥३२॥ , बाह्यान्तरं च साम्राज्यं दध्यान्निष्कामभावतः । मनोवोवपुःशुद्धिं धारये न्मोहवारक; मदिरामांसतो दूरं, क्रूरः स्यान्नाऽपराधिषु । कार्पितः स्याच्च धर्म्मार्थ, खादेत्सम्नोज्य धर्मिणः ३१ निरुन्धन् दुष्टवृत्तिंच, शिक्षये दप्यधर्मिणः । संघस्य भक्तिसेवार्थ, सप्राणादिनिजार्पणम् अन्योऽन्यंमत्समाप्रीति, योगक्षेमौच धारयेत् । संघे धर्मे गुरौ देवे, चतुर्षु च निजार्पणम् ॥ ३३ ॥ न स्याद् दुर्व्यसने चेष्टा, स्वाधिकारप्रवृत्तिमान् । दध्याद् गुणं त्यजन् दोषं भवेद्रागीच धर्मिणाम् ३४ विश्वस्मिन् सर्वसंघानां प्रचारे वपुरर्पणम् | स्वाधिकारे गुणस्थान, - गुणकर्मक्रियोद्यतः ॥३५॥ कालं ज्ञात्वा प्रवर्त्तेत, संघ एतादृशो महान् । सर्वोन्नतिकराचार, विचारान् धारयन् गुणी ॥३६॥ सर्वखण्डस्थसंघानां, सेवया जायते जिनः । मुक्तो ज्ञानक्रियाभ्यां स्यान्, मत्सदुक्तिविचारवान् ३७ अन्यधर्मिषु न द्वेष्टि, नाऽन्येषां वैरधारकः । हिंसामृषाचुरात्यागो, ब्रह्मचारी विरागवान् ॥३८॥ मत्समा सर्वजीवेषु, प्रीति दोषापहारिणी । धारयन् वारयन् रोषं, सर्वदोषिषु बोधवान् ॥३९॥ For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५ ) " ॥४३॥ 11 88 11 देशका कालानुसारेण, गृहस्थत्यागिनां व्रतम् । लक्षये चाऽऽत्मसंशुद्धि, दक्षो विद्याकलासुच ॥४०॥ ईदृक् संघस्य वृद्धिः स्यात्, सर्वलोकसहायिनः । जावये जिनमात्मानं, दीनः कर्मोदये च न ॥ ४१ ॥ नाऽन्येषां दुष्टतां कुर्य्यात् प्रीत्या वैरं च सान्त्वयेत् । सम्भोज्य धर्मिणं खादेत्, साहाय्यं धर्मिणां चरेत् ४२ ज्ञानेन वर्जयन् खेदं भेदवान्नोच्चनीचयोः । लघुता दृढता श्रद्धा, प्रेमाऽऽत्मज्ञानमन्तरे जीवनं यत्र चारित्र्या-दीदृक् संघसमुन्नतिः । क्षुधार्त भोजयेद्यश्च, तृषार्ते जलमर्पयेत् शक्ते दुरुपयोक्ता नो, रोगिणां रोगमाहरेत् । दुष्टादाचारतो दूरं शूरोयः शुभकर्मणि न निन्देच्च परान् किंचि, न कंचि दपवादयेत् । दूरं कुर्य्याच्च हिंसादि, विख्यातः संघ ईदृशः ॥४६॥ शुभक्षेत्रादिपोषेण, दोषंत्यक्त्वा गुणं धरेत् । दानशीलतपोभाव -, नीतिरीतिप्रवृत्तिमान् ॥ ४७ ॥ विज्ञायनवतच्चानि, संघभक्तया भवेत् प्रभुः । गुणकोट्याश्रयः संघ, एव प्रत्यक्ष ईश्वरः ॥ ४८ ॥ प्रभुः साकार संघोऽस्ति, लोक !!! तत्संगमाचर । प्रत्यक्षोहि गुणी संघः प्रत्यक्षो भगवान् स्वयम् ४९ ॥ ४५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आविर्भवतितद्भक्त्या, प्रभुराऽऽत्मा स्वमानसे । नास्ति कश्चिन्महान् संघात्, खानी यः सर्वधर्मिणाम् ५० संघोपमा महान् सर्वो, गुणज्ञा नमतार्चत । एकतः सकला धर्माः संघसेवनमेकतः ॥५१॥ भव्या वित्त द्वयं तुल्यं, विधेयं संघसेवनम् । एकतः सर्वधर्माःस्यु, रेकतो धर्मिसेवनम् ॥५२॥ दक्षा वित्त द्वयं तुल्यं, कुरुध्वं संघसेवनम् । मार्गानुसारिणः सम्यग-दृष्टयोऽविरतास्तथा ॥५३॥ गृहस्थाणुव्रतैर्युक्तो, मम संघः श्रियंकरः । गृहस्थत्यागिसंघस्य, सेवनात् कर्मणांलयः ॥ ५५ ॥ गुरो र्नेदौ गृही त्यागी, महान् त्यागी च सर्वतः। त्यागिनः प्रणमेत्पादौ, गृहस्थाःश्रद्धया सदा ॥५५॥ संघो मिलति सत्कार्ये, धर्म्यकार्य करोति सः। संघादिकप्रगत्यर्थ, तत्साम्राज्यं नृपात्परम् ॥५६॥ रक्षेत्संघस्य सर्वाङ्गं, भूत्वा शुरूप्रनावकः । स्यान्निष्कामी च निर्मोही, दोषः संघस्यनोतदा ॥५॥ प्राणाऽत्ययेऽपिनो द्रुह्ये, च्छनंकुर्यात्परस्परम् । मदर्थ संकटान् सोढा, प्रोल्लासी संघसेवने ॥ ५८ ॥ ये प्राणाः गृहिसंघस्य, मुनिसंघोऽनुमा महान् । मत्समंसूरिसाम्राज्यं, धर्म चक्रप्रवर्तकम् ॥ ५९॥ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " ( ७ ) क्षेत्रकालानुसारेण धर्मार्थाः स्युश्चयाः क्रियाः । ममाज्ञा निश्चिता तत्र, संघो यत्परिवर्त्तयेत् ॥ ६० ॥ चतुर्धा मिलितः संघ, स्तस्यकार्येतुमत्तमम् । कलौ तस्यानुसारेण, जयन्संघः प्रवर्धते ॥ ६१ ॥ क्षेत्रकालानुसारेण, चारोह स्वाधिकारतः । द्रव्यादिकं परिज्ञाय, मत्संघोऽस्ति सदाजयी ॥ ६२ ॥ यः संघः सर्वदेशेषु, तयात्राभिर्भवेद्गुणी । प्रतिवर्षे चरेद्यात्रां, चरस्थावरतीर्थयोः संघभक्तिं यथाशक्ति, कुर्वतां सिद्धिरुद्भवेत् । योगक्षेमविधाता सः श्रद्धाप्रेमी गुरौ मयि ॥ ६४ ॥ विधर्मिप्रतिपक्षिषु, शुद्धस्नेहविधायकः । ॥ ६३ ॥ दुष्प्रपञ्चैर्न वञ्च्यः स्या, न्नेच्छेद् दुष्टजनाऽशुनम् ६५ संघोजीवतिसम्मत्या, नीत्याऽनङ्गश्च सद्गुणी | कदाचित्तत्रनो धर्मः कर्म यत्संघहानिकृत् ॥ ६६ ॥ धर्मे सत्यप्यधर्मोऽसौ कर्म यत्संघपातकृत् । तत्र धर्मो यतोवृद्धिः संघस्य देशकालतः ॥ ६७ ॥ संघो वर्द्धत यत्कार्यात्, धर्मः स्यात्सर्वदाततः । जानन्ति ते मदाज्ञाज्ञा, मदाज्ञैव शिवङ्करा ॥ ६८ ॥ यएवं वेत्तिशक्तोऽसौ भक्तः संघ स्तु मस्त्रियः । संघे पुरस्सरोज्ञानी, संघप्रगतिकारकः ॥ ६९ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) यदाऽज्ञानी प्रधानं स्यात् , संघपात स्तदा नवेत् । ज्ञानं देहि तु संघेभ्यो, धार्मिकव्यावहारिकम् ॥॥ गृहिसंघ श्चतुर्वर्णो, गुणकर्मानुसारतः। वर्तित्वाऽऽज्ञानुसारं मे, धर्म कुर्य्याच्छमाप्नुयात् ७१ जावै रुपशमायैस्तु, स्वाऽऽत्मधर्मस्तमुझसेत् । संत्यज्य सर्वथा मोहं, मुक्तिं गच्छच्चिदात्मिकाम् ॥७॥ आत्मैव परमाऽऽत्मा स्याद्, ध्येयः संघस्य चेदृशः । आविर्भवति संघस्य, ध्येयमेवं स्वभावतः ॥ ३ ॥ मोहकर्म परित्यक्तु, मात्मज्योतिः प्रकाशय । आदर्शसाध्यदृष्टिर्हि, संघस्य सर्वदा मता ॥७४॥ सहर्ष धर्मिणं पश्येत्, दृष्ट्वोत्कर्ष प्रकाशयेत् । परस्परं महाप्रेम, धारको धर्मिरक्षकः ॥७५॥ दुःखे परस्परं नाग, मादातुं रागमुन्नयेत् । मेले कोऽपि न भेदःस्या दर्पितः स्यात्परस्परम् ॥७६॥ संघसेवां स्वसेवां हि, ज्ञात्वा कुव्यसनं त्यजेत्। संघाज्ञापालने मृत्यु, माप्नुयात्स्वार्पणप्रियः ॥७७॥ साधर्मिकाय न द्रुह्ये, न मुझे नामरूपयोः । साधर्मिको यदागच्छे, सोल्लासंस्खागतंचरेत् ॥ ७८॥ संघाऽवज्ञाञ्चनो कुर्य्या, न्मानयेच्छ्रमणादिकम् । कृत्वा धर्मिण मेवान्यं, खादेत्संश्राव्य देशनाम् ॥७९॥ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्विड्रागौ हर्नु मन्यस्य, न्मयि विश्वासमाचरत् । मुक्तोमा शरणीकृत्य, साधून नवा च नक्षयेत् ॥८॥ निर्भिस्वातंत्र्यसाम्राज्यं, बहीराज्य मवाप्नुयात् ।। संघो भदन्तसाकारः समष्टिव्यष्टिशक्तिमान् ॥८१॥ संघनाशान्महापापं, दुःखमाविनवेद्भशम् । संघारि दुर्गतिं याया, नादद्यात्संघहारवम् ॥ ८॥ भवेत्पूर्णोन्नतिः प्राप्त्या, त्यागिसंघशुभाशिषः । संघनाशो हि मन्नाशो, ज्ञात्वा संघानुगो भव ॥८॥ संघः सागरगम्भीरो, जुष्ट्वा वीरो जव स्वयम् । यत्काले यच्च योग्यं स्या, कर्त्तव्यं तद्विवेकतः ॥४॥ ज्ञानिनां सम्मतं यत्स्यात् , योग्यं तत्परिवर्तनम् । संघदाससमा ज्ञेया, श्चक्रीन्द्रायाः स्वभक्तितः ॥५॥ कुर्वति संघसेवां ते, देवाः संघे सति स्थिराः । विद्यादिकगुणश्चेत्स्था, त्तदा संघो न दुःखभाक् ॥८६॥ संघः सदैव मत्पश्चाद्, वर्तिता स्याच्छिवप्रदः। संघः शक्तिं विना नश्ये, न्मदाज्ञाभ्रष्टजीवनः ॥८॥ मदाज्ञां धारयेद्यश्च, संघोऽसौ न पतेक्वचित् । मच्याखिलाशक्ति, रात्मा यातिपरात्मताम् ॥८॥ शरणे मयि यश्चैति, तदाचारोऽस्ति मुक्तिदः । जिनो रागद्विषोर्जेता, जैनास्तदनुयायिनः ॥ ८९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) मोहादिहननाचारो, जैनधर्मः स वर्तते । जैनधर्मधरः संघः साधकोऽन्तश्चिदाऽऽत्मनः ॥ ९ ॥ शुष्यर्थे सर्वजीवानां, जैनधोऽस्ति पावकः । साधकश्चाष्टयोगाना, जैनधर्मी वरोऽस्त्यसौ ॥९१ ॥ साधुश्रावकधर्मोऽयं, गुणस्थानकधारकः। असंख्यदृष्टयो मान्ति, मद्धर्मेऽपेक्षयासह ॥९२॥ मतमार्गभिदः सर्वे, मद्धौ मान्ति दृष्टयः। चतुर्विधोऽस्ति मे संघो, ह्यसंख्यदृष्टिधारकः ॥ ९३ ॥ असंख्यदृष्टौ सापेक्षे, जैनो नास्ति कदाग्रही। मिथ्यामोहमतित्याग, आत्माऽऽनन्दो विरक्तिता ९४ ज्ञानं भक्तिश्च सद्योगो, भोगेसति विरागता । दुःखे सुखे समत्वं च, निरासक्तिश्च शुद्धता ॥९॥ न मोहः कर्मणः पाके, न द्रोहः सकलाऽऽत्मसु । आत्मवत्सर्वजीवानां, द्रष्टासंघोऽस्ति शान्तिदः ॥१६॥ विश्वोद्धारश्च सज्ज्ञाना, दयोपकृतिसद्गुणैः । भेदनावो न लोकेषु, सर्वलोकहितंकरः ॥९७ ॥ परोपकृत्कियां कुर्वन्, मत्सत्यं जुविबोधयन् । मनुष्यजातिमुद्धर्तु, शान्तो दान्तोऽथसंयमी ॥९८॥ पारतंत्र्यकरं कर्म-वारयन् धर्मधारकः । ईसंघसमुत्क्रान्ति, र्निजदोषनिवारिका ॥१९॥ For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) राजप्रजोपकारादि-, कर्म कुर्वन् स्थिराशयः। आत्मन्येव सुखमन्ता, संघो वैदेहगन्जयी ॥१०॥ दर्शनज्ञानचारित्र-, धरस्संघश्चतुर्विधः। क्षेत्रकालाऽनुसारेणा-पवादोत्सर्गमामृशन् ॥ १०१ ॥ संघकृत्यंचरन् संघः सर्वशक्तिप्रकाशकः । स्वाधिकारेण कर्त्तव्यं, कुर्वन् जयति भूतले ॥१२॥ जाषितं संघकर्तव्यं, ज्ञानिमिहदि धारितम् । सम्यग ज्ञात्वानरा मार्यः शान्ति पुष्टिं च विन्दत १०३ महावीरस्य सद्बोध-, पालने मोहरोधनम् । संघसेवाऽभिधोग्रन्थः कृतोबुद्ध्यब्धिसूरिणा ॥१०॥ संघसेवा सदाभूया त्सर्वमङ्गलदायिनी; चतुर्विध महासंघो, जीयात्सर्वत्रशर्मदः ॥१५॥ For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजासमाजकर्त्तव्यग्रन्थः ॥ २ ॥ ॥ ३॥ ॥ ४॥ जिनेश्वरो महावीरः श्रेणिकं प्रत्यबोधयत् । प्रजासत्यस्वरूपं यज्ज्ञात्वानक्लेश माप्नुयात् ॥१॥ वृद्धभूपसतां मानं, मातापित्रो विशेषतः । परस्परंचसाहाय्यं, सेवाभक्तिः शुभंकरा परस्परस्यरक्षार्थ, सङ्केत स्तनुसत्तयोः । राज्य सर्वाङ्गविज्ञानं, परार्थ प्राणवर्जनम् न्यायेन धनसम्प्राप्ती, राष्ट्रनीत्या प्रवर्त्तनम् । धर्मार्थ स्वार्पणं सर्व, प्रभुतायां नगर्विता अन्यप्रजासु दुःखस्य, विनाशाय प्रवृत्तयः । अनीति न सहताऽपि, क्लेशोनैव परस्परम् ॥ ५॥ परस्परं न च द्रोह, चौर्य लुण्टं न कारयेत् । राजाऽऽदेशस्य सम्मानं, प्रजाः कुर्वन्ति भावतः ||६|| राजाज्ञांनतिरस्कुर्य्या, न्न्यायं दंडं सहेतच । पक्षपाताद्वसन् दूर-, मात्मज्योतिः प्रकाशयेत् ॥७॥ प्रजासंघैकतां कुर्व, नीतिमार्गे न वर्जयेत् । राज्योन्नतिविधातारो, जीवन्ति सद्व्यवस्थिताः ८ विकाश्य सर्वशक्तीश्च, धर्मार्थं तद्व्ययं चरेत् । जीवनं च विना शक्तिं, क्षेत्रं स्वामिनमन्तरा ॥९॥ For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) " दययादमसत्याभ्यां वृद्धि दनिनजायते । न्यायैक्य सत्यविज्ञानैः प्रजासंघोऽश्नुतेसुखम् ॥ १० ॥ अन्य प्रजाश्च जानीयाद्, यो निजाऽऽत्मसमा नरः । मम जत्तया तथा प्रीत्या स्यात्प्रजाऽसौगुणालयः ११ वर्जयन् दुर्गुणान् दोषा, न्धर्मकार्य्यं समाचरेत् । व्यसनाद दूरतः स्थित्वा, साम्राज्यंलनते प्रजा ॥ १२ ॥ न हिंस्यान्मोहतो लोका, न्पापाचारं न कारयेत् । सदाचारै नरा नार्यो, लजन्ते परमोन्नतिम् ॥ १३ ॥ द्रव्येण क्षेत्रकालाभ्यां भावेन योग्यकर्म यत् । स्वाधिकारेचयत्कुर्य्या, त्सत्यप्रगति माप्नुयात् ॥ १४ ॥ बाह्यजीवोन्नते र्हेतुः स्वाऽधिकारेणयेोमतः । धर्मार्थं धारयेत्सैव, प्रजा जीवति नाऽपरा ॥ १५ ॥ ज्ञानेन सेवया जया, वर्त्तते च प्रजोन्नतिः । कदाऽपिनास्तिकः संघो, विन्तेशक्तिं न सात्त्विकीम् १६ जैनधर्म च सेवेत, यथाशक्तिं स्वमुन्नयेत् । धर्मकर्माऽऽत्मशुद्ध्यर्थ, धारयेत्स्वस्यमानसे ॥ १७ ॥ कलानांशिक्षणज्ञानं प्राप्नुयाद्धार्मिकप्रजा । मदाज्ञया धरेद्धर्म, मोहनीयादिकं त्यजेत् ॥ १८ ॥ नस्यात्पराजितो दुष्टे, धृत्वा बलकलादिकम् । सर्वप्रकारे दक्षःस्या, दाऽऽत्मशुद्धिं च लक्षयेत् ॥१९॥ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " ( १४ ) वर्त्तताऽऽत्मोपयोगेन, जोगेतु योग आन्तरः । विनाऽऽसक्तिं प्रभुंप्राप्य, प्रजाजीवनमुत्तमम् ॥ २० ॥ सेवते त्यागिनः प्रीत्या, आत्मानः सत्तयाजिनाः । विज्ञायाऽर्हत्पदं याति दूरीभूय च पापतः ॥ २१ ॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या, शूद्रास्स्वस्वक्रियापराः । स्वस्वगुणाश्रयास्तेस्युः प्रजात्वशक्तिधारकाः ॥ २२ ॥ पशुपक्ष्यादिकेष्वात्म-, बुद्धिं धारयति प्रजा । सर्वविश्वजनैः सार्द्ध, सभक्तिश्चाऽऽत्मशुद्धिमान् ॥ २३ ॥ आत्मशुद्धिकृते कर्म, राज्यमप्याऽऽत्मशुद्धये । प्रजा एवं च जानाति, तत्रराष्ट्रसमुन्नतिः ॥ २४ ॥ हिंसाऽऽदिकचुरात्यागो, व्यभिचारस्य वर्जनम् । रिक्तप्राणा च धर्मार्थ, प्रजा तु तादृशी शुजा ॥ २५॥ सद्गुणायाऽस्ति साम्राज्यं, सद्गुणाय क्रियाऽखिला; प्रजाजानाति या चैवं, तस्याः राष्ट्रतनुर्बली ॥२६॥ धर्मार्थ मर्पयेत्प्राणा, प्रजा चैवं गुणालयः । न दुष्टप्रजया वञ्च्या, धर्म्ययुद्धेन शोजना ॥ २७ ॥ जीवच्छतीस्तुताः याति, सर्वशच्या न गर्विणी । चतुर्वर्णा गुणैः काय्यै, व्र्व्यक्तभावेन तत्रते ॥ २८ ॥ प्रजासंघसमुत्क्रान्ती, र्यान्ति ते श्रद्धयामम । प्रजासंघस्तु सत्काय्यै, र्बलं जवति कार्यतः ॥ २९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५ ) जैनधर्मे चतुर्वर्णी,-प्रजा भवति शक्तिदा । प्रेमाऽन्यप्रजया सार्द्ध, योगक्षेमौ चधारयेत् ॥३०॥ बलवान्वाङ्मनोकायैः प्रजालंघोऽत्रजीवति । राझे राज्याय धिक्कारं, ददत् किञ्चिन्न वर्द्धते ॥३१॥ नाशयन् राज्यराजादि-, प्रजासंघः पतेद्धृवम् । चेद्रुह्येद्राजभूमिभ्यः पतेद्राजप्रजाततः ॥३२॥ सत्यन्यायैर्युतं राज्यं, तत्पातः पक्षपाततः। उपकारो दया दानं, क्षमौदार्यविमर्शनम् ॥ ३३ ॥ वर्त्तते संयमः प्रेम, योगः क्षेमोऽपितत्राहि । प्रजा प्रवृत्तिशीलाऽस्ति, तल्लक्ष्यं निवृतिः परम् ॥३४॥ चातुर्वर्णः प्रजासंघो, ज्ञानमानन्द माप्नुयात् । वर्णः कर्मगुणै.य, श्चतुर्वर्णीप्रजा भवेत् ॥ ३५ ॥ स्वाधिकारे गुणं कर्म, धृत्वा मद्धर्म माप्नुयात् । विवेकिनीच निलेपा, प्रजा मुक्तिं समश्नुते ॥ ३६॥ आत्मशुद्धिं प्रकुर्वन्ती, पूर्णशुद्धिपदं वहेत् । थात्मोपयोगतः कर्म-, कुर्वन् धर्मः प्रवर्त्तते ॥३७॥ बन्धोनाऽऽत्मोपयोगेन, प्रजा वाऽन्धः कदापि न । कर्म कु-वकर्मस्या, दाऽऽत्मशुझोपयोगतः ॥३८॥ निस्सारयेदहंवृत्ति, प्रजा मज्ज्योतिषं वहेत् । दर्शनज्ञानचारित्र्य-योगेन सत्यमुक्तता ॥३ए ॥ For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निमोहः सर्वनोगेषु, प्रजासंघः सुखं श्रयेत् । चतुर्विधः प्रजासंघ, आत्माऽऽनन्दं प्रकाशयेत् ॥४०॥ मदाज्ञाशुद्धतांयाति, स्वयमेव प्रभुर्नवेत् । स्वाऽधिकारेण हिंसाया, स्त्यागश्चैव विरागता ॥४१॥ स्वाधिकारव्रतादीनि, धारयन्ति प्रजाः शुभाः। सर्वजीवेषु सन्मैत्री, धारयन्ती सुकर्मिणी ॥४॥ जीवेष्वाऽऽत्मसमा दृष्टिः स्वर्गीया सा प्रजा मता। व्यष्टिसमष्टिसाम्राज्यं, तस्य सत्यप्रवृत्तयः ॥४३॥ यत्रहाई शुनंतत्र, प्रजा सत्यशुनंकरा। वर्णधर्मस्य भेदेन, नैवक्लेशो न युद्धता ॥४॥ धर्मभेदेन भेदो न, स्वर्गिणी तादृशीप्रजा । अपराधं सहेतारे, रेकोन्यं प्रेमतः स्पृहेत् ॥४५॥ निन्द्यान्नो देशभेदैश्च, चर्मरंगस्य भेदतः । धर्मश्रद्धां परांदध्या, त्यजेत्क्लेशकरी मतिम् ॥ ६॥ सर्वमाऽऽत्मस्वरूपेण, पश्येद्गर्व न धारयेत् । बुभुक्षुलोजयित्वाऽद्यात् तृषार्त वारि पाययेत् ॥४७॥ निराश्रितानां संरक्षा, कुर्य्यात्क्रुध्यान्न कोपतः। रोगिणे चौषधं दद्यात्, सतां मानं समाचारेत् ॥४८॥ सत्ताधनेषु नोगों, न ज्ञाने सत्यहक्रिया। दृग्नरास्तथा नार्य, श्चित्ते स्वर्गप्रकाशकाः ॥१९॥ For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७) साऽपेक्षयाऽखिलं मंत्रं, चतुराचारतत्पराः। व्यवस्थया च वर्त्तत, प्रजैवमतिवर्द्धते ॥५०॥ साहाय्यं दुःखिनां दद्या, नेच्छेल्लक्ष्मी मनीतितः। भावान्मध्यस्थकरुणा-, मैत्रीमोदाँश्च धारयेत् ॥५१॥ विषयेषु न मुग्धास्या, प्रजा पुष्यति शक्तितः। आत्मानन्दे सदामनो, दूरतो भोगशर्मतः ॥ ५२ ॥ अपेक्षयाऽखिलान्धर्मा, विद्यात्कर्माप्यपेक्षया । सापेक्ष दर्शनमार्ग, ज्ञात्वाऽऽत्मसरणीवहेत् ॥ ५३ ॥ अल्पदोषो महान्धमों, हितंज्ञात्वैव माचरेत् ।। यथा धूमावृतोवन्हिः प्रवृत्तिदोषिणी तथा ॥ ५४ ॥ स्वप्रवृत्या प्रवर्तेत, शुद्धात्मनि मनःक्षिपेत् । प्रजैवं ज्ञानिनी यत्र, तत्र शान्तिसुखादयः ॥ ५५ ॥ जीवेदात्मविशुद्ध्यर्थ, संकेतोऽपक्षयाऽखिलः। अनेकान्तविचारज्ञो, निश्चयव्यवहारविद ॥५६॥ असंख्यनयसापेक्षे-, र्योगैर्हि मुक्तिरुद्भवेत् । ज्ञानशीला प्रजा सा स्या, या प्रजा ब्रह्मदर्शिनी॥५७॥ बाह्यराज्यं तु तद्धेतुः पारम्पर्येण कथ्यते । आजीविकादिहेत्वर्थ, भूपादीनां व्यवस्थितिः ॥५८॥ आत्मैव परमात्माऽस्ति, मोहनाशात्प्रकाशते । शुद्धाऽऽत्मराज्यसाध्याय, बाह्यराज्यस्य हेतुता ॥५९॥ For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) आत्मराज्ये यदाजीवे, द्वाह्यराज्येऽपिशान्तिभाक् । यत्र सापेक्षया ज्ञानं, न पक्षो न कदाग्रहः ॥ ६० ॥ वर्त्तेतान्तश्च साम्यंचे, तदानिस्संगताध्रुवम् । एतादृशी प्रजा यत्र तत्र राजाऽपिशोभनः ॥ ६१ ॥ प्रबलोऽस्ति प्रजासंघो, मोहराजपराजयात् । मद्बोधेन प्रजाश्रेष्ठा, सुखं मद्दोधवर्त्तिनाम् ॥ ६२ ॥ मदाज्ञावर्त्तिनो ये च परानन्दं प्रविन्दते । ऐक्यवृत्तिः प्रजानूपे, प्रामाणिकप्रवर्त्तनम् ॥६३॥ अन्योऽन्य मुपकारी स्या, दात्मैक्येशुन मुत्तमम् । वर्त्तेत योगसम्मत्या, न क्लेशो देशधर्मयोः ॥ ६४ ॥ पश्येत् सर्वत्र मां जक्तया, स्यात्तस्य सफला क्रिया । ईदृक्प्रजा भवेद्यत्र तत्र व्यक्तो भवेत्प्रभुः ॥ ६५ ॥ त्र्यात्मज्योतिः प्रकाशेत, प्रजाजी वनमुत्तमम् । मद्यादिव्यसनत्यागो, मतभेदे न खिन्नता ॥ ६६ ॥ हिंसायज्ञप्रचारों न, शान्तिस्तत्र प्रजागणे । वसेन्मांशरणीकृत्य, मज्जापैर्जीवनं वहेत् ॥ ६७ ॥ मद्विश्वासं दृढंध्या, त्सा प्रजाशान्ति माप्नुयात् । अनन्तशक्तिपूर्णोऽहं पारं कैर्नापिपाते ॥ ६८ ॥ मद्रूपी भूयमद्भक्ता, मत्पद्यान्ति भक्तितः । ज्ञायते निजदोषो न, विनिपातस्तु दुर्गुणैः ॥ ६९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९ ) सद्गुणैरुन्नतिः शान्ति, मद्भक्तानां सदानवेत् । न मोहो नामरूपेषु, स्वाधिकारप्रवर्त्तनम् ॥ ७० ॥ वर्द्धत हृत्सरो हर्षे, मद्पं यान्ति मजनाः। व्यष्टिसमष्टिसद्वीरं, ज्ञात्वा मां मत्प्रियोजनः ॥७१॥ दोषं त्यक्त्वागणीभूय, सत्प्रजा मत्पदंवत् । त्यजेच्च विकथां निन्दा, मात्मनःसद्गुणान्भजेत् ॥७२॥ क्षमा याचेत दोषस्य, मनःशुद्धिं समाचरेत् । राज्यनीतिः शुभाज्ञात्वा, राजानं नापमानयेत् ॥७३॥ दुष्टाऽधर्मिनृपं दूरं, कृत्वा शान्ति वहेत्प्रजा। दत्ते न लातिनोलञ्चां, स राज्यनीतिपालकः ॥४॥ न्यायेन जीविकावृत्तिः स्वोपयोगेन जीवनम् । ईदृगभव्यप्रजा यत्र, तत्रानन्दः प्रवर्तते ॥७५ ॥ पापयुक्ता प्रजादुष्टा, भवेद् दुःखेनपीडिता। पृथक् स्याद्धर्मकर्मभ्यां, हृष्यात्पापं विधाय या ॥६॥ सतां या द्वेषिणी दुष्टा, सा प्रजा दुःखसंवृता। . देवे धर्मे गुरौ प्रीतिः पुण्यं धर्मशुभक्रिया ॥3॥ भूपप्रजासु यत्रैवं, तत्र नस्यु दिपत्तयः। त्यजेद्व्यसनिवस्तूनि, शास्त्रनावं च वेदयेत् ॥ ७८ ॥ वितण्डावादकलहं, त्यजेच्चान्तरवैरताम् । सत्वरजस्तमोवृत्ते रात्मा भिन्नोऽस्ति सत्तया ॥ ७९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) अतो मोहादिनाशार्थ, योगाभ्यासं वहेज्जनः। प्रजैवं ज्ञानिनी यत्र, क्षेमो योगश्च तत्र हि ॥ ८ ॥ अहंत्वंवृत्तिनिर्मिन्नः कुर्वन्नपि च निष्क्रियः। आसक्ति मन्तराकर्ता, शुद्धाऽऽत्मानं प्रपद्यते ॥१॥ सर्वाऽऽत्मानं स्ववत्पश्ये, सास्वर्गीया प्रजा स्मृता। आत्मैव परमात्मा स्या, दात्मवीरः प्रकाशते ॥८॥ स्यादाऽऽध्यात्मिकसाम्राज्यं, यत्रनीतिमयी प्रजा । यादृक् प्रजा नवेत्तत्र, तथादण्डादिरीतयः ॥३॥ कर्मरीत्या सुखं दुःखं, कर्मन्यायैः शुनाशुभौ । कर्मणा जवचक्रंतु, प्रजाभूपव्यवस्थितिः ॥८४ ॥ कर्मबन्धो न सज्ज्ञाना, यत्र तत्र न चान्धता। अग्निवदाऽऽत्मबुद्धानां, निरासक्तिः स्वकर्मसु ॥८॥ यत्र तु त्यागिनो वर्णा, जायन्ते ज्ञानिनस्ततः । नामरूपेषु नो मोहो, लोकाः प्रभुमयास्ततः ॥८६॥ यात्मझानस्य शिक्षाभिः, प्रजा भवति सात्त्विकी। आत्मज्ञानं विनात्वन्धा, भूपालोकाश्चनिर्गुणाः॥८७॥ हिंसाचुरा च युद्धं च, प्रजासंघे न वर्त्तते । शान्तिस्तुष्टिश्च पुष्टिश्च, व्यक्तानन्दः समुद्भवेत्॥८॥ राजाज्ञया प्रजावृत्तिः प्रजाभूपेषु धर्मिता। द्वयोरैक्यं भवेद्यत्र, तत्र ज्ञानंच शान्तिता ॥८९॥ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१ ) कषायत्तिसंरोधो, दोषाणां वारणंतथा । यत्र प्रजासुसत्यैक्य, तत्र स्वर्गीयशान्तयः ॥९॥ प्रजाभूपेषु चेदेक्यं, तत्र नो दुष्टवञ्चनम् । यथारवे स्तमोनश्ये, त्तथारीणां पराजयः ॥११॥ धर्मिषु चेत्पतेद्धाटी, विनश्येत्सापितच्क्षणम् । दयासत्यं च रागश्च, व्यक्ता भवन्तिशान्तिदा॥१२॥ मयि धृत्वामनोलोका मद्रपं यान्ति मत्पराः। कर्मबन्धं न ते यान्ति, स्वाधिकारक्रियापराः ॥९॥ मज्ज्ञा मन्मनसो लोकाः शुद्धब्रह्मोपयोगिनः। मत्परा मरणजित्वा, जैना यान्तिजिनपदम् ॥१४॥ सुखस्य जीवनं तत्र, यत्राऽऽत्मज्ञानिनो जनाः । गृहस्थत्यागिनो ब्रह्म ज्ञात्वा संयान्ति मत्पदम् ॥१५॥ प्रारब्धै र्व्यवहारस्तु, जवत्येव सतांमतः। एकोऽन्यं वञ्चयेन्नैव, न कुर्यात्पापघोषणाम् ॥९॥ एकोऽन्येषांशुजार्थ च, स्वकीय जीवनं वहेत् । दध्यात्साम्यं सुखदुःखे, झानानन्दरसंरसन् ॥९॥ एवं विश्वमनुष्याः स्यु नैव तत्रास्ति बन्धनम् । विकशे दाऽऽत्मसाम्राज्य, मत्पदं लभतेप्रजा ॥१८॥ मयितस्मैिश्च भेदो न, ज्ञानानन्दः समुल्लसेत् । स्वाधिकारेण यत्कर्म, नाऽधर्मस्तकृती भवेत् ॥२९॥ For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) उत्सर्ग मपवादं च, ज्ञात्वा कर्तव्यमाचरेत् । प्रजा जानन्ति यत्रैवं, तत्र साम्राज्यमात्मनः ॥१०॥ अल्पदोषोमहान्धर्मो, तत्कार्य च समाचरेत् । अल्पधर्म महादोषं, तत्कार्य न समाचरेत् ॥१०१॥ कर्मणोऽतीततां प्राप्य, सिद्धः स्यादायुषःक्षये । केचिद्भव्या दिवं यान्ति, नृभवं यान्ति के वन ॥१०२॥ पुण्येन शान्तिपुष्टीस्तः तुष्टिश्च द्रव्य नावतः । पापमार्गा विनश्यन्ति, मद्भक्ता ये च मत्समाः॥१०३॥ क्षेत्रकालानुसारेण, प्रजासंघप्रवृत्तयः । ज्ञात्वा कुर्यु नरा नार्यः पूर्णानन्दंच विन्दते ॥१४॥ जैनधर्म च विज्ञाय, प्रमाणं स्यात्प्रजाक्रिया । ज्ञात्वा सापेक्षया धर्म, स्वाऽधिकारेण वर्तताम् ॥१०५॥ परस्परं प्रजासंधै भूपैश्च देशमोहतः । वित्तादिमोहतो युद्धं, कर्त्तव्यं न कदाचन ॥१०६॥ अन्यदेशादिलोभेन, हिंसायुद्धं निपातकृत् । अशक्तधर्मिरक्षार्थ, धर्म्ययुद्धादिकं श्रयेत् ॥१७॥ स्वाऽऽत्मदेशादिरदार्थ, धर्मयुद्धं च धर्मिणाम् ।। अल्पदोषमहाधर्म, विवेकेन प्रवर्त्तते ॥ १० ॥ दुष्टभूषप्रजादिभ्यः स्वाऽऽत्मसंघादिरक्षणम् । कर्तव्यं हृदि मां धृत्वा, धर्म्ययुद्धादिकर्मभिः॥१०९॥ For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २३ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विज्ञाय मत्समान्विश्व-, जीवान्मैत्र्यादिनावतः । विश्वस्य सर्वजीवेषु, दृश्योऽहं ब्रह्मवेदिनिः ॥ ११० ॥ हिंसाद्यधर्मयुद्धानि, देशरङ्गादिमोहतः । धर्मान्धरागतो भक्तैः कर्त्तव्यानि न सज्जनैः ॥१११॥ धर्मादिभेदभिन्नानां, विश्वस्य सर्वदेहिनाम् । सार्धमाऽऽत्म्यैक्यभावेन वर्त्तनं शान्तिशर्मदम् ॥ ११२ ॥ आहारादिसमुत्पाद्यं, न्यायसंपन्नवित्ततः । मृषास्तेयादिकं त्यक्त्वा, स्वकीयं जीवनं वहेत् ॥ ११३ ॥ सूरिवाचकसाधूनां साध्वीनां च विशेषतः । सेवाक्तिः सदा कार्या, आहारादिप्रदानतः ॥ ११४ ॥ श्रेणिक !! त्वां प्रजाकाय्यैं, राज्यं समुपदिष्टवान् । जूपानामपि भूपानां, त्यागिनां राज्यमाऽऽत्मनि ॥११५॥ त्वं स्वाधिकारतो गच्छ, शुद्धाऽऽत्मोल्लासमाप्नुहि । विज्ञापय प्रजाकार्थ्य, मार्थ्यत्वाला सलब्धये ॥११६॥ श्रेणिकं बोधयामास, हर्षो भूपप्रजास्त्रभूत् । प्रणमन्ति प्रभोः पादौ प्रभुं स्मृत्वा शमाप्नुयुः ॥११७॥ वीरप्रभोश्च सद्बोधे, कृते मोहो निरुध्यते । जायते परमानन्दो, मङ्गलानि पदे पदे । प्रजासमाजकर्त्तव्य-ग्रंथोऽयं चारु निर्मितः । सर्वविश्वोपकाराय, बुद्धिसागरसूरिणा " ॥ ११९॥ For Private And Personal Use Only ॥११८॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४) शोकविनाशकग्रन्थः ॥३ ॥ प्रणम्य श्रीमहावीर, सर्वज्ञं जिनशेखरम् । करोमि तत्प्रबोधाऽऽत्म-, ग्रन्थं शोकनिवारकम् ॥१॥ सिद्धार्थभूपे जनके दिवंगते, स्वर्ग गतायां त्रिशलाख्यमातरि । लेभेऽथ शोकं हृदये सुदर्शना, शोकं तथाऽवाप स नन्दिवर्धनः देशे तथा ज्ञातिगणे कुटुम्बे, शोकः परं व्याप प्रजागणेषु । श्रीमन्महावीरमनोऽन्तराले, भृशंतरां भावदयाऽऽविरासीत् स बोधयामास च नन्दिवर्धनं, तथा कुटुम्बान्पुरवासिमानवान् । शुकुसंनिरोधों वरबोधतोऽभव, तथा यथा सन्तुतुषुश्चतेजनाः मातुः पितुश्च मरणेन कथं स्वचित्ते, शोकं परं वितनुषे म्रियते न चाऽस्मा। सर्वाऽऽत्मनां मिलति याति तनुः स्वभाग्या, दायुःक्षये गमनशम्बलमस्ति धर्मः ॥ ४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६॥ हे नन्दिवर्द्धन सुदर्शन इत्यवेहि, देहादतीव पृथगस्ति किलायमाऽऽत्मा । सम्बन्ध एष खलु कायकृतोऽस्ति मिथ्या, तस्मान्नशोककरणेन भवेद्धि किञ्चित् चेद्वेरिस मातरमथः पितरं शरीरं, किंरोदनं निपतनेन तनोस्तदत्र । दृष्टो जडः पुनरसौ क्षणिकोविनाशी, तस्मान्न शोककरणेन भवेद्धि किञ्चित् देहानवाप्य सकलान्विकलाननन्तान, सन्त्यज्य तानपि समागत एष आत्मा। नो हन्यते स खलु कैरपि हन्यमानः, तस्मान्न शोककरणे फलमस्ति किञ्चित् भात्मा जनन्या जनकस्ययो वा, न मार्यमाणोऽपि कदाऽपि मर्ता । चारित्र्यमेत्येह विभूय सिद्धः, स शाश्वते स्थास्यति सिद्धलोके आत्मा जनन्या जनकस्ययो वा, सचाऽन्य देहे स्थितिमापनूनम् । तद्वर्तमानेतिशरीरनाशात, कथं स्वचित्ते विदधासि खेदम् ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) शरीरवेषीयविवर्तनानि, क्रमेण यस्मिन् नटवेषवत्स्युः । स्वकर्मणाऽसौ परिवर्त्यतेचेत्, मिथ्या न शोकः स्वजनै विधेयः ॥ ११ ॥ न ज्ञानिनो विदधतीह कदापि शोकं, जानाति कर्म निखिलं च सदायमाऽऽत्मा । दध्यात्कदापि नहि मोहमथापि मिथ्या, ज्ञानेन कर्म निखिलं कुरुते स्वकीयम् ॥१२॥ शरीरमाऽऽत्मेति मतानुगाना, समुद्भवत्येव भयंच मोहः। शरीरजिन्नेतिमतानुगानां, विनश्यतः शोकभये त्ववश्यम् गृहाण मात्रादिगुणान्यथेच्छं, विधेहि धर्मषु पर प्रवृत्तिम् । मनुष्य योनेरियमस्ति यात्रा, अहंत्वमेतां त्यजवृत्ति मेकाम् ॥ १४॥ देहं विभ्रतिये च निश्चितमथो तेषां तनूत्सर्जनं मा त्वं विस्मर चाऽत्र मानवनवे धर्मस्य संधारणम् ॥ सम्यक चैतदवोहि मोहपरिणाम्याऽऽत्मा भवेत्राम्यती संसारात्पुनरेष आत्मपरिणाम्याऽऽत्मा परमुच्यते १५ For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) शोकमा कुरु नन्दिवर्द्धन जगन्मायाऽस्ति मिथ्या यतः पर्याया इति पुद्गलस्य सकले स्वप्नेन्द्रजालोपमाः॥ रुद्याकिं मृतकाय रोदकजना यास्यन्तियस्मात्पुनः संयोगोऽस्ति यतस्ततोऽस्ति विरहश्चैषापुराणीस्थितिः१६ इन्द्रजालसमाः सर्वे, खेलास्सन्ति मृषाभवे । वारयन् रागरोषौ च, आत्मा संजायते महान् ॥१७॥ वसन्त मात्मानमदःशरीरे, शरीरतो भिन्न मवेहि बन्धो, । त्वमाऽऽत्मनः सम्प्रति पूर्णशुद्धथा। प्रमाणय प्रार्थितमोक्षसिद्धिम् ॥१८॥ किं नामरूपेषु करोषि मोहं न वर्त्तसे त्वं ननु नामरूपम् । नाशोऽस्ति रूपस्य तथा च नानो ब्रह्माविनाशीत्यवगच्छ बन्धो जवत्य भून्नाम तथा च रूपं ततः पृथग वर्तत एव चाऽऽत्मा ॥ जडं न चाऽऽत्मान मवेहि बन्धो जडेषु किं प्रेम सदाऽऽत्मनांस्यात् ॥ २० ॥ न जेदलावोऽस्ति कदापि चाऽऽत्मनो जडस्य नेदोऽस्ति हि पुद्गलस्य च ॥ For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) ॥ २१ ॥ सम्बन्धिनं वा किमु मानये जड किं तत्र मत्कं किमुवा भवेत्तव मोहेन देहसम्बधो ज्ञानेन पुनराऽऽत्मनः ॥ सम्बन्धं ये न जानन्ति, सम्बन्धः कश्च तैः सह ॥२२॥ मोहेन स्वार्थसम्बन्धी महत्ता नाऽस्ति भूतले । स्वार्थैः सम्बन्धिने रोदः केवलं सच मूर्खता ॥ २३ ॥ सम्बन्धिनो जगति ये च समं शरीरै न्तास्तु संसृतितले जडमोहतस्ते ॥ सम्बन्धिनः पुनरहो सममाऽऽत्मना ये निमहिनश्च जगति भ्रमवर्जितास्ते एष देहस्य सम्बन्धो देहावधिरथोमृषा । सम्बन्धे क्षणिके मोहं प्राप्य मूढो न जायताम् ॥२५॥ सन्ध्याविद्युदिवाम्बु बुद्बुदसमं संसारसम्बन्धनं मिथ्या वा क्षणनश्वरं मनसितच्छोकं न संधारयः ॥ मायां वारय मानवं भवमिमं व्यर्थे न सम्पूरयन् चातः सम्प्रतिसावधान मनसा स्वाऽऽत्मा परं ध्यायताम् २६ आत्मोपयोगतो ध्यानं कुरु चातर्निजाऽऽत्मनः । आत्मैव परमात्माऽस्ति ज्ञानानन्दः स शोजते ॥ २७ ॥ संसार एषोऽस्ति महानसारः सारः पुनश्चास्त्यय माऽऽत्मधर्मः ॥ For Private And Personal Use Only ॥ २४ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२८॥ ॥१९॥ ( २९ ) न कश्चिदायाति निजेन सार्द्ध रोषश्च रागश्च निवार्यतां तत् सत्याऽऽत्मतत्वं प्रविचार्य मन्ये संसारमध्ये त्वयमास्ति सारः॥ स्वपापपुण्यक्रियया भवोऽन्यः सार्द्ध समागच्छति जन्मकाले पुण्योदये जायत एव सौख्यं पापोदये जायत एव दुःखम् ॥ पुण्योदयेनाऽऽलभते मनुष्यो धर्मस्य सर्वोपकरं मनोज्ञम् पापोदयेनाऽऽलभते मनुष्यो दुःखस्य सर्वोपकरं दुरन्तम् ॥ स्यात्पुण्यतो देवमनुष्ययोनिः पापेन लभ्यं नरकादिदुःखम् न पापकर्म क्रियतां यतस्ते पुण्येन धर्मेण च सौख्यमिष्टम् ॥ आशांस्वमोक्षस्य विधाय नूनं पुण्यविधेहि व्यवहारतस्त्वम् यात्मा चिरं भावय चित्तदेशे प्रादुर्भवत्येव स यात्मधर्मः॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३०) मच्चिन्तने तत्परचेतनःस्या मुग्धो नचस्या ननु नामरूपे पुण्यं पापं द्वे दशे पुद्गलानां पूर्व छायावत्परं तापतुल्यम् ॥ ज्ञानानन्दौ दर्शनंचाऽऽत्मधर्मो लोकेसारं केवलं चाऽऽत्मतत्वम् निन्नोऽय माऽऽत्माजडदेहतोऽस्ति प्रवर्त्तते चाऽऽत्मविनिश्चयोऽयम् ॥ देहोजडस्तत्पृथगस्ति चाऽऽत्मा विचारतो घ्रान्ति रपैति दरम् भवेतदाऽऽत्मा निजकर्मकर्ता, यदासचाऽन्यत्परिणामवान्स्यात् । यदाऽत्मनोऽसौपरिणामवान्स्या त्तदा स आत्मा निजधर्मकर्ता मोक्षस्तु तत्कर्मवियोगतस्स्या न्मोक्षस्य हेतुः पुनरस्तिसत्यम् ॥ सदर्शनज्ञानचरित्रकृत्यं द्रव्येण नावेन च विछि सत्यम् धर्मस्य देवस्य गुरोश्च पूर्ण,श्रद्धैव सम्यक्त्वमिहप्रदिष्टम् ॥ ॥३५॥ ॥ ३७॥ For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३१) अनन्तजन्माऽऽगतहेतुरूपग्रन्थेवियोगो भवतित्ववश्यम् अष्टौ कर्माणि जानीहि, द्रव्यकर्म सुनिश्चितम् ॥ द्विड्रागौ भावकोऽस्ति, तनुनौकर्म केवलम् ३९ निस्सृतं द्रव्य नोकर्म, निस्सृते नावकर्मणि ॥ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षो, बन्धो तद्विद्धि निश्चितम् ४० दुष्टवृत्तौच रुद्धायां, व्यापारः शुभवृत्तिकः।। जायते धर्मयोगोऽन्तो, निहिंसाचारवृत्तिकः ॥ ११ ॥ विलोक्यमाने खलु दुःखिजीवे, प्रजायतेऽसौ करुणाप्यऽपारा ॥ धम्ये दयाकर्मणि संप्रवृत्ते, प्रादुर्नवत्येव परोपकारः ॥ ४२ ॥ उदयति नहि हिंसा वृत्तिरल्पाऽपिचित्ते, उदयति यदि किञ्चिच्छान्ति मायाति शीघ्रम् ॥ ध्रुव मवितथशान्तिब्रह्मचर्यै भवानां, निचितनिखिल कर्माणि स्वरोधं लनन्ते ॥४३ ॥ सन्तोषे वर्ततां चित्तं, न रागो विषयेष्वपि। प्रातिकूल्ये नहि द्वेषः समस्त्यागोऽथ उद्भवेत्॥४४॥ द्वेषश्शत्रुषु नो जवेत्युनरिह स्तां शुद्धबुद्धिक्षमे, लेखातो गुरुदेवयोः स्वहृदये स्यादाऽऽत्मशुद्धिस्तथा। For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२) गृह्णन्त्याऽऽत्मविशुद्धिहेतुनिवहं ये भावतो द्रव्यतः, वैदेहाकिल ते भवन्त्यपितनौ मोहोऽस्तुतेषांकुतः ४५ निराऽऽत्मजडतत्वानां, ममतालीयते स्वतः। नाहंकारो जडेषु स्या, जडोजाइयेन वर्तते ॥४६॥ आत्मोपयोगे परिणामवाँश्चेत् आत्मा तदाऽसौ लन्नते हि मुक्तिम् ॥ शोकादिकं तद्व्यवधूय शीघ्रं, धर्मे प्रवृत्तिं कुरु नन्दिबन्धो !! ॥४७॥ आत्मोपयोगिनि तथाऽपगते च मोहे, नो जायते मनसि कोऽपि शरीरशोकः ॥ संजायते किमपि शुद्धमपारधैर्य, लोकेषु सारमिह केवल माऽऽत्मतत्वम् ॥४८॥ अज्ञानेनाऽऽत्मतत्त्वस्य चनिजहृदये जायते मोहवेगः, त्वं चाहं चेतिवृत्तिनहि जडविषये जायते चाऽऽत्मबोधात् ॥ शीघ्रं कामस्य वेगो विलयमतितरां याति सामूखचूडं, तस्मा ल्लोकेषु सारं नविक !!विजयते शुद्धमाऽऽत्मैकतत्वम् ॥४९॥ For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३३) रोदरोदं मृत्यु मायान्ति सर्वे खब्ध्वा मृत्यु कोऽपि नाऽऽयाति पश्चात् । ये जानन्त्याऽऽत्मस्वरूपं स्वचित्ते तेषां शान्ति र्जायते सत्यसिद्धा ॥ ५० ॥ ज्ञात्वातत्वविनिश्चयं कुरुत वा शान्तं तथा स्वं मनः, धम्र्ये चाऽध्वनि गच्छतां नच भवेत्कश्चिञ्चमिथ्याघ्रमः। जीवा अन्यत्नवेषु कर्मगतिनिर्गच्छन्ति भुञ्जन्ति वा, स्वेषां कर्मविपाकमेव नियतो न्यायः सखे वर्तते ५१ कर्माऽऽत्मसङ्गोऽयमनादिकालात् , नियोजिते कर्मणि चाऽऽत्मतत्त्वात् प्रादुर्भवत्येव हि शुद्धतत्वम्, लोकेषु सारं स्फुरदाऽऽत्मतत्वम् ॥५२॥ आत्मज्ञानी न बध्नाति, कर्म कर्मकरोऽपिसन् । आत्मोपयोगतश्चाऽस्ति, धर्म आसक्तिवर्जितः ॥५३॥ अज्ञानी निर्बलोऽतीव, ज्ञानीतु बलवान्महान् । कर्मयोगी तु सम्भूय, ज्ञानी कर्मान्त माचरेत् ॥५४॥ सम्यज्ञानी त्वकर्मा स्या, त्कुर्वन्सर्वाः क्रिया अपि अपुनर्बन्धतां याति, आत्मधर्म च गच्छति ॥५५॥ आत्मन्येवाऽऽत्मधर्मोऽस्ति दर्शनज्ञानरूपकः। वीर्यानन्तस्वरूपोऽस्ति, कर्मनाशात्प्रकाशते ॥५६॥ For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) तिरोभूतगुणानां हि, प्राकट्यं कर्मनाशतः सत्तया ये गुणास्सन्ति, प्रादुर्यान्ति त आत्मनि ॥५॥ सुव्यक्ततां यान्ति महात्मनस्तु व्यक्ता न ये ते खलु सन्त्यसन्तः॥ सतामनावो न कदापि काले, व्यक्तुं समर्था न असत्पदार्थाः ॥५८॥ जानीहि तानाऽऽत्मगुणा न्सतस्त्वं । पोयतो वाप्यथ सत्तया वा ॥ न नाश मायाति कदापिकाले बन्धो चिदाऽऽनन्दमयस्स आत्मा ॥ ५९॥ मात्रादिकानां सर्वेषा, मात्मद्रव्यंतु सत्स्मृतम् ।। आत्माऽहं त्वं स नित्योऽस्ति, अनित्यं वपुरादिकम् ६० देहेषु निवसञ्चाऽऽत्मा, न त्रिकालेऽपि नश्यति । तस्य सम्बन्ध मासाद्य, किं शोकस्य प्रयोजनम् ॥६१॥ देहास्तु वस्त्रवत्सन्ति, आयान्ति च प्रयान्ति च । तेषामस्ति न सम्बन्धः सत्यं जानीत बन्धवः ॥३२॥ शुद्धाऽऽत्मभावतो विद्धि, सार्द्ध मायाति नो जडः। आत्मैकाकी समायाति, न मोहे तर्हि मोहनम् ॥६३॥ स्वस्य धर्म गृहाणाऽऽत्मन्, जडेषु ममतांत्यज । शुद्धभावेन मोक्षोऽस्ति-, कर्मबन्धो विनावतः॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३५) सुताः षष्टिसहस्त्राणि, मृताः सर्वेऽपि चैकदा । मुमूर्छ सागरश्चक्री, वैराग्यज्ञानतोऽतरत् ॥ ६५ ॥ बहुवर्ष मयापयच्छुचा मरुदेवी निजपुत्रमोहतः अनवद्गतमोहिनी यदा क्षणतो मुक्तिपुरी मथाविशत् ६६ रामो मृतो देति जगाद देवः श्रीलक्ष्मणप्रीतिपरीक्षणार्थम् । निशम्य हा भ्रातरिति ब्रुवाणो, जही शरीरं नृपलक्ष्मणोऽपि ॥ ६७ ॥ केनाऽपि सार्द्ध न च कोप्यगच्छ, स्वस्वं च वाटं सकला अगच्छन् । राजा महान्रावणसन्निभोऽपि, प्राणांश्च हित्वा नरकंजगाम कर्मानुसारं परयोनिमायात्, भावी न संयात्यपसारितेऽपि । येऽकम्पयन्दमामपि पादघातै, स्तेऽपि प्रयाता अथच प्रयान्ति ॥ ६९॥ तेषां शरीरस्य नचाऽपि नाम्नो, न वर्त्ततेऽपि स्मृति रत्रकाले। असंख्यकालस्य जिनेश्वराणा मद्याऽपि तावन्नच नामतस्थौ ॥७०॥ For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ३६ ) न देहतः कोऽप्यमरो बभूव किं कर्तुमिष्टोऽस्ति तदाऽत्र मोहः । अद्यावधि र्नाम तथा च देहो, जातोऽस्त्यनन्तो गणने न गण्यः समुद्रवीचीनयवद्वपुस्सु त्वया न शोकाचरणं विधेयम् । सम्बन्धिनां नाम यथाच देह स्तथाऽऽत्मनोऽप्यब्धितरंगवत्तौ नन्दिवन्धो श्रुणु सत्यबोधं, प्रसाद्य चित्तं स्मर शुद्धतम् ॥ अलक्ष्यनिर्जन्मनिरत्ययाऽत्मा, निर्मोहभावेनस चिन्तनीयः महिष्यः कृष्णचन्द्रस्य त्राहि त्राहीत्यघोषयन् । न कोऽपि तास्ततोऽरक्षी द्विचित्राकर्मणां गतिः ऐन्द्रजालिकसंकाशे कर्मणी द्वे शुभाशुभे । नाऽऽत्मभावं ततो हि वस चाऽऽत्मस्वभावतः For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७१ ॥ ॥ ७२ ॥ 11 13 11 ॥ ७४ ॥ 1104 11 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृष्णद्वैपायनाख्यो मुनिरथविपिने, साम्बप्रद्युम्नबालैः सञ्जातोपद्रवस्तन् तनुमपि विसृज, नग्निदेवो बभूव ॥ घ्रामं ब्रामं ससर्वी सगृहजनधनां द्वारिका संददाह, ध्वंसंचक्रेच तस्या जलनिधिसलिले कोऽप्यरक्षन्न तस्मात् आत्मज्ञानेन चात्माऽऽयं, बली नवति कर्मणः॥ क्षणेनाऽनन्तकर्माणि, नश्यन्ति सच्चरित्रतः ॥ ७७॥ आयुस्तुतन्नश्यति जायते च, प्रमोदशोकौ न ततो विधेयौ। स्या यात्मजावेन सदा प्रसन्नः, कुर्य्यादशेषं तु मनोमायस्यात् ॥ ८॥ नार्यो नरा मच्चरणागता ये ते चोत्तरेयुभवसिन्धुपारम् । देहं त्यजन्शोक मथो न कुर्या । स्कदाऽपि नो रोदरवंप्रकुर्यात् ॥७९॥ श्वासोच्छ्वासैः पूर्णमद्ध्यायकानां सत्यं ज्ञानं जायते हृत्प्रदेशे। For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ३८ ) श्वासोच्छ्वासै मज्जपे तत्पराणां किञ्चित्पापं चित्तलग्नं नहि स्यात् अन्तेऽपि यो देहविसर्गकाले । प्रपद्यते मां स नरो विदेहः । अनन्तजन्मार्जितपापनाशो । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ ८० ॥ मुक्तिर्घुवं मच्छरणागतानाम् जोऽविनाशीच महाननन्तो नित्यस्तथाऽनादिरथ प्रपूर्णः आत्मा सवीरः परमेश्वरः स्या । त्सिद्धोप्यसावेव च सत्तयाऽस्ति शुद्धाऽऽत्मवीरंशरणं विधाय संशोध्य चित्तं सच शुद्ध आत्मा । षट्कारकै र्याति यदा च शुद्धिं । तदा स आत्मैव जवेत्पराऽऽत्मा यो हृष्येदाऽऽत्मजावेन, बन्धं नायाति कर्मणाम् । आत्मानं न जडे पश्ये त्स्याच्छुद्धाऽऽत्मा स निर्ममः ८४ विदेहो देहसत्त्वेऽपि नाऽत्ति कालोऽपि मज्जनान् । दुर्गतौ नाप्नुयाद्वास, माथु रानन्दतः क्षिपेत् स्वाऽधिकारेण कर्माणि कुर्वतां निर्जरा भवेत् । स्वाऽधिकारेण कर्माणि कुर्वाणा विन्दते शिवम् ८६ ॥ ८३ ॥ ૫ ॥ ८१ ॥ ॥ ८१ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ३९ ) देहो म्रियेताऽपि स नो विनश्ये त्किञ्चिद्भयं स्यान्न च मृत्युकाले प्राणान्त्यजेन्निर्जय एव भूत्वा जक्ता हि मे धामशिवं लजन्ते Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ८५ ॥ मम विश्वासिनो ये च येषां प्रेम मयि स्थिरम् । महापापकृतश्चाऽपि, लजन्ते ध्यानतः शिवम् ॥८८॥ समग्रजीवोद्धृतये भवो मे संकेतित स्तीर्थकरेति नाम्ना ॥ वर्तध्वमेतत्प्रविचार्य नाय्य नराश्च निर्लिप्य हि कर्म कुर्युः नार्यो नरा मच्छरणागता ये जन्मानि तेषां सफलानि सन्ति ॥ निजाऽऽत्मशुद्धिं समवाप्य तेऽपि स्युर्ज्ञानिनो योगिजनाश्च भक्ताः वर्णादयो ये च मनुष्यवर्गाः स्वं कुर्वते कर्म दिवं लभन्ते ॥ देहं विमुच्याss सुखं लभन्ते क्लेशं लभन्ते न भवे परस्मिन् मनोमयि न्यस्य नराश्च नार्यः प्रवर्तयेयुर्भवमुत्तरेयुः । For Private And Personal Use Only ॥ ८९ ॥ ॥ ९० ॥ ॥ ९१ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०) उत्तारिता ये नहि चाऽन्यदेव मद्भक्तितस्ते भव मुत्तरन्ति ॥ ९२ ॥ आत्मकर्म विविदुः प्रजागणा, नन्दिवर्धनसुदर्शनादयः ॥ शान्तिमापुरवधूय हृच्छुचं । ज्ञानतः प्रभुमथो प्रतुष्टुवुः ॥ ९३ ॥ दृष्टान्तै देशभिस्तु दुर्लभतरं लब्ध्वा भवं मानवं ज्ञानाद्याऽऽत्मगुणप्रशोधनकृते संसाध्यतां पौरुषम् ॥ वारम्वारमयं न मानवभव स्संजायते देहिनाम् , दृष्टान्ते मधुबिन्दुतुल्यविषये नो मोहनीयं त्वया ९४ अनादिकाला न्मनुजादिकानां देहाश्च भूताश्च तथा भवन्ति ॥ मृदादितो ये प्रभवन्ति देहा । स्ते मृत्तिकायेषु हि संविशन्ति । ॥९५॥ लोको जन्मजरामृतिप्रतिभि दुःखैरलं पूरितः नोपारं विषयप्रभूतसुखतत्तृष्णामहावारिधेः । आत्मज्ञानविरक्तिताभिरथ यो जागर्ति नो तन्मृतिः, यो शेते पुनरत्र मोहविषये तज्जन्ममृत्यू ध्रुवम् ९६ आगारोमम मेधनं परिजनो राज्यं च देशश्चमे एतादृग् ममताभिरत्र भुवने बद्धोऽस्ति रागद्विषोः, For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४१) ज्ञानानन्दमयः परात्परतरः साऽऽत्माऽस्ति देहस्थितः जीवो वेत्ति न तं वधप्रभृतिभिस्सत्यं सुखं मन्यते ९७ आत्मा नश्येन्नैव कालत्रयेऽपि पर्याया ये पुद्गलानां जडानां । नानारूपैस्ते भवन्ति प्रकामं पश्चात्पश्चात्ते च नष्टा नवन्ति ॥ ॥९ ॥ जाताःप्रागृषभादयो जिनवराः पूर्व त्रयोविंशतिः ते वै केवलबोधतो जगदिदं जाग्रत्तरं चक्रिरे। दीक्षां प्राप्य तथाऽहमप्यथ सखे श्रीकेवलज्ञानतः अज्ञानाच्छयनाद्धि जागृततरं विश्वं करिष्ये ध्रुवम् ॥९९ दृश्याजडा ये जगतः पदार्था याता न यास्यन्ति स मंच कश्चित् तदत्र दृश्ये हि पदार्थमात्रे मोहो विधेयो भवता न बन्धो ॥१०॥ स्याच्छातावेदनं पुण्यैः पुण्यं पुण्येनकर्मणा । अशातावेदनं पापैः पापं पापेनकर्मणा ॥१०१ ॥ पूर्वमासन्पदार्था ये तेनासन्वर्त्तमानवत् । अद्य ये चापि दृश्यन्ते, ते भविष्ये न भाविनः॥१०२॥ जगत्पदार्थाः क्षणिका अनित्याः संसारमध्ये शरणं न किञ्चित् । For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४२ ) पूर्णोऽस्ति दुःखैरभितो भवोऽयं सैकाकिजीवो हि समेति याति ॥ १०३ ॥ सन्त्याऽऽत्मभिन्ना हि जडाः पदार्था देहोऽशुचिः सोऽपि ततो विनिन्नः । मिथ्यात्वरागाऽविरतिद्विषायै दोष भवत्येव हि कर्मबन्धः ॥१०४॥ मिथ्यात्वरागाविरतिद्विषां स, संरोधतः सम्वरनामतत्त्वम् । अनेकरीत्या तपसः क्रियानि, स्तत्त्वं भवेत्तत्खल निर्जराख्यम् ॥१०५॥ अनाद्यनन्तषद्रव्य-, मयोलोकः प्रवर्तते । शाश्वतो द्रव्यरूपेण, पायैः सोह्यशाश्वतः ॥१०६॥ सम्यज्ज्ञानमतीवदुर्लभतरं संसारघोरार्णवे, स्याद्वादप्रतिबोधकृजिनवरप्राप्ति महादुर्लभा। जैनोधर्म इहास्त्यनन्तसमयात्काले तथाऽनन्तके - वश्यं स्थास्यति नन्दिवर्द्धन सखे जानीहितनिश्चितम् ॥ १०७॥ अनेकवारं सह सर्वजीवै, मात्रादिसम्बन्ध इहानुभूतः। निजः परोवेति तु तत्र मोहै, ानी न मोहं कुरुते कदापि ॥१०८॥ For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४३ ) ॥ ११० ॥ पीतानि सर्वाब्धिजलानि जीवैः संभक्षिताः पार्थिवपुद्गलाश्च । आत्माऽवबोधं च विना स्वतोषं, जाता न तेषां सुखशान्त्यवासिः येऽङ्गीकरिष्यन्त्यथ जैनधर्म समेत्य ते मुक्ति मनन्तकालम् । सुखेषु वत्स्यन्ति तदत्र का दृढं मनः शाधि सुदर्शने त्वम् अनन्तकालचक्राद्धि, मुक्तो भवितुमाऽऽत्मनः । ज्ञानदर्शनचारित्रा-, ण्येव सम्यगुपासय ॥ १११ ॥ आत्माऽभिन्नस्तथानित्यो, ज्ञानानन्दस्वरूपकः । आत्मन्यस्ति स वै धर्मः कर्मभिस्स तिरोहितः॥११२ ॥ तीर्थकराणा मृषनादिकानां, सतांत्रयोविंशतिसंख्यकानाम् । आप्तश्चतुर्विंशतितीर्थकर्त्ता, अहं महावीरजिनोऽवतीर्णः मातापितृजने दिवंप्रतिगते नन्द्यादिपौराञ्जनान्, जैनं धर्ममुपादिशन्मृतिजवच्छोकापहारक्षमम् ॥ दीक्षाम्प्राप्य समेत्य केवलिदशां संस्थाप्य तीर्थ निजं, विश्वानुद्धृतवान्नसौ मम महा-वीरो विद्ध्याच्छिवम्११४ ॥ ११३ ॥ For Private And Personal Use Only ॥ १०९ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) शो महावीर उदात्तधीरो जिनः परब्रह्म च देवपूज्यः। तीर्थकरोऽयं भवतोऽवतारः समग्रविश्वोद्धरणाय जातः ॥ ११५॥ अल्पाऽपि चिन्ता न चचार चित्ते शोकोगतः क्लेशचयोऽपि नष्टः । माता पिता द्वौ च दिवं प्रयातौ च्युखा तयो मुक्तिरथो विदेहे देवदेवीशिरोभूषी-भूतया भवदाज्ञया। राज्यं धर्ताऽस्मि कर्माणि, कुर्वाणः स्वाऽधिकारतः॥१७॥ उपदेशाद्गता भ्रान्ति, रात्मधर्म विवेद च । अक्रियो व्योमवच्चाऽऽत्मा, सत्तया स्वोपयोगवान् ११८ सम्यगदृष्टिस्तु निर्बन्धो, नान्धः सम्यक्प्रदर्शकः। सत्यं सापेक्षया जानन्, सर्व कार्य करोति सः॥११९॥ ज्ञातो धर्मस्तवोद्दोधा, द्ता एकान्तदृष्टयः महावीरस्तु नगवा-, नुद्भूतोऽनन्तशक्तिकः ॥१२०॥ तपोजपज्ञानदयादमामा मौदार्यसेवार्पणसंयमानाम् सद्बोधनेनैव समग्रविश्वोद्धाराय वीरो जुवनेऽवतीर्णः For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) यो नन्दिवर्धन नमेच्च सहस्रवारं, स्तूयादपारमथ मां विधिभिः समर्चेत् । भूत्वा प्रमोदनपरोविदधच्च कर्म स्वस्वाऽधिकारकरणे प्रभवेच्च जव्यः ॥ १२२ ॥ हितकृन्निर्मितः सत्यं, ग्रन्थोऽयं शोकवारकः । मर्तॄणां मृत्युतः पश्चाद्भणितः सुखकृद्भवेत् ॥ १२३ ॥ चिन्ता दूरमुपैति मोहसहितः शोकोऽपि याति क्षयं, धर्मप्राप्तिकरा भवन्ति पठना न्नाय नरा भूतले । वाणीयं जयकारिणी जिनमहावीरप्रभोर्वर्त्तते, श्री सूरीश्वरबुद्धिसागरकृतो ग्रन्थो भवेच्छ्रेयसे १२४ For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेटकबोधग्रन्थः वैशालीश निशम्यतां बुधवर त्वं पुण्यवान्वर्तसे, अन्ताराज्य मवेत्य राज्य मवनेः कार्य त्वया त्यागिवत् । वर्तस्वाऽथ दयाप्रदानदमनैः ज्ञात्वा कुरुष्व क्रियाः, राज्यं चाऽपि स्वयत्नतश्च विदध झुडूक्ष्वाऽनमुद्यम्य च लोकानांसुखहेतवे च विदध द्राज्यं स्वसम्राड् नवेत्, सत्याज्ञाः कुरु नो कदाचन पुनः सत्ताऽनिमानं कुरु ॥ रोषं दोषिषु नो कुरु प्रियतया खं दुःखिनः पोषय, क्लेशं चाऽपि सहस्व धर्मकरणे नो द्विष्य शत्रुष्वपि प्रेम्णा प्रवर्तस्व तु धर्मकाये, जहीहि नो क्षत्रियभूपरीतिम् । For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ४७ ) मृषाऽभिमानं कुरु नाऽपि किञ्चिन्, न्यायो यत स्तत्र विरोधशान्तिः सद्वक्तृवृन्दान्कुरु चाऽऽत्मपार्श्वे, प्राणाः पतेयुर्न वद त्वसत्यम् ॥ त्वं मारयाशु स्वकदुष्टवृत्तीः, त्वं श्वद्विद्धि धनं परेषाम् परस्त्रियो विद्धि च मातृतुल्याः, सम्मानय त्वं च महाऽऽत्मनोऽपि । नवं नवं ज्ञानमथो कुरु त्वम्, प्रवर्त्तयाज्ञाश्च मम स्वदेशे दयां च विस्तारय सर्वदेशे, पशूश्च संपालय हूयमानान् । संरक्षता द्रोगिजनाननाथान्, गृहाण सन्मानवजन्मलाभम् आकर्णयोघोष मपि प्रजानां, क्लीबो भव त्वं नहि सत्कलासु । विद्धि स्वतुल्यानिह सर्वजीवान्, सदैव कर्माचर यद्विधेयम् राज्याबहि दुर्व्यसनानि कृत्वा, नारी र्नरान्सौख्ययुतान्कुरुष्व । For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३॥ ॥ ४ ॥ ॥ ५॥ ।। ६ ।। ॥७॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ४८ ) विपन्नलोकस्य सहायकः स्या, ॥ ८ ॥ ॥९॥ दुष्टैर्गुणै राज्यपराजयः स्यात् सद्गुणानां महाराज्ये, सुखं ज्ञानं च निश्चितम् । दुर्गुणान्दूर तो मुञ्च, शूरः स्या नृपमण्डले न निर्बलाऽऽत्मा कुरुते स्वराज्यं सदा स्वराज्यं बलिनां विभाति । न्यायो यतस्तत्र हि सत्यराज्यं, चाsन्यायिराजा न कदापि गण्यः दण्डाद्यैर्हि कुरु न्याय, मीदृग्रीत्या प्रवर्त्तताम् । नूपरूपं प्रजैव स्यादितिज्ञाने न दुःखिता ॥ ११ ॥ संरक्ष जीवा न्निखिलान्स्वराज्ये, ॥ १० ॥ सतो जनान्रक्ष विदण्ड्य दुष्टान् । प्रजाजनानां भव रक्षकस्त्वं, मोहप्रमादाँश्च विसर्जय त्वम् विषये परतन्त्रो य स्तस्य धैर्य पलायते । दुर्बुध्यानस्थिरः स्थाने श्रेयः स किं विधास्यति ॥ १३ ॥ ॥ १२ ॥ चित्तद्रवो यस्य जवेद्दयाभिः, ननाम पादौ गुरु देवयोर्यः । प्राणात्ययेऽपि व्यभिचारको नो गण्यस्त्वसौ भूपपदस्य योग्यः " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ १४ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४९) अहिंसया राज्य मुदेति नूनं, तथा च हिंसाजिरुदेत्यधर्मः । समुद्धरेसिकपापिनो यः, जीवेष्वलंस्या दुपकारकर्ता मर्तु परार्थ च समुद्यतो यः स सत्यभूपो जगतो जयी स्यात् । भूत्वा पवित्र स्तनुवाङ्मनोभिः साम्राज्य मुच्चैः कुरुते पुमान्यः ईयो च रक्षेत्खलु दुर्गुणेषु, स्वर्ग शिवं राज्यमथाऽपि विन्ते । प्रीत्या च यः सान्त्वयति प्रकोपं, प्रजाजनक्लेशमपाकरोति ॥१७॥ राजा च यः सद्गुणनीतियुक्तः सर्वक्रियास्तस्य नवन्ति सिद्धाः। यो भूपति र्दुगुणनीतियुक्तः कथं नृपोऽसौ नृपनामयोग्यः ॥१८॥ महामार्या च दुष्काले, प्रजावर्ग प्रपालयेत् ।। सर्व पापं विनश्ये द्यो, स ध्रुवं धर्मभूपतिः ॥ १९ ॥ ज्ञात्वा सर्वविधा नीति, प्राणान्धर्मार्थ मर्पयेत् । आज्ञां प्रधारये द्राज्ये, दोषान् हत्वा गुणी जवेत्॥२०॥ For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५०) निरासत्तया भवेद्राज्य, प्रजाभूपोन्नतिस्तदा । ईदृग् विश्वानुपो राजा, न कदापि भवे पतेत् ॥२१॥ हेचेटक त्वंतु गुणाकरोऽसि, त्वं सर्वथा पालयसे मदाज्ञाः । अन्तः कुरु ध्यान महो मदीयं, ततश्च निर्वाणमवाप्स्यसि त्वम् ॥ २२॥ जानीहि अष्टादशभूपमुख्य, विकाशयत्वं परमात्मसौख्यम् । आत्मोपयोगेन स सर्वदा त्वं, नीत्या बहीराज्य मथो वह त्वम् ॥ २३ ॥ जगत्सु संचारय जैनधर्म, लभस्व बाह्यान्तरशक्तिवृन्दम् ॥ श्रीचेटकं तं प्रतिबोध्य वीरः, . प्रभुस्स पश्चात्प्रबभूव साधुः ॥२४॥ श्रुत्वा वीरप्रनोर्वाणी, धर्ममापुर्नुपप्रजाः। वीरबोध कृतो व्यक्तो, बुद्धिसागरसूरिणा ॥२५॥ For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( सुदर्शना सुबोधः ) प्रनो महावीर च वर्द्धमान भ्रातर्विभो सत्यगुणावलम्बिन्; हे देव विश्वेश्वर हे स्वयंभो त्वामाश्रयन्तीश समग्रविश्वे महावतारः परमेश्वरस्य संसारमुद्धारयितुं बभूव । नरोत्तमः श्रीपुरुषः पुराणः पूर्णो महान्सर्व सुसज्जनेषु ज्ञानं च सत्यं तव सङ्गमेन प्रादुर्बभूवैकलया व जक्तिः । लोकत्रयस्य प्रतिपाल धीर श्रीमन्महावीर सदा जय त्वम् विकाशितुं भूमिषु जैनधर्म तीर्थङ्करः प्रादुरभूद्गुणान्धिः । गृहे वसन्दीपितवान् त्रिलोकी मवातरद्वारतभानुरीशः चन्द्रोऽथसूर्यो भवदाज्ञयैव ग्रहाश्च सर्वेः परित श्वरन्ति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५२ ) बहिर्न ते शासनतोऽस्ति कंश्चि रसर्वस्य विश्वस्य सदाश्रयस्त्वम् अध्यात्मदृष्टयाऽसि महामहास्त्वं चादर्शयन्तीह जना जवन्तम् । त्वन्नामतो दुःखमपैति सर्व सर्वापद स्त्वद्भजतां दहन्ति श्रीमन्महावीरजपोद्यताना मनादिकालीन मपैति पापम् । सुदर्शनाऽहं भगिनी त्वदीया त्वद्बोधतोऽभून्मनो विनोदः स्वजन्मकालात्प्रजुवीरदेवः समग्रविश्वेषु महाँश्चधीरः । अङ्गुष्टतो मेरुमकम्पयो मेरुस्तदाऽकम्पदतीव घोरम् इन्द्रोऽविदद्यस्य अनन्तशक्तीः त्वं स्वामिवीरो जयवान्प्रजूयाः, इन्द्रादयस्त्वां प्रभुमाश्रयन्ति त्वां विश्वदेवा अखिलाः स्मरन्ति वीरेतिवीरेतिजपोद्यतानां चिन्हं तदेवाऽस्ति सुनक्कतायाः । For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ५ ॥ ॥ ६॥ ॥७॥ ॥ ८ ॥ ॥९॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१०॥ (५३) स्वर्ग महापापजनाश्च यान्ति त्वत्सेवका नो नरकं विशन्ति प्रभो परब्रह्म हि साकृतिस्त्वं देहं विधायोपकृति वितन्वन् । तत्त्याग्यवस्थाप्रथमं प्रभो मां सुदर्शनां शिक्षय धर्मतत्त्वम् प्रपीयमानं वचनाऽमृतं ते सूते सुखं दुःखमपाकरोति । वीरप्रभो देयुपदेशमेवं नश्येद्यतःक्लेशगणो मदीयः वीरप्रभुश्चेति वचो बभाषे सुदर्शने त्वं शृणु हे गुणज्ञे। श्री जैनधर्मोऽस्ति जगत्सु सारः शुजानि तस्याचरणानि सन्ति त्वं सत्यबोधाऽऽधरणानि रक्ष श्वसश्च मिथ्याचरणं जहीहि । श्रीजैनधर्मस्य जयो जगत्सु ज्ञानेन दुष्टाचरणं विनश्येत् न जैनधर्मावहिरस्ति धर्मः कोऽपीति नीहि परं रहस्यम् । ॥ १४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५४ ) ते मुख्यजैना मयि ये प्रकामं प्रीतिं च विश्वासमथो धरन्ति चाम्यन्ति ये वा न कुतर्कवादा, दाम्यन्ति ये वा मन इन्द्रियाणि । क्रियागुणैर्वर्णविभाग एव जानन्ति येते ममरागभाजः योग्या तु जातिर्गुणकर्मभिःस्या न्न जन्मतो जातिरियं हि योग्या । गुणक्रियाजिः सकला हि वर्णाः सत्यं मदीयं शरणं लभन्ते स्वकर्मणः स्वस्वगुणाऽनुसारं जजन्ति मां ते सकला दि वर्णाः । श्री जैनधर्म समुपास्य दध्युः शिवं यथाशक्ति सुखं लभन्ते जानीहि सर्वान्मनुजान्समानान् जातिं तथा तद्गुणकर्मयोगैः । उच्चोऽथ नीचो व्यपदिश्यते य स्तन्निश्वये कोऽपि न तत्र सारः न वर्णधर्मेषु च गर्वितःस्या न देहरूपेषु च मुह्य किञ्चित् । For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 11:34 11 ॥ १६ ॥ ॥ १७ ॥ ॥ १८ ॥ ॥ १९ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५५ ) जानीहि सर्वान्हृदये समानान् कंचिज्जनं नाप्यपमानय त्वम् जैनाश्च ये सन्ति गुणक्रियानि वर्तन्त एवं व्यवहारतस्ते । अन्तर्न लिङ्गं न च काऽपि जातिः श्री जैनधर्मस्य रहस्यमेतत् श्रीजैनधर्मप्रतिपालयन्ती म्रियस्व तस्मात्तर वा भवाबिंध । ये नास्तिका दुष्ट नराश्च नार्य्य स्ते मां न जानन्ति जगत्सु सारम् ये मां न जानन्ति नराश्च नार्य स्ते नास्तिकाः सन्ति हि विद्धि सत्यम् । ये जैनधर्म न च मानयन्ति दुर्बुद्धयो दारुणनास्तिकास्ते विश्वासनीया न च ते कदाचि ये नास्तिका दुर्मतयो हि वक्राः । तेषां न सङ्गोऽपि कदापि कायों ये सन्ति मद्भक्तिविनाशदक्षाः गुणाश्च दुःसङ्गतया व्रजन्ति प्रादुर्भवेद् दुष्टगुणो द्वितीयः । For Private And Personal Use Only ॥ २० ॥ ॥ २१ ॥ ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ ॥ २४ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५६ ) मय्यस्ति येषां बहुलोऽनुराग स्तच्चेतसि त्याग उदेति पूर्णः अनन्यनक्त्याऽत्र भजन्ति मां ये तैः सज्यते चेतसि शुद्धमुक्तिः । धरन्ति नो ये हृदयेऽपराशां ये वा मनुष्या मयि विश्वसन्ति जीवन्त एते प्रजवन्ति जैना जवन्ति चित्तैरपि नाऽन्य दासाः । जैना मदर्थं प्रसनं म्रियेरन् वैमानिके तेऽवतरन्ति मृत्वा येषां जयं धर्मरणं विधातुं न चाऽस्ति तेषां हृदि जैननीतिः । देस्य चाभ्यास इहाऽस्ति याव ज्जीवाश्च तावज्जगतो हि दासाः जानन्ति कायान्वसनेन तुल्या न्ते सत्यनीत्या प्रजवन्ति जैनाः । ये मस्सु प्रति विश्वसन्ति प्रसिद्ध जैनाः खलु ते भवन्ति ये चाssस्मविज्ञा खलु ते व जैना धरन्ति चित्ते न कदापि दैन्यम् । For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ २५ ॥ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ ॥ २८ ॥ ॥ २९ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३०॥ ( ५७ ) सर्वाणि कर्माणि सदाचरन्तो मन्नाम ये केऽपि मुदा भजन्ति विश्वास मारोप्य मयि प्रकामं कुर्युः क्रियां ते न भवन्ति दासाः । मद्भक्तये ये च नवन्ति योग्या स्तान्संविधातुं स्वशिरोऽपि देयम् दुःखानि मह्यं खलु ये सहेरन् भुङ्ग्युश्च ये कर्म तथाप्य कर्म । धरन्ति नो ये जडवस्तुदैन्यं जैनाश्च ते दुष्टगुणान्जयन्ति जैनास्तु ये शत्रुचयं जयन्ति सम्यक्त्वतो ये खलु निर्वहन्ति । श्रीजैनधर्मव्यवहारकार्य रक्षेत्सदाचारविचारराशिम् यथा समर्थ समयानुसारं जैनांश्च ते ये प्रतिपालयन्ति । ते सर्वकालेषु भवन्ति जैना नायर्यो नरा ये खटु मां भजन्ति वेषक्रियाणां तु मृषैव भेदो न तत्र खेदं कुरुते जनो यः। ॥३२॥ ॥३४॥ For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५८) वेषक्रियाः सन्ति बहुप्रकारा यस्मिन्रुचिर्यस्य स तस्य सारः अन्यक्रियाकर्तृजनेन सार्द्ध सदाऽत्मजावेन हि वर्त्तते यः। निन्दा न कुर्यान्मतमार्गदै मी नीतितो यः स्मरति प्रकामम् यतो मयि प्रेम ततो हि युक्ति स्तथाविधा मुक्ति मवाप्नुवन्ति । श्रीजैनधर्मस्य शृगोतु सारं मनो मयि न्यस्य तु निश्चयेन वतन्त एतद्भुवि वीतबन्धं य मानवास्ते खलु सन्ति जैनाः । दिवानिशं मानवजातयो या स्सर्वत्र खण्डेषु च मां भजन्ति स्वतन्त्रतां शान्तिमथो लजन्ते ते जीवनं शुद्धधिया वहन्ति । सुदशने ! मेऽस्ति नचादिरन्तो दृष्ट्या यतो पश्यसि चाऽस्मि तत्र पूर्णानुरागी मम जायते यो लभेत पूर्ण सच जैनधर्मम् । ॥३७॥ ॥३८॥ For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५९ ) ज्ञानं तथा प्रेम हि जैनधर्म स्सर्वेषु जीवेषु दया च सत्या जक्तौ ममैवाऽस्ति तपोजपादि न बुद्धिगर्यो न वसे कुधर्मे ॥ महाऽऽत्मनो मत्सदृशान्विदन्ति क्लेशो न तेषां हृदये कदाचित् कुर्वन्ति ये सज्जन शुद्धसेवा मभेदबुवा मयि ये वसन्ति । श्रीजैनधर्मस्य तु सत्यसारं जानीहि तत्सज्जन शुद्धसेवा दुःखे सुखे ये मयि विश्वसन्ति व्यग्राः कदाचिन्न च ते जवन्ति । क्षान्त्वोपसर्गे प्रभजन्ति मां ये दुःखस्य दाहं च सदा विसह्य मामन्तराऽन्यं नश्व कंचिदिच्छे त्स मत्समो भक्तजनश्च पुण्यः । सहेत मह्यं सकलापमानं सहेत निन्दा मथवा च गालीम् सहेत सर्व च परीषहादि मामन्तरा कामयते न किञ्चित् । For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ॥ ४२ ॥ ॥ ४३ ॥ 11 88 11 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष सुधीमत्य गलेद्यथेच्छ वियोगतो मे प्रदहेद्यदन्तः ॥४५॥ जैनाश्च ते सन्ति महापवित्रा मय्येव चित्तं विनिवेशयन्ति । मीलन्ति ते मत्सदृशाश्च भूत्वा ये मत्पथं स्वार्पणतो ब्रजन्ति ॥४६॥ नमामृतेऽस्त्यत्र यदीयराग स्त्यागोऽन्तरे भोगिदशासु येषाम् । कुर्वन्त्यमोहं जडसञ्चयं ये ये व्यापृणन्त्यत्र निजोपयोगैः ॥४७॥ बहिर्ग्रह श्चेतसि तद्विसों विरागता वस्तुषु पौद्गलेषु। शुभाशुभीयां न जडेषु बुदि शुध्या तथा कर्म सदाचरन्तः मचिंतका मन्मनसो नरा ये सर्वत्र कालेषु ममाऽनुरक्ताः निष्कामकर्माएयखिलानि कुर्यु अँनाश्च ते मत्पदवीं लनन्ते ॥४९॥ लक्ष्मीवृद्धौ नवा हृष्या त्तन्नाशे नाऽपि खिन्दति। लक्ष्मीभावो न लक्ष्मीषु हर्ष शोकं नवाचरेत् ॥५०॥ For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६१ ) सेवमाना जगज्जैना एवं देवा भवन्ति हि । भोग्यपि भोगतो भिन्नो, वीतरागस्स जायते ॥ ५१ ॥ वर्त्तन्ते समभावेन मत्समास्ते नरास्त्रियः । साम्यं च जैनधर्मोऽस्ति तदाप्नुहि सुदर्शने ॥ ५२ ॥ जीवनं वह सद्वृत्त्या जैनधर्मः स्थिरः समः । पवित्रं जीवनं येषां मद्भेदं ते न विन्दते ॥ ५३ ॥ सर्ववर्णा नरानाय्र्य स्त्यागावस्थाऽधिकारिणः । सर्वकामविनाशेन त्यागावस्थागुणाः खलु ॥ ५४ ॥ स्वातन्त्र्यं चान्तरत्यागै र्दासत्वं जडमाहतः । नृपेभ्यस्त्यागिनः श्रेष्ठास्तदधः सर्वजीवनम् ॥ ५५ ॥ त्यागोऽस्ति यद्यदंशेन, वैराग्यं तत्तदंशतः । वैराग्येनाऽऽत्मरागोऽस्ति जागृह्यन्तः सुदर्शने ॥ ५६ ॥ कामाशाबन्धना दुःखं कामाशाविरहात्सुखं । कामाशात्यजनं त्यागो, वेत्ति जाग्यनिधिः पुमान् ५७ निर्ग्रन्थास्त्यागिनः सौख्य, - भाजः संन्यासिनस्तथा । देशादिप्रतिबन्धो न तेषां न ममतालवः ॥ ५८ ॥ यद्रागो न जडे कश्चि तच्यागः शुन आन्तरः । यो जागssत्मभावेन योगी सोऽस्ति सुदर्शने ॥ ५९ ॥ द्वेषो जडे नाऽस्ति शुभाशुभो वा क्लेशो न तेषां हृदि कश्चिदस्ति । For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६२ ) ॥ ६० ॥ प्रवर्तमानस्स जडेषु कांचि लभेत पीडां नहि चेतसि स्वे स्पृशे स्पर्शेन्द्रियेणैव प्रारब्धं साम्यतो वहेत् । धर्म्ये स्पर्श धरन्साम्ये स्थितः प्रारब्धवादकः ||६१ || रसेद्रसा न्यो रसनेन्द्रियेण प्रारब्धतः साम्यधिया च तिष्ठेत् ॥ प्रयोजने वेत्तिरसान्समग्रा न्त्यागत्वमन्तःकरणे विधाय यो वा रसासक्ति मृते यथेच्छं खादेत्परं मोहधिया मेन्न । भोगं तथाssसक्ति मृते प्रकुर्व प्रारब्धतस्तर्हि स योग एव यागच्छतो नासिकया सुगन्धो, दुर्गन्धश्चाऽत्र जवेन्न चाऽन्धः । साम्येन गन्धग्रहणं प्रकुर्य्या प्रारब्धतो जीवन मावहेच्च हृष्यात्सुगन्धेन मनो न किञ्चि दर्गन्धतो नाऽपि शुचं लभेत । न नासिकापौद्गलगन्धतो वै, सञ्जयते ज्ञानवतां च बन्धः For Private And Personal Use Only ॥ ६२ ॥ ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ ॥ ६५ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६६॥ ॥६७॥ (६३) रूपाणि दृगभ्यां प्रविलोकयन्ति, न ज्ञानिनस्तत्र भवन्ति लीनाः । दृश्यानि दृग्भ्यां प्रविलोकयन्ति, परं न तेषां वशगा जवन्ति दृग्भ्यां विना वासनया प्रपश्यन् , समश्नतऽसौ परमार्थबोधम् । दृशोश्च रूपाणि हि साधनानि, धर्मस्तु दृग्भ्यां नवति प्रमाणम् निरीक्ष्य जीवप्रतिपालनार्थ, दृशाावमौ वीक्ष्य विचारणार्थ दृशौ सुखार्थ भवतस्तथेमौ, गुरोश्च देवस्य विलोकनार्थम् दृग्न्यांच धर्मोऽपि विकाशते वै, रूपेण बन्धं न बुधा लभन्ते । साम्येन दृश्यानि विलोकय त्वं, मोहादिवश्या नव नो कदाचित् अनन्तपुण्यैर्मिलितं हि चक्षुः, सज्ज्ञानिनां सर्व महो सुखार्थ । कदाचि दाऽऽकर्णय नापशब्दा जानासि चेदाऽऽत्मदशाहितानि ॥६८॥ ॥ ७० ॥ For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ६४ ) धर्म्यशब्दे जंगदस्ति पूर्ण धयैश्चशब्दैः सुखसारमस्ति । शब्दान्त्यजाऽधर्मविवर्द्धकाँस्त्वं, शब्दान्शुना न्जावय चेतसि त्वम् श्रुत्वाऽशुभं द्विष्य सुदर्शने नो विसह्य निन्दां कुरु कोपनाशम् शुजश्रुतौ चाद्यदशासु राग स्त्यागश्च पश्चाद्भवतीति विद्धि मानापमाने च निशम्य हर्ष, शोकं नवा चेतसि चानय त्वम् । न शब्दसृष्टः खलु पारमस्ति, तत्तत्र नासक्ति रये विधेया गुरोश्च देवस्य गुणान् श्रृणु त्वं, कर्णौ शुभाकर्णनहेतवे स्तः । मुक्ति भवेदिन्द्रियतोऽपि यश्चे, च्छुभार्थमेवोपयुनक्ति तानि वाण्याऽपि भाषस्व शुजं च सत्यं सुदर्शने ! रक्षयतात्स्वधर्मम् । कुरुष्व वश्यानि निजेन्द्रियाणि सुदर्शने स्वादय चाऽऽत्मसौरव्यम् For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७१ ॥ ॥ ७२ ॥ ॥ ७३ ॥ ॥ ७४ ॥ ॥ ३५ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७६॥ ॥ ७७ ॥ सुखं जयेनैव निजेन्द्रियाणां दुःखं वशेनैव निजेन्द्रियाणाम् । शुभोपयोगो हि निजेन्द्रियाणां सद्धर्मयोगोऽस्ति ममोपदिष्टः योगं न तेषामशुने कुरुष्व, प्रारब्धतो धर्मकृते च भोगः । सम्यक्तया मां भजतां जनानां, भवन्ति तत्तद्विषयेन्द्रियाणि ज्ञानाय लब्धानि निजेन्द्रियाणि, भोगाय जानीहि तथा च तानि । शुनोपयोगोऽस्ति यदीन्द्रियाणां श्रीजैनधर्मो गुणयोग एषः युञ्जन्ति चित्तं सममाऽऽत्मना ये, तेषां तु दोषा विलयं प्रयान्ति । अनन्तपुण्येन मनो हि लब्धं, भाग्यान्महत साधनमस्ति हस्ते मनोऽन्तरा नास्ति निजाऽऽत्ममुक्ति स्तस्मान् मनोशुद्धिमहो कुरुष्व । श्रात्माऽस्ति राजा च मनःप्रधानः, कायोरथो वाजिन इन्द्रियाणि ॥ ७८ ॥ ॥ ७९ ॥ ॥ ८०॥ For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६६ ) यात्मोपयोगै निखिलक्रियाणा माचारतो धर्म उदेति पूर्णः । आत्माऽनुसारं मनसः प्रवृत्त्या, भवेद्विशुद्धोऽतितरां तदाऽऽत्मा ॥८१ ॥ पूर्णों भवेञ्चेन्मनसो विकाश__ स्तदा नवेदाऽऽत्ममहाविकाशः। मनोविकाशाय हि निश्चितं त्वं, प्राप्तिं च जानीहि निजेन्द्रियाणाम् ॥८२ ॥ दयां च दानं च दमं कुरुष्व, तथाऽऽत्मशक्तीः सहसा लभस्व । लब्ध्वाऽऽत्मशक्तीः कुरु धर्मकार्य निजाऽऽत्ममुक्तिं च कुरु प्रकामम् ॥८३ ॥ चित्तेन्द्रियशरीरैर्हि, आत्मा पूर्णः प्रकाशते। वानकायसंयोग-आत्मयोगस्तु तबलात् ॥ ८॥ ब्रह्मचय्र्वपुर्वीर्य, लब्ध्वा धैर्य प्रकाशय । यात्मशक्तिरनन्ताऽस्ति, कायशक्त्या प्रकाशते ॥८५॥ नीरोगं रक्ष कायं तद्, योगियोग्यो भविष्यसि । रक्ष चौषधिवायुभ्यां, योग्यसात्त्विकनोजनैः ॥ ८६ ॥ अमूल्यं च वपुर्ज्ञात्वा, धर्माऽर्थ देहयोग्यता । वाचा सारं स जानाति, आत्मशक्तिं समश्नुते ॥८७॥ For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६७) विचार्य मधुरं ब्रूहि, सत्यं तुलय चेतसि ॥ नाऽस्ति सत्यसमो धर्मो-नास्त्यधर्मो मृषासमः॥८॥ ज्ञात्वा सत्यं प्रियं ब्रूहि, प्रतिज्ञातं प्रपूरय । अतो ज्ञातिकुलं ख्यातं, वेत्ति सत्योक्तिषु श्रियम् ८९ सत्यं वदेत्स्यात्स महान्हि सत्यं, निशामयंती सफलौ च कौँ । स्वाचार आरोपय सत्यमेत___ तस्माच्छभं यास्यति सर्वकृत्यम् ॥९०॥ अल्पदोषो महान्धर्मः सर्वधर्मो यतो भवेत् । तं विद्धि देशकालाभ्यां, सत्यं संघादिकक्रिया ॥९१॥ सत्यं वसेत्तत्र ममाऽस्ति धर्मः, सत्यं क्षयेत्तत्र भवेदधर्मः । सत्यात्सुखं दुःखमुदेति पापा नाऽन्या यतश्चेतसि शुद्धशान्तिः ॥ ९२ ॥ शक्तिःक्षयेदेव वदन्नसत्यं, विश्वासनीयोऽपि न तस्य कश्चित् । व्यक्ताऽपि वाक्सिद्धिरपैति दूरं, भवन्ति दुःखानि विपत्तयश्च जयेदसत्यं स नरोऽस्ति जैनः सत्यं वदन्दैन्यमथो न कुर्यात् । For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६८) लक्ष्मीर्यशो वा यदिवापगच्छे त्तदाऽपि सत्यं स नरो वदेद्धि पापानि सत्योक्तिषु नो भवन्ति, __ न्यायोऽपि कश्चिन्न हि सत्यतुल्यः। ज्ञानं विना सत्यमपि प्रमाणं नैवाऽस्तितज्ज्ञानिजनस्तु विन्ते ॥९५॥ अन्यायचौर्ययोस्त्यागै-मयि रागो भविष्यति । मनोवाणीशरीरार्थ, सत्यं सङ्केतितं मया ॥९६ ॥ अस्ति कायान्महञ्चित्त-माऽऽत्माऽस्ति मनसो महान्। तत्कर्म सात्त्विकं वेत्ति, सत्यं यश्चोत्तरोत्तरम् ॥ ९७॥ कुर्यादिन्द्रियसंरक्षा, यो मनो मयि विन्यसेत् । आत्मवद्गणयेदन्यान् , मद्भक्तिं स समश्नुते ॥९८॥ धर्माऽर्थ वाइनःपुष्टिं, रागरोषौ न वाऽऽचरेत् । प्राप्तं यत्तत्र संन्तोषो-न दोष कस्यचिद्वदेत् ॥ ९९ ॥ अशुनं मर्म मा बहि, विचार्य मधुरं वद । वर्द्धते निन्दया पापं, नो मद्भक्तिः शुना नवेत् ॥१०॥ गुरोश्च देवस्य जहीहि निन्दा सुदर्शने जागृहि सदगुण स्त्वम् । सदा रिपुभ्यो भव सावधाना द्रव्येण भावेन च निर्मला स्याः॥ ॥११॥ For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रुधा समारोपय मा कलई__ क्रोधेन मा ब्रूहि तथापशब्दम् । संरक्ष विना स्वजनान्गुणज्ञे संरक्ष तद्वत्पशुपक्षिणस्त्वम् ॥१० ॥ अस्ति गोपालने धर्म-आर्याणां कर्म तच्छुभम् । धेनू रक्ष गृहेकृस्वा, प्रीत्या त्वं हि सुदर्शने ॥ १०३ ॥ पालनेन भवेत्स्वर्गो-गवादिपशुपक्षिणाम् । यत्र वासो मृगादीनां, यज्ञयोग्याऽस्ति सा धरा १०४ नवेद्धिंसा गवादीनां, तत्र यज्ञो न जायते । स यज्ञदेश आर्याणां, मज्ज्ञानं यत्र जायते ॥ १०५ ।। पालयन्ति गवादीन्ये, स्वस्तेषामायुषः क्षये । यत्र गावो निहन्यन्ते, तत्र काचिन्न यज्ञता ॥१६॥ यज्ञेषु पशुनाशेन, फुःखे वासस्तु निश्चितः। यत्र हिंसा ततो यज्ञो, नास्ति शिक्षा प्रमाणय १०७ ये ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रा रक्षन्ति गास्ते सुखिनो भवन्ति । एषाऽऽर्यरीतिः कथिता त्वदर्थ, तद्वर्तने काऽपि न पापभीतिः ॥ १०८॥ समाजदेशयो र्गावो, धनानि महिषादयः । रक्ष्यन्ते तत्र नोत्पाता-मानवा दधते सुखम् ॥१०९॥ For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७०) जैनधर्मस्ततो जीव-न्यतो गावो गृहे गृहे । उत्पातास्तत्र नश्यन्ति, मदाज्ञा यत्र पाल्यते ११० प्रतिगृहं सतां मानं, दानं यत्राप्यते मुदा। अतिथिसेवने प्राणा-अर्पिता ते तु मत्समाः ॥१११॥ बुभुक्षूणां मिलेदन्नं, प्रसन्ना यत्र दुःखिनः । तृषार्तानां तथा वारि, तत्र मद्भक्तिरुद्भवेत् ॥ ११ ॥ गुरूणां पूजनं यत्र, वृद्धा यत्र न दुःखिनः । भक्ता गायन्ति मनानं, मज्ज्ञानं तत्र जायते ॥११३॥ साधूनां बहुसत्कारः, परस्पर मुपग्रहः । रक्ष्यन्ते वालका नार्यो-जनाःशाम्यन्ति पुण्यतः ११४ नाऽन्यायतो यतोदुःखं, जना नाऽन्यायकोपिनः । वैरेष्योपशमो देश-समाजा विन्दते सुखम् ॥१५॥ गृहेगृहे च मे भक्ति-यत्र न स्युः क्रुधाऽऽदयः। तत्र शान्तिः सुखं तुष्टि-स्तत्र न स्यादुपद्रवः॥११६॥ क्षाम्यन्तो हि मिथो वैरं, क्षान्ता यत्राऽपराधिनः । व्यवहारो यतो नीत्या, तत्र मद्भक्ति रुत्तमा ॥११७॥ न्यायेन शोजते राज्यं, शान्तिः सम्राजते ततः। दण्डयन्ते पापिनो दुष्टाः, पुण्यं तत्रातिवर्द्धते ॥११८॥ ममाज्ञा पाल्यते यत्र, नोत्पाता नेतयस्ततः । मदाज्ञा नोधरेच्चित्ते, न नीतिस्तस्य शोजना ॥११९॥ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्र नो जायते शर्म, यत्तत्स्यु यभिचारिणः । समाजदेशयोः पातो-बुद्धिकालः पलायते ॥ १२० ॥ व्यभिचारादिपापानां, देशादौ स्युर्विपत्तयः । यत्र पापै तो देश-स्तत्र दुःखोद्भवस्सदा ॥१२१ ॥ प्रतिगृहं यतो हिंसा, मानवश्चाऽत्ति मानवान् । उग्रपापानि जायन्ते, तत्र देशप्रजा लयः ॥ १२२ ॥ देशस्य पापेन हि देशनाशः, स्यात्खण्डनाशेन, हि खण्डनाशः । देशस्य पुण्येन विभाति देशः, .. खण्डस्य पुण्येन विनाति खण्डः ॥ १३ ॥ पुण्यप्रवृत्तिश्च पवित्रबोधो___ यत्रोद्भवेत्तत्र हि पुण्यनीतिः। देशप्रजासंघजनस्य शान्तिः, सुखं च सम्पद्भवति प्रकामम् ॥ १२४ ॥ दुष्टबुड्या नवेत्करो-मुःखमत्र परत्र च । क्षेमे कृते भवेत्क्षेमं, जयः पुण्येन जायते ॥ १२५ ॥ तीनं यत्क्रियते पापं, तत्तु सम्प्रति वेद्यते । फलेदत्र कृतौ धर्मः फलेन्मानसकामना ॥१२६॥ भवेन्न्यायेन सदवृद्धि-देशे च राज्यसंघयोः। कैस्समं कुरु नो छद्म, सत्कर्माणि त्वमाचर ॥१२७॥ For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७२) उक्त्वा कुरु न तद्भङ्गं, कुरु मा दुष्टसङ्गमम् । विश्वसीहि न दुष्टेषु, मा दासो व्यसनी नव॥१२८॥ व्यसनाद् दुर्गणाद् दूरं, वसतां मुक्तिद्भवेत् , अन्यायेन न धर्मः स्या-न्न श्रेयः पक्षपाततः॥१२९॥ आत्मवद्यत्र नीतिः स्या-त्तत्र मच्छक्तिरुल्लसेत् । यत्र विश्वासिघातो न, तत्र पुण्यप्रभोदयः ॥१३॥ यत्र किञ्चिन्न नेदोऽस्ति, सत्यैक्यं यत्र पाल्यते । देशराज्योभयोवृद्धिः, स्यादानन्दो गृहे गृहे ॥१३॥ सम्मतिर्यत्र राज्येषु, तत्र शान्तिश्च वर्तते । प्रामाणिका यतो जैना-वृद्धिः स्यात्तत्र सर्वतः १३२ न कुर्यादपरस्येष्यो, वृत्तिर्यत्राऽस्ति सात्त्विकी। ज्ञायन्ते सरला दार्या, आर्य भूमिस्तु धर्मतः ॥१३३॥ विश्वासो मयि यस्याऽस्ति, स आनन्दं समभुते । संशयाऽऽत्मा भवेन्नष्टः, प्रकाशन्ते न शक्तयः ॥१३४॥ नास्तिकैः सह वासेन, श्रद्धा नश्यति तत्क्षणात् । अश्रद्धाया गुणाभावो, विनश्यन्ति प्रकाशिताः १३५ नाऽश्रद्धया फलेन्मंत्रं, कार्यसिकि न तां विना । मयि श्रद्धालवो भव्या, लभन्ते सकलान्गुणान् १३६ तर्कादयः प्रमाणानि, सन्त्यश्रद्धालुबोधने । श्रद्धाप्रमाणमुत्कृष्टं, बहुशक्तिगुणाकरः ॥१३७ ।। For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ७३ ) श्रद्धाप्रेमसु मद्भक्ति-न भक्तिः संशयास्पदे । शुद्धप्रेम्णाऽस्ति मदृष्टि-दैवी सृष्टिस्ततो नवेत् १३८ श्रद्धाप्रेमबलाद्भक्ति-स्तामृते निष्फलं तपः। श्रद्धालवो नरा नार्य-स्तेषामत्र फलं नवेत्॥१३९॥ श्रद्धालवो नरा नार्य-स्तत्र मद्भक्तिशक्तयः। श्रद्धाप्रेमैव मद्रूपं, तद्विना दुःखमुद्भवेत् ॥१४० ॥ मन्नाम्ना नजते मां यः, सर्वशक्तीः समभुते । मन्नाम्ना यत्र रागः स्या-सोऽभङ्गः सर्वकर्मसु ॥१४१॥ मयि श्रद्धातिरागी यो-महानाग्यमवेहि तम् । मत्प्रेमिणश्च ये जैना-स्ते जयं चाऽत्र विन्दते॥१४२॥ बुद्धिवादं परित्यज्य, सत्कार्यप्रेममानसा । भूत्वा मदाज्ञया गच्छ, पश्याऽऽत्मानं सुदर्शने ॥१४३॥ बाह्यान्तर्वर्तनं चैकं, मद्भक्तानां सुनिश्चयः। सत्यं विवेकमाधाय, वर्त्तते चतुरो जनः ॥१४४ ॥ आसक्तिं विषये नैव, सत्कर्म नित्यमाचरन् । अतिभोगेन रोगः स्या-दात्मनिर्बलता नवेत् १४५ धर्म्यभोगेन योगस्य, साधना मम रागिणाम् । थाप्नुवन्ति न ते शोकं, विशालदृष्टिधारकाः १४६ गाम्भीर्यमन्धितः पूर्ण, मिच्छा दुर्व्यसनस्य नो। नेच्छन्ति मा विना किंचि-लभन्ते भक्तिमीदृशाः १४७ For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ७४ ) नाम्नि रूपे त्यजेन्मोहं, न दुह्यादुपकारिणे । स्वस्वातन्त्र्यं सदा रक्षेत्पारतन्त्र्यं सहेत न ॥ १४८ ॥ जगन्मान ममानं व, तत्र ध्यानं न धारयेत् । बन्धे कोऽपि न धर्मोऽस्ति, अधर्मः प्रतिबन्धने ॥ १४९ ॥ विषयेषु न वद्धा ये, जीवन्मुक्ता भवन्ति ते । सन्मानंच नाकांक्षे-द्वित्तानुसारदानवान् ॥ १५०॥ इच्छा स्वकीयाsस्ति भवस्य मूलं, तृष्णा तथाऽशा जव दुःखमूलम् करोति यो वाऽऽत्मवशां निजाशां, भूत्वा स भक्तो मम शान्तिमेति मुह्यन्ति लोकेषु न चाशया ये, स्तवेषु निन्दासु समा नवन्ति । ते योगिनः कर्मकृतो मदीयां, लीलां लभन्ते जवमुत्तरन्ति भक्तेषु मे मत्सम एव रागस्तथैव भक्ता मम भाग्यवन्तः । दोषेण युक्तोऽपि वेद दोषी, रोषेषु यो वै कुरुतेऽतिरोषम् सुदर्शने कुप्यति यश्च कोपे, मानेषु मानी प्रतिजायते यः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ १५१ ॥ ॥ १५२ ॥ ॥ १५३ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७५) कापटयकर्त्ता कपटेषु यः स्याद्, भूत्वा प्रलोजी प्रणिहन्ति लोभम् ॥१५४ ॥ कुऱ्याच मोहादिषु शत्रुभावं, ___ स्वतंत्रताया मिति सद्विलासः । कुर्वन्त एवंविधकर्मनक्ती, जैनाः सदा शुद्धसुखं लनन्ते अनन्तशक्तिस्त्वयमात्मदेव श्चित्तेन कुर्वेश्च निजाऽऽत्मसेवाम् । आत्माऽर्थ मन्यान्यखिलानि कर्या च्छीजैनधर्मो लन्नते स्वराज्यम् ॥१५६ ॥ कुर्य्याज्ज्ञात्वा शुभं कर्म, मृषाबन्धं परित्यजेत् । वर्तमानं शुभं कर्म, कुर्याल्लज्जां नवाऽऽचरेत् ॥१५॥ मागा भयं दुर्जननिन्दया त्वं, शुभानि कर्माणि विधेहि भावैः॥ स्वीयं तु जानीहि मनस्सु सत्यं, ___ त्वं धेहि रीतीस्तु महाजनानाम् ॥१५८ ॥ विशालदृष्टया कुरु सर्वकार्य, मृषावचो विद्धि न चैव सत्यम् । विशन्ति सत्यानि तु जैनधर्म, न जायतेऽसत्यतयाऽत्र शान्तिः ॥ १५९॥ For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ७६ ) निर्दोषिणः पीमय नो कदाचि च्छ्रीजैनधर्मे त्वमवेहि सत्यम् । शक्तिकान्पीडय मा कदाचिद्, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूत्वोद्धता नो पतिता भवन्तु निरागसो दण्डय नो कदाचि, च्छिरस्सु कृत्वा च शुम मदाज्ञाम् । काँश्चिन्न किंचिन्ननु वञ्चय त्वं विधाय न कुरु किं कार्यम् अत्यंतपापं च यतोऽस्ति देशे सर्वा विपत्तिः समुदेति तत्र । अन्यायिनां स्याः प्रतिपक्षकर्त्ता, न्यायेन सत्येन बलेन पूर्णः स्वप्राणरक्षाय सुदर्शने त्वं, न निर्बलीभूय जहीहि लज्जाम् । मृतिर्जवेकिंतु जयं भवेन्न ॥ १६३ ॥ एवं हि जैना जगति स्थिराः स्युः कस्याप्याssगो न कर्तव्यं, मा स्पर्धस्वोत्तमैः सह । कुरु नो दुष्टविश्वासं, दुष्टदासो न वा जव ॥ १६४ ॥ सत्यशिक्षां श्रुतौ न्यस्य त्यक्त्वा द्वेषापमानने । सहस्व देवगुर्वर्थ, संघार्थ जीवनं वह ॥ १६५ ॥ For Private And Personal Use Only ॥ १६० ॥ ॥ १३१ ॥ ॥ १६२ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " ( ७७ ) विनयं कुरु वृद्धाना - मन्तर्दोषं निवारय । प्रमाणं कुरु साधूनां मन्नाम स्मर जावतः ॥ १६६ ॥ ज्ञानादिनिर्महान्योऽस्ति, तस्य त्वं विनयं कुरु । जैनधर्मस्य मूलं हि, विनयं विद्धि निश्चितम् ॥ १६७॥ गृहाण विनयैर्विद्यां, शक्तीश्च विनयैः पुनः । विनयेन शुनप्राप्ति - गर्वाऽज्ञाने च गच्छतः ॥१६८॥ सद्रागो मातृपित्रादौ, विनेयानांहि मुक्तये । गुरोर्विनयतो ज्ञानं, वृद्धिवेला प्रजायते ॥ १६९ ॥ क्लेशका यत्र तत्रैव पशवो विनयाहते । नश्येद्धि विनयात्पापं, मत्प्रेमा विनयं धरेत् ॥ १७० ॥ संशोभते नो विनयं विना जनः, " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ १७१ ॥ स्वच्छं न चित्तं विनयं विना जवेत् । अवाप्यते यद्विनयात्सुदर्शने, नावाप्यते तत्कृतको ट्युपायतः सेवस्व जीवमात्रं त्वं, हृष्टा विनयकर्मसु । वन्दस्व महतां पादौ, सोत्साहा स्या गुणग्रहे ॥ १७२॥ प्रीत्या च कुरु सत्कारं, पृच्छाऽथ कुशलादिकम् । उपकुरु विना स्वार्थ, परार्थ जीवनं वह ॥ १७३ ॥ स्वार्थ विनोपकुर्वन्तः शोकं गृह्णन्ति नो नराः । स्वार्थ प्रत्युपकाराय, तत्र नो परमार्थता ॥ १५४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७८) स्वार्थादयो न सिद्ध्यन्ति, पश्चात्ताप स्तदा नवेत् । परमार्थफलं नस्या-निष्फलं स्याच जीवनम् ॥१७॥ स्वार्थ विनोपकुर्वन्ति, ये ते धन्यतमा नराः। मत्स्वरूपं लभन्ते ते, कोऽपि नास्त्यत्र संशयः १७६ मदाज्ञया नरा नार्य-उपकुर्वन्तु भावतः । खभंतां परमां मुक्तिं, विश्वासीय कुर्वताम् १७७ श्राशा नश्यति पुत्रादि-सेविनां स्वार्थमन्तरा। निःस्वार्थसेवया नक्त्या, त्वाऽऽत्मधर्मः प्रकाशते १७८ परोपकारशीलाये, कीर्तिमानेच्छया विना । उद्यता उपकाराय, स्वाऽपमानं विषह्य च ॥ १७९ ॥ बभ्यन्ते ते न मायायां, निःसंङ्गज्ञानसंयुताः। मुक्तिधाम लज्जन्ते ते, तरन्ति नवसागरम् ॥१८०॥ इच्छेत्प्रत्युपकारं नो, धन्यास्ते हि नराः स्त्रियः। जेदनावो न चित्तेषु, चोपकारोऽस्ति शत्रुषु ॥१८॥ उपकर्तुं मनःप्राण,-वित्तकायबलादिकम् । अर्पयन्ति समग्रं ये, लभन्ते मत्पदं सुखम् ॥१८॥ सर्वोपकाररूपोऽस्ति, जैनधर्मस्तमाचर । उपकृत्य वदेद्यश्च, स मायाबन्धने स्थितः ॥१८३॥ नामरूपेषु निमोहा गुप्तदानविधायिनः । ज्ञानदानसमं नान्य-दाऽऽत्मदानं तु सौरव्यकृत् १८४ For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७९) उपकर्तुस्तिरस्कारः, सङ्कटमृत्यु रेव वा । अपकीर्तिर्वधो बन्धः, स्या ज्ज्ञानी नाऽत्र शोधति १८५ त्वं बन्दस्वोपकर्तारं, तन्नाम नच गोप्यताम् । न निन्दयोपकर्तारं, नोपकर्तृवधं कुरु ॥१८६ ॥ गुरुदेवोपकारो य-स्तं चित्ते स्मर नित्यशः। जगजीवोपकाराय, सोयमा स्याः सुदर्शने ॥ १८७ ॥ यत्कालेऽस्त्युपकारो यः, कुरुध्वं तं नराः स्त्रियः। जीवा जीवन्ति नो केचि-दुपकारग्रहं विना ॥१८८॥ फलं बहुपकारेऽस्ति यथाभावं फलं नवेत् । कामिनां काम लानोहि, बहु निष्कामिनां फलम् १८९ परोपकारे त्यज नो स्वनीति, परोपकारे कुरु नैव भीतिम्। नैवोपकारे कुरुखेदलज्जे, सुदर्शने नापिविभेद दुःखे१९० निष्कामेन सकामेन, भावेनोपग्रहेनृणाम् । धनप्राणादिदानेन, मम ज्ञान प्रकाशते ॥ १९१ ॥ उपकारेऽपकारं च, यदि कुय्युनराः स्त्रियः॥ तर्हि तदुपकारेण, भक्तिमुक्तिश्च निश्चिता ॥ १९२ ॥ उपकारा भवन्त्येते, रजःसत्वतमोगुणाः ॥ सत्त्वगुण्युपकारोऽस्ति, नावेनैतान्समाचर ॥१९३॥ उपकारेषु सम्मान्ति, तपोनावत्रतादयः। उपकारेषु ते धर्मा-उपकारेऽखिलाः क्रियाः ॥ १९४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८० ) " " उपकारा अनेके थे, यथाशक्तिसुखप्रदाः । नैसर्गिकोपकारश्च, प्रकृत्या तस्य जायते ॥ १९५ ॥ जीवन्मृता जवन्त्येते, ये लोका अपकारिणः । योगं क्षेमं व ते यान्ति मच्छ्रद्धाप्रेमधारकाः ॥ १९६॥ उपकारैर्यथा भाव - स्तथा धर्मोऽपि वर्द्धते । वैरशान्तिस्तथा धर्म - वृद्धिः स्यादुपकारतः ॥१९७॥ दुःखिरोगिजनोद्धारं कर्तुं भवन्तु तत्पराः । उपकारोहि वीराणां, धर्म एवाऽस्ति वर्णिनाम् ॥ १९८ ॥ कुरु यात्रार्थिनां शालां दानं देह्यजयादिकम् । पशुपक्षिनृणां दुःख-नाशेन त्वं सुखी जव ॥ १९९ ॥ जजन्ति नाम मे ये च, हृदि तेषामुपग्रहः । परमार्थपरा भक्ताः, स्वार्थ जानन्ति तत्र हि ॥ २०० ॥ तत्रोन्नतिः सुखं शान्ति - जैनधर्मो भवेद्यतः । हिंसादिदोषनाशः स्या- त्सन्तोषः सर्वदेहिषु ॥ २०१ ॥ बुद्धिसत्त्वादिवृद्धिः स्या- त्सर्वं स्याच्छान्तिकारणम् । विस्तृते जैनधर्मे च सर्वे पापं विनश्यति ॥ २०२ ॥ , समाज देशयोवृद्धि-जैनधर्मस्य सेवने । जैनधर्मेऽखिला धर्माः, कुरु कर्माणि निश्चयात् ॥ २०३ ॥ पालयेद्देशनां मेवे - त्सुखं देशसमाजयोः । जैनधर्मक्रियाज्ञाने, यत्र स्तश्च ततः सुखम् ॥ २०४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८१ ) " क्रियया यत्र महोधो वर्तते च तदुन्नतिः । मद्वाधै ये च वर्तन्ते तेषां स्यान्निश्चितं सुखम् २०५ जैनधर्मक्रियाज्ञाना - त्पृथग्भूताश्च ये नराः । ते शान्तिसुखतो दूरं दुःखिनोऽन्योन्ययुद्धतः २०६ नाद्यन्तौ जैनधर्मस्य, सन्तस्ते जैनधर्मिणः । मद्रूपं जैनधर्मोऽस्ति, चिदानन्दस्वरूपकम् ॥२०७॥ सत्यानन्दात्मिक ज्ञानं, जैनधर्मस्य लक्षणम् । गुणकर्माणि वर्णाश्च सन्ति बाह्योपचारतः ॥ २०८ ॥ मां भजन्भजते धर्म, जैना जानन्ति मर्म तत् । जैनधर्मो मयि प्रोतः, प्राप्यते मम जापतः ॥ २०९ ॥ मद्रागिणां मनुष्याणां नश्यति कामवासना । दोषाः कामादयः सर्वे, नश्यन्ति मद्रतेः खलु ॥ २९०॥ मयि यस्य जवेत्प्रीति-स्तस्य नो व्यभिचारिता /नाशयेन्मैथुनादिं च, गुणस्तुष्टिः प्रकाशते ॥ २११ ॥ यत्प्रीतिर्मयि सँलग्ना, व्यभिचारो न तद्धृदि । अङ्गरूपे सुखाशा चे- तदा जाड्यं च दासता ॥ २१२॥ यदि स्यान्मम प्रेम, तत्र कामो न तिष्ठति । व्यभिचारी वलकोऽस्ति, यशुनादशुभो महान् २९३ व्यभिचारी क्षितौ दुष्टः, पुष्टो न बलशक्तिभिः । व्यभिचारी स्थिरो न स्या-द्रोगी पापी च चञ्चल: २१४ ११ For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८२) वेश्यापराङ्गनासक्ता-ये ते चर्मानुरागिणः । ये मुग्धाश्चर्मरङ्गेषु, चर्मकारा भवन्ति ते ॥ ६१५ ॥ चर्मकारास्तु मद्रूपं, ते न पश्यन्ति मन्महः । मयि रक्ताश्च ये जीवा-लभन्तेऽनन्तजीवनम् ॥२१६॥ व्यभिचारं च संहृत्य, ब्रह्मरूपे मयि स्थिताः। व्यभिचारिनरा नार्यः, सत्यं तत्प्रेम नो मयि १७ सर्वशक्तेर्भवन्ध्रष्टो-नाशयन्त्यखिलान्गुगान् । दुःखकालस्य दासः सन्, देशसंघविनाशकः ॥२१॥ अनेकनिंद्यरोगैः स,-पापे देशप्रजां क्षिपेत् । व्यभिवारं रुजागारं-विधि द्वारमधोगतेः ॥२१९॥ दुःखपरम्परादायी, व्यभिचारोऽतिकुत्सितः । व्यभिचारविचारेण, त्वऽपारं दुःखमुद्भवेत् ॥२०॥ व्यभिचारस्य न प्रेम, योगक्षेमौ ततः कुतः । ब्रह्मचर्येण देशस्य, समाजस्य तथोन्नतिः ॥ २२१ ॥ व्यभिचारेण पातः स्या-द्विश्वालो मयि नोद्भवेत् । व्यभिचारसमं पापं, शापश्चाऽपि न तत्समः ॥२२२॥ व्यभिचारी स्थिरो न स्या-म्रियते दुःखयोगतः। ब्रह्मचर्य हि मच्छक्ति-धृतार्या शक्तिरुद्भवेत् ॥२२३॥ ब्रह्मचर्यसमो धों, नोपकारसमा क्रिया । देहवीर्य च रक्ष त्व-माऽऽत्मवीर्य प्रकाशय ॥२२४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८३ ) ॥ २२५ ॥ मयि येषां च विश्वासो - ब्रह्मचर्य प्रविन्दते । सुदेहं ब्रह्मचर्येण, सुस्थानं ब्रह्मचर्यतः ब्रह्मचर्येण सत्ता स्या-द्राज्यं विद्यादिकं तथा । रूपे रङ्गे न कामः स्या - देहवीर्यस्य रक्षणम् ॥२२६॥ मम विस्मृतियोगेन, गर्वः स्याद्देहरूपयोः । मद्विस्मृत्या जवेत्कामो - मानसं न स्थिरं भवेत् २२७ जडमायां मनश्वेच्छे-न्मनो भ्राम्यति भूतवत् । शक्तिहीना च निर्बुद्धिः, सन्तति व्यजिचारिणाम् २२८ पराधीनो जवेद्दासः स्वतन्त्रः स्यात्कदापि न । व्यभिचारिजना यत्र, देवानां तत्र जन्म नो ॥ २२९ ॥ देशसंघादिनाशः स्यात्का सुखाशा भवेत्ततः । विश्वासो मयि पूर्णः स्या - व्यर्थकामो न वै ततः २३० आत्माधीनं भवेच्चित्तं देशोऽपि लजते सुखम् । सुखिनस्ते मनोवाचा - कायैर्निर्व्यभिचारिणः ॥२३१॥ राक्षसादिविवाहो य- स्तत्त्यागे सुखिनो जनाः । श्रद्धया मां च सेवन्ते, ये नरा व्यभिचारिणः ॥ २३२॥ निर्दोषिणो नविष्यन्ति, शुद्धप्रेम्णा सुखास्पदाः । शीलार्थ प्राणतन्वादि - नाशने सुखमुद्भवेत् ॥ २३३ ॥ नाऽन्याऽऽसक्ता मदाऽऽसक्ता - ये ते जक्ता जवन्ति मे । प्रेम्णा मां भजतः पापि - मनुजानुद्धराम्यहम् ॥ २३४ ॥ " For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८४) नावप्रमाणसाहाय्य, मत्कृतं विन्दते जनाः। विना रूपाभिधोपाधीन् , रमन्ते मयि ये जनाः २३५ लभन्ते ब्रह्मचर्येण, ब्रह्म तद्धाम मामकम् । नास्तिकैः सह संगेन, शीलनाशो नवेध्रुवम् ॥२६॥ नान्तर्बन्धं वह त्वं च, मयि चित्तं निवेशय । कोटिलिप्सावलोकेन, व्यभिचारी न मजनः ॥२३॥ भूत्वा मद्भजनाऽऽसक्ता जीवन्तु ब्रह्मचर्यतः । सर्वत्र मत्समं जावं, धृत्वैक्यं च प्रवर्तताम् ॥२३८॥ आत्मदानै हरन्भेदं, संघादावेकतां कुरु । मत्संघ ऐक्यमारूढो-धर्मवृद्धिं करोतु सः ॥ २३९ ॥ दत्वा च स्वार्थभोगाँस्त्वं, विधेहि योगसाधनम् । मां निर्भेदेन सेवस्व, त्यज संकुचितान्मतान् ॥२४॥ नरा नार्यः क्रियाज्ञान-वर्तन्तां स्वस्वजावतः । देशप्रजासुखे सौख्यं, तदुःखादुःखमाऽऽत्मनः॥ २४ ॥ ज्ञात्वैकीभूय वर्तन्तां, मिथ्यागर्व विधत्त न । राज्यं सत्तां धनं देह, संवैक्याय विसृज्यत ॥२४२॥ भेदवन्मतमुन्मुच्य, जैनधर्म भजस्व च । विश्वासो मयि सत्प्रीति-जैनत्वस्येतिलक्षणम् ॥२४३॥ मतक्रियादिनेदाँस्तान्, त्यज त्वं संघरागतः । विचार्य वर्तते संघ-एवं मच्छासने गुणः ॥ २४४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छेत्कालानुसार यो, मदाज्ञाराधको गुणी। संधैक्यार्थ सदा मुञ्च, क्रियावेषकदाग्रहम् ॥२४५॥ देशकालानुसारेण, लाभाऽलाभस्य बोधतः । ज्ञात्वा कालं वत्संघो, मदाज्ञाधारकश्च सः ॥२४६॥ संघायैक्यं च यत्राऽस्ति, तत्र शान्तिः सुखं महत् । विक्षेपो यदि वाऽऽगच्छे, त्तं निवार्य बली भवेत् २४७ विक्षेपाणां विनाशेन, स्वाऽऽत्मभोगप्रदानतः। मद्भक्तिं विन्दते लक्ताः, संघादिक्लेशनाशनात् ॥२८॥ मनोवचःकायधनादिभोग प्रदानतो योग उदेति नूनम् । संघादिकैक्ये स्वहितं च बुध्वा, ___ व्रजन्तु चैक्येन नराश्च नार्यः ॥ २४९ ॥ नैक्यं विना सुखं किञ्चि-न्मद्भक्तिरैक्यमेव हि । सर्वस्वार्थान्परित्यज्य, मानं त्यक्त्वैक्यमाचर ॥५०॥ यूयं तु संघ एव स्थ, म्रियध्वं संघहेतवे । संवैक्ये मां च पश्यन्तु, सर्वशक्तेरिदं रहः ॥ ५१ ॥ यत्रैकता स्वर्ग उदेति तत्र, यत्राऽस्ति नैक्यं नरकोऽस्ति तत्र । यत्रैकता तत्र विशालशक्ति भेंदो यत स्तत्र विशालखेदः ॥ २५२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८६ ) संधैक्ये वर्द्धते धर्मो-भेदेनाऽधर्म उद्भवेत् । अभेदैरैक्य वृद्धिः स्या-दृद्धिर्विद्या बलं मतिः ॥ २५३ ॥ सर्वप्रजासु यत्रैक्यं, तत्रैकोऽस्मि विराडहम् । ऐक्यं सेवस्त्र मत्प्रेम्णा, जेदं हानिकृतं त्यज ॥ २५४ ॥ उच्चनीचौ न वा ज्ञेयौ, नृजातौ लिङ्गभेदतः । आत्मभावं समादाय, निश्चयेनैक्यमाचर ॥ २५५ ॥ न नामरूपेषु विमोहनीयं, संधैकताया इदमस्ति गुह्यम् । रूपाभिधामोहनिवारणं च, ॥ २५६ ॥ सुदर्शने धारय मत्सुशिक्षाम् नामोपाधिभिदं त्यक्त्वा, वियाऽऽत्मानं तु सत्तया । सर्वाऽऽत्मा सत्ता वेको -वेहि व्यापकभावतः २५७ विद्धि सर्वान्नस्तुल्या - नामरूपे न मानय । नामरूपेषु नो खिन्द, खेदं निस्सारयैक्यतः ॥ २५८ ॥ मोहं विस्मृत्य मलीना, एकभावेन मां वह । ऐक्ये धर्मस्त्वनिन्नोऽस्ति, विद्ध्याऽऽत्मनि सुदर्शनं २५९ सर्वाssस्मान श्रमतुल्याः, कश्चिद्भेदो न तत्र हि । आत्मदृष्ट्या वसैक्ये त्वं लभन्तां मनुजाः सुखम् २६० कुरु कर्मैक्यतः सर्व, मन्तर्निष्कामवृत्तिना । संघस्यैक्योपयोगं तु, लोका दुष्टं विधत्त न ॥२६१॥ " For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८७) स्वातन्त्र्यमस्ति संधैक्ये, विनैक्यं परतन्त्रता, महाजनस्य नीतिः सा, सैक्यरातिस्तु रक्षति ॥२६२॥ मताचारविचाराभ्यां, वर्तन्ते स्वेच्छया नराः । यस्य येच्छा स तां कुर्य्या-तत्र क्लेशं न वाऽऽचर २६३ वर्तन्तां स्वतया लोका-ममाऽभेदे शुचः कुतः। यत्कालेनैक्ययोग्यं य-च्छिरोदानेन तत्कुरु ॥२६॥ दुर्जेदाँस्त्यज मत्प्रेम्णा, संघेक्येन च मां भज। जीवनं स्याञ्च संधैक्ये, राज्यादिरपि रक्ष्यते ॥२६॥ रागतो द्वेषतो नाऽपि, पक्षं कुरुत कोविदाः !!। पक्षापदविनाशाय, चैक्यं कुरुत परिमताः! ॥२६६॥ एकोऽन्यस्य सहायः सन्, मद्भक्तः सच कथ्यते । हृदि मम परा भक्तिः, संघद्रोहं च नो कुरु ॥२६७ ॥ वर्द्धस्वैकोऽन्यसाहाय्यै-युट्यस्व पुष्टशत्रुभिः । कलौ स्वातन्त्र्यमैक्येन, चानैक्ये परतन्त्रता ॥२६॥ पुर्गुणानां च संहारो-जैनधर्मस्य सम्मतः । आत्मप्रीतिं च जैनेषु, कुरु संघस्य रक्षणम् ॥२६९॥ जीवानाऽऽत्मसमान्विद्धि, वृत्तिं नाशय भैदिकीम् । न्यायात् पश्चान्न गंतव्यं, भक्तानां खार्पणं कुरु २७० संघं भोजय भावेन, चानन्दं वह सेवया । साधर्मिषु परं प्रेम, दीनेषु परमा दया ॥ २७१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८८) आचार्यसंघसाधूनां, मानं प्रेम परं मयि । कुरु साधर्मिणां सेवा-मीाद्वेषौ न धारय ॥२७२॥ यात कोट्यपमानेऽपि, मानं साधर्मितो न चेत् । सहस्व तदपि स्वान्तः, संघनत्तौ मनः कुरु २७३ विचार्य देशकासाभ्यां, विद्धि संघं तु मत्समम् । संघं पूजय सेवस्व, क्षणात्कर्माणि संहर ॥२७॥ संघरक्षणवृष्ट्यर्थ, स्वसाम्राज्यार्पणं कुरु । संघसेवैव मत्सेवा, पुण्यं फलति तत्कृतौ ॥ २७५ ॥ कालानुसारतः संघो-नीती रचयते शुभाः। राज्यनीतिसमा संघ-नीति स्तां वह कालतः २७६ क्रियाकालानुसारेण, त्यागिनां परिवर्तते । तुल्यान्वहेद्गुणान्नीत्या, क्रियायां परिवर्तनम् २७१ संघाधीनं हि जानन्ति, प्रवीणाः परिवर्तनम् । सँस्कुर्वन्ति महासंघा-जैनानां वर्द्धते गुणः ॥२८॥ स्वातन्त्र्यं स्याच जैनानां, वर्द्धन्ते बलबुद्धयः । निश्चयव्यवहाराभ्यां, बलिसंघो हि वर्द्धते ॥७९॥ मच्छ्रद्धया विना नाऽस्ति, गति नास्ति तथा मतिः। मच्छ्रद्धया विना नाऽस्ति, योगो वा सुखमुत्तमम् २७० मां चित्ते न्यस्य यः कुर्य्या-संघो भक्त्याऽनुते सुखम् । संघानामपमानेन, स्वपमानं ध्रुवं मम ॥२८१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यो द्रुह्येन्मम संघेभ्यो-दुर्गतायुद्भवेत्स च । गृहस्थत्यागिनां भक्तिः, संघशक्तिं तनोति च ॥२८२॥ जक्ता ये सर्ववर्णानां, नेदस्तत्र न कश्चन । संघो हि सर्ववर्णानां, महाँस्तं नज तन्मयः ॥२८३॥ भुक्त्यादिव्यवहाराणां, प्रेम्णा निभेदमाचर । सर्वसंघस्य यो मुख्यः, सम्मानं तस्य मत्तमम् ॥२८४|| गुणैरग्रेसरः कार्यो-मा मन्दं कुरु नायकम् । गुणवान्सर्वतः श्रेष्ठो-यश्च सर्वकलानिधिः ॥२८५ ॥ न पक्षाऽपक्षतां धेहि, तादृगग्रेसरं कुरु । नीति सम्मिल्य कुर्वन्तु, संघा ये देशखंडयोः॥२८६॥ व्यापारंव्यवहारं च, प्रवर्तयत शर्मदम् । मम भक्तौ न नेदोऽस्ति, सर्वे तुल्या हि मानवाः २०७ संधैक्यं विश्वलोकानां, तत्रैकः सत्तयाऽस्म्यहम् । विधास्यन्ति तथाऽप्स्यन्ति, ज्ञात्वा चित्ते शुनं वह २८८ सुखं स्यात्संघसेवानिः, सर्व दुःखं विनश्यति । सेवस्व जीवतो भक्त्या, गुणान्पश्य गुणान् वह २८९ न पश्य दोषलेशं च, मनःक्लेशानिवारय । कुर्वऽल्पं त्यज निन्दां च, गुणान्दृष्ट्वा गुणान्वह २९० गुणानुरागिमद्भक्त-आसक्तो मम कीर्तने । गुणाकरो महासंघो-मदाज्ञा यश्च रक्षति ॥ २९१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९० ) विचर तीर्थसेवाये, महासंघ विलोकय । संघयात्रां प्रकुर्वतु, सेवन्तां नोजनादितः ॥२९२ ॥ कुरु संग सुसाधूनां, तरन्तु भववारिधिम् । जैनधर्मिविनाशाय, परधर्मी यतेत चेत् ॥ २९३ ॥ धर्मयुद्धंतदा कार्य, शस्त्राद्यैर्बलतस्तथा । कुरु व्यर्थ नवा युद्धं, ऋद्धो न स्या अकारणम् २९४ एकीभूय सहख त्वं, शिक्षणानि लभस्व च । समर्पयत चाऽत्मानं, न मोहं संशयं कुरु ॥ २९५ ॥ ये संकीर्णविचारा हि, संघाऽधोगतिकारकाः । स्वातन्त्र्यस्य च हर्तारो-दूरं वसत तत्ततः ॥ २९६ ॥ नव्यजीवनवोढारो-विशाखाऽऽचारबुद्धयः । विश्वस्मिन्व्यापका ये च, तानाचरत हेजनाः॥२९॥ जीर्णाः संकीर्णतां प्राप्ता- मलीनाः शक्तिनाशकाः । अधाः पातकर्तार-स्तानाचारान्विमुञ्चत ॥२९८॥ शिक्षणं जैनधर्मस्य, खभन्तां प्रेमतो जनाः । याच संघेषु मे भक्ति-नीतिशक्तिं तनोति सा॥२९९॥ यत्र संघे ममाज्ञाऽस्ति, कल्याणं तत्र वर्तते । यत्र संघेऽस्ति मे गान-मनुभूतिस्तथा सुखम्॥३०॥ यत्संघानां मयि प्रेम, योगदमौ ततो ध्रुवम् । कल्याणकोत्सवो यत्र, तत्र दुःखं न जायते ॥३०१॥ For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९१) या वैरं यतश्चास्ति, दैवकोपस्तु तत्र हि । मत्संघास्तु ततो दूर, भूत्वा सौख्यानि विन्दते ॥३०२॥ प्रकाशयोग्यकर्मणि, निष्कामेन प्रकाशय । गुप्तयोग्यानि कर्माणि, गुप्तत्वेन विधेहि तत् ॥३०३॥ प्रमाणिकतया कर्म, कुर्वन्सत्यं तनोति च । धर्मी कदापि दुःखी स्या-दन्ते सुखमवाप्स्यति ३०४ प्रतिगृहं पिता माता, गुरुकुलं च शिक्षणे । बालानां शिक्षणं गेहे, दीयतां हेनराः स्त्रियः॥३०५॥ अध्यापनं योग्यतया शिशूनां, विश्वासनीयं मम शिक्षणेषु । देहालये देवसमान्स्वबाला न्सेवस्व तत्तच्छुभशिक्षणैस्त्वम् ॥३०६ ।। भक्तमातुः पितुः पुत्रो-मज्ज्ञानं सजते शुनम् । माता पिता भवेद्भक्तः, सन्तानोऽपि शुनो भवेत्३०७ नीतिवन्मातृपितृणां, सन्तानो नीतिवान्नवेत् । गृहे गृहे सुताः कार्या, मातापित्रनुसारिणः ॥३८॥ बालकेभ्यो नरा नार्यो-विद्यादानं प्रदीयताम् । दूरं नास्तिकता कार्या, शूराः कार्याश्च बालकाः३०९ मातापित्रोर्हि संस्कारा-उत्तरन्ति च बालके । मातापितृसमो बालो-धर्मवान्वाप्यधर्मवान् ॥३१०॥ For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) प्रख्याता बालके तात- गुरुमात्रनुसारिता । माता शिक्षकतुल्याऽस्ति, पाठयन्ती सुतान्गृहे ३११ बाल्ये विहितसँस्कारा - स्तादृशः सारउद्भवेत् । पितरो भाविनो बालाः, शिशुरेव महद्धनम् ॥३१२॥ बालो भूपस्तथा देवो - बालकान्नज शिक्षणैः । देशोदयोधनं बालो - नानाजाषां च शिक्षय ॥ ३९३ ॥ वित्तचित्तवपुशक्ति-बले व्याप्नोति वेगतः । गुणिपुत्रास्ततः स्वर्ग - देशद्रव्याणि बालकाः ॥ ३१४॥ बालसंघादये याते, दुष्कृत्यं याति दूरतः । बालकान्कुरु वीराँस्त्वं, संगृहाण स्वतन्त्रताम् ॥३१५॥ उत्सर्गेणोदये धर्म - श्रापद्धर्मस्तु सङ्कटे । धर्मा उन्नतिकर्माणि जायते शर्म तत्कृतौ ॥३१६॥ नीतिज्ञानं च बालानां कर्मज्ञानं च शिक्षय । ज्ञानं च सर्वधर्माणां तेन सच्छक्तिरुद्भवेत् ॥३१७॥ यच्छक्तिस्तस्य राज्यं स्यात्साहाय्यं कुरु शिक्षणे । जैनधर्मस्य रक्षायां प्राणार्पणसुशिक्षणम् ॥ ३९८ ॥ न भयैः परतन्त्रः स्यात्क्रियाज्ञाने स्वतन्त्रता । प्राणान्ते न त्यजेन्त्यायं, स्वधर्मव्रतपालकः ॥ ३९९ ॥ दुष्टैः पराजितो न स्या - देवं बालो यतो भवेत् । धर्मराज्यं ततो विद्या, - सुखं सम्यक्स्वतन्त्रता ३२० " > " For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ९३ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुरु देवसमान्बाला-वृणु निर्भिस्वतन्त्रताम् । बलं विद्याऽथ साम्राज्यं, जैनधर्मस्य जायते ॥ ३२९॥ भोगः शक्तिर्दया दानं, बालसंघे निरोगिता । दुर्गुणव्यसनाद्दूरं, तत्र शक्तिः प्रजायते ॥ ३२२ ॥ बाले स्वतन्त्रता प्रेम, विद्यारोग्यबलानि च । सर्वनीतिकलास्ताभि-मिथ्यागर्यो न जायते ॥ ३२३ ॥ स्थित्वा गुरुकुले विद्यां, विद्यार्थी सेवयाऽऽप्नुयात् । धर्माचार्ये विनीतः स्यात्कदाचिन्न वदेन्मृषा ॥ ३२४ ॥ लभेत विनयाद्विद्यां, धर्माचार्य च सेवयेत् । ज्ञापयेद्गुरुदेवस्तं, मानवानां शुभाः क्रियाः ॥ ३२५॥ जैनधर्मस्य वेदाश्च, रहस्यं ज्ञापयेत्स्फुटम् । बालिका : शिक्षयेदेवं, विनयं प्रेमसेवनम् ॥ ३२६ ॥ लीपिभाषाक्रियाज्ञानं, नानाज्ञानं व शिक्षयेत् । शिक्षयेत्तं स्मरेद्याव - द्विद्यार्थी जायते महान् ॥३२७|| विद्यार्थिगुरुसाहाय्या-जायते सत्यमुन्नतिः पूज्योपकारको देवो-धर्माचार्योऽस्ति शीर्षवत् ॥३२८॥ हस्तौ बध्वा प्रणम्योऽसों, ध्यानं धर्मगुरोः कुरु । पठ सर्व कलाः प्रेम्णा, गुरुतः स्वानुभूतितः ॥ ३२९ ॥ विद्धि गुरुकुले वासं, बालानामष्टवर्षतः । वसेयुर्ब्रह्मचर्येण, गुर्वीपार्श्वे च बालिकाः ॥ ३३० ॥ For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९४ ) योग्यावस्थासु लग्नं स्या - त्सत्यं प्रेम यतो भवेत् । ॥ ३३३ ॥ यत्राऽऽत्मा गुणकर्मभ्या - मेको लग्नं तदुच्यते ॥३३१ ॥ एकता यत्र चान्योन्यं, तल्लग्नं प्रणयात्मकम् । गुणान्विना यतो लग्नं, विघ्नास्तत्र भवन्ति हि ॥ ३३३ ॥ नाधर्म्यकामतो लग्न- मात्मैक्ये लग्नमुत्तमम् | शुद्धप्रेम यतश्चाऽस्ति, तल्लग्नमवधारय लग्नं गुणं विना हेयं, सत्सख्ये लग्नमुत्तमम् । प्रीतिं विना दहेच्चित्तं नेच्छालग्नं ततः कथम् ॥ ३३४॥ पत्नी दासी पतिर्दास - औदासीन्यं ततो द्वयोः । मयि यत्र न विश्वासः, का लग्नाशा ततो जवेत् ३३५ देहलग्नं पशोस्तुल्यं, मेलो न गुणकर्मणाम् । नोन्नतिः पशुलग्नेन, शुद्धप्रीत्या सुखं हितत् ॥ ३३६ ॥ स्वार्थः परस्परं यत्र, न यत्र परमार्थता | यत्राऽधार्मिक कामाशा, तत्र पत्नी न वा पतिः ३३७ पृथक् कीर्त्यभिलाषः स्या- दपमानं सहेत न । भवेदन्योन्यतो निन्दा, तत्र लग्नं न शोजते ॥ ३३८ ॥ परस्परं मनोनेदः, खेदः क्लेशस्तथा भवेत् । नान्योन्येषु मिलच्चित्तं तत्र किं लग्नमुत्तमम् ॥ ३३९॥ व्यभिचारो यतो लग्ने, सुखिनो न नरास्ततः । गुणकर्म विना पुत्रा, जायन्ते दासदुःखिनः ॥ ३४० ॥ For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९५ ) 3 नीरोगी न तयोर्देहो - बलं बुद्धिर्न वा यतः । धर्मप्रेम न वा नीति- स्तत्र का लग्नयोग्यता ॥ ३४९ ॥ पतिधर्मो भवेत्पत्यौ, पत्नीषु गुणकर्मणी । संस्कारात्सहजादैक्यं तत्र प्रणययोग्यता ॥ ३४२ ॥ घनाः पतिव्रताधर्माः, शुद्धप्रेम तदादिकम् | पतिचित्ताऽनुसारेण, पत्युर्या सहचारिणी ॥ ३४३ ॥ नाऽन्यपुंसा स्मरेदजोगं, पत्युर्या सहचारिणी । पत्य प्रेम शुभा दृष्टि - धर्मार्थ व्यक्तिसर्जनम् ॥ ३४४॥ या भूत्वा पतिरूपिणी खमनसः कृत्वा स्वतां दूरतः, श्रीपत्युर्गुण सौष्ठवं ह्यभिलषे - सैवार्यनारी जवेत् । मर्यादां प्रतिपालयेन्निजपतौ, नारोपयेद् दूषणं, निन्देन्नापि पतिं कदापि दयिता, पत्यौ मनो वेशयेत् ३४ पत्या सार्द्ध या सुखे वाऽस्ति दुःखे, घोरापत्तौ स्वाऽपमानं सहेत । पत्नी सत्यं वर्तते गेहदेवी, ॥ ३४६ ॥ पत्या सार्द्धं विग्रहं नाऽऽचरन्ती सत्कुर्वन्ती पतिं प्रीत्या, वञ्चयन्ती न वा पतिम् । बालाश्च बालिका रक्षेत्कुटुम्बादिप्रपालि नी ॥३४७॥ सन्तुष्य संस्मरेद्या मां, यथाऽऽयं व्ययमाचरेत् । मनोवाक्कायतो दुःखं, नार्पयेत्क्षुधमाहरेत् ॥ ३४८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९६ ) वञ्च्या न परपुंसा स्याच्छीलं रक्षेत्सुखप्रदम् । न मुह्येश्वर्मरङ्गेन, शिक्षां मे या च मानयेत् ॥ ३४९ ॥ कर्मणा यो मिलेगर्ता, तत्रैव प्रीतिमाचरेत् । पत्यो धर्मेच्छया रागं, त्यागं चापि दिवर्द्धयेत् ३५० वैराग्यं प्रतिरागं च धर्म्यकामा समाचरेत् । मिथ्या कटु च न ब्रूया - दुपानम्नान् सहेत सा ३५१ पत्युश्चिन्तां च जानीया - होधयेत्तत्सहायकृत् । पत्याऽऽत्मनाचरेत्प्रेम, पतिसौख्यं च कामयेत् ३५२ गोपयेत्पतिमर्माणि, तद्विश्वासं न खण्डयेत् । श्वश्रूश्वशुरसन्मानं, गुरुसाधुगुणान्रटेत् ॥ ३५३ ॥ मिथ्याग्रहाँस्त्यजेत्सर्वान्, गम्भीरा मां जजेत्परम् । विस्मरेन्न सुखे दुःखे, चाभ्यस्येदपि साम्यतः ॥३५४॥ न त्यजेज्जैनमर्यादां, सत्यासत्यं विचारयेत् । प्राणान्तेऽपि त्यजेन्नैव, धर्मे कुर्याद्गृहक्रियाः ॥ ३५५॥ सरागा प्रतिवेश्मिन्यां, परनिन्दां न वाऽऽचरेत् । गुणार्जवे कृतप्रीति - क्तिर्मूर्तिमती यथा ॥ ३५६ ॥ बालकं पालयेत्प्रेम्णा, विद्यां नीतिं च शिक्षयेत् । सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयाद्धर्मे पातिव्रते दृढा ॥३५७॥ वैद्यकज्ञौषधं कुर्य्याद्, गृहे सद्वस्तु पूरयेत् । विद्याद्गृहस्थितिं सर्वा, समाना सुखदुःखयोः ॥ ३५८ ॥ - For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९७) उदारं स्वमनः कुर्या-त्पतितुष्ट्या च शान्तिलाक् मनो वाणी च संयच्छे-नोद्धता स्वेच्छया चलेत्३५१ दीर्घदृष्ट्या चरेत्कर्म, चाऽऽत्मसौन्दर्य मर्थयेत् । दध्याद्गुणमहाशोभां, क्लेशं कुर्य्यान्न कोपिता ॥३६॥ पालयन्ती स्वयं बालं, सेवयेत्पशुपक्षिणः। बालवृद्धरुजातश्चि, यथाशक्ति सुसेवयेत् ॥ ३६१ ॥ स्यात्कदाचित्पतिः क्रुड-स्तदा ब्रूयान्न किंचन । उचितावसरं ज्ञात्वा, सर्व स्पष्टं निवेदयेत् ॥ ३६५ ॥ स्वपत्युर्मनसः शङ्का, छिन्दन्ती खेदवर्जिता। कालोचितं प्रवतेत, पतिव्रतपरायणा ॥३६३ ॥ प्राघूर्णातिथिसन्मानं, व्ययं योग्यं करोति या। नोदासीना नवन्ती या, दुःखेषु मयि विश्वसेत् ३६४. सुपात्रोचितदानानि, कुर्वन्ती दुष्टतां विना । रक्षेद्ब्रह्मातिमासेषु, भोगे नो मोहयेन्मनः ॥३६॥ प्रजोत्पत्तिकृते जोगो-धर्येण नियमेन च । न भ्रष्टा जैनधर्मात्स्या-दपि नष्टे धनादिके ॥३६६॥ पाखण्डिना न च वान्ता, न चष्टा मम भक्तितः । शिक्षयित्वा प्रकुर्य्याच्च, सन्तानाजैनधर्मिणः॥३६७॥ मयि श्रद्धा मयि प्रेम, दुःखिजीवे दयालुता। निवृत्ती मां च गायन्ती, मज्ज्ञानं सत्प्रवृत्तिषु ॥३६८॥ For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९८ ) कुटुम्बं पालयेत्प्रीत्या, पूजयेत्सेवयेद्गुरून् । जैनवृद्धौ प्रकुर्य्याच, विद्यातनुधनव्ययम् ॥ ३६९ ॥ प्रामाणिक प्रवर्तेत, तस्याः स्याद्धृदि मन्मतिः। मदाज्ञया रतिं कुर्य्या-त्तस्याः स्यादुत्तमा गतिः ३१० सुलनः पतिभावो न, यदि सत्यं विचारयेत् । योग्यः स्याद्गुणकर्मभ्यां, निर्दोषी च निरोगवान् ३७१ आत्मभोगश्च निष्कामो-धृतिमन्नाम चेतसि । नारी परिणयेसैव, यो विद्याल्लग्नयोग्यताम् ॥ ३७२॥ प्रतिज्ञापालनं कुर्य्या-नान्धः स्यान्नामरूपयोः। अन्तः स्याच्छुनरागश्च, सेवाभक्तिविरागिता ॥३३॥ स्वार्पणं जैनसेवायां, मदाज्ञां शिरसा वहेत् । विद्यात्सर्वकलाशिक्षा, बुद्धिं मानं च सात्त्विकम् ३७४ कालोचितक्रियावेत्ता, कर्मयोगी शुनप्रदः। धीरो वीरोऽथ गम्भीरो-बलवान्पौरुषैर्गुणैः, ॥३७५॥ जानीयाद्वस्त्रवत्काय-क्षयादिरोगवान्न यः । गुणी वाकायचित्तै यो-लग्नयोग्यः स वै पतिः॥३७६॥ समाजसंघसेवाया-मानन्दी क्लेशवर्जितः । उद्योगी साहसी लक्ष्यी, यश्चित्ते सन्ति साधवः॥३७७॥ सहेत कोटिदुःखानि, मच्छ्रद्धामन्तरे वहेत् । उदारो ज्ञानवान्प्रेमी, सात्विकाहारभोजनः ॥३८॥ For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्नी शूद्रीं न जानीया-सर्वशास्त्रं पठछिया । जैनधर्मान्न वै श्ये-देशवेषौ नच त्यजेत् ॥३७९॥ मानयद्देशवेषौ च, यथाऽऽयं व्ययमाचरेत् । कुर्यादवश्यकर्माणि, सत्याचारं च पालयेत् ॥३८॥ मात्रादिगुरुनक्तिं च, कुर्वन्शक्ति विकाशयेत् । पत्न्युपरि न च क्रुष्ट्या-पत्न्यादि प्रतिबोधयेत्॥३८॥ नेच्छेद्भोगं परस्त्रीषु, भोगे रोगं विलोकयेत् । जावद्रव्यं चरेद्ब्रह्म, रक्षेद्वीर्यादिकं तथा ॥३८२॥ विश्वासी स्याद्गुरौ देवे, वर्तेत पौरुषैर्गुणैः। पतिरेवं च पत्नी च, तत्र जैनोन्नतिध्रुवम् ॥ ३८३ ॥ मदर्थ स्वार्पणं का-ज्जैनधर्मप्रचारकः ।. देहान्महान्तमात्मानं,वेत्ति पतिगुणाकरः ॥ ३८४ ॥ देहादिं साधनं वेत्ति, चाऽऽत्मानं वेत्ति साधकम् । पतिर्वतेत तज्ज्ञावा, चान्ते तस्याऽस्ति मे गतिः॥३८५॥ पत्न्यादिबालवृन्दानां, पोषकः पालकस्तथा । दानाऽऽदाने व सोढा स्या-त्कुर्यायुद्धे पराक्रमम३८६ शत्रुषु विजयं कुर्व-जैनरीतिं च पालयेत् । समग्रलीपिभाषाज्ञो-निलेपश्च गृहस्थितौ ॥ ३८७ ॥ भुक्त्याचारगृहावास-प्रवृत्तौ योग्यवेदकः। गर्जाधानादिसँस्कारं, कारयन्कुरुते पुनः ॥३८८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१...) धर्मयुद्धे चलेदग्रे, नीत्या मोहेन न स्खलेत् । सर्वयुक्त्या च शस्त्रायै-युष्येन्नो पतितोलवेत्॥३८९॥ नोच्चनीचौ गुणैः कायः, संयमे धारयेन्मनः । भ्रांतोऽपि न त्यजेद्धर्म, योग्यं कर्म सदाऽऽचरेत् ॥३९॥ सत्पात्रे वितरेदानं, गुरुवाणी निशामयेत् । गुरुबोधाद्विदन्सर्वे, साधुवृन्दञ्च मानयेत् ॥ ३९१ ॥ स्वार्थेषु नो नवेदन्धो-दुर्गुणव्यसनं विना । गृहे क्लेशं न वा कुर्या-दतिलोभं न वा चरेत् ॥३९२॥ रागिद्वेषिनिदं विद्या-नापत्तौ खेदयेन्मनः । कुर्य्यात्सजनसंगं च, योग्याऽयोग्यं विचारयेत्॥३९३॥ व्यापारविद्यादिककर्म कुर्व निजाऽधिकारेण च धर्म्यकर्म । सम्वेदयेचाऽखिलजातिनीति, प्रेम्णा मदाज्ञामपि पालयेद्यः ॥३९४ ॥ प्रजादिराज्यादिककर्मकुर्व प्रेम्णा परस्याऽपि सहायकर्ता । देशस्य राज्यस्य च पालने यः, कर्म प्रकुर्वन्गुणिरागवान्स्यात् ॥३९५ ॥ घरस्थावरतीर्थानां, देवः स्याच्छुकसेवया । दानं शीलं तपोभावा-करोति शुद्धभावतः ॥३९६॥ For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०१) संघार्पणफलं सर्व, निष्काममुपकारिका। निराकारं च साकारं, प्रभुज्ञात्वा प्रियं घरेत् ॥३९॥ क्षेत्रकालाऽनुसारेण, विजानीयाच्छुनाऽशुभम् । सन्तानान् सबलान्कुर्या-द्विनयादिकसद्गुणैः॥३९॥ यत्रैवं दम्पती तत्र, स्वर्गश्चाऽस्ति महो मम । रागत्यागौ गृहाऽऽवासे, चान्ते सत्यं विरागिता॥३९९॥ अन्योऽन्यं प्रकृतेः साम्यं, लग्नं गुणत्रयाऽऽत्मिकम् । दम्पत्यो वनं सौख्ये, विना सत्प्रेम मुर्गतिः॥४०॥ यदि ज्ञानं गृहाऽऽवासे, भक्तिस्तर्हि सुखं स्वकम् । कविनोऽपि गृहाऽवासः, सरलस्त्वाऽऽत्मभोगतः॥४०॥ सेवाऽऽतिथ्याऽऽत्मभोगाश्च, गृहाऽवासे नवन्ति चेत् । अन्योन्यप्रकृतेर्मेल-स्तदाऽणुव्रतजक्तयः ॥ ४०२.॥ गृहस्थकर्मयोगी यो-निर्लेपश्च गुणान्वितः। आजीविकादिवृत्त्यर्थ, प्रामाण्यं जीवनं वहेत् ॥४०३॥ कामादिकं यदा शाम्ये-सदा निर्भीः स्वतन्त्रता । गहावासे निजाऽत्मानं, देहाऽध्यासं विना वहेत् ४०४ वर्णास्ते गुणकर्मभ्यां, निर्मोहो नामरूपयोः । लीप्साभये विना सत्यं, भावय व्यवहारतः ॥४.५॥ सत्यं वर्द्धत वैराग्यं, दम्पत्योर्जीवनं यतः। मनोरागोभवेच्छ्रद्धो-रागोऽन्तर्हदि चोद्भवेत् ॥१०६॥ For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) धर्मस्तत्र यतः कर्म, निश्चयव्यवहारतः । प्रवृत्ती धर्ममाज्ञाय, निवृत्तौ शर्म वेदयेत् ॥ ४० ॥ दम्पत्यो वनं धर्मे, वहेत्सत्सुखदुःखयोः । तुष्टिरन्तर्बहीराग-रोषौ प्राप्तदशासुन ॥१८॥ गार्हस्थ्यधर्ममैक्येन, कुर्वन्ती सद्विचारतः। गृहस्थजीवनं धर्म, कुर्याच्चाऽधर्ममुत्सृजेत् ॥ ४०९ ॥ मां स्मरेत्सर्वकृत्येषु, सर्वत्र मां विलोकयेत् । सर्वान्ते मां च पश्येद्यो-जानीयादगुह्यमान्तरम् ४१० दाम्पत्यजीवनं तेषां, ये मद्भक्ता नराः स्त्रियः। मद्भक्तिबलतोयान्ति, तेऽनन्तमाऽऽत्मजीवनम् ॥४११॥ वैराग्यं चेद्गृहावाले, तदा त्यागः शुभो नवेत् । रागस्याऽपेक्षयात्यागं,मदनक्तिं विन्दते शुजाम्॥४१२॥ रागत्यागौ च चित्तस्य, तज्जागृहि सुदर्शने !!। अस्त्यौपचारिकत्यागो-रागत्यागौ न चाऽऽत्मसु ४१३ शुभाशुनो मनोभावौ, ततश्चाऽऽत्मा स्वयं पृथक् । शुनाशुभविचारेभ्यो-निन्नाऽऽत्मधर्मकृदभव ॥४१४॥ वर्ततां गुणकर्मभ्या-मनोन्यस्य ममान्तिके । निरासत्या भवेच्छुद्धो-जुद्धोऽर्हन्विष्णुरीश्वरः॥४१५॥ पुत्रीपुत्रान्कुरु श्रेष्ठा-न्गृहसूत्रं तु नीतिभिः । गुणिनो यदि सन्ताना-राज्यं संघश्च शोभते ॥४१६॥ For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०३ ) ॥ ४१७ ॥ " उपकारो हि सन्ताने, कर्तव्यो मातृपितृभिः । मातरं पितरं विद्धि, तीर्थवत्तौ प्रपूजय मद्भक्तः प्रभवेद्यः स - मातापित्रुपकारवित् । न धर्मी न गुरोर्जको मातापित्रुपकारहा ॥ ४९८ ॥ मातापित्रोर्मिले दाशी - र्यस्य तस्य जयं नहि । पित्रोर्दुःखप्रदो दुःखी, सुखी स्याच्च सुखप्रदः ॥ ४९९ ॥ दुष्टो मूर्खो न जानाति, मातापित्रोरुपग्रहम् । मातापितृविनाशी यो- दुर्गतिर्दुर्मतिर्भवेत् ॥ ४२० ।। पितरौ सेवते यश्च स भक्तः परमो मतः । प्रातरुत्थाय वन्दस्व, धीः सुखं येन वर्द्धते ॥ ४२१ ॥ मातापितृषु मां पश्य, तद्दोषान्मा विचिन्तय । मातापित्रोश्च सोधं, वह तौ मत्समौ भज ॥४२२ ॥ गुरोर्ज्ञानी स यो वेत्ति, मातापित्रोरुपग्रहम् । मिथो जीवोपकारोऽस्ति, वर्ततां तद्विचारतः ॥४२३॥ अपारं दुःखमाप्नोति, योऽपकर्तोपकारिणः । नामरूपाद्युपाधीच, विस्मरेन्न च गर्वकृत् ॥ ४२४ ॥ सर्वे वारा हि तत्पर्व, कोटिकल्याणमाप्नुयात् । नित्यनैमित्तिकावश्य-कर्माण्याकस्मिकानि यत् ४२५ कुर्वस्तद्रौणमुरव्याभ्या - मामराज्यं स चाश्नुते । इन्द्रियाण्यश्वतुल्यानि, दाम्येयुर्हि नराः स्त्रियः ४२६ For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०४ ) वशीकृत्य मनस्तिष्ठे-त्सहेताऽपि रुजादिकम् । एकीभूय गृहे तिष्ठ, जवाऽन्यस्य गुणग्रही ॥४२७ ॥ नोदासीना भवाऽऽपत्तौ, विश्वसीहि मयि स्थिरम् । हर्ष वह मयि प्रीत्या, मोहजालं निराकुरु ॥ ४२८ ॥ यात्मोन्नतिकृते सर्व, ज्ञात्वा विश्वासमाचर । समः सर्वास्ववस्थासु, वर्तस्वाऽऽनन्दतः सुखी ॥४२९॥ दुःखदृश्यानि शिक्षार्थ, ज्ञात्वा स्या न मनोवशः। दोषं कुत्राऽपि नो देहि, सर्व शिक्षय वस्तुतः॥४३०॥ एकोऽन्यस्मिन्कुरु प्रीति-मेकोऽन्यक्षेममाचर । धर्मनेदान्न दुष्टास्युः, पुष्टाःस्युर्गुणरागतः ॥ ४३१॥ धर्मनिञ्चित्तनेदेन, स्वाऽऽत्मानेदेन वर्त्तताम् । यात्मनिन्नं जडं विद्धि, धर्मः सत्यस्ततो ध्रुवम् ४३२ दृश्यते यत्र यत्राऽत्मा, मत्समं प्रेम तत्स्थले । आत्मन्येव रसःशुद्धो-यो विन्ते शिवमश्नुते ॥४३३।। परब्रह्म ततो यत्र, गृहाऽऽवासे नच नमः । मद्भक्ता ईशा यत्र, तत्र स्वगोऽथ सिद्धयः ॥३४॥ बलं धीराऽऽत्मविश्वासो-यत्र तत्र सुखं ध्रुवम् । न सुखं सत्तया लक्ष्म्या, न वा देशादिमोहतः ४३५ असन्तोषी महान्दुःखी, क्रूरो नावोऽस्ति यद्धृदि। लक्ष्मीः सत्ता भवेन्नो वा, परं सन्तोषिणां सुखम् ४३६ For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०५ ) अधिकारो गृहस्थानां, देशादीनां च रक्षणे । लक्ष्मी सत्तां च यो रक्षे-त्सुखी स्याद्व्यवहारतः॥४३७॥ दुष्टैयों दण्ड्यते नैव, भ्रान्त्या ब्रान्तो न वा नवेत् । धूर्तेश्च वञ्च्यते नैव, निर्मायी सरलैः सह ॥ ४३८॥ समाजदेशकृत्यानि, कुर्वन्सत्यं च संवदेत् । सर्वैः सार्द्धमनेदेन, वर्तते नच पापकृत् ॥ ४३९ ॥ एवं यत्र नरा नार्यो-वृद्धा युवकुमारकाः। वर्त्तते मङ्गलं तत्र, स्वातन्त्र्यं निर्भयं मनः ॥ ४४० ॥ आत्मनोगो भवेत्तत्र, न पक्षाऽपक्षता भवेत् । औदार्येण गृहावासी, कृपणो न बहुव्ययी॥ ४४१ ॥ वृद्धाज्ञा मन्यते गेहे, प्राणानैक्यार्थमर्पयेत् । भेदः स्वार्थो यतो न स्या-तत्र सौख्यनृतं गृहम् ४४२ अभियोगशमौ यत्र, मर्यादा लघुवृद्धयोः । न्यायलाजोऽस्ति सर्वेषां, क्लेशो नच कुटुम्बिनाम् ४४३ स्यात्क्षमापनमन्योऽन्यं, नोन्मादो नच शत्रुता । सत्ताधनतनुत्यागै-रैक्यं शान्तिः सुखं भवेत् ॥४४४॥ नाल्पं नो वाऽधिकं यत्र, चैकोऽन्यत्र प्रसीदति । संघे देशे गृहे सौख्यं, गुणैर्दुःखविनाशनम् ॥४४५॥ एकस्याऽन्यहिते प्राणा-आत्माऽऽनन्दो यतो महान् । यत्र योगः प्रकृत्याऽस्ति, भोगस्तत्र सुखं ततः॥४४६॥ For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १०६ ) यत्र धर्मः प्रकृत्याऽस्ति, कर्म प्रकृतिजिस्सह । प्रकृत्या सह खेलोऽस्ति, निर्लेपेन सुखी भव ॥४४७॥ गृहादयः सन्ति सह प्रकृत्या, संसार एषः प्रकृतिर्हि यावत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ४४८ ॥ आत्मा तथेयं प्रकृतिर्द्वयं व, परस्परं ताववलम्बने स्तः प्रकृत्यालम्बनेनैव, सद्भावैर्मुक्तिमश्नुते । प्रकृतिः स्वानुकूला चे - व्यक्त आत्मगुणो भवेत् ॥ ४४९ ॥ प्रकृतौ रागरोषौ न, पोषः प्रकृतिपालनात् । कोऽपि दोषः प्रकृत्या नो, यत्राऽऽत्मा दोषवर्जितः ॥ ४५० ॥ न बन्धमोक्षौ प्रकृतौ कदाचि न बन्धमोक्षौ च निजाऽऽत्मनि स्तः । ॥ ४५१ ॥ अन्तर्भवेत्स्वानुभवोऽपरोक्षोचान्तिर्व्रजेद्दोषततिर्विनश्येत् श्रहमेकोऽस्मि यच्चित्ते, तत्र सर्वा हि बुद्धयः । दृढाः स्युग्रहिजक्ताश्च, प्रीतिश्रद्धानतः शिवम् ४५२ बहा कषाये सति सर्वनाशो दूरीतिदुष्टव्यसने विलासः । अनीतयस्तत्र तु भीमजीति'देशे समाजेऽबलरीतयश्च For Private And Personal Use Only ॥ ४५३ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०७ ) परस्परं विनाशार्थ-मुद्यतन्ते प्रजा यतः। सर्वनाशाय वायुःस्या-द्रोगोत्पादस्तथा रणः॥४५॥ शिक्षाया मे यतो हास्यं, प्रजानाशो भवेत्ततः। शिक्षातो मे विरुद्धश्चे-न्न सुखं देशसंघयोः॥ ४५५ ॥ वर्तते मम शिक्षाभि-लक्ष्मी शान्ति स चानुते । मदाज्ञावर्तने शक्ति-विश्वस्मिन्भक्तिरुद्भवेत् ॥४५६॥ धर्मभेदेन नो युट्य, दुष्टक्लेशं विनाशय । सर्वे वै विश्वसन्तानाः, प्रिया आत्मसमा मम॥४५॥ मा युष्यद्भेदतः कश्चि-न्मां च सर्वत्र पश्यतु । ममाऽभेदाज्जगत्पश्य, चैक्यवीरं विलोकय ॥४५८॥ धर्मो मत्प्रीतिसेवासु, कुरु कर्म मयि स्थिरः । अनन्ताऽऽनन्दमाधेहि, शिक्षा स्मर सुदर्शने !॥४५९॥ मनोजावेन संसारो-मुक्तिः स्यादाऽऽत्मभावतः। आत्मनावे स्थिरो भूत्वा, कुरु कर्माणि मन्मनाः॥४६॥ आचारनामरूपेच्यः, पृथग्मा प्रविलोकय । निजज्योतिस्सु संगम्य, स्यादनन्तसुखास्पदः॥४६१॥ सर्वाऽवस्थासु मन्नाम, निष्कामेन भजन्ति ये । मद्भत्तया विन्दते ज्ञानं, तहानं ददते पुनः ॥४६२॥ शुद्धभक्तिस्तथाज्ञानं, यातोऽन्ते त्वेकरूपताम् । मृग्यमाणश्च यःशेष-स्तं मां नक्ता हि विन्दते ॥४६३॥ For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०८ ) दुग्धाज्यवदहं व्याप्तः, काष्ठे वह्निर्यथा तनौ । विश्वस्मिन्सत्तया ज्ञात्वा, भजध्वं मां नराः स्त्रियः ॥ ४६४॥ नामरूपादिभिन्नोऽहं, महावीरो जिनेश्वरः । स्वाऽऽत्मानं वेत्ति यश्चैवं स शान्ति सुखमश्नुते ॥ ४६५॥ मन्त्रान्त्या चतुर्दिक्षु, कुर्वन्नाशामनेकशः । न तिष्ठति जनप्रातः, पारंमच्छ्रद्धया व्रजेत् ॥ ६६६ ॥ श्रद्धया मम योऽतिष्ठ - देहनावात्स वै मृतः । अजीवदाऽऽत्मरूपेण, भूत्वा स मृतजीवनः ॥४६७॥ नित्याऽऽत्मानो यतो जैना-न म्रियन्तेऽपि मारिताः । देहप्राणा विनश्यन्ति, चाऽऽत्मा न म्रियते स्वतः ।।४६८॥ यन्नाऽऽत्मा म्रियते सत्यं तत्कृत्यं विद्धि भावतः । निश्चयान्म्रियते नाऽऽत्मा, तज्ज्ञस्तु सत्यकर्मवान् ॥ ४६९ ॥ अविनाशी त्रिकालेऽपि सोऽनन्ताऽऽनन्दबोधवान् । हन्यते पञ्चभूतैर्न, वेत्ति यः सच निर्भयः ॥ ४७० ॥ आत्मानं कोऽपि नो हन्ति, चाऽऽत्मानं कोऽपि नाऽऽहरेत् । नाऽऽत्मनो जन्ममृत्यू स्तः, कर्ता हर्ता स्वयं हि सः॥ ४७१ ॥ आत्मा जैनो जिनो ब्रह्मा, हरो विष्णुर्महाँश्च सः । मद्धर्मास्त्वाऽऽत्मपर्यायाः सर्वे धर्मा इह स्थिराः ॥४७२ ॥ रूप्यरूप्ययमाऽऽत्माऽस्ति, गुरुदेवस्वरूपकः । आत्मनो जैनधर्मे तु सर्वे धर्माः प्रमान्ति हि ॥४७३ ॥ " For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०९) आत्माऽस्त्ययं देवगुरुस्वरूपो__ धर्मस्वरूपश्च स रूप्यरूपी। पश्याऽऽत्मचित्तेषु निजाऽऽत्मखेलं, शरीरसौधः परमोत्तमोऽस्ति ॥४७४॥ आजीविकादिक मवश्यकृतिं विधाय, स्वन्नादिकोचितसुभोजनमप्यवाप्य । जीवन्तु नाम वपुरादित एव जव्या धर्म्यक्रियां व्यवहृतेरखिलाश्चरन्तः ॥४७५॥ सर्वोत्तमां कृषिमवेहि सुदर्शने त्वं स्वातन्त्र्यमस्ति जगतः कृषितस्तु नूनम् । न स्यातकृषि विदधतां ननु कोऽप्यनों भव्याङ्गिनां सकलनीतिषु तत्पराणाम् ॥४७६॥ यन्त्रादिककलाः सर्वा-व्यापारश्चाऽपि मध्यमः। जीव्यते चाऽपि विद्यादे-र्जीवनं नोद्यम विना ॥४७७॥ निदोषिणस्ते च नराः स्त्रियःस्यु। यें नीतितः कर्म सदाचरन्ति । गृहाश्रमे कर्म विधाय सर्व, जक्ता ममेमं भवमुत्तरन्ति ॥४८॥ कर्माचरन्तो गुणकर्मरीत्या, ___ न जायते तद्धृदि कोऽपि बन्धः For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४७९ ॥ ॥४८० ॥ (११०) जक्ता न चोच्चा न हि केऽपि नीचाः, __श्रेष्ठास्तु ते ये न जडेषु रक्ताः । गार्हस्थ्यमेवं प्रतिपालयन्तो नराः स्त्रियः स्वश्च शिवं लजन्ते । गृहस्थलिङ्गेन ममाश्रिताना, मुक्तिर्भवेदाऽऽत्मसुखानि लब्ध्वा स्यात्यागिनां सद्गृहिणां च मुक्ति निं च भक्तिर्नवमुक्तिहेतुः। शूरेषु भक्तिः समुदेति पूर्णा, __श्रद्धा च नक्तिश्च तथाऽनुरागः विद्यास्वसत्ताधनसत्त्वयोगै र्जगत्सु जीवन्ति जनाश्च सत्यम् । भ्रष्टाश्च तस्माद्विषयान्नरा ये, हीना हि ते वंशपरम्पराभिः न्यायो यतस्तत्र सहायकोऽहं, _ न्यायो यतस्तत्र च बुद्धिसत्ते । यत्राऽऽत्मभोगोऽस्ति ततोऽस्ति शक्ति निशक्तिकास्तेऽतितरां रुदन्ति निशक्तिका ये विषयेषु रक्ता स्ते मृत्युतो बिज्यति पारतन्त्र्यात् । ॥४८१॥ ॥ ४८२ ॥ ॥४७३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १११ ) जीवन्ति ये ते प्रजवन्ति वीरा गर्यो यतो नास्ति मृषा न मोहः गर्वादनीतिः समुदेति पूर्णा, चानीतितः पापमुदेति पूर्णम् । पापेन शक्तिर्विलयं प्रयाति, वपन्ति यतद्धि पुरा लभन्ते माद्यन्ति मर्त्या धनसत्तया ये, स्वान्तेषु ते पातमथो लजन्ते । योsन्यायतः कामयते स्वकीर्ति, स मानवोऽन्ते लभतेऽपकीर्तिम् पराऽशुभं ये मनुजाः प्रकामं, सम्यक् स्त्रशक्त्यर्थमिहाऽऽचरन्ति । अन्ते तु पश्चादनुशेरते ते, मनोपुयमनयं विधाय कृतेऽशुभे स्यादशुभं जनानामिन्द्रोनशक्तः कृतकर्ममुक्तौ । यादृक् कृतं कर्म फलं च तादृक्, शर्माऽपि पुण्यक्रिययाऽभ्युदेति धनं स्थिरं नैव जवेदनीत्या, शूरोऽप्यनीतेः क्षयमेति काले । For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ४८४ ॥ 11 864 11 ॥ ४८६ ॥ ॥ ४८७ ॥ ॥ ४८८ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४८ ॥ ॥ ४९८ ॥ ( ११२) नाऽनीतितो वृद्धिरुदेति चेत्स्या साप्यन्तकाले विलयं प्रयाति नीतिस्ततो यत्र भवेदनीति चित्तदेहेषु भवेदशान्तिः । सुदर्शनेऽतः प्रतिरक्ष नीति, ___ यत्राऽतिलोभो न हितानि तत्र वृद्धिर्जवेत्स्वाश्रयसिद्धलक्ष्य विश्रान्तयः श्रान्त्यपनोदनं यत् । सार्द्ध प्रवृत्त्या जगतो निवृत्ति र्भवेत्तथैवं परमार्यनीतिः जगद्भवदोषविनाशनार्थ, चोद्धारणार्थ नविनां जनानाम् । तीर्थङ्कराः केवलबोधबुद्धा योग्येषु कालेषु च सम्जवन्ति प्रकाशते त्यागबलेन धर्मो वैराग्यतः सन्ति गुणा जगत्सु । भक्तिस्ततो यत्र विशुद्धराग स्तीर्थङ्करास्तत्र समुद्भवन्ति प्रयोजनं यस्य यदाऽस्ति काले, यत्कामयंते नविकाः पुमांसः । ॥ ४९१ ॥ ॥४९२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११३ ) काले ततस्तद्विशदीकरोति, तीर्थङ्करः स स्वयमेव भूत्वा ॥ ४९४॥ रागरोषविनाशार्थ-महतां जन्न जायते । विद्धि तीर्थकरं ब्रह्म, चाहन्तं गुणसागरम् ॥ ४९५ ॥ मिथ्यात्वादिविनाशार्थ-महतां जन्म जायते । दुर्गुणव्यसनं हन्तुं, धर्मतीर्थ प्रकाशते ॥४९६ ॥ दुश्शास्त्रनाशाय तथाऽऽर्यशास्त्र प्रकाशनार्थ जगदीशदेवः । मिथ्यात्वभावादिकदोषहन्ता, विज्ञानशास्त्रादिकसर्ववेत्ता ॥ ४९७॥ तीथडरोऽहन्भगवान्स बुद्धः, शुद्धः स्वयं शुद्धविनिश्चयेन । कलौ मदाज्ञां प्रकुरु प्रमाणं, मामन्तिमं तीर्थपति च विद्धि ॥ ४९८॥ सुदर्शने !! वेदय मां त्वमेवं, ___ समाविश्वोद्धतिमाविधातुम् । ममावतारोऽस्ति विनिश्चयेन, त्वं विद्धि सत्त्वप्रकृतिं दधानः ॥४९९ ॥ विश्वासकी भव मत्स्वरूपे, विसृज्य मत्तोऽन्यविकल्पजालम् । For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ५०० ॥ ॥ ५०१ ॥ ( ११४ ) मदाज्ञया त्वं कुरु कर्म सर्व, धर्म्यक्रियाभिलभतां पदं तत् आवश्यकोऽयं भुवनेषु धर्मो गुणप्रपूर्णोऽस्ति स जैनधर्मः । लोकास्तु जैना मम भक्तिनिः स्यु विदन्ति नैवं जडदीनतां ये अनन्यविश्वास उदेति येषा___ मावश्यकोऽस्मासु सुदर्शने हे। जैनाः शुभास्तेऽत्र ममोपदेशं, स्वाऽऽचारतो ये प्रतिपालयन्ति निजः परो वेति न भेदलेशो भजन्ति मां ये मम तेऽतिभक्ताः। श्रकाचरित्रैः प्रभवन्ति जैना मोहादिकान्ये परितो जयन्ति कषायकोपशमो यथा स्या ल्लोकाश्च जैनत्वमथो लभन्ते । एकादिकः सद्गुण उद्भवेत्त न्मत्सेवका जैनतरा भवन्ति गुणेन जैनत्वमुदेति सत्यं, कृते शुभे खे परमार्थकृत्ये। ॥ ५०२॥ ॥ ५०३ ॥ ॥ ५०४॥ For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥५०५॥ ॥ ५०६ ॥ ( ११५ ) ते मानवाः श्रावकतां लभन्ते, __ शृण्वन्ति ये नाम ममोपदेशम् स्युर्ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रा__ मत्प्रीतितः सद्गुणसागरास्ते । सर्वत्र खण्डेषु भवेद्विलासो दुखं व्रजेत्स्याच परा सुखाऽऽशा मत्सेवकाश्चिन्तितमालभन्ते, __भूत्वा सुखं जीवनमावहन्ति । मुह्यन्ति नो ते विभवेषु किञ्चित् , परोपकारेण नवन्ति दृष्टाः शुभोपयोगेन जडस्थलक्षम्या, ते साधयन्ति स्वयमाऽऽत्मयोगम् । गर्यो न येषां क्षणिके जडेऽस्मि नष्टे धने शोकलवो न येषाम् संयोगभावोऽयमचेतनाना, संयोगतश्चापि भवेद्वियोगः। वियोगसंयोगदशासु येषां हर्षों न शोको नवति प्रकामम् एवंगृहित्वं जजतां नराणां, मोहादयस्तेऽपसृता भवन्ति। ॥ ५०७॥ ॥ ५०८॥ ॥५०९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११६ ) संघप्रजावृद्धजनादिकानां, सेवानिराऽऽत्मा स्वयमेव देवः ॥५१० ॥ नानाऽपराधं सहतेऽपरेषां, शुभाभिलाषी ह्यपराधिनां यः । श्रेयस्करी स्या अपराधिवर्गे, सम्यक्त्वमेतद्गुणतो लभस्व ॥ ५११ ॥ ग्रन्थस्य पाठेन न सर्वलाना, सद्वर्तनेनैव सुखानि सन्ति । पारं न किञ्चिच्च कृते विचारे, नराः स्त्रियो धर्मकृतिं कुरुध्वम् ॥५१२ ॥ न कार्यसिद्धिर्भवति श्रुतेन, कार्य कुरुष्वाशु लभस्व ऋद्धिम् । दुःखं पतेच्चापि कुरुष्व कार्य, स्वनोगतः स्यादिदमाऽऽत्मराज्यम् ॥ ५१३ ॥ शोभा गुणानां तु जवत्यपारा, ___ न चर्मरंगेषु विमोहनीयम् । वेषक्रियातः परमोत्तमास्ते, चाधो गुणानां निखिलाः पदार्थाः ॥५१४ ॥ परोपकारेण न मुह्य किञ्चि क्लेशोऽपि सह्यः स्वपरार्थमत्र । For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥५१५॥ (११७ ) नराः स्त्रियः श्रेष्ठतमाः स्वगेहे, जीवन्ति किञ्चिध्ययतोऽपि चारु व्यर्थव्ययान्किंच न कुर्वते ते, सर्वापकास्ते परमार्थकार्ये । उद्योतमाना गुणशास्त्रसत्त्वै नराः स्त्रियो जीवनमावहन्ति विश्वोन्नतौ भागमपि प्रदेहि, सन्त्यज्य विद्याबलबुझिदेहान् । एकं न कुर्यादशुभं विचार, विश्वासिनः सन्तु नराः स्त्रियश्च दत्वा स्वभोगं सहते त्रुटिं स्वां, द्वयं समं साधयते स्वधर्मम् । गृहाश्रमे प्रार्थयते विरक्तिं, ___ त्यागं विधातुं स नरोऽधिकारी ईदृग्गुणाः सन्ति नराः स्त्रियो या भक्तिं मदीयां सहसा लभन्ते । तीर्थङ्कराः श्रीऋषभादयो म पूर्व बभूवुः प्रलयोऽपि यातः एवं च निर्धारय सर्वखण्डे, भवन्ति तत्तत्परिवर्तनानि । ॥ ५१० ॥ ॥ ५१९॥ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ५० ॥ ॥ ५२१ ॥ (११८ ) मनुष्यजातिः खलु पंचवर्णा, अर्हन्त एतेऽपि च पंचवर्णाः बहारचक्राणि परित्रमन्ति, सारोहपातास्तु युगा अनन्ताः। आत्मा प्रकृत्या सह सद्विकाशी, सानुक्रम तानि तथा स विन्ते ज्ञानं च सर्वानुभवान्स विन्ते, चान्ते स्वयं श्रीजगवान्नवेत्सः । ईदग्जवेत्स्वोन्नतिकर्मबोधः, स्यात्सत्तयाऽन्ते भगवान्स्वयं सः स व्यक्तितः स्यात्परमाऽऽत्मदेवो__नश्यन्ति सर्वावरणानि तस्य । निजान्तरे जागृत नव्यलोका__ स्त्यागी भवेच्छेष्टतमो गृहस्थात् अपामृतेश्चाखिलवासनानां, सत्यागिभावस्त्वतिदुर्लभोऽस्ति । श्रीत्यागिभावः कठिनोऽस्तिपूर्णो गृहेषु वासः सुललो नराणाम् मृत्वा यथा जीवनमस्ति पश्चा जानन्तु तत्त्यागदशा ममेत्यम् । ॥ ५२२ ॥ ॥ ५२३ ॥ ॥ ५२४॥ For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ५२५॥ ( ११९ ) पूर्व स्वकीयान्मरणान्मृतो यः, स वर्तते त्यागिदशाधिकारी जानाति नो योऽखिलवासनानां, त्यागं स आत्मा भवतीह दासः। कुर्वीत सर्व तु स सर्वजिन्नो, वेषक्रियादौ नच योऽस्ति मोही न देशकालप्रतिबन्ध इष्टः, स स्यात्स्वतन्त्रो न भवेत्स अन्धः । तन्त्राणि विश्वस्य विसस्मरुयें, वेषक्रियादी नच मोहमत्ताः न वा भवेत्स्वप्रकृतेर्वशे स चित्तेन नो यो भुवि बध्यतेऽत्र । स्वामी भवेत्स्व प्रकृतेः स आत्मा, भूत्वा स चाहनस्वरिपून्निहन्यात् ईशः स सत्त्वप्रकृतिः स देव___ स्तं त्यागिनं सर्वजना भजन्ते । सुखालयस्त्यागदशाऽस्ति लोका__ न नामरूपेषु विमोहनीयम् विश्वोद्धृतं कर्तुमहं सयत्न स्त्यागी च भूत्वाऽस्मि सुदर्शनेहे । ॥ ५२७ ॥ ॥ ५२८ ॥ ॥५२९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १२० ) त्यागं गृहावासमनु प्रधार्य, वैराग्यतो विश्वमहं जरामि वैराग्यतो नश्यति चित्तदोषोविश्वेषु शान्तिः समुदेति पूर्णा । एतज्जगत्स्वस्ति न कोऽपेि सार श्चित यः संसृतिपारमाप अनेकजोगादपि नास्ति शान्तिः, सत्यं तु विश्रान्तिरहो विरक्तेः । चित्तस्य विश्रान्तिरहो विरक्तेः, कामस्पृहा याति मनोभ्रमश्च विचार्य चित्तेषु ममोपदेशं, शान्ति परामाऽऽत्मनि शोधय त्वम् । वैराग्यतः स्यादतिनिर्भयत्वं, तथाऽऽत्मविश्वास उदेति चित्ते वैराग्यतः स्वाच्छमता च मुक्तिवैराग्यतस्त्यागिकयुक्तिरस्ति । जोगेषु रोगस्य भयं त्ववश्यं, विवादतश्चाप्यपकीर्तिनीतिः लक्ष्म्या भवेच्चंचलताप्यवश्यं, वैराग्यतः स्याद्भवजातमुक्तिः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ ५३० ॥ ॥ ५३१ ॥ ॥ ५३२ ॥ ॥ ५३३ ॥ ॥ ५३४ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२१) त्यागः स्वतन्त्रत्वमथो सुखं स्या प्रयाति चित्तस्य च कोटिचिन्ता ॥५३५॥ स्वतन्त्रता चापि पदे पदे स्या प्रवर्तते स्वाऽऽत्मनि सर्वराज्यम् । स्यात्यागतश्चाशुनरागनाश स्त्यागश्च मिथ्याप्रतिवन्धनानाम् वासो नच स्यादपकीर्तिकीत्यों ने व्यक्तिमोहस्य च कोऽपि गन्धः । स्यान्नामरूपेषु विमोहनाशः, कर्तव्यकार्येषु च पूर्णमोदः । ॥५३७ ॥ अयोग्यसवेप्सितवर्जनेन, सौभाग्यमात्यन्तिकमात्मनि स्यात् । यतश्च वैरोपशमा भवन्ति, सत्योक्तितो नीतिरपैति दूरम् ॥ ५३८॥ क्रियासु सत्यं समुदेति पूर्ण, निष्कामजावेन कृते विधाने । आत्माऽस्ति धीरोऽमरशैलतोऽपि, क्षीराब्धितोऽप्यस्ति महागभीरः स्वस्मिँश्च निन्दावचनानि यानि, नयाऽनयं यत्प्रकरोति लोकः । For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १२२ ) तथापि न तेषु जयेद्विमोही, त्यजैन सत्यं सुनयं विदित्वा मिथ्याक्रियाणां च यतो विसर्गो, मिथ्यापदार्थेषु यतो विरक्तिः । क्षणे क्षणे मां हृदये स्मरन्ति, ते ज्ञानिनो मुक्तिपथं लजन्ते स्वतन्त्रतां ज्ञानिजना लभन्ते, नानाविधाचारविचारमध्ये | निषेधतो वा विधितो न बन्धः, सर्वेषु कार्येषु च ते स्वतन्त्राः तृणे मणौ वा समजाविनो ये, त्यागे बहि र्नास्ति हवश्च येषाम् । त्यागाच्च रागादपि यान्ति तेऽयं, सन्निर्मलानन्द उदेति यत्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्यागस्य भेदास्तु भवन्त्य संख्या - नश्यन्ति खेदा हृदि तत्प्रबोधात् । मुंह्यन्ति नो त्यागिजना य एवं, विभान्ति तत्राखिलशक्तयश्च क्षमा मृदुत्वं सरलत्वमुक्ती, शौचं तपःसंयमरीतयश्च । For Private And Personal Use Only ।। ५४० ॥ ॥ ५४१ ॥ ॥ ५४२ ॥ ॥ ५४३ ॥ ॥ ५४४ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्माणि मोहेन विना न सन्ति, त्यागः पुनर्ब्रह्मतया विभाति रूपे मदीये न कुरुष्व वादं, वादे कृते हानिरुदेति पूर्णा । मच्छ्रद्धया त्वं वस मेऽनुरागा त्तस्माच्च मद्रूपमहो लनख ॥५४६॥ एवंप्रभु प्रिभुरस्ति चैवं, व्याप्योऽस्ति वा व्यापक एष ईशः । एवंविधानसम्प्रति मुञ्च तर्काविश्वासतो मां सकला भजन्तु ॥५४७॥ यथा यथा वाऽऽवरणप्रणाश स्तथा तथा मेऽनुभवा मिलन्ति । जवेनिजाऽऽत्माऽनुजवस्य दृष्टि श्ष प्रसिद्धोऽस्ति नयो ह्यरूपे ॥ ५४८॥ त्यागेन सर्वस्य च सिद्ध आत्मा, झानेषु सर्व विषयाः प्रमान्ति । ज्ञेयोऽस्ति सा हि निजाऽऽत्मधर्मो ज्ञाता निजाऽऽत्मा जडचेतनानाम् ॥५४९ ॥ यात्मन्याऽऽत्मैव समाति मुक्ताऽऽत्मा भवति प्रभुः। जीवन्मुक्तदशा याव-त्तावत्कार्या शुना किया ॥५५॥ For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२४ ) मयि श्रद्धासुरागाभ्यो, जक्ता नवन्ति मासमाः। मद्रूपीभूय मद्ध्याता, मत्समो जायते ध्रुवम् ॥५५१॥ वीतरागदशां यान्ति, मद्भक्ता आत्मबोधकाः । सम्यग्दृष्टिं हृदि प्राप्ताः, सिद्धा बुद्धाभवन्ति ते॥५५॥ मच्छद्धाघ्रष्टलोकानां, नास्तिकानां न सद्गतिः। दुःखं च दुमेतिस्तंषा-मशान्तिः पतनं नयम् ॥५५३॥ दुर्बलत्वं च दासत्वं, युद्धं क्लेशपरम्परा । पशुबलमविश्वासो-दुर्नीतिघ्रष्टजीवनम् ॥ ५५४ ॥ अप्रामाण्यमनार्यत्व-मस्थैर्य शक्तिहीनता । दुर्गुणव्यसनैर्ऋष्टं, जीवनं जडवादता ॥५५५ ॥ मच्छ्रद्धायुक्तलोकानां, जक्तानां, सद्गतिधुवम् । सुखं च सन्मतिस्तेषां, शान्तिश्च प्रगतेलम् ॥५५६॥ प्रकृतियोगमालम्ब्य, स्वाऽऽत्मपूर्णोन्नतेः पदम् । यान्ति च कर्मराशीना, क्षयं कुर्वन्ति सत्वरम् ५५७ स्वातंत्र्यमान्तरं बाह्य, यान्ति युके निजोन्नतिम् । सर्वसङ्गेषु निःसङ्गाः, सद्गुणैराऽऽत्मजीविनः ॥५५८ ॥ प्रमाणिकाः सदाचार,-विचारै धर्मजीविनः । मदर्थ जीविनः शूरा-नवन्ति मत्समा जनाः ॥५५९॥ आत्मबलं च विश्वास, स्थैर्य शक्तिं स्वजावतः । श्रात्मज्ञानं च सन्नीति, मुक्तिं यान्ति मयि स्थिराः ५६० For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२५ ) जडवादे न मुह्यन्ति, यान्ति चाऽऽत्मोन्नतेः क्रमान् । सदोर्ध्वगमनं तेषां विनिपातो न चान्तरः ॥ ५६१ ॥ बाह्यतो दुःखभोगेऽपि, चाऽऽन्तरमाऽऽत्मजीवनम् । बाह्यतो दुर्दशायुक्तास्तथापि चान्तराश्यते ॥ ६२ ॥ आत्मानन्दोदधौ मग्ना-ईश्वराः प्रजवो जिनाः । मज्ज्ञातारश्च सज्जैना- भवन्ति ध्यानयोगतः ॥ ५६३ ॥ मच्छ्रद्धायुक्तलोकाना -माऽऽत्मबलं प्रकाशते । रागद्वेषजयाभ्यासो, निष्फलो नैव जायते ॥ ५६४ ॥ रागद्वेषजयाभ्यासा - मोहशक्तिर्विनश्यति । प्रान्ते मोहारिनाशेन, जीवः सिद्धः प्रजायते ॥ ५६५॥ मच्छ्रद्धाष्टलोकानां विनिपातः सहस्रधा । बाह्यत इन्द्रतुल्यास्ते, चान्तरे कीटसदृशाः ॥५६६॥ आत्मज्ञान सुखार्थं स्यु, - मज्जैनानां विपत्तयः । प्रतिकूलञ्च यत्तेषां प्रत्युत मुक्तिहेतवे ॥ ५६७ ॥ पुण्योदयेन सातं स्या- दसतं पापकर्मतः साताऽसातविभिन्नोऽस्ति, स्वाऽऽत्मानन्दो निजाऽऽत्मनि ॥ ५६८ ॥ आत्मन्येव सुखं सत्य-मस्ति ज्ञानाद्विलोकय । मा म बाह्यजोगेषु, सुखार्थे वच्मि सद्वचः ॥५६९ ॥ रागस्य हेतवो ये ये, ते ते वैराग्यहेतवः । जवन्ति मम जैनानां, भोगाः स्युर्योगहेतवे ॥ ५७० ॥ For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२६ ) पूर्वजन्मनिबद्धस्य, निकाचितस्य कर्मणः । शुभाशुभोदये मज्ज्ञा- हर्ष शोकं न विन्दते ॥७१॥ सर्वकर्म प्रकुर्वाणा - अपि भिन्ना हि सर्वतः । सर्वस्मिन्नपि जिन्नास्ते, सर्वतः कर्मजोगिनः ॥ ५७२॥ नीचेष्वपि हि नीचा ये, भवन्त्युच्चा मदाश्रयात् । अनादिकर्मयुक्तास्ते, कर्ममुक्ता भवन्ति हि ॥ ५७३॥ मदुक्ततत्वबोधेन, स्वाऽऽत्मशुद्धिर्भवेद्रयात् । स्वातन्त्र्यमाऽऽत्मराज्यस्य, स्वान्ते नूनं प्रकाश ते ॥ ५७२ ॥ भवन्ति मत्समा जैना, -ज्ञानचारित्रयोगतः । मोहादिकर्मणां शीघ्रं, क्षयं कुर्वन्ति मत्पराः ॥ ५७५ ॥ मभक्तानां बलं बुद्धिः, शान्तिस्तुष्टिः सुखं यशः । पुष्टिर्निजाऽऽत्मनः शक्ति - रात्मस्थैर्ये प्रकाशते ॥ ८६ ॥ मम धर्मे वरं मृत्यु - रन्यधर्मो न शर्मदः । इतिनिश्चित्य मद्भक्तिं कुर्वन्ति यान्ति ते शिवम् ५७७ विजिन्नसर्वधर्मस्थाः, प्रान्ते प्राप्य मदाश्रयम् । समत्वेन हि संयान्ति, मुक्तिं तत्र न संशयः ॥ ५७८ ॥ यान्तरं मत्स्वरूपं हि, समत्वं परमं महत् । प्राप्नुवन्ति हि ये लोका - मुक्तिं यान्ति हि ले ध्रुवम् ५७९ साम्यायोगेन तिष्ठन्तो-जनाः कर्तव्यकारकाः । कर्मभिर्नैव बध्यन्ते - मत्स्वरूपोपयोगिनः ॥ ५८० ॥ For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १२७ ) आत्मशुद्धोपयोगेन, यत्र तत्र यदा तदा । सर्वविश्व स्थलोकानां, मुक्तिर्भवति निश्चयः ॥ ५८१ ॥ विश्वोद्धाराय धर्मस्य, प्रचारो जगति ध्रुवम् । मया प्रक्रियते नूनं, विश्वदुःखविनाशकृत् ॥ ५८२ ॥ अधर्म दुःखनाशार्थ, धर्मसंस्थापनाय मे । जन्माऽमूतीर्थकृन्नाना, विश्वस्य शान्तिहेतवे ॥५८३ ॥ यदा हि धर्मतीर्थस्य, नाशो जवति तत्तदा । परेश्वरस्य तीर्थस्य, - कारिणो जन्म जायते ॥ ५८२ ॥ पापादुःखं सुखं पुण्यात्, स्वर्गश्च नृजवादिकम् । दर्शनज्ञान चारित्रं, मोक्षमार्गों मयोच्यते ॥ ५८५ ॥ मां जजन्ति च ये मुत्यै, मुकिं यान्ति च ते ध्रुवम् । स्वर्गार्थं मां जजन्तो ये, स्वर्ग यान्ति सुनिश्चयः ५८६ मज्जनाः स्वदशायुक्ता निष्कामिनश्च कामिनः । आत्मशुद्धिं प्रकुर्वाणा - जवन्ति मुक्तिसम्मुखाः ॥५८७॥ विद्यार्थी लजते विद्यां स्त्रीकामो लभते स्त्रियम् । विद्यार्थी लज्जते वित्तं, यशोऽर्थी लजते यशः ॥ ५८८ ॥ राज्यार्थी लते राज्यं, पुण्यार्थी पुण्यभाग् भवेत् । धर्मार्थकाममोक्षाणां प्राप्तिर्मे भक्तितो जवेत् ॥ २८९ ॥ प्रपद्यन्ते यथा ये मां, यादृग्भावेन देहिनः । तादृग्भावेन जायन्ते यथाभावस्तथाफलम् ॥५९० ॥ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२८ ) यादृशो यस्य जावोऽस्ति, तस्य ताक् फलं लवेत्। एवं ज्ञात्वा विवेकेन, सद्भा हृदि धारय ॥ ५९१ ॥ विचाराचारतुल्यं हि, फलं भवति देहिनाम् । त्यक्त्वाऽशुनं शुनं कुर्या-मा प्रमादं कुरु क्षणम् ॥५९२॥ यादृशो भवितुं कांक्षे-जनो भवति तादृशः । यानोत्साहबलस्थैर्या-न्मज्जन ईश्वरो भवेत् ॥५९३॥ स्वाऽऽत्मैष सिद्धबुद्धोऽस्ति, मोहावरणसंक्षयात्।। स्वस्य पराऽऽत्मतां ज्ञात्वा,पराऽऽत्मा जव सत्वरम्॥५९४॥ अन्तराऽऽत्मा विजानाति, स्वाऽऽत्मानं परमेश्वरम् । शुद्धाऽऽत्मा परमेशोऽस्ति, स्वं दीनं नैव भावय॥५९५॥ यद्यपि कर्मसंयोगी, तथाऽपि ज्ञानशक्तितः। अन्त हूतकालेन, मुक्तो भवति सर्वथा ॥ ५९६ ॥ ज्ञानध्यानक्रियाभक्ति-सेवाद्यसंख्यसाधनैः । आत्मा याति परब्रह्म-परमाऽऽत्मपदं ध्रुवम् ॥५९७॥ माभैषीः कर्मतः किश्चि-दाऽऽत्मना कर्म नश्यति । कर्मतोऽनन्तशक्तिहि, वर्तते जाग्रदाऽऽत्मनः ॥५९८॥ ज्ञानाऽऽत्मा कर्मभोक्ताऽपि, कर्मनाशं करोति वै । कर्मणां निर्जराथे हि; ज्ञानिनां भोगराशयः ॥५एणा चतुर्दशगुणस्थान-मारोह चोत्तरोत्तरम् । मोक्षप्रासादसोपान-माऽऽत्मशुद्धिगुणाऽऽस्पदम्॥६००॥ For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२९ ) अर्हन् सिद्धस्तथा सूरि-चकश्च मुनिस्तथा । चारित्रं दर्शनं ज्ञानं, - तप श्चाऽऽत्मैव वस्तुतः ॥ ६०१ ॥ वात्मनश्चैव पर्याया अर्हत्सिद्धादिकाः खलु । आत्मन्येव सुखं पूर्ण, ज्ञात्वा सन्तोषवान् जय ||६०२ ॥ मदालम्बनयोगेन सर्वजातीयदेहिनाम् । आत्मोन्नतिक्रमप्राप्तिः, स्वान्तरे जायते खलु ॥६०३॥ मदाश्रयिमनुष्याणां योगः क्षेमं भवेत्सदा । 9 अलक्ष्यं ह्यान्तरं तेषां स्वाऽऽत्मशुद्धिः प्रवर्धते ॥ ६०४ ॥ नास्तिक्यं संशयं त्यक्त्वा त्यक्त्वा च जडवादताम् । मदाश्रयप्रपन्नानां, सिद्धिः सुखं च जायते ॥ ६०५ ॥ मत्प्रतिपक्षिभूताश्च, मत्स्वरूपविश्वारकाः । मद्द्धर्मद्वेषिणः प्रान्ते, मच्चित्ता यान्ति सद्गतिम् ॥ ६०६ ॥ एकवारमपि व्यक्ता, रुचिः श्रद्धा ममोपरि । येषां तेषां जवेन्मुक्ति-रवश्यं प्रतिपक्षिणाम् ॥ ६० ॥ अन्तर्मुहूर्तमात्रं यैः, सम्यकूत्वं स्पर्शितं खलु । तेषां मुक्तिर्भवेन्नूनं, जवभ्रमणकारिणाम् ॥ ६०८ ॥ सदेवगुरुधर्माणां श्रद्धाप्रीतिप्रधारिणः । जैना यान्ति जिनत्वं ते, ज्ञानवैराग्यकर्मठाः ॥ ६८९ ॥ कोटिस्वार्थानपि त्यक्त्वा, क्षणतः साधुसंगतिम् । कुरुष्व श्रद्धया प्रीत्या, सद्भिरामा प्रकाश्यते ॥ ६१० ॥ For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३० ) अन्तर्दृष्टिं समाधाय, मत्स्वरूपविचारिणः । व्यञ्जयन्त्याऽऽत्मधर्म ते, ज्ञानानन्दमयं स्वकम्॥६११॥ जायन्ते पुण्यकर्माणि, सर्वविश्वस्य शान्तये । पापकर्माणि हेयानि, सर्वविश्वहितं कुरु ॥ ६१२ ॥ अन्नवस्त्रादिकं देयं, तद्योग्येभ्यो विशेषतः। यत्र तत्र गुणा ग्राह्या यस्य कस्यापि देहिनः ॥६१३॥ सद्गुणैः स्वोन्नतिः पूर्णा, दुर्गुणैः पतनं भवेत् । दुर्व्यसनैः स्वजीवस्य, विनिपातो नवेखलु ॥६१४॥ विश्वसेवास्ति सत्का, राऽऽत्मधर्मस्य सेवनात् । दुर्गुणानां विनाशेन-विश्वशान्तिस्तथोन्नतिः ॥६१५॥ साहाय्यं दुःखिजीवानां, कर्तव्यं स्वीयशक्तितः। विद्याधनादिभि गर्वः, कर्तव्यो न कदाचन ॥६१६॥ मैत्रीजावेन विश्वस्य, लोकैः सह प्रवर्तनम् । कर्तव्यं न्यायसम्पन्न-वित्तेन, भोजनादिकम् ॥१७॥ स्वागतं साधुवर्गस्य, कर्तव्यं वृद्धसेवनम् । अतिथे सेवनं कार्य, सेव्या निजोपकारिणः ॥६१८॥ यथा यथा कषायाणा-मुपशान्तिस्तथा तथा । वर्तितव्यं विशेषेण, निजाऽऽत्मशुद्धिहेतवे ॥ ६१९ ॥ अनीतिः परिहर्तव्या, वर्तितव्यं च नीतितः । स्वदोषाणां विनाशाय, यतितव्यं स्वार्यतः ॥२०॥ For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३१ ) कर्तव्या स्वाऽऽत्मनः शुद्धिः, सर्वोपायैर्विवेकिभिः । आत्मशुद्धिं विना विश्व - सेवाकर्म तु दुर्लभम् ६२१ निर्विकल्पदशा प्राध्या, निर्विकल्पं सुखं भवेत् । ज्ञानानन्दमयः पूर्ण - आत्मा प्राप्यो निजाऽऽत्मना६२२ मदाज्ञापालका लोका, आत्मविश्वासियोगिनः । सर्वशक्तिप्रकाशार्थ, शक्ता भवन्ति सर्वथा ॥ ६२३ ॥ आत्मन्येव सुखं शान्तिं, निश्चित्य चोपकारिणः । साताऽसातविपाकानां, जोक्तारः समजावतः ॥ ६२४ || पूर्ण मां हृत्सु धर्तार, आत्मवीर्यप्रकाशकाः । सर्वसङ्गेषु निर्लेपा मज्जना यान्ति मत्सुखम् ||६२५॥ जीवादिनवतत्त्वानां पूर्ण श्रद्धाप्रधारकाः । सदेवगुरुधर्माणां श्रद्धावन्तः सुखार्थिनः ॥ ६२६ ॥ जैनार्थ जैनधमार्थ, जैनसंघाय मज्जनाः । कुर्वन्ति स्वार्पण सर्व - माऽऽत्मोत्साहात्प्रवर्त्तिताः ॥१२७॥ मत्तद्भेदं न कुर्वन्ति, संघसेवासु तत्पराः । मज्जैना आत्मनः पूर्ण-ज्ञानानन्दं प्रविदन्ते ॥ ६२८॥ मनोवाक्काययोगानां, सर्वशक्तिप्रकाशकाः । मनोवाक्काय पावित्र्य-धारका दोषवारकाः ॥ ६२९ ॥ सर्वधर्मप्रवेत्तारः, सर्वकर्मप्रवेदिनः । द्रव्यं क्षेत्रं च कालं च, भावं ज्ञात्वा प्रवर्त्तकाः ||६३०|| For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३२ ) ययोग्यं तत्प्रकुर्वन्ति, स्वाऽऽत्मानन्दरसार्थिनः। आत्मानन्दरसोन्मत्ता निश्चयव्यवहारिणः ॥६३१॥ सर्वैर्नयैर्हि तत्वज्ञा मछुद्धातः प्रवर्तकाः। सर्वविश्वोपकारार्थ, सेवाभक्तिविधायिनः ॥ ६३२ ॥ प्राप्तं मच्छरणं यैस्ते, यान्ति मुक्तिं न संशयः। पापेष्वपिमहापापा मुक्तिं यान्ति मदाश्रयात् ॥६३३॥ मयि न्यस्य मनो लोकाः, सर्वकार्यस्य कारिणः । निःसंगा आन्तरा भूत्वा, जिना बुद्धा भवन्ति ते ६३४ ममोपदेशवेत्तार-स्तदनुसारबर्तिनः । स्वाधिकाराद् यथाशक्ति, प्रान्ते मुक्ता नवन्ति ते ६३५ सत्यं श्रद्दधते लोका-मवासि शिवार्थिनः । मज्जैनास्तेऽवगन्तव्या आर्या दि जैनधर्मिणः ॥६३६॥ वीतरागदशां यान्ति, शुद्धोपयोगधारिणः । जन्ममृत्युजरातीता भवन्ति क्षीणमोहकाः ॥६३७॥ आत्मार्पणं हविब्रह्म, स्वाऽऽत्माग्नावाऽऽत्मना हुतम् । शुद्धाऽऽत्मैव प्रगन्तव्य-आत्मधर्मसमाधिना ॥६३८॥ कदाऽपि दुर्गतिनैव, सर्वथा मम रागिणाम् । मम श्रद्धालुलोकाना-मुन्नतिरान्तरा नवेत् ॥ ६३९॥ देवानां सर्वदेवीना-मिन्द्राणां धर्मदायिनः। विश्वस्मिन् सर्वजीवानां, सुखशान्तिप्रदेशिनः॥६४०॥ For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३३ ) ममोपदेशमन्तारो मदाज्ञया प्रवर्तकाः । शान्ति तुष्टिं तथा पुष्टिं सुखं ज्ञानं च विन्दते ॥ ६४१ ॥ विश्वस्मिन् सर्वजीवानां, मुत्तयर्थ ये प्रवर्तिनः ! अईदादिपदं प्राप्य, सिद्धा बुद्धा जवन्ति ते ॥ ६४२॥ पुद्गलानन्दिलोकाना- माऽऽत्मानन्दरसातये | श्रावकाणां च साधूनां मया बोधः प्रदर्श्यते ॥ ६४३ ॥ चतुर्विधमहासंघ - तीर्थस्थापनकारकः । तीर्थङ्करः प्रजातोऽस्मि, तीर्थ स्थापयिताऽस्म्यहम् ६४४ मम बोधानुसारेण, वत्र्त्स्यन्ति ये नराः स्त्रियः । सद्गतिं मरणप्रान्ते, यास्यन्ति नात्र संशयः ॥ ६४५९ ॥ मद्बोधानां तिरस्कार- कर्तॄणां दुष्टचेतसाम् । दुर्गतिमृत्युतः पश्चात् जायते पापकारिणाम् ||६४६॥ गृहस्थानां च साधूनां मदाज्ञया प्रवर्तनम् । आत्मशुद्धिकरं शीघ्रं, जवेदाऽऽत्मसुखप्रदम् ॥६४७॥ गृहस्थैर्गृहधर्मस्य, साधनं स्वाऽधिकारतः । कर्त्तव्यं व्रतदानाद्यै - निश्चयव्यवहारतः त्यागिभिः साधुधर्मस्य, पालनं स्वाधिकारतः । कर्तव्यं मुक्तिसिद्धयर्थ, निश्चयव्यवहारतः ॥ ६४ ॥ मदर्थं स्वार्पणं सर्वे, कुर्वन्ति ये जनोत्तमाः । आधिव्याधिविमुक्तास्ते, जवन्ति निरुपाधिकाः ॥ ६५०॥ " ॥ ६४८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " (१३४) मदर्थं जीविनो लोका मदर्थ कर्मकारकाः । निजाSSत्मानं महावीरं कुर्वन्ति हि जिनं प्रभुम् ॥ ६५१ ॥ सदाचारविचारै र्हि, जैनधर्मो जगत्त्रये । विश्वस्य सर्वजवानां, शुद्धिं करोति सर्वदा ॥ ६५२ ॥ परस्परोपकारार्थे, यतन्तां भूतले जनाः । मनोवाक्कायपावित्र्यं, धरन्तु मुक्तिहेतवे । ६५३ ॥ विश्वलोकान् सुखीकर्तु, जैनर्धमप्रचारणाम | कुरुध्वं सर्वखण्डेषु, नास्ति धर्म विना सुखम् ॥६५४॥ मबोधं प्राप्य जोलोका दर्शनज्ञानसंयमैः । अज्ञानपापकर्मच्यो रक्षत विश्वदेहिनः ॥ ६५५ ॥ कुर्वन्तु नैव पापानि, पुण्यं कुर्वन्तु मानवाः । आत्मज्ञानं हृदि प्राप्य, जवन्तु खोपयोगिनः ॥६५६ ॥ त्यक्त्वा मिथ्यात्विकीं बुद्धिं सम्यग्दृष्टिं धरन्तु भोः । दशां वैजाविकीं त्यक्त्वा, स्वाभाविकीं धरन्तु भोः ६५७ दुर्लभं दशदृष्टान्तै- लब्ध्वा नृजन्म मोहतः । हारयन्तु न सज्जन्म, धर्मं दधतु मानवाः ॥ ६५८ ॥ प्रमादाः परिहर्त्तव्या आत्मोत्साहप्रयत्नतः । विश्वासो नैव कर्तव्यो मोहस्य मोक्षकांक्षिनिः ६५९ दोषाश्चित्तोद्भवास्त्याज्या आत्मेक्षणविवेकतः । षडावश्यक कर्माणि कर्त्तव्यानि च संध्ययोः ॥ ६६०॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only * Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवपूजा गुरोः सेवा, तीर्थयात्रा तपो दमः । दया दानं च साधूनां, संगः कार्यों दिने दिने ॥६६११ आत्मज्ञानं च सद्ध्यानं, कर्त्तव्यं मोक्षकांक्षिनिः । आत्मशुद्धस्वरूपार्थ, यतितव्यं क्षणे क्षणे ॥ ६६२ ॥ सम्यग्दृष्टिप्रदातृणां, गुरूणां हि निजार्पणम्। कर्तव्यं नामरूपादि-मोहं त्यक्त्वा विवेकिभिः ६६३ सद्गुणाः सर्वथा ग्राह्या-मोक्षमार्गानुसारिभिः । सर्वथा दुर्गुणास्त्याज्या-मोक्षमार्गविरोधिनः ॥६६४॥ आर्तध्यानं तथा रौद्र-ध्यानं त्याज्यं विवेकतः । धर्मध्यानं तथा शुक्ल-ध्यानं ध्येयं विवेकिनिः॥६६५॥ दुष्टलेश्याः परित्याज्या ग्राह्या लेश्याः शुभा जनैः। सात्विकाऽऽहारपानायैः, कर्तव्या चित्तशुद्धता ॥६६६॥ सार्धामकस्य संघस्य, वात्सल्यं भक्तिभावतः । मूरिवाचकसाधूनां, साध्वीनां भक्तिसेवनम् ॥६६॥ जैनधर्ममहाराज्य-ध्वजः सूर्यशशांकयोः। चिहयुक्तः प्रकर्त्तव्यः, स्थाप्यः पूज्यो महोत्सवैः ॥६६॥ चतुर्विधस्य संघस्य, पूजनं भक्तिभावतः । साहाय्यं धर्मिलोकानां, जैनधर्मप्रवृद्धये ॥ ६६९ ॥ शुद्धाऽऽत्मराज्यसज्ज्ञान-पूर्णानन्दाऽऽसये ध्रुवम् । यतितव्यं हि सत्प्रीत्या, झया जैनधर्मिभिः ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३६ ) समाजदेशादिहितक्रियायां, व्यापारणीयं तु सदा स्वचित्तम् । परोपकारो निजसर्वयोगै रेतत्कृते त्यागिजनाऽवतारः ॥ ६७१ ॥ न त्यागिनां केऽपि भवन्ति दोषा___स्ते रागरोषे न भवन्ति बद्धाः । थायुःक्षये मुक्तिरथाऽस्ति तेषां, स्यात्यागिनां स्वानुभवः प्रमाणम् ॥६७२ ॥ सत्यागिनो मत्सदृशोत्तमास्ते, तेषां पुरोऽन्ये तु भवन्त्यधःस्थाः। न त्यागिनां स्यान्ममतालवश्चे- स्यात्तर्हि नो संयमरागवृत्तिः ॥ ६७३ ॥ हस्ता मदीयाः खलु येषु सन्ति, __ तत्त्यागिनां हस्ततलेऽस्ति मुक्तिः । कार्यासुखाऽऽशा न जमेषु काचिद्, सत्या सुखाशा विषयेषु नास्ति ॥ ६७४॥ आत्मा त्वयं सौख्यरसाब्धिपूर्णः, शूरस्तथाऽसौ बहुशक्तितोऽस्ति । तद्रागिणस्त्यागिजनाश्च सन्ताः, शान्ताश्च दान्ताश्च महामहान्तः ॥६७५॥ For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १३७ ) साहाय्य मारोहिजनाय दत्ते, सहायकः स्याच्च यतस्ततोऽपि । देशेषु खण्डेष्वखिलेषु गत्वा, ध्यानं तथा मे हृदये करोति निजाSSत्मशुद्ध कुरुते प्रयासं, स्यादाऽऽत्मनः स्वानुभवे प्रकाशः । दूरं विदध्यादपि दोषिदोषान्गुणानुरागे स्वगुणप्रकाशी सम्मानयेद्यो जगदाऽऽत्मतुल्यं, निजः परो वेति भवेन्न मोहः । बभूव येषां जगदाऽऽत्मतुल्यं, तेषां प्रणेशुवबन्धनानि यो जीवति स्वाऽऽत्मविनोदतो वा, सर्व प्रकुर्वन्नपि नो करोति । सिद्धश्च बुद्धश्च भवेत्पराऽऽत्मा, • प्रयाति स स्वाऽखिलकर्मपारम् ईदृग्विधा त्यागिदशा यतोऽस्ति, पले पले सम्भवति स्वमुक्तिः । संत्याग एकोऽस्ति समप्रभूमी, सत्यप्रकाशं सहसा विधातुम् For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ६७६ ॥ ॥ ६७७ ॥ ॥ ६७८ ॥ 41 ॥६७२॥ ॥ ६८० ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १३८ ) सुदर्शने साधुपदं हि सारं, समुद्धृतिर्यज्जगतोऽस्ति तेन । सत्यं गृहस्थाश्रम सत्प्रकाशं, कर्तुं यतस्त्यागिपदं स्ववश्यम् ङ्गीकरिष्यामि सुसाधुधर्म, कार्याणि तीर्थस्य मुदा विधातुम् । ममाऽस्ति कार्य जगतां जनानां, शान्ति च विश्रान्तिमथो विधातुम् आध्यात्मिक व्यष्टिसमष्टिरूपा, सम्यक्त्वदृष्टि र्हि सुदर्शनाऽस्ति । पुरस्तवैवं प्रियसेवकानां, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधात्सुखं क्षेममयो सदा स्यात् सुदर्शनेऽतो भगिनी ममाऽसि, त्वद्बोधनात्सर्वजनस्य हर्षः । जानीहि मां साम्प्रतमाऽऽत्मवीरंकुटुम्बवृन्दं तु समग्र विश्वम् स्वं मानसं चाऽऽत्मवशं प्रकुर्यात्स मुक्तिसौख्यं झटिति प्रयाति । कुर्वन्ति मां ये शरणं मनुष्यादुःखं च न ते खभन्ते अयं 4 For Private And Personal Use Only ॥ ६८१ ॥ ॥ ६८२ ॥ ॥ ६८३ ॥ ॥ ६८४ ॥ ॥ ६०५ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ६८६॥ ॥ ६८७॥ ( १३९ ) दूरं च मृत्योरथ जन्मतोऽपि, चात्यन्तिकाऽऽनन्दभरेण पूर्णः । न प्राप्नुयायो मरणाञ्च नीति, . मत्सदृशानीतिगुणाँश्च धत्ते थालिङ्ग्य मृत्युं लभतेऽतिहर्ष, __ यस्माद्भवेद्भाविमहाप्रकर्षः। पारं च तन्मृत्युतिरस्करिण्या__ आत्मोन्नतिस्तत्र झटित्युदेति मृत्योद्वितीयः खलु पर्यवो यः, __ सात्मानमेवं प्रकटीकरोति । समत्ववानज्ञानिजनःस्वमृत्यौ, शुद्धस्वनावं लभते स्वकीयम् ये मृत्युकाले मयि मानसं स्वं, न्यस्यन्ति ते भक्तजनाः पवित्राः । ते मृत्युकाले निजपापपश्चा तापेन पापानि निवारयन्ति क्षमापयन्ते ननु ये स्वदोषाँ, स्तद्रागरोषौ विलयं प्रयातः । शुभाऽशुभस्वाऽऽचरणाऽनुसारं, शुभाऽवतारोऽप्यशुभाऽवतारः ॥ ६८९॥ ॥ ६९० ॥ For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनो हि जन्मान्तरजावहेतु, ज्ञात्वेति तर्जनतः प्रसीद । शुजाऽशुभत्वं निजनावनानां, त्यागेन काचिन्न हि कर्मभीतिः ॥ ६९१ ॥ ज्ञानी स्वमृत्योः प्रथमं हि मुक्तः, पश्चाद्भवेत्सिद्धशिलोपविष्टः । धैर्य परं धारय मृत्युकाले, चान्तः सुवीर्य प्रविकाशय त्वम् ॥ ६९२ ॥ आत्मोपयोगेन भवेद्विमुक्तिः, साऽत्यन्तिकानन्दवती विमुक्तिः । न चाऽऽत्मनो मृत्युभयं कदाचि... चाऽऽत्माऽमरो निश्चयतोऽस्ति विद्धि ॥ ६९३ ॥ सीनो भव स्वाऽऽत्मनि निश्चयेन, स्वान्तश्च दीनो न भवाऽपि किंचित् । स्वगों मिलेत्स्वीयशुजोपयोगै... निजाऽऽत्मभावेन भवेद्विमुक्तिः ॥६९४ ॥ आत्मोपयोगेन सरेत्क्षणं य न्मच्छ्रद्धया शैवपदं च लभ्यम् । मत्यौ च येषां न समस्ति चित्तं, ध्यानेन ये सन्ति मयि प्रसन्नाः ॥६९५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १४१ ) आत्मस्वरूपेण स स्मरूपो जवेन तत्राऽस्ति च कर्मभीतिः । दयासमो नास्ति जगत्सु धर्मोदयासमं नास्ति च कर्म किंचित् दयां विना नैव मनः पवित्रं, न्यायो महान्कोऽपि च नो दयातः । गृहादयो भान्ति सदा दयातोदयालुजन्माऽपि सदा विभाति यस्यां क्षितौ दुःखिदयासमानोधर्मो न कोऽप्यस्ति प्रमाणभूतः । हिंसासमं नास्ति जगत्सु पापं, दयाख्यधर्मेण विजाति भक्तिः नचाऽपि पेयं रुधिरं पशूनां, न स्युः प्रवृत्ताः पशुखादनेषु । पशून् धनं विद्धि च जारतस्य, दुग्धेन युष्मानुपकुर्वते ये कृषौ पशूनां च सहायताऽस्ति, सौख्यप्रदान्रक्षत तान्गवादीन् । शुनोपयोगं कुरु तत्पशूनां, न किन्तु तेषां वधमाचर त्वम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ ६९६ ॥ ॥ ६९७ ॥ ॥ ६७८ ॥ ॥ ६९९ ॥ ॥ ५०० ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७०१ ॥ ॥१०२ ॥ (१४२ ) रोगा विनश्यन्ति हि पक्षिनिस्तु, ते वर्डयन्ते प्रकृतेश्च लीलाम् । सर्वेषु खण्डेषु पशुंश्च रक्षा, .. प्रकाशते तत्कृतितः शिवं च गृहे गृहे सत्पशुपालनं स्या- : रसुखप्रदा तत्र दया मदीया । ये पुःखिनोऽशक्तजनाश्च रुग्णा, दयस्व तेषामुपरि प्रियत्वात् रक्षा भवेद्यत्र च गर्भिणीनां, व्यक्ता नवेहाद्धिरहो समग्रा । सेवा यतः स्याञ्च रुजार्दितानां, ... यत्रौषधावस्ति धनव्ययश्च सेवा शुजा यत्र च गर्भिणीनां, __ न सङ्कटः किञ्चिदुदेति यत्र । विश्वस्य सेवैव ममापि सेवा, देवो भवेत्केवलसेवनेन प्रयोजनं यस्य च यत्र काले, तत्तत्परः स्वोचितकर्म कुर्वन् । भवेच्च यः क्षेत्रसमर्थकाल ज्ञाता दयादानदमादिकर्ता ॥ १०३ ॥ ॥७०४॥ ॥ ७॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १४३ ) साध्वी सतीजि कहारवाणां, न ग्राहकाः स्युः खलु दुःखदास्ते दीनांत्रजालं न च दाहनीयं, विराधनीया मुनयो न केऽपि ग्राह्या न शापाश्च सतीयतीनाम् र्जगत्सु पापानि न वा कुरुष्व । न मारयत्वं ननु दुःखिजीवानिर्दोषिणो वारय हन्यमानान् अज्ञानतो यैश्व कृतोऽपराधस्तेषां क्षमा चेतसि मार्गणीया । कदापि जीवान्नहि संहर त्वं, कुर्याः कुमारीव्रतरक्षणं च साक्षी मृषा योऽस्ति मृषा च लेखोनिःसत्यवार्तास्तु सदा उपेक्ष्याः । कलङ्कमारोपय केषुचिन्नो, जानीहि विष्ठासममन्यवित्तम् नचाऽन्यजीवेषु च देहि दुःखं, सम्बन्धिनां नाशया द्विपत्तीः । सन्तापय त्वं न सतो न धेनूबिनाशोऽस्त्य सुखेन तेषाम् For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७०६ ॥ ॥ प्र० ७ ॥ || 206 || ॥ ७०९ ॥ 11.930 11 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७१२॥ (१४४.) गृहाण न त्वं मम सेवकानां; हाहारवं ते च न मारणीयाः प्राणान्हरेद्यो मम सेवकानां, तद्धानिरस्त्यत्र परत्र योनी सत्ता च लक्ष्मीश्च मदोऽस्ति येषां, तेषां समागच्छति नाशआशु । दानं न दत्ते कृपणो जनो यः, सोऽसह्यहानि लभते तदन्ते प्रदेहि सौख्यं हृदये परेषां, कस्याऽपि शापं कुपितो न देहि । पापं परेषां हृदयाऽर्दनैः स्या__ धर्मप्रभावो न नवेदनीतेः निवारय त्वं परहास्यनिन्दे, क्रोधादिकं वारय चित्तजातम् । त्वं ब्रूहि नो दुर्वचनानि किश्चि सदैव सन्तोलय सत्यवार्ताः एकाग्रचित्तैः परितो विचार्य, न्यायेन गच्छन्तु नराः स्त्रियश्च । ब्रान्तस्य भूयो भ्रमणं शरीरं, भक्तिर्मनः शर्मच यान्ति नाशम् ॥ ७१३ ॥ ॥ ७१४॥ ॥७१५॥ For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १४५ ) विधाय पापं न च मानमिच्छ, नाऽसत्यमुक्तवाऽत्र विधेहि दानम् । असत्यमाडम्बरमुज्जहीहि, धृत्वा क्षमां शूरजनो भव त्वम् यो वाsपकारोऽस्त्युपकारकर्तु - स्तस्योपरि त्वं च कुरूपकारम् । महान्भवेद्यः सहनं करोति, शुभस्य कर्ता जगवान्समस्ति देहः पतेन म्रियते महाऽऽत्मा; गुणोपरि त्वं धर पूर्णसगम् । कुरु प्रशंसां स्वरिपोर्गुणानां, तस्मादजावो न च ते गुणानाम् सत्याच्युतान्रक्षति नैव शस्त्रं, नाऽखं पुनर्नाशयते सुसत्यम् । सत्यं पुरस्कृत्य चलन्तु लोकाः, पदे पदे तेन शिवानि सन्ति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ ११६ ॥ देहः पतेत्किन्त्वमरो महाऽऽत्मा मनुष्यजातिं न च धिक्कुरु त्वं, निन्दां तथा नो शृणु कस्यचित्वम् ॥ ७१८ ॥ परोक्षनिन्दा परिवर्जनं च, 11-6126-11 ॥ ७१९ ॥ ॥ ७२० ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १४६ ) चौर्यादसत्याज्जगतोऽस्ति दुःखं, सत्यादचौर्यात्पुनरस्ति सौख्यम् । सत्येन बुद्ध्वा मगदुद्धृतिं च, स्त्रियो नराः सत्यपथेन यान्तु समग्र भाषादिकलेख बोधैजवन्ति विद्याधन देहसत्ताः । वदन्तु सत्यं च तदाऽऽचरन्तु, कृत्य त्विदं सात्त्विकजीवनस्य सत्यार्थिनां स्यात्परमा सुखाशा, विश्वप्रकाशो न च सत्यतुल्यः । सत्यस्वरूपोऽस्ति हि जैनधर्मो ज्ञात्वेति सत्यं प्रणिरूपय त्वम् दोषाँश्च निःसारय दोषिणां त्वं, निर्दोषमाऽऽत्मानमिमं प्रपश्य । त्वं विद्धि सर्वानुपयोगिजीवाँ स्त्वं सर्वजीवैः सह रागवान्स्याः पश्याऽऽत्मतुल्यान्सकलान्दि जीवानुपेक्ष्यतां स्वप्रकृतेः स्वभावः । गृहाण सर्वस्य शुभाय भागं, परोपकाराय कुरुष्व दानम For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ १२१ ॥ || JRR || ॥ १२३ ॥ ॥ ७२४ ॥ ॥ १२५ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७२६॥ ॥ ७२७॥ (१४७) विशालदृष्टिः समुदेति पूर्णा, मनोऽपि संसारहिताय यायात् । सत्येन धर्मेण च जीवतात्त्वं, निदोषसत्प्रीतिमथो कुरुष्व निवारय त्वं विषयात्स्वरागं, संज्वालय त्वं स्मरमोहबीजम् । निवारय स्वान्तमसाधुमार्गा सहायकस्त्वं भव सजनानाम् आदौ च संसारय वृद्धदोषा स्तथाऽल्पदोषास्तदनन्तरं त्वम् । ये दुर्गुणाः शत्रव एव सत्यं, न तेषु विश्वासमहो कुरु त्वम् ममोपदेशो यदि विश्वमध्ये, । प्रादुर्नवेत्तत्र सुखं च शान्तिः । जीवेद्यतो नाम ममोपदेशः, प्रादुर्भवेत्तत्र सुखं च शान्तिः मय्युद्भवेद्विश्वसनं च येषां, शान्तिः सुखं तत्र नवेदवश्यम् । व्याध्याध्युपाधिप्रलयो नवेच्च, विद्या बलं बुद्धिरथो सुखं स्यात् ॥ २८॥ ॥ ७२९ ॥ ॥ ३०॥ For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १४८ ) एकाग्रचित्तेन मयि स्थिरो यः, प्रकाशते तेषु विरक्तिबोधः । धर्मे च विद्यान्मदभिन्नमेतं, स शक्तिभिः स्या न्मनुजोऽतिपीनः ॥ ७३१ ॥ विश्वेषु धर्मस्य परं प्रचारं, कुर्वन्तु जक्ता मनुजाः स्त्रियश्च । कुरुष्व देवस्य गुरोश्च मानं, लीनो माये स्याः परमप्रवीणः. ये स्त्रीनरा मां न हृदामनन्ति, तथापि रागं कुरु तेष्ववश्यम् । आदाय मैत्रीं च कुरूपकारं, सत्यं भविष्यन्ति हि रागिणस्ते आजीविकाद्यर्थ सहायता व न्यायस्तथाऽन्येषु च धर्मिषु स्यात् । जक्तास्त्ववश्यं मम भाविनस्ते, तेनाप्नुहि त्वं सदपारधर्मम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्यात्कर्मणा वा स्वगुणेन वर्णः, संशोभते भक्तजनश्च भक्या । आत्मस्वावै जगतोऽस्त्यभेदो ज्ञात्वा च सेवस्व सदा ममाज्ञाम् For Private And Personal Use Only ॥ ७३२ ॥ ॥ ७३३ ॥ ॥ ७३४ ॥ ॥ ७३५ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४९) मत्तो न कश्चित्परमेश्वरोऽन्यो ज्ञात्वेति सेवस्व सदा ममाज्ञाम् । उस्तर्कबुद्धिं च विधाय दूरं, श्रद्धानुरागैर्भव पूर्णपूर्णः ॥७३६॥ मयि प्रमान्त्येव समग्रधर्मा__ ज्ञात्वा शुभं कर्म सदा कुरुष्व । भक्तिं सदामत्समसद्गुरूणां, युगे कलौ सद्गुरुतोऽस्ति शक्तिः ॥७३७ ॥ कलौ मदर्चा गुरुसेवया स्या___ उक्त्या गुरोः शक्तिरहो मदीया । भेदो गुरो स्त्यागिगृहस्थतो द्वौ, ___ तत्सेवनान्नश्यति खेदराशिः ॥ ७३८॥ ज्ञान तथा श्रीगुरुसेवया स्या___ दीर्वाचिकग्रन्थविलोकनात्स्यात् । तत्सेवया स्वाऽनुभवस्तथा स्या त्प्रयाति दूरं च.मृषात्वबुद्धिः ॥ ७३९ ॥ किंचाऽपमानेन सतां गुरूणा माऽऽत्माऽवबोधस्य च विस्मृतिः स्यात । कुलक्षयः सद्गुरुनिन्दया स्यान तत्र कश्चित्प्रनवत्युपायः ॥ ७४०॥ For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५.) ग छेत्क्षणं नो गुरुमन्तराऽत्र, __ प्रापुर्नवद्भक्तिरपि प्रणश्येत् । पश्यन्ति ये वा गुरुदूषणानि, ब्रुवन्ति तेऽन्ते प्रसभं रुदन्ति ॥ ७४१ ॥ तस्माद्गुरूणां नव रागयुक्त स्तत्सेवया छिन्धि च कर्मराशिम् । कुर्या गुरूणामुपरि क्रुधं नो, गुर्वन्तिके त्वं शृणु.सत्यबोधम् ॥७४५ ॥ सुधामुपालम्भमवेहि तेषां, रमस्व बुद्ध्वा मम नावतस्त्वम् । विश्वासरागौ गुरुषु प्रधाय, भवन्तु शूराः क्रमशश्च लोकाः ॥ ७४३ ॥ जक्ता गुरोये च कलौ युगे स्यु मत्सेवकाँस्तान्हृदयेन विद्धि । कल्याणमालं गुरुसेवया स्या न्नश्यन्ति सर्वाश्च कुबुद्धयस्ताः ॥ ७४४ ॥ मत्सदृशे विश्वसनं च येषां, तेषां च सम्यक्त्वमवश्यमस्ति । काले यतो ये गुरवो जवन्ति, काले ततो मरतहशा विबोध्याः .. ॥१४५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १५१ ) संरक्ष विज्ञानिगुरुं च शीर्ष, धीरश्च वीरः प्रभविष्यसि त्वम् । सदाऽऽज्ञया ज्ञानिगुरोश्चल त्वं, स्या बद्धकक्षा गुरुनक्तिषु त्वम् सद्युतिभिर्मण्डय जैनधर्म, श्रेष्ठोऽस्त्ययं मत्प्रियभक्तधर्मः । विश्वेषु विस्तारयितुं स्वधर्म, नराः स्त्रियः सर्वमपि त्यजन्तु श्रीजैनधर्मप्रतिपक्षिणो ये, ते शत्रवः सन्ति ममानुगानाम् । धर्म्य च युद्धं रिपुभि र्विधेयं, धृत्वा कलास्सर्वविधैः प्रयत्नैः श्रीजैनधर्मः सुखशान्तिदाता : यतः स मिथ्याभ्रमवारकोऽपि । जैना नरा रक्षत जैनधर्म, कालानुसारं प्रविधाय कर्म विरोधिभिर्युयत वा म्रियवं, श्रीजैनधर्मप्रतिपालनार्थम् । सत्तां धनं बुद्धिबलं लभन्तां, श्रीजैनधर्माय विधत्त सर्वम् For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७४६ ॥ ॥ ७४७ ॥ ॥ ७४८ ॥ ।। ७४९ ॥ ॥ १५० ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७५१ ।। ॥ ७५२ ॥ (१५२ ) स्वजीवनं जैनहिताय याया प्रकाशते तत्र ममोच्चभक्तिः । जैनाय सर्व ददतां जनानां, पर्वाणि सर्वे दिवसा भवन्ति । विधत्त रक्षां शरणागतानां, नीत्या मृतौ हर्षमथो कुरुध्वम् । न्यायेन लोकेषु विभान्ति भूपा । येऽपक्षपातञ्च धरन्ति राज्यम् आज्ञानुसारं मम राज्यकार्य प्रचारतः स्यात्सुखराज्यवृद्धिः । कुर्यु नृपाश्चेदशुभाभिलाषं, नश्यन्ति पृथ्वीरसशान्तयःस्त्राक् राजा भवेदुर्गुणतोऽतिहीनः, क्षीणाःसुतास्तस्य परम्पराभिः । स्वनोगतो राज्यमथो करोति, ज्ञानं विना स्यात्तमसः समूहः प्रजासुखार्थ हि भवन्ति भूपा न च प्रजादुःखयुताऽस्तितेषाम् । योऽनीतितो दण्डयति स्वलोका स्त पतनिश्चित एव पातः ॥७५३ ॥ ॥७५४॥ ॥७५५॥ For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१५४ ॥ ( १५३ ) जानन्ति ये पुत्रलमाः प्रजाः स्वा नृपानिमानं न तथा धरन्ति । यो वर्तते सम्मतितः प्रजानां, राजा स कीर्तिं लभते प्रकृष्टाम् परस्त्रियः पश्यति मातृतुल्याः, कुर्यान्न कस्याऽप्यतिकुप्य घातम् । प्राणान्प्रजार्थ प्रददाति यो वा, सभूपतिर्मानगुणांश्च विन्ते प्रजाजने द्वेष्टि न यः कदाचि प्रजाजनक्लेशनिवारको यः । प्रजाजना न्दाससमा न कुर्या न्मनस्सु मन्नाम मुदा जपन्यः न राजभावःसुलनोऽस्ति किञ्चिद्, गुणान्विना भूमिषु दुर्लभः सः। नराः स्त्रियो यस्य निजाऽऽत्मतुल्या ... जेता नृपो भूमिषु शोभते सः सर्वप्रजानां ननु सेवको यः, सर्वप्रजानां ननु रक्षको यः। कंचित्प्रजाभ्यः प्रवरं न विद्या प्रजोन्नती प्राणधनादिदाता ॥ ७५८॥ ॥७५९॥ ॥७६०॥ For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७६१ ॥ ॥ ७६२ ॥ ( १५४ ) एवं नृपः स्वीकरणीय इष्टो___ यः स्वायदोषान्स्वगुणाँश्च वेत्ति । गुणान्विना वंशपरम्पराभि भूपः प्रजानां बहुदुःखदः स्यात् देशस्य संघस्य भवेन्निपात स्तस्मादगुणाढयो नृपतिर्विधेयः । अल्पंतुदोषं च महाप्रलाभ, यो वेत्ति राजा स गुणैः प्रपूर्णः राज्यं तु तेषां बलमस्ति येषां, शक्त्यैव लज्या पदवी समग्रा । पुरस्सरो योऽस्ति च राज्यभूमे नागुणाढ्यश्च महान्नवेद्यः परोपकारेषु रता मनुष्या- नातिक्रमन्त्येव कदापि नीतिम् । सर्वप्रजानां न भवेद्य इष्टो नाऽसौ नरो भूपपदे निधेयः नानागुणाढ्यं च कुरु प्रधानं, सेनापतिं शक्तिगुणाकरं च । भक्ता हि मे सन्ति पुरस्सरास्ते, सन्त्याकराः शौर्यगुणादिकानाम् ॥ ७६३ ॥ ॥ ७६४॥ ॥७६५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ६६॥ ॥७६७ ॥ (१५५) राजादयो यत्र भवन्ति चैवं, ___ कृपा मदीया तु भवेद्धि तत्र । अग्रेसरत्वं मम सेवकैस्त द्राज्यादिके कर्मणि संविधेयम् विश्वेषु सर्वत्र हि जैनधर्म प्रचारणार्थ सुखदाऽस्ति सेवा । गृहस्थभक्ता निजजन्मदेश, संरक्षितुं कर्म सदाऽऽचरन्तु जन्माऽवनीरक्षणतोऽस्ति धर्मः, . प्रपालय त्वं कुरु कर्म योग्यम्। गृहस्थजैना निजसर्वशक्तीः, संरक्ष्य भक्तिं मनसाऽऽचरन्तु कालाऽनुसारं च भवेद्गृहस्थ जैनप्रजाऽऽचारविचाररीतिः। बलादितः शत्रुचयं जयन्ति, स्वर्गों मनः स्यात्परमाऽनुरागैः जीवन्त एवम्विधजैनवर्गा ये सन्त्यशक्ताः सुतरां मृतास्ते । सुदर्शने व्यञ्जय सर्वशक्तीस्त्वं सँय्यमे पालय लक्ष्यबिन्दुम् ॥७६८॥ ॥६९ ॥ ॥७७० ॥ For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५६ ) आत्माऽस्त्ययं सँय्यमतो हि सिद्ध श्चाहन्पराऽऽत्मा स हि बुद्धदेवः । सुदर्शने विद्धि निजावतारं, , सत्संय्यमैराऽऽत्मसुखप्रदं तत् ॥ ७७१ ॥ स्त्रीत्वेन नार्यः सकला विभान्ति, नराः पुनः सत्पुरुषत्वयोगैः । स्त्रीधर्मतः स्त्रीजनसद्गतिः स्या सम्यग्यतिः सँय्यमतो विजाति ॥७७२॥ ईदृप्रबोधाऽचरणेन सर्वे, क्लेशा विनश्यन्ति सुदर्शने हे । वं स्वाऽधिकारेण च विद्धि धर्म, निजाऽधिकारेण विधि विधातुम् ॥७७३ ॥ निजाधिकारैः समुदति शक्ति यक्ति तथा विद्धि निजाऽधिकारैः । निजाऽधिकारेण विना गतिनों, निजाऽधिकारेण विना न बुद्धिः ॥७७४ ॥ निजाधिकारैरतिनिन्ननिन्ना जानीह्यसंख्यानिह धर्मजेदान् । सर्वे सदाचारविचारधर्मा गुणक्रिये चाऽप्यधिकारियोगैः ॥ ७७५॥ For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५७) यो ऽणव्यसनबुद्धिनिवारकः स्या तज्जैनधर्मधरणाजगदुन्नतिः स्यात् । आत्मादिकोन्नतिरहो प्रनवेच्च यस्मा धर्मः स एक इह तारकजैनधर्मः ॥ ७७६ ॥ देशस्य संघस्य समुन्नतिः स्यातत्कर्म धर्मोऽस्ति सुशोभते च । स्यादेशकालानुसृतेश्च नीति स्तयैव रीत्याऽस्ति च संघरीतिः ॥७७७॥ कुनीतिदूरीतिविनाशनेन, धर्मस्य नीतिः प्रभवेच्च शुद्धा । विधेहि सत्कर्म च निर्जयः स विनाऽऽत्मना नास्ति सुखं जडेषु शुजाऽशुनां बुद्धिमृते कुरुष्वाऽ स्त्येषा शुजा मुक्तदशाप्रतिज्ञा । वर्तख साम्येन वसुन्धरायां, कुरूपकारं शुभकर्मजिस्त्वम् ॥ ७७९ ॥ त्वं वारयाऽऽनस्यतमो यथेच्छ, ___ त्वं सात्त्विके कर्मणि धेहि बुद्धिम् । अन्ये जनाश्चेन्न सहायकास्ते तथापि नो धेहि मनःकषायम् ॥ ७८०॥ For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । १५८) वं स्वाश्रयीय जगत्सु गच्छ, त्वमाऽऽत्मनि स्वान्तमहो निधेहि । जातिः प्रमाणं तु गुणक्रियाभ्यां, न जन्मना जातिरहो प्रमाणम् ॥७८१॥ जातिर्नवत्येव गुणक्रियाभ्या मीदग्विधैवाऽस्ति सदा ममाज्ञा । नचाऽऽत्मनो ज्ञातिरथ स्वजाति__णस्य सँस्कारतएव विद्धि। ॥७८३॥ श्रेष्ठः शुने यद्गुणकर्मणी स्त__ श्चान्योऽस्त्यधस्ताद्धि सतांगुणानाम् । विद्ध्युत्तमं सद्गुणिनं मनुष्यं, नीचं तथा दुर्गुणिनं मनुष्यम् ॥७८३ ॥ कुर्याच्छुभाचारविचारतो य स्तामुच्चजातिं खलु निश्चिनु त्वम् । ज्ञानादितः सन्ति हि जातयस्ता, स्तस्माञ्चताः स्वोत्तमतां लनन्ते ॥ ७८४॥ ईदृकू तु मच्छासनमस्ति सत्यं,. जानन्ति तेषां सफलं हि कृत्यम् । संक्षेपतोऽयं कृतवान्प्रबोधं, दुष्टाद्विचारात्कुरु चित्तरोधम् ॥ ७८५॥ For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १५९ ) चित्तं च रक्षाऽऽत्मनि देशतस्त्वं, वाण्या च सत्यं वद भूमिमध्ये । तनुं च रक्षाऽऽत्मनिदेशतस्त्वं, चास्वादयाऽऽत्मानुभवं रसं त्वम् शुद्धाऽऽत्मकीभूय कुरूपकारं, सुदर्शने सत्यसुखं लभस्व । सुदर्शना त्वं भगिनी मदीया, तस्माच्चिदानन्दमवाप्नुहि त्वम् तवाश्रयेऽहं निजसेवकानां, शिक्षा प्रदत्ता च महार्हदीक्षा | देवाधिदेवेश सदा जय त्वं, सुरासुरादिप्रतिषेवितस्त्वम् प्रभो महावीर सदा जय त्वं, गुणाकरं च कृतवान्प्रबोधम् । सार्द्धं मया भक्तजनैञ्च सार्द्ध, अदा हि देव प्रतिबोध मेतम् वेदापि त्वां प्रणमन्ति भक्त्या, देविश्वविश्राम सदा जय खम् । मुक्तिस्तु गानेन भवद्गुणानां, तवोपरि प्रीतिरियं हि भक्तिः For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७८६ ॥ ॥ ७८७ ॥ ॥ १९८ ॥ ॥ ७८९ ॥ ॥ ७९० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६०) वैराग्यसिद्धिस्तवशुद्धरागा त्यागोऽपि शुद्धस्त्वयि भक्तितः स्यात् । सदा नवेत्त्वञ्चरणं ममापि, स्वदर्शनाच्छान्तिरथो सुखं स्यात् ॥ ७९१ ॥ साकार ईशोऽसि शरीरयोगै नगस्त्रियस्तारयसे च तेन । देहं विना स्यान्न परोपकारः, स्याजिह्वया देव शुभोपदेशः ॥ ७९२ ॥ तस्माच्च साकार उपग्रही स्या द्वीरप्रजो देव जगच्छरण्य । जिह्वात विनवति प्रबोध स्तस्माद्धि वढेरुपमाऽस्ति तस्याः द्रव्यश्रुतीनामसि देव कर्ता, नावश्रुतीनामपि कारकोऽसि ! नयैरनेकैश्च गभीरबोध, । ददौ भवान्हेजगवन् कृपालो ॥ ७९४ ॥ पानेन सौख्यं तव वाक्सुधाना मनन्तकालीनमपति दुःखम् । प्राऽर्बभूव प्रभुवीरदेवः, सेवा तवाज्ञासु हि देवदेव For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ७९६ ॥ ॥ ७९७॥ (१६१) धन्योऽस्ति धन्योऽस्ति हि सत्ययज्ञ__ प्रचारणार्थ भवतोऽवतारः । कल्याणमूर्ति [हवासयोग्या, पूज्या भविष्यत्यथ ते गुणद्धिः कलौ युगे ते शुभजन्मभूमिः पूज्या नविष्यत्यथ सद्गुणैश्च । गङ्गादितः स्नानमहो तवाऽभू तस्माद्धितास्तीर्थसमा बभूवुः एता भविष्यन्ति जनेषु पूज्याः __कलौ युगे स्यात्तव नक्तिमानम् चूता वटाः पिप्पलसालवृक्षा स्ते क्रीडनस्थानमिमे जवन्ति राजादनादिस्तत एव तेषां, भविष्यति स्वादरणं ववश्यम् । स्वदर्शनं चक्रुरिमेऽर्कचन्द्रा दयस्ततस्ते खलु दर्शनीयाः रविः शशी ते विदधे च भक्तिं, व्यक्ती ततस्तौ शुभदर्शनस्य । त्वां स्थापयित्वा शशिसूर्यमध्ये, त्वां व्याप्तिभावेन च ते भजन्ते ॥७९ ॥ ॥७९९ ॥ 1000॥ For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १६२ ) जक्ता भविष्यन्ति महामहान्तोज्ञानं च लब्ध्वा जवतः कृपातः । त्वां न्यस्य सर्वत्र च भूमिगोले, भजन्ति ते त्वां भगवल्लभन्ते कलौ तु वीरो भवितुं नराणां, सङ्केतितेयं तव देव भक्तिः । वीरं भजन्तः प्रभवन्ति वीराअनन्त संजीवनमुल्लभन्ते वीरप्रभो यत्र तत्राऽस्ति दृष्टिः, प्रादुर्भवेयष्टिरहो समष्टिः । मूर्त्तिगृहे स्थापयते च यस्ते, भक्त कृतायां तु भवेद्विलासः CHASE मिलन्ति सर्वेप्सित वित्तसत्ता स्तव स्वरूपेण रमेत चाऽऽत्मा । धन्योऽसि धन्योऽसि जगत्सु वीर, असंख्यधीरेषु महान्हि धीरः त्वयानतस्तूयते समाधिः, सर्वाधयस्तेन लयं प्रयान्ति । त्वय्यस्ति सर्वः सदसत्त्वधर्मोनान्योन्यमेतौ कुरुतो विरोधम् For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ८०१ ॥ ॥ ८०२ ॥ ॥ ८०३ ॥ ॥ ८०४ ॥ ॥ ८०५ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥८०६ ॥ Il cog 11 ज्ञानादनन्तोऽस्ति नवान्न पारं, प्राप्नोति सर्वज्ञ मदीयचित्तम् । सत्यस्य तीर्थस्य कुरु प्रकाश, प्रजो तवाशाऽस्ति जगज्जनानाम् जगज्जनोद्धारक या गतिस्ते, मतिर्मदीया न ततः प्रयाति । प्रणाशय त्वं बहुपापरीतीः, कुरु प्रभो दुष्टविचारनाशम् अन्धं जगत्सर्वमिदं त्वबोधा तज्ज्ञानिनिर्मोहमथो कुरुष्व । पाखण्डजालात्प्रतिरक्ष विश्वं, शोजस्व हेज्ञातिकुले दिनेश स्वक्षात्रतेजोभिररीअहि त्वं, समानभावस्य कुरु प्रकाशम् । कुरीतिजेदान्परमोच्चनीचा विनाशय त्वं जगदेकबन्धो यज्ञेषु हिंसाश्च निवारय त्वं, त्वमाश्रयः स्या ऋषिसज्जनानाम् । प्रदेहि चार्येभ्य इमं सुबोधमार्यास्तु ते सन्ति गुणेन जैनाः ॥८०८॥ ॥ ८०९॥ ॥८१०॥ For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ०११॥ ॥८१२॥ (१६४) उद्धारय स्वं द्विजजातिसंघ, त्यागेन बोधेन सुखी यथा स्यात् । सर्वत्र विस्तारय देव शान्ति, निवारयेा विषरूपवैरम् दयां च सम्बर्षय विश्वजीवे, विस्तारय त्वं शुलसर्वसत्यम् । निवारय त्वं व्यभिचारचौर्ये, स्वं पक्षपातस्य दहाशु बीजम् । कुरु त्वमाध्याऽऽत्मिकसत्वदानं, ज्ञानेन सम्पूरय चार्यदेशम् । निवारयोपद्रवभीतिरोगा प्रदेहि जीवेशुनशक्तिसारम् दुष्कालदुःखानि विनाशय त्वं, त्वय्यास्ति विश्वास श्तो जनानाम् । शिक्षाऽनुसारं प्रचलेन्नरो यः, सारोहमाप्नोति नरस्त्ववश्यम् अनादिकालीनसमग्रसत्यं, तवोपदेशे सकलं च कृत्यम् । प्रयोदशीयुमधुशुक्लपक्षे, सुखामि ते जन्म महोत्सवेन ॥८१३॥ ॥ ८१४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥८१६ ॥ ॥८१७॥ या पूर्णिमा श्रावणशुक्लपक्षे, प्रबोधयामास शुजानि तस्याम् । तिथिश्च सा तेन बभूव पर्व, __ पापानि नश्यन्ति यदुत्सवेन त्रयोदशीसंगतमाघकृष्णो, क्लेशानृषीणामपनीतवास्त्वम् । विभुश्च कैलासमवारुरोह, प्रजोऽस्तितत्प्रर्व तवोत्सवाय आषाढमासस्य च पूर्णिमायां, गुरुवतं त्वं जगतां गुरुश्च । जगद्गुरोः पर्व च पूर्णिमायां, बभूव विद्यालयहेतुतश्च । जगद्गुरुं त्वां कृतवान्महेन्द्र__ स्त्वदष्टवर्षायुषिबोधपूर्णम् । वं श्रावणे मास्यकरोश्च खेलं, स पर्वमासः प्रबभूव तेन स श्रावणश्चोत्तमधर्ममासः, सदैव सँय्यास्यति हर्षकारी ! नागाः प्रणेमुस्तव पादपद्म, तेनैव नागाभिधपंचमीति THHTHHAHR ॥ १ ॥ ॥८२० ॥ For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ २१ ॥ ॥ ८२२ ॥ व्रतोत्सवादी विहिते च भावे, प्रवर्षमाने भविताऽति हर्षः। कल्याणदीक्षोत्सवपर्वणां ते, नविष्यति क्षेममथो विधानात् दीक्षादिनत्यागिकसंस्मृतौ ते, जना भविष्यन्ति च वीतरागाः। यात्रा च ते कार्तिकपूर्णिमायां, भक्तैः कृता तेन हि पर्व जातम् तस्मादिनाधात्रिकपर्व जातं, तस्मिन्कृतेऽनन्तसुखप्रदं तत् । दिश्युत्तरस्यां मनुजास्त्रियश्च, महाप्रभुं त्वां सममानयन्त सुखप्रदं फाल्गुनपूर्णिमायां, पर्वाऽभवत्तेन गुणाकरस्तत् । जज्वाल वह्निः प्रसनं प्रसन्नो विभो जगच्छीतनिवारणार्थम् । गास्यन्ति गानं तत एव लोका स्त्वद्भक्तिनिश्चैकसया विभूय । देवा महावीरसुनाम चक्रुः, श्रीमार्गशीर्षस्य च पूर्णिमायाम् ॥८२३ ॥ ॥ ८२४ ॥ ॥ ८२५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ८२६ ॥ ॥८२७ ॥ (१६७ ) कृष्णाष्टमी याऽस्ति च चैत्रमासे, सा वर्द्धमानाभिधरम्यपर्व । माघस्य कृष्णेतरपंचमी या, पर्वास्ति यस्यां गतगर्व इन्द्रः माता निजं दोहदमाशु जिग्ये, तस्माञ्च पर्वाऽस्ति परं पवित्रम् । लग्नस्य वारोऽपि महर्द्धिपर्व, : वध्वा वरस्याऽपि सुखाय धाम तोर्वसन्तस्य च पंचमी या, सर्वत्र विश्वेषु सुखप्रदा सा । शुक्लाश्विने श्रीदशमी तिथि र्या, पूजा महावीर तवाविरासीत् स्वन्नामतो भाविजयोत्सवोऽपि, त्वज्जापतो नश्यति पातकौघः । शुक्लाश्विनस्यास्ति शुनाष्टमी या, तस्यां च देवी त्रिशला बभूव पूजा भविष्यन्ति जगत्सु देव्याः, पूज्या नविष्यन्ति जगत्सु सत्यः । जावीनि भूतानि च यद्रतानि, श्रीमन्निमित्तानि च तानि सन्ति ॥ ८२८ ॥ ॥३०॥ For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १६८ ) सुखं कृते पर्वमहोत्सवे च, श्रीमदुःखानि विनाशयेत्सः । एकाग्रबुद्ध्या तपसा व्रतेन, ध्यानं तवाकारि यशोदयाऽपि आषाढमासस्य वरव्रतानि, बाला विधास्यन्ति विनोदयुक्ताः । प्रभो महावीर विभो दयालो, पदे पदे मंगलमातनोतु ऋद्धिं च सिद्धिं च सुखं करोतु, स्वन्नामतः सिद्धिरहो नितान्तम् । स्वन्नामतो भूमितले मनुष्याः शान्तिं च पुष्टिं च सदा लभन्ते लक्ष्मी लजन्ते ध्रुवमत्र ये त्वां गायन्ति शृण्वन्ति तथा पठन्ति । शान्तिर्जवे तुष्टिरथापि पुष्टि - जगत्सु जैनाः सुखिनो जवन्तु Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ॥ ८३१ ॥ ॥ ८३२ ॥ ॥ ८३३ ॥ ॥ ८३४ ॥ इतिश्री सुदर्शना सुबोधः समाप्तः Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only