Book Title: Ratnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Author(s): Thakkur Feru, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचार्य, पद्मश्री जिनविजय मुनि (सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क 60 ठक्कुर-फेरू-विरचित रत्नपरीक्षादि सप्त-ग्रन्थ संग्रह सम्पादक अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur द्वितीयावृत्ति 1996 मूल्य 67.00 रु. Jain a tion inte alls Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचार्य, पद्मश्री जिनविजय मुनि (सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क 60 ठक्कुर - फेरू - विरचित रत्नपरीक्षादि सप्त-ग्रन्थ संग्रह सम्पादक अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राजस्थान) RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR द्वितीयावृत्ति 1996 मूल्य : 67.00 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिलभारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध विविधवाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्टग्रन्थावली प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचार्य, पद्मश्री, जिनविजय मुनि (ऑनररी मेंबर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी) सम्मान्य सदस्य-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना; गुजरात साहित्य सभा, अहमदाबाद; विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, पञ्जाब; निवृत्त सम्मान्य नियामक (ऑनररी डायरेक्टर)-भारतीय विद्याभवन, बंबई; प्रधान संपादक-गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर ग्रन्थावली; भारतीय विद्या ग्रन्थावली; सिंघी जैन ग्रन्थमाला; जैन साहित्यसंशोधक ग्रन्थावली;-इत्यादि, इत्यादि । ग्रन्थाङ्क ठक्कुर - फेरू - विरचित रत्नपरीक्षादि-सप्त-ग्रन्थसंग्रह सम्पादक अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार संचालक-राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान Director, Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur विक्रमाब्द 2017 राज्यनियमानुसार सर्वाधिकार सुरक्षित ख्रिस्ताब्द 1961 द्वितीयावृतिः 500 1996 ईसवी मूल्य : 67.00 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर - फेरू - विरचित रत्नपरीक्षादि - सप्त- ग्रन्थसंग्रह विक्रमाब्द 2017 विक्रमाब्द 2053 समुपलब्ध- प्राचीनतम-प - पुस्तकानुसार पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय मुनि द्वारा संशोधित एवं सुपरिष्कृत प्रकाशनकर्ता राजस्थान राज्याज्ञानुसार संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (डायरेक्टर, राजस्थान ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट) जोधपुर (राजस्थान) सामग्री-संपादनकर्ता अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा प्रथमावृत्ति द्वितीयावृत्ति मुद्रक : राजस्थानी ग्रन्थागार, सोजती गेट, जोधपुर 1961 1996 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदेशकीय राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला के 60वें पुष्प के रूप में आज से करीब 34 वर्ष पूर्व ठक्कुर फेरू विरचित “रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रंथ संग्रह” का प्रकाशन किया गया था। इन सात लघु रचनाओं को ज्योतिषसार, द्रव्यपरीक्षा, वास्तुसार, रत्नपरीक्षा, धातूत्पत्ति, युगप्रधान चतुष्पदी एवं गणितसार नाम से जाना जाता है। जहां गणितसार और ज्योतिषसार संबंधित विषय के प्राथमिक ज्ञान हेतु उपयोगी हैं वहीं द्रव्यपरीक्षा मध्यकालीन भारत में प्रचलित तत्कालीन विभिन्न प्रकार के सिक्कों और रत्न-परीक्षा तत्कालीन रत्नों के अध्ययन हेतु उपयोगी है । संक्षेप में ज्योतिष. गणित, वास्तुशास्त्र, रत्नशास्त्र और मुद्राशास्त्र पर प्रामाणिक लेखन इस रचनावली की एक विशेषता है । इन कृतियों के प्रणेता ठक्कुर फेरू 14 वीं शताब्दी में सम्राट अलाउद्दीन खिलजी के समय उसकी टकसाल के अधिकारी थे और उन्होंने तत्कालीन सिक्कों व रत्नों का वास्तव में अध्ययन कर इन रचनाओं का सृजन किया था। रत्नपरीक्षादि सप्त-ग्रंथ-संग्रह के पुनर्मुद्रण की विद्वज्जगत् में काफी समय से प्रतीक्षा की जा रही थी। आशा है पुस्तक के वर्तमान संस्करण से सुधीजन लाभान्वित होंगे। ओ. पी. सैनी 1.A.S. निदेशक . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ संख्या 30. + 5-8 1-35 1-16 17-38 1. प्रधान संपादकीय–किंचित् प्रासंगिक 2. प्रास्ताविक कथन - अगरचन्द्र, भंवरलाल नाहटा . 3. ठक्कुर फेरूकृत रत्नपरीक्षाका परिचय ..ले. डॉ. मोतीनद-एम्.ए. पीएच. डी. (1) रत्नपरीक्षा मूल ग्रन्थ (2) द्रव्यपरीक्षा मूल ग्रन्थ (3) धातूत्पत्ति (4) ज्योतिषसार (5) गणितसार मूल ग्रन्थ (6) वास्तुसार मूल ग्रन्थ (7) खरतरगच्छयुगप्रधानचतुःपदिका (8) परिशिष्ट – ज्योतिषविषयक स्फुटपद्य 39-44 1-40 41-74 75-103 104-106 107-108 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गण्थल पञ्चास्तोलाल मटकाई बनमासादीनां जावणडियादीतुलाई दाणीकोलगा कातोली रिलाई प्रतिशत्यते तणापि नदी रायवे दिसुद्धा भाषाविद दगानीस्तामाययामास दम्यत्रविदाविद्धता दृढमटका राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालामाला - रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रन्थ संग्रह १० मामीमध्यतो ३० मा ३० इमानी मतमध्यमानमतिखि गीतमा • स सटकमव विश्वापदास्तेवज देणाराशिय सुटाव 124• ε goo २०५ फरक खुरा अमरयुका २० विवरणी समाजातेानाविधतेम मा ग्लोलीवाडा प्रवद तरी कसे। इसी विद्यमाणा पत्र बन्ने दिदीसगिाणी कनचया रूममा बयालीस सा लवासा सदस वरणाविषमतासति प्रका मावियामा सिजाप वा ht • २० गोय बदमाश साकमिवता समापन फलदिति उपवर वनसेवा कार २ कोणा " २०० एदी वाया जातात त्य १ माला अन्य नय यरुपम बाई मा कनिका सामड मानवि कराल.५ भास ब सबस 山ゴン 2017 माया MFFICE ९. ब द्रव्यपरीक्षा ग्रन्थ का मध्य का एक पृष्ठ द्रव्यपरीक्षा ग्रन्थ का समाप्तिसूचक पृष्ठ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला - रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रन्थ संग्रह मोजिनाय । मयलसुराखरविंद देसक्नापुगाइ नमि। पयरतिकुमारीज अन मलेनिनणिमाद।। श्वोदयनर दियस त्रिपरिस्रमादती माझे पासामपिश्रियमाहीती गुल मी स्वाविशरिज ! प्रशनागतात व महिराणी दीपादिरुम बरनीरेचन सबै गनुमा एआड सडडिओ गुलकमाहमसिमउत्तमाजाणविल सहियापीहाण करिणा पनि पमाणे सुदया विदरीय असुदयानि रशिया) राममिकरविवचिङहयायाम विश्वसंक । पढमंत कायम वाजतयद्विदय है।। ६दिखादना नीतिडीए। वहं तिल ग्रहको कक्कड एलाऊ दिसि तिरियदल वजनसे ॥] वनरंसिक्किक्वि दिसावारसला गाठथ सामझ तियएवं सुश्रहं सं । इति रूमि सात्र नानाला ॥ चसवदि कलर लुमिसु भरणी वादिकरा। रारू सर का तंतु मल्ल भाग मि. सतरंयलामगि झणदिसहतिय सिमोदुश्रिदम्भिया फुट तिदिण हा सात बुबुदारव ऊदृचमिमडुयरी | मसला तिखियंवमेव संदसतियांविमोगा कमिांतर के डिगबल दाद मिमिम्सम अगर मलयगिरिपश्यमी मिरिवेद गंध सिरि वेदपुल दचंट पुनील वई एकडिया नाइतियां तदयम वचदण इथल श्री-माएका १४००६०० १७ १० २५ 3 मारता सक सनावनासयरा करुणपी परिभाविददाणेदा सिकरु देनिलयोग (कउदीका विकला नवेदणार शायपरममियवास GOSAN कानाथ वस्तुसार ग्रन्थ का आदि पृष्ठ धातूत्पत्ति ग्रन्थ का अन्तिम पृष्ठ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान संपादकीय - किंचित् प्रासंगिक राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के ४४ ३ ग्रन्थांक रूप में, ठकुर फेरू रचित ७ ग्रन्थों का यह एकत्र संग्रह प्रकट किया जा रहा है। टक्कुर फेरू के इन ग्रन्थों की लिखी हुई प्राचीन पोथी का पता लगाने का श्रेय श्री अगर चन्दजी और भंवर लालजी नाहटा को है। इन साहित्यखोजी बन्धुओं की लगन ने, कलकत्ते के एक कोने में पडे हुए जैन ग्रन्थों के पिटारे में से, इस मूल्यवान निधि को प्रकाश में लाने का अभिनन्दनीय यश प्राप्त किया है। ठकुर फेरू के ये प्रबन्धात्मक ग्रन्थ कैसे मिले और इन को प्रकाश में लाने का कैसा प्रयत्न किया- इस विषय में नाहटा बन्धुओं ने, अपने प्रस्तावनात्मक वक्तव्य में यथेष्ट लिखा है। इस से पहले भी इन्हों ने, कुछ पत्रों में लेख प्रकट करा कर इस विषय पर काफी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है । इस संग्रह की प्राचीन पोथी जब इन के देखने में आई, तो इन की शोधक . बुद्धि ने तत्काल उस का विशिष्ट महत्त्व पिछान लिया और तुरन्त उस पोथी पर से अपने हाथ से नकल उतार कर मेरे पास देखने के लिये भेज दिया। मैं ने भी ग्रन्थ के 'द्रव्यपरीक्षा' नामक प्रबन्ध में वर्णित सर्वथा अज्ञात विषय की उपलब्धि देख कर, इस को सुप्रसिद्ध सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकट कर देने की अपनी इच्छा नाहटा बन्धुओं को व्यक्त की और उस असल प्राचीन लिखित पोथी को मेरे पास भेज देने को लिखा । पर उस समय कलकत्ते में सांप्रदायिक मार-पीट की तूफान वाली हल - चल मच रही थी इस लिये तुरन्त वह प्रति मेरे पास न आ सकी । प्रतिका प्रत्यक्ष अवलोकन किये विना किसी ग्रन्थ को छाप देने के लिये मेरी रुचि संतुष्ट नहीं रहती, इस लिये मैं उस की प्रतीक्षा करता रहा। बाद में, मेरा स्वयं जब कलकत्ता जाना हुआ तो मैं उस प्रति को देखने में समर्थ हुआ और नाहटा बन्धुओं के सौजन्य से वह प्रति कुछ समयके लिये मुझे मिल गई । बंबई आ कर मैं ने उस पर से अपने निरीक्षण में प्रतिलिपि करवाई और उसे प्रेस में छपवाने की व्यवस्था की। ... बाद में बंबई छोड कर मेरा अधिक रहना राजस्थान में होने लगा और मैं मेरे तत्त्वावधान में प्रस्थापित और संचालित राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिर (अब, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान ) के संगठन और संचालन के कार्य में अधिक व्यस्त रहने लगा, तो इस का प्रकाशन स्थमित सा हो गया। ' पर इस ग्रन्थ को, इस रूप में, प्रकट करने-कराने की अभिलाषा नाहटा बन्धुओं को बहुत ही उत्कट रही और मुझे भी ये बहुत प्रेरणा करते रहे । तब मैं ने इसे राजस्थान Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षादि प्रन्थ संग्रह - किंचित् प्रासंगिक पुरातन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकट करने की व्यवस्था की और उसी के फल स्वरूप, आज यह ग्रन्थ प्रकाश में आ रहा है । नाहटा बन्धुओं का जो सतत आग्रह न रहता तो मैं इसे प्रकट करने में शायद ही समर्थ होता । अतः इस के संपादन के श्रेयोभागी ये बन्धु हैं। इस संग्रह की प्रेस कॉपी से ले कर ग्रन्थ को वर्तमान रूप देने तक के ग्रुफ वगैरह सब मुझे ही देखने पडे और भाषा एवं अर्थानुसन्धान की दृष्टि से इस के संशोधन में मुझे बहुत श्रम उठाना पडा । इस लिये ग्रन्थ के प्रकाशित होने में अपेक्षा से भी बहुत अधिक समय व्यतीत हुआ। ठकुर फेरू ने अपनी ये सब रचनाएं प्राकृत भाषा में लिखी हैं । पर इस की यह प्राकृत भाषा, शिष्ट और व्याकरण बद्ध न हो कर, एक प्रकार की प्राकृत-अपभ्रंश की चलती शैली वाली भाषा है जिसे हम न शुद्ध प्राकृत कह सकते हैं, न शुद्ध अपभ्रंश ही कह सकते हैं । फेरू के इन ग्रन्थों के जो विषय हैं वे लोकव्यवहार की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी और अभ्यसनीय हैं । इस लिये उस ने अपनी रचना के लिये प्राकृत भाषा की बहुत ही सरल शैली का उपयोग करना पसंद किया । उस का लक्ष्य अपने भाव कोविषय के अर्थ को अभिव्यक्त करना रहा है, इस लिये व्याकरण के रूढ नियमों का अनुसरण करने के लिये वह प्रयत्नवान् नहीं दिखाई देता । अपनी रचना के लिये प्राकृत का प्रसिद्ध गाथा छन्द उस ने पसन्द किया है और वह छन्द के नियम का ठीक पालन करने की दृष्टि से, कहीं हर को दीर्घ और दीर्घ को हव रखता है; और कहीं कहीं द्वित्व अक्षर को एकाक्षर के रूप में तो कहीं एकाक्षर को द्वित्व के रूप में भी प्रथित कर देता है । छन्द का भंग न हो इस विचार से वह शब्दों का निर्विभक्तिक रूप तक रख देता है । ग्रन्थकार की इस शैली का ठीक अध्ययन करते करते हमें इस का संशोधन करना पड़ा है। इस लिये हमारा समय भी इस में बहुत व्यतीत हुआ। ___फेरू के इन ग्रन्थों में से 'वस्तुसार' और 'रत्नपरीक्षा' तथा 'धातूत्पत्ति' के कुछ हिस्से के सिवा, और ग्रन्थों की अन्य कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई, अतः उक्त एकमात्र प्रति के आधार पर ही सब पाठनिर्णय करना पडा। साथ में प्रति के लेखक की अशुद्धियों ने भी कुछ परिश्रम बढा दिया। प्रति का लिखने वाला न संस्कृत जानता है न प्राकृत । उस ने कहीं कहीं अपनी भाषा में जो वाक्य लिखे हैं उन पर से उस के भाषाज्ञान का परिचय मिल जाता है। हम ने इस के संशोधन में केवल उतना ही प्रयत्न किया है जिस से अर्थबोध ठीक हो सके, और व्याकरण के नियम के निकट शब्द का रूप रह सके । द्रव्यपरीक्षा, रत्नपरीक्षा और धातूत्पत्ति ये तीन प्रबन्ध लौकिक शब्दों के ऊपर आधारित हैं और इन में के अनेक शब्द ऐसे हैं जो सर्वथा अपरिचित से लगते हैं । इन शब्दों का ठीक खरूप जानने का कोई अन्य साधन नहीं । अतः उन की स्थिति जैसी लिखित प्रति में है वैसी ही रखनी आवश्यक रही। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह-किंचित् प्रासंगिक _ 'वस्तुसार' एक प्रसिद्ध रचना है। इसका मुद्रण भी पहले हो चुका है और फिर इस की अन्य प्रतियां भी उपलब्ध होती हैं । अतः उन के आधार पर यह प्रबन्ध तो प्रायः ठीक शुद्ध किया जा सका है । इस के तो विशिष्ट पाठ भेद भी दे दिये हैं। फेरू के इन ग्रन्थों में सब से अधिक महत्त्व का अन्य 'द्रव्यपरीक्षा' है । इस प्रबन्ध में, उस ने अपने समय में भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों और प्रान्तों में प्रचलित, सिक्कों की जो जानकारी लिखी है वह सर्वथा अंपूर्व है। इस विषय पर प्रकाश डालने वाली और कोई ऐसी प्राचीन साहित्यिक कृति अभी तक ज्ञात नहीं है। इस ग्रन्थ पर तो भारत के मध्यकालीन सिक्कों के परिज्ञाता ऐसे किसी विशिष्ट विद्वान् को, एक अध्ययन पूर्ण एवं प्रमाणभूत ग्रन्थ लिखना आवश्यक है । इस का संपादन कार्य प्रारंभ करते समय हमारा उत्साह था, कि हम इस विषय में यथाशक्य जानकारी एवं साधनसामग्री प्राप्त करके, इस के साथ छोटा-बडा भी वैसा कोई निबन्ध लिखेंगे; पर समयाभाव के कारण हम वैसा निबन्ध लिखने में असमर्थ रहे । हम आशा करते हैं कि अब इस ग्रन्थ का यह मूल स्वरूप प्रकट हो जाने पर, कोई सुयोग्य निष्कविज्ञ विद्वान् वैसा प्रयत्न करने की प्रेरणा प्राप्त करेंगे। फेरू के 'रत्नपरीक्षा' ग्रन्थ के विषय में तो प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. मोती चन्दजी ने एक अच्छा परिचयात्मक निबन्ध लिख देने की कृपा की है, जो इसके साथ दिया गया है । इसके लिये हम डॉक्टर साहब के प्रति अपना आभार प्रदर्शित करते हैं । 'गणितसार' और 'ज्योतिषसार' ये रचनाएं प्राथमिक अभ्यासियों के अध्ययन की दृष्टि से अच्छी उपयोगी हैं । गणितसार में तो ठकुर फेरू ने अपने समय में दिल्ली के आसपास के प्रदेश में व्यवहृत अनेक देश्य शब्दों और स्थानिक पदार्थों का भी उल्लेख किया है जिन पर विशेष प्रकाश डाला जा सकता है। . फेरू के इस ग्रन्थ संग्रह की जो उक्त प्राचीन प्रति उपलब्ध हुई है वह, जैसा कि उसके लिपि कर्ता ने दो तीन स्थानों पर निर्देश किया है, वि. सं. १४०३ और १४०४ वर्ष के बीच में लिखी गई है। वास्तव में यह पोथी उक्त संवत् के फाल्गुण और चेत के महिने के बीच में, डेट-दो महिने के अन्दर ही लिखी गई है । ठकुर फेरू ने 'द्रव्य परीक्षा' की रचना, संवत् १३७५ में दिल्ली में अल्लाउद्दीन बादशाह के राज्य काल में की थी । अतः रचना समय के बाद २५-३० वर्ष के भीतर ही यह पोथी लिखी गई थी जिस से इस की प्राचीनता स्वतः सिद्ध है। इस प्रति की कुल पत्रसंख्या ६० हैं और उन में निम्न तालिका के अनुसार फेरू की इस संग्रह वाली सातों रचनाएं लिखी गई हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م یه که م रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह - किंचित् प्रासंगिक १ पत्रांक १ से १८ तक में ज्योतिषसार ,, १९ से २७ A , द्रव्यपरीक्षा ३ , २८ से ३५ ।। वास्तुसार ३६ से ४१ A . रत्नपरीक्षा ४१ A से ४३ A धातूत्पत्ति ४३ B से ४४ युगप्रधान चतुष्पदी ७ , ४५ से ६० गणितसार हम ने इस संग्रह में प्रतिस्थित प्रन्थक्रम का अनुसरण न करते हुए, प्रथम रत्नपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा और धातूत्पत्ति नामक इन ३ रचनाओं को एक साथ रखा है, और फिर ज्योतिषसार, गणितसार एवं वास्तुसार इन ३ रचनाओं को एक साथ रख कर, अन्त में 'युग प्रधान चतुष्पदी' रचना को दे दिया है । इस से विषय का विभाजन ठीक संगत हो गया है। इसके साथ मूल प्राचीन प्रति जो कलकत्ते के जैन भंडार में प्राप्त हुई उसके कुछ पन्नोंके ब्लाक भी बना कर दिये जा रहे हैं जिस से पाठकों को प्रति की प्रतिकृति का दर्शन हो सके। ज्योतिष, गणित, वास्तुशास्त्र, रत्नशास्त्र और मुद्राविषयक विज्ञान पर, इस प्रकार की विशिष्ट ग्रन्थ-रचना करने वाला ठक्कुर फेरू, सचमुच अपने समय का एक बहुत ही बहुश्रुत विद्वान् और अनुभवी शास्त्रज्ञ था। उसकी ये कृतियां हमारे प्राचीन साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं और इस प्रकार राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान द्वारा इन का प्रकाशित होना सर्वथा समादरणीय होगा । ) चैत्र शुक्क १३, वि. सं. २०१७ दिनांक-३१, मार्च, १९६१ भारतीय विद्या भवन, बंबई. - मुनि जिन विजय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरू और उनके ग्रन्थों के विषय में प्रास्ताविक कथन (लेखक-अगरचन्द, भंवरलाल नाहटा) कनाणा निवासी ठक्कुर फेरू का नाम यों तो उन की सुप्रसिद्ध कृति 'वास्तुसार प्रकरण' के कारण सर्व विदित था, परन्तु उन के बहुमुखी प्रतिभासंपन्न एवं महान् ग्रंथकार होने का अब तक पता नहीं था। १५ वर्ष पूर्व, कलकत्ते की श्रीमणि जीवन जैन लायब्रेरी की सूची में 'सारा कौमुदी गणित ज्योतिप' नाम से उल्लिखित फेरू ग्रंथावली की प्रति देखने पर ठक्कर फेरू की कई नई कृतियाँ ज्ञात हुई। इस प्रति की प्राप्ति से केवल हमने ही नहीं, पर जिस किसीने सुना परम आनंद प्राप्त किया । इन ग्रंथों की उपलब्धि से ठक्कर फेरू की गणना, भारतीय साहित्य में, एक अनूठा स्थान प्राप्त करने वाले विद्वानों में की जा सकती है । ठक्कर फेरू विक्रम की चौदहवीं शती के राजमान्य जैन गृहस्थों में प्रमुख व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी कृतियों में जो परिचय दिया है उससे विदित होता है कि ये कन्नाणा निवासी श्रीमाल वंश के धांधिया (धंधकुल ) गोत्रीय श्रेष्टि कालिय या कलश के पुत्र ठक्कुर चंद के सुपुत्र थे। इनकी सर्व प्रथम रचना 'युगप्रधान चतुष्पदिका' है जो संवत् १३४७ में वाचनाचार्य राजशेखर के समीप, अपने निवासस्थान कनाणा में बनी थी। इन्होंने अपनी कृतियों के अंत में "परम जैन" और अपने आप को "जिणंद पय भत्तो" लिख कर अपना कट्टर जैनत्व सूचित किया है । इन्होंने 'रत्नपरीक्षा में अपने पुत्र का नाम हेमपाल लिखा है, जिसके लिये इस ग्रंथ की रचना की है। इनके भाई का नाम अज्ञात है परन्तु भ्राता और पुत्र के लिए 'द्रव्यपरीक्षा' नामक विशिष्ट ग्रंथ की रचना की थी। दिल्लीपति सुरत्राण अलाउद्दीन खिलजी के राज्याधिकारी या मंत्रिमंडल में होने के कारण, पीछे से इनका निवास स्थान अधिकतर दिल्ली हो गया था। इन्होंने 'द्रव्यपरीक्षा' दिल्ली की टंकसाल के अनुभव से तथा 'रत्नपरीक्षा' ग्रंथ सम्राट् के रत्नागार के प्रत्यक्ष अनुभव से, एवं 'गणितसार' में भी दी हुई तत्कालीन राजनैतिक गणित प्रश्नावली आदि से, यह फलित होता है कि ये अवश्य शाही दरबार में उच्च पदासीन व्यक्ति थे। संवत् १३८० में दिल्ली से श्रीमाल सेठ रयपति ने महातीर्थ शत्रुञ्जय का संघ निकाला था, जिसमें ठक्कुर फेरू भी सम्मिलित हुए थे। १-पं. भगवानदासजी जैन ने जयपुर से “वास्तुसार” (गुजराती अनुवाद सहित संस्करण ) के साथ "रत्नपरीक्षा" और "धातोत्पत्ति” का अपूर्ण अंश भी प्रकाशित किया है। २-देखें हमारी "दादा जिन कुशल सूरि" पुस्तक । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कथन - ठकुर फेरू की "युगप्रधान चतुष्पदिका" के अतिरिक्त सभी कृतियाँ प्राकृत में हैं। भाषा बडी सरल, प्रवाही और अपभ्रंश या तत्कालीन लोकभाषा के प्रभाव से प्रभावित है। ग्रन्थोक्त कतिपय वृत्तान्त तत्कालीन भारतीय संस्कृति एवं भाषा पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । इनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १. युगप्रधान चतुष्पदिका- यह कृति तत्कालीन लोकभाषा अपभ्रंश में २८ चौपई व एक छप्पय में रची गई है। इसमें भगवान महावीर से लगा कर खरतरगच्छ के युगप्रधान आचार्यों की परंपरा की नामावली निबद्ध है । आचार्य श्री वर्द्धमान सूरि के पट्टधर श्री जिनेश्वर सूरिजी से यह गच्छ खरतर नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके परवर्ती आचार्यों के संबन्ध में कतिपय संक्षिप्त ऐतिहासिक वृत्तान्तों का भी निर्देश किया गया है। जैसे १. श्री जिनेश्वर सूरिजी ने अणहिलपुर में दुर्लभराज के समक्ष ८४ आचार्यों को जीत कर वसति मार्ग प्रकाशित किया। २. श्री जिनचंद्र सूरिजी ने उपदेश द्वारा नृपति को रंजित किया एवं 'संवेगरंगशाला नामक ग्रंथ की रचना की । ३. श्री अभयदेव सूरिजी ने ९ अंगों पर टीकाएँ बनाई एवं स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट की। ४. श्री जिनवल्लभ सूरिजी ने नंदी, न्हवण, रथ, प्रतिष्ठा, युवतियों के ताला रास आदि कार्य रात्रि में किये जाने निषिद्ध किये। ५. श्री जिनदत्त सूरिजी ने उज्जैन में ध्यान-बल से योगिनी चक्र को प्रतिबोध दिया । शासन देवता ने इन्हें 'युग प्रधान' पद धारक घोषित किया। ६. श्री जिनचंद्र सूरिजी बड़े रूपवान थे। इन्होंने बहुत से श्रावकों को प्रतिबोध दिया। ७. श्री जिनपति सूरिजी ने अजमेर के नृपति (पृथ्वीराज ) की सभा में पद्मप्रभ को पराजित कर जयपत्र प्राप्त किया। ८. श्री जिनेश्वर सूरिजी ने अनेक स्थानों में जिनालय एवं तदुपरि ध्वज, दण्ड, कलश, तोरणादि स्थापित किये एवं १२३ साधु दीक्षित किये।। इनके पट्टधर श्री जिनप्रबोध सूरि के पट्टधर श्री जिनचंद्र सूरिजी के समय में कनाणा में वाचनाचार्य राजशेखर गणि के समीप, संवत् १३४७ के माघ मास में, इस चतुष्पदी की रचना हुई । इसकी एक प्रति हमें जैसलमेर के भंडार का अवलोकन करते हुए प्राप्त हुई थी, जिसकी नकल हमारे पास विद्यमान है और उससे आवश्यक पाठान्तर भी लिये गये हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कथन । २. रत्नपरीक्षा- यह ग्रंथ १३२* प्राकृत गाथाओं में है। संवत् १३७२ में दिल्ली में सम्राट् अल्लाउद्दीन के शासनमें खपुत्र हेमपाल के लिये प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की। पूर्व कवि अगस्त्य और बुद्ध भट के ग्रंथों के अतिरिक्त शाही रत्नकोश की अनुभूति द्वारा अभिलषित विषय का सुन्दर प्रतिपादन किया है। ३. वास्तुसार-शिल्प स्थापत्य के विषय में प्रस्तुत ग्रंथ प्रामाणिक माना जाता है । पं. भगवानदासजी ने हिन्दी और गुजराती अनुवाद सह जयपुर से प्रकाशित भी कर दिया है। प्रस्तुत प्रति संवत् १४०४ की लिखित है और मुद्रित संस्करण से पाठ भेद का प्राचुर्य है । इसकी रचना संवत् १३७२ विजया - दशमी को कनाणापुर में हुई। ४. ज्योतिषसार- यह ग्रंथ संवत् १३७२ में २४२ प्राकृत गाथाओं में रचित है, जिसकी श्लोक संख्या, यंत्र कुंडलिका सह ४७४ होती है । इसमें ज्योतिष जैसे वैज्ञानिक विषय को बडी कुशलता के साथ निरूपण किया है। ५. गणितसार कौमुदी-यह ग्रंथ कुल ३११ गाथाओं में है। गणित जैसे शुष्क और बुद्धि प्रधान विषय का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार ने अपनी योग्यता का अच्छा परिचय दिया है । इस ग्रंथ के परिशीलन से तत्कालीन वस्तुओं के भाव, तौल, नाप इत्यादि सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति का अच्छा ज्ञान हो जाता है। वस्त्रों के नाम, उनके हिसाब, पत्थर, लकड़ी, सोना, चाँदी, धान्य, घृत, • तैलादि के हिसाबों के साथ साथ क्षेत्रों का माप, धान्योत्पत्ति, राजकीय कर, मुकाता इत्यादि अनेक महत्वपूर्ण बातों पर प्रकाश डाला गया है। इसके कतिपय प्रश्न देश्य भाषा के छप्पयों में भी है, जो भाषाकीय अध्ययन की दृष्टि से भी अपना वैशिष्टय रखते हैं। ६. धातोत्पत्ति-प्राकृत की ५७ गाथाओं में पीतल, तांबा, सीसा प्रभृति धातुओं के उत्पत्ति विधानादि के साथ साथ हिंगुल, सिंदुर, दक्षिणावर्त्त संख, कपूर, अगर, चंदन, कस्तूरी आदि वस्तुओं का भी विवरण दिया है; जो कवि के बहुज्ञ होने का सूचक है। ७. द्रव्यपरीक्षा-प्रस्तुत ग्रंथ कवि की समस्त रचनाओं में अद्वितीय है । भारतीय साहित्य में पुराने सिक्कों के संबन्ध में स्वतन्त्र रचना वाला यही एक ग्रंथ उपलब्ध है * 4. भगवानदासजी के प्रकाशित वास्तुसार (गुजराती अनुवादसहित ) के अंत में रत्नपरीक्षा (गा० २३ से १२७) छपी हैं । उसके बीच की ६१ से ११९ तक की गाथाएं धातोत्पत्ति की हैं। पाठ-भेद भी काफी है । उक्त ग्रन्थानुसार रत्नपरीक्षा १२७ गाथाओं का होता है । पर वास्तव में उसमें बीच की बहुत सी गाथाएं छूट गई हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कथन जिसमें मुद्राओं के मूल उपादान, धातुओं की चासनी, धातुशोधन प्रणालिका, भिन्न भिन्न मुद्राओं ( सैकडों रकम की) के नाम, टंकसालस्थान, आकार प्रकार, तौल, माप, धातु के मिश्रण, राजाओं के नाम - ठाम आदि सभी विषयों पर १४९ गाथाओं में, प्राचीन काल से ले कर तत्कालीन समय तक की प्राप्त सभी मुद्राओं पर विशिष्ट विवेचन किया गया है। प्रस्तुत प्रति जिसके कुल ६० पत्र हैं, संवत् १४०३-१४०४ में लिखी हुई सुन्दर सुवाच्य और अच्छी स्थिति में है। किसी सा० भावदेव के पुत्र पुरिसड़ ने अपने लिए लिखीं है । प्रति के हांसिये पर "पत्तनीय प्र.” लिखा हुआ है जिससे मालुम होता है कि यह प्रति मूलमें पाटण के ज्ञानभंडार की रही होगी । फेरू ग्रंथावली की प्रस्तुत प्रति से प्रेसकापी" भंवरलालने स्वयं अपने हाथ से करके पुरातत्याचार्य मुनि जिनविजयजी को भेजी, जिसे देख कर इन्होंने उस समय सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा इसे तुरन्त प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की। साथ में आपने मूल प्रति को भी देखना चाहा। पर कलकत्ते की तत्कालीन सांप्रदायिक विषम परिस्थिति वश, वह तब उन्हें नहीं भेजी जा सकी । बादमें जब मुनि जी कलकत्ता पधारे तब प्रस्तुत प्रति को बंबई ले गये। श्रद्धेय मुनिजी जैसे विद्वान के तत्वाधान में यह ग्रंथ शीघ्र प्रकाशित हो ऐसी हमारी उत्कट इच्छा रही, पर सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अनेकानेक ग्रन्थों के संपादन कार्य में मुनिजी अत्यन्त व्यस्त रहने के कारण इसके प्रकाशन कार्य में विलंब होता रहा। पर अब यह ग्रन्थ, इस रूप में राजस्थान पुरातन ग्रन्थ माला द्वारा प्रकाशित हो रहा है, जो इस विषय के जिज्ञासुओं को परम आनन्द दायक होगा। प्रस्तुत संग्रह में ठक्कुर फेरू के रत्नपरीक्षा' ग्रन्थ के परिचय रूप में, सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. मोती चन्दजी ने, हमारी प्रार्थना पर, एक विस्तृत निबन्ध लिख दिया है, जो इसमें मुद्रित हो रहा है। हम इसके लिये डॉ. साहब के प्रति अपना हार्दिक कृतज्ञ भाव प्रकर करना चाहते हैं । __ अन्त में हम आचार्य श्री जिनविजयजी के प्रति अपना विनम्र और सादर आभारभाव प्रदर्शित करना चाहते हैं कि इन्हों ने, बहुत परिश्रम के साथ, इस ग्रन्थ का यह सुन्दर प्रकाशन, राजस्थान पुरातन ग्रन्थ माला के एक सुन्दर रत्न के रूप में प्रकट कर, हमारे चिराभिलषित मनोरथ को सफल बनाया। अगरचन्द तथा भंवरलाल नाहटा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरूकृत रत्नपरीक्षाका परिचय MVC लेखक - डॉ. मोतीचन्द्र, एम्. ए., पीएच. डी. ( क्युरेटर, प्रिन्स ऑफ वेल्स मुजिअम, बंबई ) अमरकोश (२1१1३ - ४ ) में पृथ्वी के अड़तीस नामों में वसुधा, वसुमती और गर्भा नाम आए हैं जिनसे इस देश के रत्नों के व्यापार की ओर ध्यान जाता है । प्लिनी ने (नेचुरल हिस्ट्री ३७/७६ ) भी भारत के इस व्यापार की ओर इशारा किया है । इसमें जरा भी संदेह नहीं कि १८ वीं सदी पर्यंत जब तक कि, ब्राजिल की रत्नों की खानें नहीं खुलीं थीं, भारत संसार भर के रत्नों का एक प्रधान बाजार था । रत्नों की खरीद विक्री के बहुत दिनों के अनुभव से भारतीय जौहरियोंने रत्नपरीक्षा शास्त्र का सृजन किया । जिसमें रत्नों के खरीद, बेच, नाम, जाति, आकार, घनत्व, रंग, गुण, दोष, कीमत तथा उत्पत्तिस्थानों का सांगोपांग विवेचन किया गया। बाद में जब नकली रत्न बनने लगे तब उन्हें असली रत्नों से विलग करने के तरीके भी बतलाए गए। अंत में रत्नों और नक्षत्रों के सम्बन्ध और उनके शुभ और अशुभ प्रभावों की ओर भी पाठकों का ध्यान दिलाया गया । में रत्नपरीक्षा का शायद सबसे पहला उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र ( २।१०।२६ ) हुआ है । इस प्रकरणमें अनेक तरह के रत्न, उनके प्राप्तिस्थान तथा गुण और दोष की विवेचना है । कामसूत्र की चौंसठ कलाओं की तालिका में ( कामसूत्र, १।३।१६ ) रूप्य-रत्न-परीक्षा और मणिरागाकर ज्ञान विशेष कलाएँ मानी गई हैं । जयमंगला टीका के अनुसार रूप्यरत्न- परीक्षा के अन्तर्गत सिक्कों तथा रत्न, हीरा, मोती इत्यादि के गुण दोषों की पहचान व्यापार के लिए होती थी । मणिरागाकर ज्ञान की कला में गहनों के जड़ने के लिए स्फटिक रंगने और रत्नों के आकरों का ज्ञान आ जाता था । दिव्यावदान ( पृ० ३ ) में भी इस बात का उल्लेख है कि व्यापारी को आठ परीक्षाओं में, जिनमें रत्नपरीक्षा भी एक है, निष्णात होना आवश्यक था । पर इस रत्नपरीक्षा ने किस युग में एक शास्त्र का रूप ग्रहण किया इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता । कौटिल्य के कोश- प्रवेश्य रत्नपरीक्षा प्रकरण से तो ऐसा मालूम पड़ता है कि मौर्य युग में भी किसी न किसी रूप में रत्नपरीक्षा शास्त्र का वैज्ञानिक रूप स्थिर हो चुका था । रोम और भारत के बीच में ईसा की आरंभिक सदियों में जो व्यापार चलता था उसमें रत्नों का भी एक विशेष स्थान था । इसलिए यह अनुमान करना शायद गलत न होगा कि भारतीय व्यापारियों को, रत्नों का अच्छा ज्ञान रहा होगा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ठकुर-फेरू-विरचित और किसी न किसी रूप में रत्नपरीक्षा शास्त्र की स्थापना हो चुकी होगी । जो भी हो, इसमें जरा भी संदेह नहीं कि ईसा की पांचवीं सदी के पहले रत्नपरीक्षा का सृजन हो चुका था। यह समझ लेना भूल होगा कि रत्न-परीक्षा शास्त्र केवल जौहरियों की शिक्षा के लिए ही बना था । इसमें शक नहीं कि, जैसा दिव्यावदान में कहा गया है, व्यापारियों के पुत्र पूर्ण और सुप्रिय (दिव्यावदान, पृ० २६, २९,) को और और विद्याओं के साथ साथ रत्नपरीक्षा भी पढ़ना पड़ा था। हमें इस बात का पता है कि प्राचीन भारत में राजा और रईस रत्नों के पारखी होते थे। यह आवश्यक भी था क्यों कि व्यापारियों के सिवा वे ही रत्न खरीदते थे और संग्रह करते थे । जैसा कि हमें साहित्य से पता चलता है, काव्यकारों को भी इस रत्नशास्त्र का ज्ञान होता था और वे बहुधा रत्नों का उपयोग रूपकों और उपमाओं में करते थे, गो कि रत्न सम्बन्धी उनके अकंलार कभी कभी अतिरंजित होकर वास्तविकता से बहुत दूर जा पहुंचते थे । जैसा कि हमें मृच्छकटिक के चौथे अंक से पता चलता है, कि जब विदूषक वसंतसेना के महल में घुसा तो उसने छढे परकोटे के आंगन के दालानों में कारीगरों को आपस में वैडूर्य, मोती, मूंगा, पुखराज, नीलम, कर्केतन, मानिक और पन्ने के सम्बन्ध में बातचीत करते देखा । मानिक सोने से जड़े (बध्यन्ते ) जा रहे थे, सोने के गहने गढ़े जा रहे थे, शंख काटे जा रहे थे, और काटने के लिए मूंगे सान पर चढ़ाए जा रहे थे । उपर्युक्त विवरण से इस बात का पता चल जाता है कि शूद्रक को रत्नपरीक्षा का अच्छा ज्ञान रहा होगा। कलाविलास के आठवें सर्ग में सोनारों के वर्णन से भी इस बात का पता चलता है कि क्षेमेन्द्र को उनकी कला और रत्नशास्त्र का अच्छा परिचय था। रत्नपरीक्षा शास्त्र का जितना ही मान था, उतना ही वह शास्त्र कठिन माना जाता था। इसीलिए एक कुशल रत्नपरीक्षक का समाज में काफि आदर होता था। रत्नपरीक्षा के ग्रंथ उसका नाम बड़े आदर से लेते हैं। अगस्तिमत' (६७-६८) के अनुसार गुणवान मंडलिक जिस देश में होता है, वह धन्य है। ग्राहक को उसे बुलाकर आसन देकर तथा गंध मालादि से सत्कार करना चाहिए | बुद्धभट्ट (१४-१५) के अनुसार रत्नपरीक्षकों को शास्त्रज्ञ एवं कुशल होना चाहिए । इसीलिये उन्हें रत्नों के मूल्य और मात्रा के जानकार कहा गया है। देश काल के अनुसार मूल्य न आंकने वाले तथा शास्त्र से अनभिज्ञ जौहरियों की विद्वान कदर नहीं करते। ठकुर फेरू (१०६-१०७) का भाव भी कुछ ऐसा ही है। उसके अनुसार मंडलिक 1. देखिए, लेलेपिदर आदियां, श्री लुई फिनो, पारी १८९६ । मैंने इस भूमिका को लिखने में श्री फिनो के ग्रंथ से सहायता ली है जिसका मैं आभार मानता हूं। श्री फिनो ने अपने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ. में उपलब्ध रत्न शास्त्रों को एक जगह इकट्ठा कर दिया है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय को शास्त्रज्ञ, आंखवाला, अनुभवी, देश, काल और भाव का ज्ञाता और रत्नों के खरूप का जानकार होना आवश्यक था। हीनांग, नीच जाति, सत्य रहित और बदनाम व्यक्ति जानकार और मान्य होने पर भी असली जौहरी . कभी नहीं हो सकता । अगस्तिमत (६५) ने भी यही भाव प्रकट किए हैं। अगस्तिमत (५४-६६ ) के अनुसार चतुर जौहरी को मंडलिन् कहा गया है । यह नाम शायद इसलिए पड़ा कि जौहरी अपना काम करते समय मंडल में बैठता था। यह भी संभव है कि यहां मंडल से मंडली यानी समूह का मतलब हो । अगस्ति मत (६१-६६) के अनुसार जौहरी रत्नों का मूल्य आंकता था। उसे देश में मिलनेवाले आठ खानों तथा विदेशी और द्वीपों से आए हुए रत्नों का ज्ञान होता था। उसे रनों की जाति, राग रंग, वर्ति, तौल, गुण, आकर, दोष, आब (छाया) और मूल्य का पता होता था । वह आकर (पूर्वी मध्यभारत), पूर्वदेश, कश्मीर, मध्यदेश, सिंहल तथा सिंधु नदी की घाटी में रत्न खरीदता था तथा रत्न बेचने और खरीदने वाले के बीच मध्यस्थ का काम करता था। अगस्तिमत (७२) के अनुसार वह रत्न विक्रेता से हाथ मिलाकर अंगुलियों के इशारे से उसे रत्न के मूल्य का पता दे देता था। उसी के एक क्षेपक (१३-२३) के अनुसार १, २, ३, ४ संख्याओं का क्रमशः तर्जनी से दूसरी अंगुलियों को पकड़ने से बोध होता था । अंगूठे सहित चारों अंगुलियां पकड़ने से ५ की संख्या प्रकट होती थी। कनिष्ठा आदि के तलस्पर्श से क्रमशः ६, ७, ८ और ९ की संख्याओं का बोध होता था; तथा तर्जनी से १० का । फिर नखों के छूने से क्रमशः ११, १२, १३, १४ और १५ का बोध होता था । इसके बाद हथेली छने पर कनिष्ठादि से १६ से १९ तक की संख्याओं का बोध होता था। तर्जनी आदि का दो, तीन, चार और पांच बार छने से २० से ५० तक की संख्याओं का बोध होता था। कनिष्ठा आदि के तलों को ६ वार तक छूने से ६० से ९० तक अंकों की ओर इशारा हो जाता था; तथा आधी तर्जनी पकड़ने से १००, आधी मध्यमा पकड़ने से १०००, आधी अनामिका पकड़ने से अयुत, आधी कनिष्ठिका से १०००००, अंगूठे से प्रयुत, कलाई से करोड़। मुगल काल में तथा अब भी अंगुलियों की सांकेतिक भाषा से जौहरी अपना व्यापार चलाते हैं। प्राचीन साहित्य में भी बहुधा जौहरियों के सम्बन्ध में उल्लेख मिलते हैं । दिव्यावदान (पृ० ३) में कहा गया है कि किसी रत्न की कीमत आंकने के लिए जौहरी बुलाये जाते थे। अगर वे रत्न की ठीक ठीक कीमत नहीं आंक सकते थे तो उसका मूल्य वे एक करोड़ कह देते थे। बृहत्कथाश्लोकसंग्रह ( १८, ३६६) से पता चलता है कि सानुदास ने पांड्य मथुरा में पहुंच कर वहां का जौहरी बाजार देखा और वहां एक क्रेता और विक्रेता को, एक जौहरी से, एक रत्नालंकार. का मूल्य आंकने को कहते Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर -फेरू-विरचित सुना । सानुदास को उस गहने की ओर ताकते हुए देखकर उन्होंने समझा कि शायद यह निगाहदार था। उससे पूछने पर उसने गहने की कीमत एक करोड़ बता कर कह दिया कि बेचने और खरीदनेवाले की मर्जी से सौदा पट सकता था। वे दोनों एक दूसरे जौहरी के पास पहुंचे जिसने कहा कि गहने की कीमत सारा संसार था पर नासमझ के लिए उसका मोल एक छदाम था । सानुदास की जानकारी से प्रसन्न होकर राजा ने उसे अपना रत्नपरीक्षक नियुक्त कर दिया। प्राचीन साहित्य में अनेक ऐसे उल्लेख आए हैं जिनसे पता चलता है कि रत्नों के व्यापार के लिए भारतीय जौहरी देश और विदेश की बराबर यात्रा करते थे। दिव्यावदान (पृ० २२९-२३०) की एक कहानी में बतलाया गया है कि रत्नों के व्यापारी मोती, वैडूर्य, शंख, मूंगा, चांदी, सोना, अकीक, जमुनिया, और दक्षिणावर्त शंख के व्यापार के लिए समुद्र यात्रा करते थे। निर्यामक प्रायः उन्हें सिंहल द्वीप में बनने वाले नकली रत्नों से होशियार कर देता था तथा उन्हें आदेश दे देता था कि वे खूब समझ कर माल खरीदें । ज्ञाताधर्म कथा (१७) और उत्तराध्ययन सूत्रकी टीका (३६१७३ ) से भी रत्नों के इस व्यापार की ओर संकेत मिलता है । उत्तराध्ययन टीका में एक ईरानी व्यापारी की कहानी दी गई है जो ईरान से इस देश में सोना, चांदी, रत्न और मूंगा छिपा कर लाना चाहता था । आवश्यक चूर्णि (पृ० ३४२ ) में रनव्यापार के लिए एक बनिए का पारसकूल जाने का उल्लेख है । महाभारत (२।२७२५-२६) के अनुसार दक्षिण समुद्र से इस देश में रत्न और मूंगे आते थे । ईसा की प्रारंभिक सदियों में तो भारत से रोम को हीरे, सार्ड, लोहितांक, अकीक, सार्डोनिक्स, बाबागोरी, क्राइसाप्रेस, जहर मुहरा, रक्तमणि, हेलियोटाप, ज्योतिरस, कसौटी पत्थर, लहसुनियां, एवेंचुरीन, जमुनिया, स्फटिक, बिल्लौर, कोरंड, नीलम, मानिक लाल, लालवर्द, गार्नेट, तुरमुली, मोती इत्यादि पहुंचते थे ( मोतीचन्द्र, सार्थवाह, पृ० १२८-१२९) -:२: प्राचीन रत्नपरीक्षा का क्या रूप रहा होगा यह तो ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता, पर उस सम्बन्ध के जो ग्रंथ मिले हैं उनका विवरण नीचे दिया जाता है। . १. अर्थशास्त्र-कौटिल्य ने कोश-प्रवेश्य रत्नपरीक्षा (अर्थशास्त्र, २-१०-२९) में रत्नपरीक्षा के सम्बन्ध की कुछ जानकारियां दी हैं । कोश में अधिकारी व्यक्तियों के सलाह से ही रत्न खरीदे जाते थे । पहले प्रकरण में मोती के उत्पत्ति स्थान, गुण, दोष तथा आकार इत्यादि का वर्णन है । इसके बाद मणि, सौगंधिक, वैडूर्य, पुष्पराग, इन्द्रनील, नंदक, स्रवन्मध्य, सूर्यकान्त, विमलक, सस्यक, अंजनमूल, पित्तक, सुलभक, लोहितक, अमृतांशुक, ज्योतिरसंक, मैलेयक, अहिच्छत्रक, कूर्प, पूतिकूप, सुगन्धिकूप, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय क्षीरपक, सुक्तिचूर्णक, सिलाप्रवालक, चूलक, शुक्रपुलक तथा हीरा और मूंगा के नाम आए हैं । इनमें से बहुत से रत्नों की ठीक ठीक पहचान भी नहीं हो सकती क्यों कि बाद के रत्नशास्त्र उनका उल्लेख तक नहीं करते । २. रत्नपरीक्षा-बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा का समय निश्चित करने के पहले वराहमिहिर की बृहत् संहिता के ८० से ८३ अध्यायों की जानकारी जरूरी है । इन अध्यायों में हीरा, मोती और मानिक के वर्णन हैं । पन्ने का वर्णन तो केवल एक श्लोक में हैं । बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा और बृहत्संहिता के रत्नप्रकरण की छानबीन करके श्री फिनो ( वही पृ० ७ से ) इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि दोनों की रनों की तालिकाओं तथा हीरे और मोती का भाव लगाने की विधि इत्यादि में बड़ी समानता है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों ग्रंथों ने समान रूप से किसी प्राचीन रत्नशास्त्र से अपना मसाला लिया। गरुड़ पुराण ने भी बुद्धभट्ट का नाम हटाकर ६८ से ७० अध्यायों में रत्नपरीक्षा ग्रहण कर लिया। बहुत संभव है कि शायद बुद्धभट्ट का समय ७-८ वीं सदी या इसके पहले भी हो सकता है । ३. अगस्तिमत-अगस्तिमत और रत्नपरीक्षा का विषय एक होते हुए भी दोनों में इतना भेद है कि दोनों एक ही अनुश्रुति की बहुत दिनोंसे अलग हुई शाखा जान पड़ते हैं । श्री फिनो ( पृ० ११) के अनुसार अगस्तिमत का समय बुद्धभट्ट के बाद यानी छठी सदी के बाद माना जाना चाहिए । शायद उसका लेखक दक्षिण का रहनेवाला जान पड़ता है । संभव है कि अगस्तिमत का आधार कोई. ऐसा रतशास्त्र रहा हो जिसकी ख्याति दक्षिण में बहुत दिनों तक थी। ग्रंथ के अनेक उल्लेखों से ऐसा पता चलता है, कि रत्नशास्त्र के प्राचीन सिद्धान्तों को निबाहते हुए भी ग्रंथकार ने अपने अनुभवों का उल्लेख किया है । अभाग्यवश ग्रंथकार के व्याकरण और शैली में निष्णात न होने से उसके भाव समझने में बड़ी कठिनाई पड़ती है। ४. नवरत्नपरीक्षा-नवरत्नपरीक्षा के दो संस्करण मिलते हैं। छोटे संस्करण में सोम भूभूज का नाम तीन जगह मिलता है जिसके आधार पर यह माना जा सकता है कि इसके रचयिता कल्याणी का पश्चिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर (११२८-११३८, ई.) था । इस कथन की सचाई इस बात से भी सिद्ध होती है कि मानसोल्लास के कोशाध्यायमें (मानसोल्लास, भा० १, पृ० ६४ से ) जो रत्नों का वर्णन है, वह सिवाय कुछ छोटे मोटे पाठभेदों के नवरत्नपरीक्षा जैसा ही है । नवरत्नपरीक्षा का दूसरा संस्करण बीकानेर और तंजोरकी हस्तलिखित प्रतियों में मिलता है । इसमें धातुगद, मुद्राप्रकार और कृत्रिम रत्नप्रकार प्रकरण अधिक हैं । संभव है कि स्मृतिसारोद्धार के लेखक नारायण पंडित ने इन प्रकरणों को अपनी ओर से जोड़ दिया हो। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित ५. अगस्तीय रत्नपरीक्षा-अगस्तीय रत्नपरीक्षा वास्तव में अगस्ति मत का सार है । पर विस्तार में कहीं कहीं नई बातें आ गई हैं । अभाग्यवश इसका पाठ बहुत भ्रष्ट और अशुद्ध है। उपर्युक्त ग्रंथों के सिवाय रत्नसंग्रह, अथवा रत्नसमुच्चय, अथवा समस्तरत्नपरीक्षा २२ श्लोकों का एक छोटा सा ग्रंथ है। लघुरत्नपरीक्षा में भी २० श्लोक हैं, जिनमें रत्नों के गुण दोषों का विवरण है। मणिमाहात्म्य में शिव पार्वती संवाद के रूप में कुछ उपरनों की महिमा गाई गई है। ६. फेरू रचित रत्नपरीक्षा-ठकुर फेरूर चित रत्नपरीक्षा का कई कारणों से विशेष महत्व है । पहली बात तो यह है कि यह रत्नपरीक्षा प्राकृत में है। ठक्कर फेरू के पहले भी शायद प्राकृत में रत्नपरीक्षा पर कोई ग्रंथ रहा हो, पर उसका अभी तक पता नहीं। दूसरी बात यह है कि ग्रंथकार श्रीमाल जाति में उत्पन्न ठक्कर चंद के पुत्र ठक्कुर फेरू का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६) के खजाने और टक्साल से निकटतर सम्बन्ध था। उसका स्वयं कहना है कि उसने बृहस्पति, अगस्त्य और बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षाओं का अध्ययन करके और एक जौहरी की निगाह से अलाउद्दीन के खजाने में रत्नों को देख कर, अपने ग्रंथ की रचना की (३-५). उसके इस कथन से यह बात साफ मालूम पड़ जाती है कि कम से कम ईसा की १३ वीं सदी के अंत में बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा, वराहमिहिर के रत्नों पर के अध्याय और अगस्तिमत, रत्नशास्त्र पर अधिकारी ग्रंथ माने जाते थे और उनका उपयोग उस युग के जौहरी बराबर करते रहते थे । जैसा हम आगे चल कर देखेंगे, ठक्कुर फेरू ने रत्नपरीक्षा की प्राचीन परम्परा की रक्षा करते हुए भी तत्कालीन मूल्य, नाप, तोल तथा रत्नों के अनेक नए स्रोतों का उल्लेख किया है जिनका पता हमें फारसी इतिहासकारों से भी नहीं चलता। प्राचीन रत्नशास्त्रों में खानों से निकले रत्नों के सिवाय मोती और मूंगा भी शामिल है जो वास्तव में पत्थर नहीं कहे जा सकते । साधारणतः जवाहरात के लिए रत्न और मणि और कभी कभी उपल शब्द का व्यवहार किया गया है । संस्कृत साहित्य में रत्न शब्द का व्यवहार कीमती वस्तु और कीमती जवाहरात के लिए हुआ है । वराहमिहिर (बृ० सं० ८०।२) के अनुसार रत्न शब्द का व्यवहार हाथी, घोड़ा, स्त्री इत्यादि के लिए गुणपरक है, रत्नपरीक्षा में इसका व्यवहार केवल कंचनादि रनों के लिए हुआ है। मणि शब्द का व्यवहार कीमती रत्नों के लिए हुआ है, पर बहुधा यह शब्द मनिया, गुरिया अथवा मनके लिए भी आया है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय वेदों में रन शब्द का प्रयोग कीमती वस्तु और खजानों के अर्थ में हुआ है । ऋग्वेद में तीन जगह ( फिनो, पृ० १५) सप्त रत्नों का उल्लेख है । मणि का अर्थ ऋग्वेद में तावीज की तरह पहननेवाले रत्नों से है (ऋग्वेद, ११३८; अ० वे० ११२९२, २।४।१ इत्यादि) मणि तागे में पिरोकर गले में पहनी जाती थी ( वाजसनेयी सं० ३०१७; तैत्तिरीयसं ३।४।३।१ ) इसमें भी संदेह नहीं कि वैदिक आर्यों को मोती का भी ज्ञान था। मोती (कृशन) का उपयोग शृंगार के लिए होता था (ऋग्वेद, २।३५।४; १०६८।१; अथर्ववेद ४।१०।१-३) सुव्यवस्थित रत्नशास्त्रों के अनुसार नव रत्नों में पांच महारत्न और चार उपरत्न हैं । वज्र, मुक्ता, माणिक्य, नील और मरकत महारत्न हैं। गोमेद, पुष्पराग, वैडूर्य (लहसनिया ) और प्रवाल उपरत्न हैं । मानिक और नीलम के कई मेद गिनाए गए हैं । वराहमिहिर ( ८२।१ ) तथा बुद्धभट्ट (११४) के अनुसार मानिक के चार भेद यथा-पद्मराग, सौगंधि, कुरुविंद और स्फटिक हैं। अगस्तिमत (१७३) के अनुसार मानिक के तीन भेद हैं, यथा-पपराग, सौगंधिक, कुरुविंद । नवरत्नपरीक्षा (१०९-११०) में इनके सिवाय नीलगंधि भी आ गया है। अगस्तीय रत्नपरीक्षा में (४६ से) मानिक का एक नाम मांसपिंड भी है। ठक्कुर फेरू के अनुसार (५६) मानिक के साधारण नाम माणिक्य और चुन्नी है, अब भी मानिक के ये ही दो नाम सर्वसाधारण में प्रचलित हैं । मानिक के निम्नलिखित भेद गिनाए गए हैं- पद्मराय (पद्मराग), सौगंधिय (सौगंधिक), नीलगंध, कुरुविन्द और जामुणिय । रत्नपरीक्षाओं में नीलम के तीन भेद गिनाए गए हैं - नील साधारण नीलम के लिए व्यवहृत हुआ है तथा इन्द्रनील और महानील उसकी कीमती किस्में थीं। ठक्कुर फेरू ने (८१) नीलम की केवल एक किस्म महिंदनील ( महेन्द्रनील) बतलाया है। प्राचीन रत्नपरीक्षाओं में पन्ने के मरकत और तार्य नाम आए हैं। पर ठक्कुर फेरू (७२) ने पन्ने के निम्नलिखित भेद दिए हैं - गरुडोदार, कीडउठी, बासउती, मूगउनी, और धूलिमराई। उपर्युक्त नव रत्नों की तालिका प्रायः सब रत्नशास्त्रों में आती है पर अगस्तिमत ( ३२५-२९) में स्फटिक और प्रभ जोड़कर उनकी संख्या ग्यारह कर दी गई है। बुद्धभट्ट ने उस तालिका में पांच निम्नलिखित रन जोड़ दिए हैं - यथा शेष (onyx) कर्केतन (thrysobenyl ) भीष्म, पुलक (garnet ) रुधिराक्ष (carnelial) शेष का ही अरबी जज रूपान्तर है । यह पत्थर भारत और यमन से आता था । इसके बहुत से रंग होते हैं जिनमें सफेद और काला प्रधान है । भारत में इस पत्थर का पहनना अशुभ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित माना जाता था । भीष्म कोई सफेद रंग का पत्थर होता था। बुद्धभट्ट (२१२-७९) के अनुसार कषायक पिलाहट लिए हुए लालरंग का पत्थर होता था जो युक्तिकल्पतरु के अनुसार स्फटिक का एक भेद मात्र था । सोमलक नीलमायल सफेद पत्थर था और कुल कर्केतन के किस्म का नीला पत्थर था । वराहमिहिर की रत्नों की तालिका में बाईस नाम गिनाए गए हैं पर एक ही रत्न की अनेक किस्में देखते हुए उनकी संख्या कम कर दी जा सकती है। जैसे शशिकान्त स्फटिक का ही एक मेद है, महानील और इन्द्रनील नीलम हैं, तथा सौगंधिक और पराग मानिक के ही भेद हैं । इस तरह रनों की संख्या घट कर उन्नीस हो जाती है यथा स्फटिक के सहित दस रत्न, कर्केतन, पुलक, रुधिराक्ष तथा विमलक, राजमणि, शंख, ब्रह्ममणि, ज्योतिरस और सस्यक । ज्योतिरस और सस्यक का उल्लेख अर्थशास्त्र (२।११।२९) में भी हुआ है । शंख से शायद यहां दक्षिणावर्त शंख का अनुमान किया जा सकता है । ज्योतिरस शायद जेस्पर या हेलियोट्रोप था । उपर्युक्त रत्नों के सिवाय, फिरोजा (पेरोज, पीरोज) लाजवर्द और लसुन यानी लहसुनिया या वैडूर्य के नाम भी आए हैं । रत्नसंग्रह । (१९) में मसारगर्भ (रूपमुसारगर्भ, मुसलगर्भ, मुसारगल्व; पालि-मसारगल्ल, मुसारगल्ल ) को दूध पानी अलग करने वाला, श्यामरंग का, चमकीला तथा दुष्ट दोषों का अपहर्ता कहा गया है । शब्दकल्पद्रुम ने इसे इन्द्रनीलमणि कहा है जो ठीक नहीं । महाभारत (२१४७१४ ) में भगदत्त द्वारा युधिष्ठिर को अश्मसार का बना पात्र देने का उल्लेख है जिसकी पहचान शायद मसारगर्भ से की जा सकती है । मसारगर्भ की पहचान चीनी रुन-चे-यू यानी जमुनियां से की जाती है, पर अश्मसार यशब भी हो सकता है। क्यों कि आसाम का पड़ोसी बर्मा यशब के लिए प्रसिद्ध है । ठक्कुर फेरुकृत रत्नपरीक्षा (१४-१५) में नवरत्न यथा पमराग, मुक्ता, विद्रुम, मरकत, पुखराज, हीरा, इन्द्रनील, गोमेद और वैडूर्य गिनाए हैं। इनके सिवाय हसणिया (९२-९३) फलह (स्फटिक, ९५-९६) कर्केतन (९८) भीसम (भीष्म, ९९) नाम आए हैं । ठक्कुर फेरू ने लाल, अकीक और फिरोजा को पारसी रत्न बतलाया है (१७३ ), इस तरह ठक्कुर फेरू के अनुसार रत्नों की संख्या सोलह बैठती है। पर वर्णरत्नाकर के रचयिता ज्योतिरीश्वर ठक्कुर (आरंभिक १४ वीं सदी) के समय में लगता है कि १८ रत्न और ३२ उपरत्न माने जाते थे ( वर्णरत्नाकर, पृ० २१, ४१, श्री सुनीतिकुमार चेटर्जी द्वारा संपादित, कलकत्ता १९४०)। रत्नों की तालिका में गोमेद, गरुडोद्गार, मरकत, मुकुता, मांसखंड, पद्मराग, हीरा, रेणुज, मारासेस, सौगं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय धिक चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, प्रवाल, राजावर्त, कषाय और इन्द्रनील के नाम आए हैं । इस तालिका में रत्नपरीक्षा के महारत्नों में गोमेद, मरकत, मुक्ता, हीरा, पद्मराग, इन्द्रनील, प्रवाल और सूर्यकान्त हैं। मांसखंड, सौगंधिक, ( शायद चुन्नी), तो पद्मराग या मानिक के ही भेद हैं । इसी तरह चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त और कषाय स्फटिक के भेद हैं । मारासेस जिसका सम्बन्ध शेष (onyx ) से हो सकता है; तथा लाजवर्द की गणना रत्नों में किस प्रकार की गई यह कहना सम्भव नहीं । 3 उपमणियों की तालिका वर्णरत्नाकर में दो जगह आई है [ पृ० २१, ४१] इनमें [ १ ] कूर्म, [ २ ] महाकूर्म, [३] अहिछत्र, [४] श्यावगं ( सं ) घ, [ ५ ] ब्योमराग, [ ६ ] कीटपक्ष, [७] कुरू [ कूर्म ] विंद, [८] सूर्यभा (ना) ल, [९] हरि (री) तसार, [१०] जीविउ ( जीवित ), [११] यवयाति ( यवजाति ), [१२] शिखि (खी ) निल, [१३] वंशपत्र, [१४] धू (चू) लिमरकत, [१५] भस्मांग, [ १६ ] जंबुकान्त, [१७] स्फटिक, [१८] कक्कैतर, [१९] पारिपात्र, [२०] नन्दक, [२१] अंच (तु) नक, [२२] लोहितक, [२३] शैलेयक, पुलक, [२६] तुल्य (त्थ ) क, [२७] शुकप्रीव [२९] पीतराग, [३०] वर्णरस (सर), [३१] [२४] शुक्तिचूर्ण, [२५] [ २८ ] गुरुत् (ड) पक्ष, कपूरक, [३२] काच । उपमणियों की उपर्युक्त तालिका में कुछ मणियों पर ध्यान दिलाना आवश्यक है । इसमें कूर्म और महाकूर्म तो मणियों की श्रेणी में नहीं आते । कछुए की खपडियों का व्यापार बहुत पुराना है और इसका उल्लेख पेरिप्लस में अनेक बार हुआ है ( शाफ, पेरिप्लस आफ दि एरीथियन सी, पृ० १३ इत्यादि ) अहिछत्रक का उल्लेख हमारा ध्यान कौटिल्य ( २।१।२९ ) के आहिच्छत्रक रत्न की ओर ले जाता है । धूलिमरकत से यहां शायद पन्ने के खड से मतलब है और इस तरह वह ठक्कुर फेरू की धूलिमराई भी शायद खड़ हो । भस्मांग से यहां शायद भीष्म से मतलब है । जंबुकान्त से शायद जमुनियां का मतलब है। अंजन, पुलक, नंदक और शुक्तिचूर्णक के नाम भी अर्थशास्त्र में आए हैं । कर्केतर से यहां कर्केतन का तथा लोहितक से लोहितांक का मतलब है । तुत्थक से हमारा ध्यान कौटिल्य के तुत्थोद्गत चांदी की और खींच जाता है ( १२।१४।३२ ) । काच से काच मणि की और इशारा है । सन् १४२१ में लिखित पृथ्वीचन्द्र चरित्र ( प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह पृ० ९५, बडोदा, १९२०) में रत्नों और उपरत्नों की निम्न लिखित तालिका दी गई हैंपद्मराग, पुष्पराग (पुखराज ) माणिक, सींधलिया, गरुडोद्गार, मणि, मरकत, कर्केतन, वज्र, वैडूर्य, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, जलकान्त, शिवकान्त, चन्द्रप्रभ, साकर प्रभु, प्रभुनाथ, अशोक, वीतशोक, अपराजित, गंगोदक, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलिक, सौगंधिक, सुभग, २ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित सौभाग्यकर, विषहर, धृतिकर, पुष्टिकर, शत्रुहर, अंजन, ज्योतिरस, शुभरुचि, शूलमणि, अंशुकालि, देवानन्द, रिष्टरत्न, कीटपंख, कसाउला, धूमराइ, गोमूत्र, गोमेद, लसणीया, नीला, तृणधर, खगराइ, वजधार, षट्रोण, कणी, चापडी, पिरोजा, प्रवाला, मौक्तिक। उपर्युक्त तालिका के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि ग्रंथकार ने उसमें रत्नों और उपरत्नों के सिवाय उनके भेद, गुण, दोष इत्यादि की भी गिनती कर ली है । जैसे पद्मराग, माणिक, सीधलिया और सौगंधिक मानिक के भेद हैं । मरकत के भेद में ही गरुडोद्गार, मणि, मरकत, धूमराइ और कीटपंख आ जाते हैं । स्फटिक के भेदों में चन्द्रकांत, जलकांत, शिवकांत, चन्द्रप्रभ, साकरप्रभ, प्रभानाथ, गंगोदक, हंसगर्भ, कसाउला (काषाय ) आ जाते हैं । पुखराज, कर्केतन, वज्र, वैडूर्य, अशोक, वीतशोक, पुलक, अंजन; ज्योतिरस, अंशुकालि, मसारगल्ल, रिष्टरत्न, गोमूत्र, गोमेद, लहसनिया, नीला, पिरोजा, मोती, मूंगा अलग अलग रत्न या उपरत्न हैं । अपराजित, सुभग, सौभाग्यकर, विषहर, धृतिकर, पुष्टिकर, शत्रुहर, देवानन्द, तृणधर, रत्नों के गुण से सम्बन्ध रखते हैं। वज्रधार, षट्रोण, कर्णी और चापड़ी रत्नों की बनावट से सम्बन्धित हैं । ___ यहां बौद्ध और जैन शास्त्रों में आई रत्नों की तालिकाओं की ओर भी ध्यान दिला देना आवश्यक मालूम होता है । चुल्लवग्ग ( ९।१।३ ) में मुत्ता, मणि, वेलरिय, शंख, शिला, पवाल, रजत, जातरूप, लोहितंक और मसारगल्ल के नाम आए हैं । मिलिन्द्र प्रश्न (पृ० ११८) में इंदनील, महानील, जोतिरस, वेलुरिय, उम्मापुप्फ, सिरीस पुप्फ, मनोहर, सूरियकंत, चंदकंत, बज्र, कज्जोपमक, फुस्सराग, लोहितंक और मसारगल्ल के नाम आए हैं। सुखावती व्यूह (५६) में वैडूर्य, स्फटिक, सुवर्ण, रूप, अश्मगर्भ, लोहितिका और मुसारगल्ल नाम आए हैं। दिव्यावदान में रत्नों की दो तालिकाएं हैं । एक में (पृ० ५१) मुक्ता, वैडूर्य, शंख, शिला, प्रवालक, रजत, जातरूप, अश्मगर्भ, मुसारगल्ल, लोहितिका और दक्षिणावर्त के नाम हैं, और दूसरीमें (पृ० ६७) पुष्यराग, पद्मराग, वज्र, वैडूर्य, मुसारगल्ल, लोहितिका, दक्षिणावर्त शंख, शिला और प्रवाल के नाम हैं । जैन प्रज्ञापना सूत्र (भगवान दास हर्षचन्द्र द्वारा अनूदित १, पृ० ७७, ७८ ) में वदूर, जग ( अंजण ), पवाल, गोमेज, रुचक, अंक, फलिह, लोहियक्ख, मरकय, मसारगल्ल, भुयमोयग, इंदनील,, हंसगब्म, पुलक, सौगंधिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकांत और सूर्यकांत के नाम आए हैं । चुल्लवग्ग की तालिका में शिला से शायद स्फटिक से मतलब है । मिलिंद प्रश्न की तालिका में उम्मपुप्फ से शायद जमुनिया का; शिरीषपुष्पक से ( अ० शा० २।११।२९) शायद किसी तरह के वैडूर्य का बोध होता है । कज्जोपमक से शायद चिन्तामणि रत्न की ओर इशारा है जो सब काम पूरा करता था । वराहमिहिर का (बृ० सं० ८०५1) ब्रह्ममणि भी शायद चिन्तामणि ही हो । सुखावती व्यूह के अश्मगर्भ से शायद पन्ने का मतलब हो ( अमरकोश २।९।९२ )। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय प्रज्ञापनासूत्र में भुयगमोचक से शायद जहर मुहरे का और हंसगर्भ से किसी तरह के स्फटिक का बोध होता है। __ अर्थशास्त्र (२।११।२९) में जैसा हम पहले देख आए हैं, अनेक रत्नों के उल्लेख हैं । इनमें मोती, हीरा पद्मराग, वैडूर्य, पुष्पराग, गोमंदक, नीलम, चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त इत्यादि रत्नों की श्रेणीमें आ जाते हैं । कौट, मौलेयक और पारसमुद्रक से मणियों के उत्पत्ति स्थान का बोध होता है । कूट पर्वत का तो पता नहीं पर मौलेयक रत्न का नाम शायद बलूचिस्तान में झालावन में बहनेवाली मूलानदी से पड़ा हो ( मोतीचन्द्र जे० यू० पी० एच० एस० १७ भा० १, पृ० ६३) लगता है कि प्राचीन साहित्य में रत्नों की तालिका देने की कुछ रीति सी चल गई । थी। तमिल के सुप्रसिद्ध काव्य (शिलप्पदिकारम् में भी एक जगह रत्नों का उल्लेख आया है (शिलप्पदिकारम् १४१८०-२०० : श्री दीक्षितारद्वारा अंग्रेजी अनुवाद, मद्रास १९३९) मथुरै में घूमता धामता कोवळून जौहरी बाजार में पहुंचा । वहां उसने चार वर्ण के निर्दोष हीरे, मरकत, पमराग, माणिक्य, नीलविंदु, स्फटिक, पुष्पराग, गोमंदक और मोती देखे। प्रायः रस्नशास्त्रों में ( अगस्तिमत ४, ६३, बुद्धभट्ट ११ का पाठमेद ) रत्नों की परख आठ तरह से, यथा-(१) उत्पत्ति (२) आकर (३) वर्ण अथवा छाया (४) जाति (५) गुण-दोष (६) फल (७) मूल्य और (८) विजाति (नकल ) के आधार पर, की गई है। इस का विस्तार नीचे दिया जाता है। (१) उत्पत्ति-यहां उत्पत्ति से रत्नों की वास्तविक अथवा पारलौकिक उत्पत्ति से तात्पर्य है । रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रायः सब शास्त्रों का मत है कि वे एक वज्राहत असुर से पैदा हुए । बुद्धभट्ट (२; १२) के अनुसार एक पराक्रमी त्रिलोक विजेता दानव राज बलि था । एक समय उसने इन्द्र को जीत लिया । खुली लडाई में उससे पार न पा सकने के कारण देवताओं ने उससे यज्ञ में बलि-पशु बनने का वर मांगा। उसके एवमस्तु कहने पर सौत्रामणि यज्ञ में देवताओं ने उसे स्तंभ से बांध दिया। उसकी विशुद्ध जाति और कर्म से उसके शरीर के सारे अवयव रत्नों में परिणत हो गए। ऐसा होने पर देव और नागों में यज्ञ सिद्ध रत्नों के लिए छीनाझपटी होने लगी। इस छीनाझपटी में समुद्र, नदी, पर्वत, वन इत्यादि में रत्न गिर कर आकर रूप में परिवर्तित हो गए । इन रत्नों से राक्षस, विष, सर्प और व्याधियों से तथा पापलग्न में जन्म तथा दुर्दिन से रक्षा होती है। अगस्तिमत (१-९) में भी कहानी का यही रूप है। केवल फरक इतना है कि यज्ञ में असुर के सिर पर इन्द्र ने वज्र मारा और वजाहत सिर से ही रत्नों की सृष्टि हुई । उसके सिर से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, नाभि से Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ठक्कुर - फेरू - विरचित वैश्य और पैरों से शूद्र रत्नों की उत्पत्ति हुई । नवरत्न परीक्षा ( ८ से) में दैत्य का नाम वज्र दिया गया है । वज्रासुर को हराने के लिए इन्द्र ने उससे उसके शरीरदान का वर मांगा । ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर लेने पर यह जान कर कि उसका शरीर अमेद्य है, इन्द्र ने उसके मस्तक पर वज्र से प्रहार किया । उसके शरीर से तरह तरह के रत्न निकले । देव, नाग, सिद्ध, यक्ष, राक्षस और किन्नरोंने तो वह रत्न जाल ग्रहण कर लिया, बाकी रत्न पृथ्वी पर फैल गए । ठक्कुर फेरु ( ६--१९ ) की रत्नोत्पत्ति सम्बन्धी अनुश्रुति का रूप भी बुद्धभट्ट वाली जनश्रुति जैसा ही है । एक दिन असुर बलि इन्द्रलोक को जीतने गया । वहां देवातओं ने उससे यज्ञ - पशु बनने की प्रार्थना की जिसे उसने स्वीकार कर लिया । उसकी हड्डियों से हीरे, दांतों से मोती, लहू से माणिक, पित्त से पन्ना, आंखों से नीलम, हृत् रस से वैडूर्य, मज्जा से कर्केतन, नखों से लहसुनिया, मेद से स्फटिक, मांस से मूंगा, चमड़े से पुखराज तथा वीर्य से भीष्म पैदा हुए। असुर बल के शरीर से निकले रत्नों में से सूर्य ने पद्मराग, चन्द्र ने मोती, मंगल ने मूंगा, बुद्ध ने पन्ना, बृहस्पति ने पुखराज, शुक्र ने हीरा, शनि ने नीलम, राहु ने गोमेद और केतुने वैडूर्य ग्रहण कर लिए और इसीलिए इन रत्नों को धारण करने वाले उपर्युक्त ग्रहों से पीड़ा नहीं पाते । चोखे रत्न ऋद्धिदायक और सदोष रत्न दरिद्रता देने वाले होते हैं ! पर रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपर्युक्त मत ही प्रचलित नहीं था, इसका निराकरण वराहमिहिर ( ८० । ३) ने कर दिया है। उनके अनुसार एक मत से रत्न दैत्यबल से उत्पन्न हुए, दूसरों का कहना है कि दधीचि से । कुछ इस मत के हैं कि उनकी उत्पत्ति पत्थरों के स्वभाववैचित्रय से है । ठक्कुर फेरू ( १२ ) के अनुसार भी कुछ लोग ऐसे थे जिनका मत था कि रत्न पृथ्वी के विकार हैं। जैसे सोना, चांदी, तांबा आदि धातु हैं वैसे ही रत्न मी । एक दूसरे विश्वास के अनुसार मनुष्य, सर्प तथा मेंढक के सर में मणि होती थी ( अगस्तिमत, ६३-६७ ) वराहमिहिर, ( ८५ - ५ ) के अनुसार सर्पमणि गहरे नीले रंग की और बड़ी चमकदार होती थी । (२) आकर - रत्नों की खान को आकर कहा गया है । वराहमिहिर ( ८० - १७ ) के अनुसार नदी, खान और छिटफुट मिलने की जगह आकर है । बुद्धभट्ट ( १० ) ने आकरों में समुद्र, नदी, पर्वत और जंगल गिनाए हैं । 1 (३) वर्ण, छाया - प्राचीन ग्रंथों में रत्नों के रंग को छाया कहा गया है । पर बाद के शास्त्रों में वर्ण के लिए छाया शब्द का व्यवहार हुआ है । बहुधा शास्त्रकार रत्नों को छाया की उपमा जानी पहचानी वस्तुओं से देते हैं । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय १३ ( ४ ) जाति - रत्नशास्त्रों में इस शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग हुआ है । यथा असली रत्न, रत्न की किस्म और जाति । अंतिम विश्वास के अनुसार रत्नों में भी जातिभेद होता था । यह विश्वास शायद पहिले पहल हीरे तक ही सीमित था । इसके अनुसार ब्राह्मण को सफेद हीरा, क्षत्रिय को लाल, वैश्य को पीला और शूद्र को काला हीरा पहनने का विधान था । बाद में यह विश्वास ओर रत्नों के सम्बन्ध में भी प्रचलित हो गया । । (५) गुण, दोष - रत्नों के सम्बन्ध में इन शब्दों का प्रयोग उनकी शुद्धता और चमत्कार लेकर हुआ है । पहिले अर्थ में वे रत्न के गुण और दोष परक हैं। दूसरे अर्थ में वे रत्न के बुरे और भले प्रभाव के द्योतक हैं । 1 रत्नों के गुण निम्नलिखित हैं- महत्ता ( भारीपन ) गुरुत्व, गौरव ( घनत्व ) काठिन्य, स्निग्धता, राग-रंग, आत्र (अर्चिस् द्युति कांति, प्रभाव ) और स्वच्छता । " ( ६ ) फल - सभी रत्नों के फल की विवेचना की गई है। अच्छे रत्न स्वास्थ्य, दीर्घजीवन, धन और गौरव देने वाले, सर्प, जंगली जानवर, पानी, आग, बिजली, चोट, बिमारी इत्यादि से मुक्ति देनेवाले तथा मैत्री कायम रखने वाले माने गए हैं । उसी तरह खराब रत्न दुख देनेवाले माने गए हैं । यह ध्यान देने योग्य बात है, कि रत्नों के बीमारी अच्छा करने के गुणों का रत्न शास्त्रों में उल्लेख नहीं है । रत्नों के फलों की जांच पड़ताल से यह भी पता चलता है कि उनके लिखने में दिमागी कसरत को अधिक प्रश्रय दिया गया है । पर इसमें संदेह नहीं कि शास्त्रकारों ने रत्न- फल के सम्बन्ध में लोकविश्वासों की भी चर्चा कर दी है । हीरे का गर्भस्रावक फल और पन्ने का सर्पविष को रहना इसी कोटि के विश्वास हैं । (७) रत्नों के मूल्य - उनके तौल और प्रमाण पर आश्रित होते थे । प्राचीन ग्रंथों में रत्नों का मूल्य रूपकों और कार्षापणों में निर्धारित किया गया है । यह पता नहीं चलता कि रत्नों का मूल्य सोना अथवा चांदी के सिक्कों में निर्धारित होता था पर कार्षापणके उल्लेख से इनका दाम चांदीके सिक्को ही में मालूम पडता है । अगस्तिमत के एक क्षेपक ( १२ ) से पता चलता है कि गोमेद और मूंगे का दाम चांदी के सिक्कों में होता था, तथा वैडूर्य और मानिक का सोने के सिक्कों में । ठक्करफेरु ( १३७ ) ने बडे हीरे, मोती, मानिक और पन्ने का मूल्य स्वर्णटंकों में बतलाया है । आधे मासे से चार मासे तक के लाल, लहसुनिया, इन्द्रनील और फिरोजा के दाम भी : स्वर्णमुद्राओं में होते थे ( १२१-१२३) एक टांक में १० से १०० तक चढने वाले I यहां यह बात उल्लेखनीय है कि दिव्य शरीर का रत्नों में परिणत होजाने का विश्वास वैदिक है ( जे० आर० एस० १८९४, पृ० ५५८ - ५६० ) ईरानियों का भी कुछ ऐसा ही विश्वास था ( जे० आर० एस० १८९५, पृ० २०२ - २०३ ) . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित मोतियों का दाम रूप्य टंकों में होता था ( १२४-१२६)। उसी तरह एक रती में १ से २ थान चढने वाले हीरे का मूल्य मी चांदी के टंको में कहा गया है (१२७,२८)। गोमेद, स्फटिक, मीष्म, कर्केतन, पुखराज, वैडूर्य-इन सबके मूल्य भी द्रम्म में होते थे (१३०)। । मानसोल्लास ( १, ४५७-४६४ ) में रत्न तोलने की तुला का सुंदर वर्णन है । उसके तुलापात्र कांसे के बने होते थे। उनमें चार छेद होते थे। जिनसे डोरियां पिरोई जाती थीं । कांसे की दांडी १२ अंगुल की होती थी। जिसके दोनों बगल मुद्रिकाएँ होती थीं । दांडी के ठीक बीचोबीच पांच अंगुल का कांटा होता था। जिसका एक अंगुल छेद में फंसा दिया जाता था। कांटे के दोनों ओर तोरण की आकृति बनाई जाती थी। जिसके सिर पर कुंडली होती थी। उसी में डोरी लगती थी। तराजू साधने के लिए एक कलंज तौल का माल एक पलड़े में और पानी दूसरे पलडे में भरा जाता था। जब कांटा तोरण के ठीक बीच में बैठ जाता था तो तराजू सध गई मानी जाती थी। (८) विजाति-इस शब्द से कृत्रिम रत्नों का तथा कीमती रत्नों की तरह दिखनेवाले उपरत्नों से अभिप्राय है । ऐसे नकली रत्न भारत और सिंहल में बहुतायत से बनते थे । नवरत्न परीक्षा (१७४-१८३) के अनुसार सम भाग जले शंख और सिंदूर को सद्यः प्रसूता गाय के दूध में सान कर फिर उसे तृण से बांध कर बांस में भर कर, मिट्टी के बरतन में चावल के साथ पका कर फिर उसे निकाल कर धीमी आंच पर रख देते थे; फिर उसे तेल में बोरते थे। इससे बांस के भीतर नकली मूंगा बन जाता था । इन्द्रनील बनाने के लिए एक कुप्पे में एक पल नील का चूर्ण और दो पल शंख का चूर्ण मिलाकर खूब हिलाते थे। फिर पूर्वोक्त विधि से नकली इन्द्रनील बना लेते थे। नकली मरकत बनाने के लिए मंजीठ, इंगुर और नील समभाग में लेकर उसे शीशे की कुप्पी में खूब मिलाते थे। फिर उनके वे अलग करके उन्हें आग में पकाया जाता था । मानिक शंख के चूर्ण और इंगुर के मेल से उपर्युक्त विधि से बनता था। -:४:- इस प्रकरण में रत्न-परीक्षाओं के आधार पर उनमें आए रत्नों के उपर्युक्त आठ विशेषताओं की जांच पड़ताल करके यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि ठक्कुर फेर ने अपनी रत्नपरीक्षा में कहां तक प्राचीनता का उपयोग किया है और कहां उसने रत्न सम्बन्धी अपने अनुभवों का।। हीरा-हीरा रत्नों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । उसकी विशेषता यह है कि वह सब रत्नों को काट सकता है उसे कोई रत्न नहीं काट सकता । प्रायः सब शास्त्रों के अनुसार हीरे की उत्पत्ति असुरबल की हड्डियों से हुई । उसका नाम वज्र इसलिए पड़ा कि इन्द्र से वजाहत होने पर ही वह निकला। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय प्रधान रत्नशास्त्र हीरेकी खानें आठ या दस मानते हैं । पर कौटिल्य (अनुवाद, पृ० ७८ ) में हीरे की खानों के कुछ दूसरे ही नाम हैं । यथा, सभाराष्ट्रक (विदर्भ या बरार में ) मध्यम राष्ट्रक (कोसल यानी दक्षिण कोसल में ) काश्मक (शायद अश्मक ) [ हैदराबाद की गोलकुंडा की खान ] इन्द्रवानक ( कलिंग, ओड़ीसा) की तो पहचान टीकाकारों ने की है। काश्मक की पहचान टीकाकर ने बनारसी हीरे से की है । जिससे बनारस का हीरे तराशों का अड्डा होने की ओर संकेत हो सकता है। श्रीकटनक हीरा वेदोत्कट पर्वत में मिलता था । श्रीकटनक का ठीक पता नहीं चलता पर शायद इससे, धनकटक ( धरणीकोट ) जो प्राचीन अमरावती का नाम था, बोध होता है । अगर यह पहचान ठीक है तो यहां कृष्णानदी की घाटी में मिलनेवाले हीरों की ओर संकेत हो सकता है । मणिमन्तक हीरा मणिमत् अथवा मणिमंत पर्वत के पास पाया जाता था । इस मणिमत् पर्वत की पहचान श्रीपार्जिटर ने ( मार्कण्डेय पुराण, पृ० ३७० ) में कश्मीर के दक्षिण की पहाड़ियों से की है। यहां अब हीरा मिलनेका पता नहीं चलता । रत्नशास्त्रों में दी गई हीरे की खानों का पता निम्नलिखित तालिका से चल जाएगा - बुद्धभट्ट वराहमिहिर अगस्तिमत मानसोल्लास अगस्तीय रत्न -संग्रह ठक्कुर फेरू | रत्नपरीक्षा सुराष्ट्र हिमालय मातंग पौडू बंग कोशल वैण्यातट वेणातट वेणु सूर्पार मातंग वैरागर सौपार 1001 600. मगध मातंग आरब १५ हेमंत हिमवंतः यहां यह निश्चित कर लेना कठिन है कि उपर्युक्त यंत्र में कितने भौगोलिक नाम वास्तविकता लिए हुए हैं और कितने काल्पनिक हैं । पर इसमें संदेह नहीं की यंत्र में खानों और बाजारों के नाम मिल गए हैं। यह भी संभव है कि बहुत सी प्राचीन खानें समाप्त हो गई हों और उनकी खुदाई बहुत प्राचीन काल में बंद कर दी गई हो । सुराष्ट्र यानी आधुनिक सौराष्ट्र में हीरे की किसी खान का पता नहीं चलता पर यह संभव है कि यहां से रत्न बाहर भेजे जाते हों। यहां एक उल्लेखनीय बात यह है कि प्राचीन साहित्य में जैसे महानिद्देस और वसुदेवहिण्डी में सुराष्ट्र एक बंदर का नाम भी आया है जो शायद सोमनाथ पट्टन हो । यही बात सूर्पारक यानी बम्बई के पास सोपारा बंदरगाह के बारे में भी कही जा सकती है। आर्यशूर की जातकमाला में तो इस बंदर में रत्नों लाए जाने का उल्लेख भी है। हिमालय में हीरे का होना तो उस अनुश्रुति का द्योतक है जिसके अनुसार मेरू, हिमालय और समुद्र रत्नों के आकर माने गए हैं । यह बात पंडुरः (पौडूः) ar सौपारक Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित ठीक है कि शिमला के पास कुछ हीरे मिले थे पर हिमालय में हीरे की खान होने का पता नहीं चलता । मातंग से यहां किस प्रदेश से तात्पर्य है इसका भी ठीक पता नहीं चलता । श्री फिनो (पृ० २६) चालुक्यराज मंगलीश के एक लेख के आधार पर मातंगों का निवास स्थान गोलकुंडा का प्रदेश स्थिर करते हैं। हरिषेण (बृहत्कथाकोश ७५।१-३) के अनुसार मातंग पांड्य देश तथा उसके उत्तर में पर्वत की संधि पर रहते थे। शायद यहां सेलम जिले के चीवरै पर्वत श्रेणी से मतलब है, पर यहां हीरे का पता नहीं चला है । पौण्ड देश से मालदह, कोसी के पूर्व पुर्निया जिले का कुछ भाग तथा दीनाजपुर और राजशाही जिले के कुछ भाग का बोध होता है। तथा पौण्डवर्धन से बोगरा जिले के महास्थान से मतलब है । शायद कलिंग के हीरे से कडपा, बेलारी, कर्नूल, कृष्णा, गोदावरी इत्यादि के तथा संभलपुर के पास ब्राह्मणी, संक, तथा दक्षिणी कोयल नदियों से मिलने वाले हीरे से है । जहांगीर युग की खोखरा की हीरे की खान भी इस बात की पुष्टी करती है । जहांगीर ने स्वयं अपने राज्य के दसवें वर्ष के विवरण (तुजूक, अंग्रेजी अनुवाद, भा० १, ३१६) में इस बात का उल्लेख किया है कि बिहार के सूबेदार इब्राहीम खाने खोखरा को फतह करके वहां के हीरे की खान पर कब्जा कर लिया । हीरे वहां की एक नदी से निकलते थे । इसमें संदेह नहीं कि कोसल से यहां दक्षिण कोसल से मतलब है । जिसकी पहचान आधुनिक महाकोसल से है. । शायद वैरागर और वेणातट या वेणु के हीरे कौसल ही के अन्तर्गत आ जाते हैं । वेणा नदी जो आज कल की वेन गंगा है चांदा जिले से होकर बहती है और उसी पर स्थित बैरागढ़ में हीरे मिलते हैं। मानसोल्लास के वैरागर (सं० वज्राकर ) की पहचान इसी वैरागढ़ से ठीक उतर जाती है । शायद यही स्थान चीनी यात्रियोंका कोस्सल और टाल्मी का कौसल रहा हो। अगस्तीय रत्नपरीक्षा में आए मगध से भी शायद छोटा नागपुर की खानों का बोध होता है। रत्नशास्त्रों में हीरे के अनेक रंग बताए गए हैं । इनके अनुसार सुराष्ट्र का हीरा लाल, हिमालय का तमैला, मातंग का पीला, पुंडू का भूरा, कलिंगका सुनहरा, कोसल का सिरीस के फूल के रंगवाला वेणा, का चन्द्र की तरह सफेद, तथा सुपारा का सफेद होता था। ठक्कर फेरू (२२) ने हीरे का रंग तमैला, सफेद नीला, मटमैला, हरताल की तरह पीला, तथा सिरीस के फूल जैसा बतलाया है। ये रंग खान-परक थे । हीरे के वर्गों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है । सफेद हीरा ब्राह्मण, लाल क्षत्रिय, पीला वैश्य और काला शूद्र पहनने का अधिकारी था। पर राजा को चारों वर्ण के हीरे पहनने का अधिकार था । पर बाद के लेखकों ने सफेद, लाल, पीले और काले हीरे को ही क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति में बांट दिया है । ठक्कुर फेरू (२६) भी इसी मतके हैं । उनकी राय में सफेद चोखा हीरा मालवी अर्थात मालवे का कहलाता था। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय १७ जिनके घरों में निर्दोष हीरे होते हैं उनकी विघ्न, अकाल मृत्यु और शत्रुभय से रक्षा होती है। लाल और पीले हीरे पहनने से राजा को विजयश्री हाथ लगती थी । पुरुष लपलपाते हीरे में भूत, प्रेत, वृक्ष, मंदिर, इन्द्रधनुष इत्यादि देख सकते थे ( ३० ) 1 हीरे का आरंभिक रूप अठपहला होता था और हीरे के इसी आकार को रत्नशास्त्रों में सबसे अच्छा माना है । प्राचीन रत्नशास्त्रों के अनुसार अच्छे हीरे में छः या अष्ट कोण, बारह धाराएं, आठ दल, पार्श्व या अंग कहे गए हैं। हीरे की चोटी को कोटि, तल को विभाजित करने वाली रेखा को अग्र, चोटी की उठान को उत्तुंग, तथा नुकीली विभाजक रेखाओं को तीक्ष्ण कहते थे । तौल में कम, स्वच्छ, शुद्ध और निर्मल और भास्कर - ये हीरे के गुण माने गए हैं। ठक्कुर फेरू (२४) ने हीरे के आठ गुण कहे हैं - सम फलक, उच्च कोणी, तीक्ष्ण धारा, पानी (वारितक ), अमल, उज्ज्वल, अदोष और लघुतोल । रत्नशास्त्रों में हीरे के अनेक दोष भी उल्लिखित हैं। जिनमें टूटी चोटी या पहल, एक की जगह दो कोण, दल दीनता, बर्तुलता, दलहीनता, चपटापन, लंबोदरपन, भारीपन, बुलबुलापना, और कांतिहीनता मुख्य हैं । ठक्कुर फेरू ( २५ ) ने नौ दोष यथाकाकपद, विंदुर (छींटा ) रेखा, मैलापन, चिकट, एक शृंगता, वर्तुलता, जोका आकार, तथा हीन अथवा अधिक कोण बतलाया है । उसके अनुसार ( ३१-३२ ) अत्यन्त चोखी तीखी धारा पुत्रार्थी स्त्रियों के लिए हानिकर थी । पर इसके विपरीत चिपटा, मलिन और तिकोना हीरा रमणियों को इसलिए सुख कर होता था कि पुत्ररत्नों की जननी होनेसे वे अपने को प्रथम रत्न मानतीं थीं, भला फिर उनका सदोष रत्न क्या कर सकता था । 1 हीरे का मूल्य प्राचीन रत्नशास्त्रों में तौल के आधार पर निश्चित किया जाता था । इस सम्बन्ध में दो मत थे एक बुद्धभट्ट और वराहमिहिर का और दूसरा अगस्तिमत का । पहिली व्यवस्था में तौल तंडुल और सर्षप (१ तंडुल = ८ सर्षप ) में थी तथा मूल्य रूपकों में । हीरे की सबसे अधिक तौल बीस तंडुल और दाम दो लाख रूपक निश्चित की गई थी । तौल के इस क्रममें हर घटाव या चढ़ाव दो इकाइयों के बराबर होता था । २० तंडुल के हीरे का दाम दो लाख था और एक तंडुल के हीरे का एक हजार । देखने में तो यह हिसाब सीधा साधा मालूम पडता है, पर श्री किनोने हिसाब लगा कर बतलाया है कि २० तंडुल यानी चार केरट के हीरे का दाम इस रीति से बहुत अधिक बैठ जाता है । अगस्तिमत के अनुसार तौल्य और स्थौल्य के आधार पर पिंड से हीरे का दाम निश्चित किया जाता था। पिंड का माप १ यव स्थौल्य और १ तंडुल तौल्य मान लिया गया है । इस तरह एक पिंड के हीरे का दाम ५०; दो का ५० गुणा ४; चार का Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर - फेरू - विरचित. ५० गुणा १२; पांच का ५० गुणा १६ " इस तरह बढ़ते बढ़ते २० पिंड का दाम ३८०० पहुंच जाता है। पर इस मूल्यांकन में एक ही घनत्व के हीरे आते हैं; उनके हलके होने पर उनका दाम बढ़ जाता था तथा भारी होने पर घट जाता था । .: इस तरह एक हीरा एक पिंड के घनत्व का होते हुए भी १।४ हलके होने पर उसका दाम अठारह गुना होता था, १२ हलके होने पर छत्तीस गुना तथा ३/४ हलके होने पर बहत्तर गुणा हो जाता था । इसी तरह एक हीरा एक पिंड का घनत्व होते हुए मी भारी हो तो उसका दाम १।४ भारी होने पर आधा हो जाएगा इत्यादि । श्री फिनो की राय में अगस्तिमत का ही मूल्यांकन वास्तविक मालुम पड़ता है । ठक्कुर फेरूने हीरे का मूल्यांकन अलग न देकर मोती, मानिक और पन्ने के साथ दिया है । पर हीरे का मूल्य निर्धारण करते समय उसे अगस्तिमत का ध्यान अवश्य रहा होगा । उसके अनुसार ( ३३ ) समपिंड हीरे का भारी होने पर कम दाम और फार तथा हलके होने पर ज्यादा दाम होता था । अलाउद्दीन के समय जौहरियों की तौल का वर्णन ठकुर फेरू ने इस तरह से किया है - १ सरसों १ तंडुल १ जौ ३ राई ६ सरसों २ तंडुल ४ मासा श्री नेल्सन राइट (दि कॉयन्स ३९१ से ) ने अपनी खोज से १६ तंडुल या ६ गुंजा ( रत्ती ) १ टांक टांक के उपर्युक्त तौल में कई बातें उल्लेखनीय हैं। एंड मेट्रालोजी आफ दि सुलतान्स् आफ देहली, पृ० यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सुलतान युगके टांक में ९६ रत्तियां होती थीं । रती का वजन १०८ ग्रेन मान कर उन्होंने टांक की तौल १७२ प्रेन निर्धारित की है। पर ठक्कर फेरू के हिसाब से तो २४ रत्ती १ टांक यानी १७२.८ ब्रेन के बराबर हुई यानी एक रत्ती का वजन करीब ६.३५ ग्रेन के करीब हुआ । अब यहां प्रश्न उठता है कि गुंजा से यहां साधारण गुंजा का ही अर्थ है अथवा यह कोई तौल थी जिसका वजन आधुनिक रत्तीसे करीब करीब पांचगुना अधिक था । --- ठकुर फेरू (१११ ) ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि रनों का मूल्य बंधा हुआ न होकर अपनी नजर पर अवलंबित होता है, फिर भी अलाउद्दीन के समय रत्नों के जो दाम थे उनकी तौल के साथ उसने वर्णन किया है और यह भी बतलाया है की चार रत्न यानी हीरा, मोती, मानिक और पन्ने का दाम सोने के टंके में लगाया १ मासा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय २००० ६. जाता था। इन रत्नों की बड़ी से बड़ी तौल एक टांक और छोटी तौल एक गुंजा मान ली गई है । पर एक टांक में १० से १०० तक चढ़नेवाले मोती तथा एक गुंजा में १ से १२ थान तक चढ़नेवाले हीरे का मूल्य चांदी के टांक में होता था। उपर्युक्त रत्नों के तौल और मूल्य दो यंत्रों में समझाए गए हैंकीमती रत्न सम्बन्धी यंत्रगुंजा |१२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १५ १८ २१ २४ हीरा ५ /१२/२०३०५० ७५/११०/१६०२४०/३२०/४००६००१४०० ०२८००/५१००/११२०० **/**/**/**/**/**/************************************ मोती |०॥ २४८ १५/२५ ४० ६० ८४ ११७/१६०३६० ७०० मानिक२ ५ ८ |१२|१८२६४० ६० ८५ १२०/१६०/२२०/४२० ८०० १४००२४०० पना onluk /१२ ३ ४ ५ ६.८ १.१३ १८२७ ४० उपर्युक्त यन्त्र की जांच से कई बातों का पता लगता है। सबसे पहली बात तो यह है कि अलाउद्दीन के काल में और युगों की तरह हीरे की कीमत सब रत्नों से अधिक थी । हीरा जैसे जैसे तौल में बढ़ता जाता था उसी अनुपात में उसकी कीमत बढ़ती जाती थी । बारह रत्ती तक तो उसका दाम क्रमशः बढता था पर उसके बाद हर तीन रत्ती के वजन पर उसका दाम दुगना हो जाता था । अगर चांदी और सोने का अनुपात १० : १ मान लिया जाय तो एक टांक के हीरे का मूल्य १,२०००० चांदी के टांक के बराबर होता था। इसके विपरीत एक टांक के मोती का मूल्य २००० और मानिक का २४०० सुवर्ण टंका था । पन्ने का दाम तो बहुत ही कम यानी एक टंक के पन्ने का दाम ६० सुवर्ण टंका था । छोटे मोती और हीरों के तौल और दाम का यंत्रमोती(टंक १),१०/१२/१५/२०,२५/३०/४०५०६०-७०/७०-१०० . रुप्यटंक ५०४०३०२०१५/१२/१०८ वज्रगुजा रुप्य टंक ३५/२६/२०/१६/१३/१०८ ७६ उपर्युक्त यंत्र से यह पता चलता है कि मोती और हीरे जितने अधिक एक टांक में चढ़ते थे उतना ही उनका दाम कम होता जाता था और इसीलिए उनका दाम सोने के टांकों में न लगाया जाकर चांदी के टांको में लगाया जाता था। रन शास्त्रों के अनुसार नकली हीरा लोह, पुखराज, गोमेद, स्फटिक, वैडूर्य और शीशे से बनता था। ठक्कुर फेरू ( ३७) ने भी इन्हीं वस्तुओं को नकली हीरा बनाने के काम में लाने का उल्लेख किया है। नकली हीरे की पहचान अम्ल तथा दूसरे पत्थरों के काटने की शक्ति से होती थी। ठक्कुर फेरू (४८) के अनुसार तकली हीरा वजन में भारी, जल्दी बिंधनेवाला, पतली धार वाला तथा सरलतापूर्वक घिस जानेवाला होता था। १ २ E Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेल-विरचित मोती- महारत्नों में मोती का नम्बर दूसरा है। भारतीयों को शायद इस रत्नका बहुत प्राचीनकाल से पता था । मोती को जिसे वैदिक साहित्य में कृशन कहा गया है, सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद ( ११३५।४,१०६८।१) में आता है । अथर्ववेद में वायु, आकाश, बिजली, प्रकाश तथा सुवर्ण, शंख और मोती से रक्षा की प्रार्थना की गई है । शंख और मोती राक्षसों, राक्षसियों और बीमारियों से रक्षा करने वाले माने जाते थे। उनकी उत्पत्ति आकाश, समुद्र, सोना तथा वृत्र से मानी गई है। रत्नशास्त्रों के अनुसार मोतीके आठ स्रोत - यथा सीप, शंख, बादल, मकर और सर्प का सिर, सूअर की दाढ़, हाथी का कुंभस्थल तथा बांस की पोर माने गए हैं। यह विश्वास भी था कि खाती की बूंदें सीपियों में पडकर मोती हो जाती थीं । असुरदल के दांतों से भी मोती बनने का उल्लेख आता है। मोती के उत्पत्ति सम्बन्धी उपर्युक्त विश्वासों की जांच पडताल से पता चलता है कि अथर्ववेद वाली अनुश्रुति से उनका खासा सम्बन्ध है। उसके वृत्रजात मानने से असुरबल वाली अनुश्रुति की ओर ध्यान जाता है । इस तरह हम देख सकते हैं कि मोती सम्बन्धी प्राचीन विश्वासों की जड वैदिक युग तक पहुंच जाती है। __ठकुर फेरू ने भी मोती के उत्पत्तिस्थान, रत्नेशास्त्रों की ही तरह कहे हैं। उसके अनुसार शंखजन्य मोती छोटे, सफेद तथा लाल होते हैं और उनमें मंगल का आवास होता है । मच्छ से उत्पन्न मोती काला, गोल तथा हलका होता है और उसके पहनने से शत्रु और भूत प्रेतों से रक्षा होती है । बांस में पैदा मोती गुंजे के इतने बड़े तथा राज देनेवाले होते हैं । सूअर की दाद से पैदा मोती गोल चिकना और साखू के फल इतना बड़ा होता है । उसको पहननेवाला अजेय हो जाता है । सांप से निकला मोती नीला तथा इलायची इतना बड़ा होता है। उसके पहनने से सर्पोपद्रव, विष, तथा बिजली से रक्षा होती है । बादल में पैदा मोती तो देवता पृथ्वी पर आने ही नहीं देते, गिरने के पहिले ही उन्हें रोक लेते हैं। चिन्तामणि मोती वह है जो बरसते पाणी की एक बूंद हवा से सूख कर मोती हो जाय । सीप के मोती छोटे और मूल्यवान होते है। रत्नशास्त्रों में मोती के आकरों की संख्या भिन्न भिन्न दी हुई है। एक अनुश्रुति के अनुसार आठ आकर हैं तो दूसरी के अनुसार चार । अर्थशास्त्र (३।११।२९) के अनुसार ताम्रपर्णी से निकलनेवाले मोती ताम्रपर्णिक, पांड्यकवाट से पांड्यकवाटक, पाश से पाशिक्य, कूल से कौलेय, चूर्ण से चौर्ण, महेन्द्र से माहेन्द्र, कार्दम से कार्दमिक, स्रोतसि से स्रोतसीय, हद से हृदीय और हिमवत् से हैमवतीय । उपर्युक्त तालिका में ताम्रपर्णिक और पांड्यकत्राटक तो निश्चय मनार की खाड़ी के मोती के द्योतक हैं। ताम्रपर्ण से यहां ताम्रपर्णी नदी का तात्पर्य माना गया है। पांड्यवाट मथुरै है जहां मोती का व्यापार खूब चलता था । पाश से शायद फारस का मतलब Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय २१ है। चूर्ण को टीकाकार ने केरल में मुचिरिके पास एक गांव माना है। यह गांव शायद तामिल साहित्य का मुचिरि और पेरिप्लस ( शाफ, वहि, पृ० २०५ ) का मुजिरिस था जिसकी पहचान क्रेंगनोर में मुयिरिकोट्ट से की जाती है । मुजिरिस ईसा की आरंभिक सदियों में एक बड़ा बंदर था और बहुत संभव है कि यहां मोती आने से किसी नदी के नाम के आधार पर मोती का चौर्णेय नाम पड़ गया हो । टीका के अनुसार कौलेय मोती का नाम सिंहल की किसी कूल नदी के नाम पर पड़ा, पर विचार करने से यह बात ठीक नहीं मालूम पड़ती । कूल से पेरिप्लस (५९ ) के कोल्चि तथा शिलप्पदिकारम् ( पृ० २०२ ) के कौरकै से बोध होता है जो मोतियों के लिए प्रसिद्ध था । पेरिप्लस के समय में वह पांड्य देश का एक प्रसिद्ध बंदरगाह था । पर ताम्रलिप्ती नदी द्वारा बंदर के भर जाने पर बंदरगाह वहां से पांच मील दूर हटकर कायल में पहुंच गया । माहेन्द्रक, कार्दमक, हादीय और स्रौतसीय का ठीक पता नहीं चलता । टीकाकार के अनुसार कार्दम ईरान और स्रोतसी बर्बर देश में नदियां और हृद बर्बर देश में दह था । इन संकेतों में जो भी तथ्य हो पर यहां टीकाकार का फारस की खाड़ी और बर्बर देश से मोती आने की ओर संकेत अवश्य है । हिमालय तो सब रत्नों का घर माना ही जाता था । वराह मिहिर ८१३२ के अनुसार सिंहल, परलोक, सुराष्ट्र, ताम्रपर्णी, पार्श्ववास, कौरवाट, पांड्यवाट और हिमालय में मोती होते थे । 1 सिंहल - मनार की खाडी मोती के लिए प्रसिद्ध है । यह खाडी ६५ से १५० मील चौडी हिन्द महासागर की एक बाहु है । मोती के सीप सिंहल के उत्तर पश्चिमीतट से सट कर तथा तूतीकोरिन के आसपास मिलते हैं । मोतियों के इस स्रोत का उल्लेख प्लिनी (९५४ -८), पेरिप्लस ( ३५, ३६,५६,५९), मार्कोपोलो (दि बुक आफ सेर मार्कोफोलो, भा०२, पृ०२६७, २६८) फ्रायर जार्डेनस ( मीराविलिया डिसक्रिप्टा, इक्लूयेत सोसाइटी, १८६३, पृ०६३ ) लिनशोटेन ( दि वोयज आफ लिनशोटेन, हक्लूयेत सोसाइटी, १८८४, भा०२ पृ०१३३ - १३५ ) इत्यादि करते हैं । 1 परलोक - इसी को शायद ठकुर फेरू ने रामावलोक कहा है । इस प्रदेश का ठीक ठीक पता नहीं चलता पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि मध्यकाल में अरब भौगो लिक पेगू को ब्रह्मादेश कहते थे । बरमा के समुद्रतट से कुछ दूर मेर्गुई द्वीप समूह के समुद्र में अब भी मोती मिळते हैं। रामा से पेगू की पहचान की जा सकती है । यहां सलंग लोग मोती निकालते हैं । सुराष्ट्र कल के रनके दखिन में, नवानगर के समुद्र तट के आगे जोधाबंदर के पास, मंगरा से कुछ की खाड़ी में पिंडेरा तक, आजद, चोक, कलंबार और नीरा के द्वीपों के आसपास भी मोती मिलते हैं ( सी० एफ० कुंज और सी० ० एच० स्टिवेन्सन, दि बुक आफ पर्ले, पृ० १३२, लंडन १९०८ ) । - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित ताम्रपर्णी-जैसा हम ऊपर कह आए हैं यहां ताम्रपर्णी से मनार की खाडी से मतलब है । ताम्रपर्णी नदी के मुहाने पर पहले कोरके बंदरगाह पर, वाद में उसके भरजाने से उसके दक्खिन पांच मील पर, कायल बंदरगाह हो गया । पांड्यवाट- इससे शायद मथुरे का मतलब है जहां मोती का खूब व्यापार चलता था । शिलप्पदिकारम् (पृ०२०७ ) के अनुसार वहां के जौहरी बाजार में चन्द्रागुरु, अंगारक और अणिमुत्तु किस्म के मोती बिकते थे। कौवेरवाट - इसका ठीक पता तो नहीं चलता पर संभव है कि यहां चीलों की सुप्रसिद्ध राजधानी कारीपट्टीनम् अथवा पुहार से मतलब हो । शिलप्पदिकारम् (पृ० ११०.१११) के अनुसार यहां मोतीसाज रहते थे और बे ऐब मोती बिकते थे। पारशववास- इससे फारस की खाड़ी से मतलब है। यहां मोती बहुत प्राचीन काल से मिलते हैं। इसका उल्लेख, मेगास्थनीज, चेरक्स के इसिडोर, नियर्कस, तथा टाल्मी ने किया है । टाल्मी के अनुसार मोती के सीप टाइलोस द्वीपमें ( आधुनिक बहरैन ) मिलते थे। पेरिप्लस (३५) के अनुसार कलैई ( मश्कत के उत्तर पश्चिम दैमानियत द्वीप समूह में कल्हातो ) में मोती के सीप मिलते थे। नवीं सदी में मासूदी ने उसका वर्णन किया है। पारी रेनो, 'मेमायर सुर लें द' १८५९ । इब्नबतूता ( गिब्स, इब्नबतूता ) ने इसका उल्लेख किया है । बार्थेमा ने (दि ट्रावेल्स आफ लोदीविको बार्थिमा, पृ० ९५, लंडन, १८६३) हुर्मुज की यात्रा में फारस की खाड़ी के मोतियों का वर्णन किया है । लिन्शोटन और तावनिये ने भी हुरमुज, बसरा और वहरैन के मोती के व्यापार का आंखों देखा वर्णन दिया है। ___ अगस्तिमत (१०९-१११) और मानसोल्लास (१, ४३४ ) के अनुसार सिंहल, आरवाटी, बर्बर और पारसीक से मोती आते थे। सिंहल और फारस का तो हम वर्णन कर चुके हैं। आरवाटी से यहां अरब के दक्खिन-पूर्वी तट और बर्बर से लाल सागर से मिलनेवाले मोती के सीपों से तात्पर्य मालूम पडता है । अरब में अदन से मश्कत तक के बंदरों में मोती के गोताखोर मिलते हैं जो अपना व्यापार सोकोतरा के द्वीपों, पूर्वी अफ्रीका और जंजीबार तक चलाते हैं। लाल सागर में अकाबा की खाडी से बाबेल मंदेब तक मोती के सीप मिलते हैं (कुंज, वही, पृ० १४२)। ठकुर पेरू के अनुसार (४९) मोती रामावलोइ, बब्बर, सिंहल कांतार, पारस, कैसिय और समुद्रतट से आते थे। उपर्युक्त तालिका कुछ अंश में रत्न शास्त्रों की तालिकाओं से भिन्न है। रामावलोइ से जैसा हम पहले कह आए हैं, शायद मेरगुई के द्वीप समूह से अथवा पेंगू से मतलब हो । बब्बर से लाल सागर के अफ्रीकी तट से मतलब है । यहां बर्बर लोगों से तात्पर्य नील नदी और लाल सागर के बीच रहनेवाले दनाकिल तथा सोमाल और गल्लों से है। कान्तार से यहां रेगिस्तान से अभिप्राय है । महानिदेस (ला पूसां द्वारा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ रनपरीक्षा का परिचय संपादित, पृ० १५४-५५) में मरु कान्तार किसी प्रदेश का नाम है जो शायद बेरेनिके से सिकंदरिया तक के मार्ग का घोतक था। यह भी संभव है कि ठकुर फेरू का मतलब यहां कांतार से अरब के दक्खिन पूर्वी समुद्र तट से हो जहां के मोतियों के बारे में हम ऊपर कह आए हैं। अगर हमारा अनुमान ठीक है तो यहां कांतार से अगस्तिमत के आवाटी और मानसोल्लास के आवाट से मतलब है । केसिय से यहां निश्चय इब्नबतूता (गिब्स, इब्नबतूता, पृ० १२१, पृ० ३५३.) के बंदर कैस से मतलब है जिसे उसने मूल से सीराफ के साथ में मिला दिया है । ( वास्तव में यह बंदर सीराफ से ७० मील दक्खिन में है)। सीराफ (आनुधिक तहीरी के पास ) पतन के बाद, १३ वीं सदी में उनका सारा व्यापार कैस चला आया । करीब १३०० के कैस का व्यापार हुरमुज उठ आया । कैस के गोताखोरों द्वारा मोती निकालने का आंखों देखा वर्णन इब्नबतूता ने किया है। जैसे, बाद में चल कर और आज तक बसरा के मोती प्रसिद्ध हैं उसी तरह शायद चौदहवीं सदी में कैस के मोती प्रसिद्ध थे। ___ इब्नबतूता के शब्दों में – 'हम खुंजुवाल से कैस शहर को गए । जिसे सीराफ भी कहते हैं । सीराफ के लोग भले घर के और ईरानी नस्ल के हैं। उसमें एक अरब कबीला मोतियों के लिए गोताखोरी का काम करता था । मोती के सीप सीराफ और बहरेन के बीच नदी की तरह शांत समुद्र में होते हैं । अप्रेल और मई के महीनों में यहां फार्स, बहरेन और कतीफ के व्यापारियों और गोताखोरों से लदी नावें आती है।' बुद्धभट्ट ने केवल सफेद मोतियों का वर्णन किया है। अगस्तिमत के अनुसार मोती महुअई (मधुर ) पीले और सफेद होते हैं । मानसोल्लास में नीले मोती का भी उल्लेख है; तथा रत्नसंग्रह में लाल मोती का । ठक्कुर फेरू ने भी प्रायः मोती के इन्हीं रंगो का वर्णन किया है। रत्नशास्त्रों के अनुसार गोल, सफेद, निर्मल, खच्छ, स्निग्ध, और भारी मोती अच्छे होते हैं । अच्छे मोती के बारे में ठकुर फेरू (५१) का भी यही मत है। रत्नशाखों के अनुसार मोती के आकार दोष-अर्धरूप, तिकोनापन, कृशपार्श्व और त्रिवृत्त (तीनगांठ ); बनावट के दोष-शुक्तिपार्थ (सीप से लगाव ) मत्स्याक्ष (मछली के आंख का दाग), विस्फोटपूर्ण ( चिटक), बलुआहट ( पंकपूर्ण शर्कर ), रूखापन; तथा रंग के दोष-पीलापन, गदलापन, कांस्यवर्ण, ताम्राभ और जठर माने गए हैं। मोती के प्रायः यही दोष ठक्कुर फेरू ने भी गिनाए हैं। इन दोषों से मोती का मूल्य काफी घट जाता था। . हम हीरे के प्रकरण में देख आए हैं कि ठक्कुर फेरू ने मोतियों के तौल और दाम का क्या हिसाब रखा था । प्राचीन रत्नशास्त्रों में इस सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं-एक तो बुद्धभट्ट और वराहमिहिर का और दूसरा अगस्ति का । पहले सिद्धान्त में गुंजा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित अथवा कृष्णल की तौल है । माष पांच गुंजों के बराबर होता था और शाण चार माष के । दाम रूपक अथवा कार्षापण में लगाया गया है। सबसे बडी तौल एक शाण मान ली गई है और कीमत ५३०० रूपक । तौल में हर एक माष बढने पर दाम दुगुना हो जाता था। दूसरे सिद्धान्त में तौल गुंजा, मंजली और कलंज में निर्धारित है । एक कलंज चालीस गुंजों के अथवा चौतीस मंजली के बराबर माना गया है । गुंजा की तौल करीब आधा केरेट तथा कलंज करीब साड़े बाईस केरेट के है । मोती की भारी से भारी तौल दो कलंज मानकर उनकी कीमत ११७११७३ (१) मानी गई है । तौल पर दाम किस आधार पर बढ़ता था, इसका विवरण ठीक तरह से समझ में नहीं आता । सब रत्नशास्त्रों के अनुसार सिंहल में नकली मोती पारे के मेल से बनते थे । नकली मोती जांचने के लिए मोती, पानी तेल और नमक के घौल में एक रात रख दिया जाता था। दूसरे दिन उसे एक सफेद कपडे में धान की भूसी के साथ रगडते थे। ऐसा करने से नकली मोती का रंग उतर जाता था पर असली मोती और भी चमकने लगता था। मानिक-अनुश्रुति के अनुसार पद्मराग की उत्पत्ति असुरबल के रक्त से हुई। मानिक के नामों में पद्मराग, सौगंधिक, कुरुविंद, माणिक्य, नीलगंधि और मांसखंड मुख्य हैं । बुद्धभट्ट के कुरुविंदज; सुगंधिकोत्थ, स्फटिक प्रसूत तथा वराहमिहिर के कुरुविंदभव, सौगंधिभव तथा स्फटिक का शाब्दिक अर्थ जैसे गंधक से उत्पन्न, ईगुर से उत्पन्न स्फटिक से उत्पन्न लिया जाय अथवा नहीं इसमें संदेह है। यह नहीं कहा जा सकता कि रत्नपरीक्षाकार को जिससे दोनों शास्त्रकारों ने मसाला लिया है गंधक, ईगुर और स्फटिक से मानिक की उत्पत्ति के किसी रासायनिक प्रक्रिया का ज्ञान था अथवा नहीं । प्रायः सब शास्त्रों के अनुसार सबसे अच्छा मानिक लंका में रावणगंगा नदी के किनारे मिलता था । कुछ हलके दर्जे के मानिक कलपुर, अंघ्र तथा तुंबर में मिलते थे (बुद्धभट्ट, ११४ वराहमिहिर ८२।१; मानसोल्लास, ११४७३-७४) ठक्कुर फेरू (५५) के अनुसार मानिक सिंहल में रामागंगा नदी के तट पर, कलशपुर और तुंबर देश में मिलते थे। रावणगंगा- ठक्कर फेरू की रामागंगा शायद रावणगंगा ही है। यहां हम पाठकों का ध्यान इब्नबतूता की सिंहल यात्रा की ओर दिलाना चाहते हैं। अपनी यात्रा में वह कुनकार पहुंचा जहां मानिक मिलते थे (गिब्स, इब्नबतूता, पृ० २५६-५७ ) वह नगर एक नदी पर स्थित था जो दो पहाडों के बीच बहती थी । इब्नबतूता के अनुसार (मौलवी मुहम्मदहुसेन, शेख इब्नबतूता का सफरनामा । पृ० ३३८-३९ लाहोर १८९८) इस शहर में ब्राह्मण किस्म के मानिक मिलते थे। उनमें से कुछ तो नदी से निकलते थे और कुछ जमीन खोदकर । इब्नबतूता के वर्णन से यह भी पता चलता है Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय कि याकूत शब्द का व्यवहार माणिक और नीलम तथा दूसरे रंगीन रत्नों के लिए मी होता था । सौ फनम से ऊंची मालियत के पत्थर राजा खयं रख लेता था । मार्कोपोलो (यूल, दि बुक आफ सर मार्कोपोलो, २, १५४ ) ने भी सिंहल के मानिक और दूसरे कीमती पत्थरों का उल्लेख किया है । तावनिये (ट्रावेल्स, भा॰ २, पृ० १०१-१०२) के अनुसार भी मध्यासिंहल के पहाडी इलाकेकी एक नदी से मानिक और दूसरे रत्न मिलते थे । बरसात में यह नदी बहुत बढ़ जाती थी। पानी कम हो जाने पर लोग इसमें मानिक इत्यादि की खोज करते थे। ___ उपर्युक्त उद्धरणों से रावणगंगा अथवा रामागंगा की वास्तविकता सिद्ध हो जाती है। सर ए० टेनेंट के अनुसार इब्नबतूता का कुनकार या कनकार गंपोला था जिसका दूसरा नाम गंगाश्रीपुर या गंगेली था। पर गिब्स के अनुसार कुनकार की पहचान कोर्नेगल्ले (कुरूनगल) से की जा सकती है जो इब्नबतूता के समय सिंहल के राजाओं की राजधानी थी । (गिब्स, इब्नबतूता, पृ० ३६५ नोट ६) क (का) लपुर-कलशपुर-प्राचीन रत्नशास्त्रों में मानिक का एक, प्राप्तिस्थान कलपुर दिया है । यह पाठ ठीक है अथवा नहीं यह तो कहना संभव नहीं, पर खोटे मानिक का वर्णन करते हुए बुद्धभट्ट (१२९-१३१ ) ने कलशपुर का उल्लेख किया है । अगर कलपुर (मानसोल्लास-कालपुर ) पाठ ठीक है तो शायद उसका मिलान तामिल काव्य पट्टिन्नप्पाले के कालगम् से किया जा सकता है जिसे श्री नीलकंठशास्त्री कडारम् अथवा आधुनिक केदा मानते हैं (नीलकंठशास्त्री, हिस्ट्री आफ श्रीविजय, पृ० २६, मद्रास १९४६) पर केदा में मानिक कैसे पहुंचे यह प्रश्न विचारणीय है । संभव है कि स्याम और बर्मा के मानिक यहां बिकने के लिए पहुंचते हो और बाजार के नाम से ही उत्पत्तिस्थल का नाम पड गया हो । कलशपुर की पहचान लिगोर के इस्थमस पर स्थित कर्मरंग से श्री लेवी ने की है (वही, पृ० ८१)। अगर यह पहचान ठीक है तो कलशपुर में शायद मानिक का व्यापार होता रहा होगा। अंध्र-आंध्रदेश में मानिक मिलने का और दूसरा उल्लेख नहीं मिलता। तुंबर-मार्कंडेय पुराण (पार्जिटर का अनुवाद, पृ० ३४३ ) के तुंबर, जैसा श्री पार्जिटर का अनुमान है, शायद विंध्यपाद पर रहनेवाली एक जंगली जाति के लोग थे पर तुंबर देश की स्थिति का ठीक पता नहीं चलता । विंध्य में मानिक मिलने का भी पता नहीं है। ___ रत्नशास्त्रों में मानिक के बहुत से रंग कहे गए हैं जिनमें चटकीला ( पमराग) पीतरक्त (कुरुविंद ) और नीलरक्त (सौगंधिक ) मुख्य है । प्राचीन रत्नशास्त्रों के अनुसार सब तरह के मानिक एक ही खान में मिलते थे। बुद्धभट्ट के अनुसार सिंहल की नदी ww Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित रावणगंगा में चार रंग के मानक मिलते थे पर मानसोल्लास (४७५-४७६ ) के अनुसार सिंहल का पभराग लाल, कालपुर का कुरुविंद पीला, आंध्र का सौगंधिक अशोक के पल्लव के रंग का, तथा तुंबर का नीलगंधि नीले रंग का होता था। पर खानों " के अनुसार मानिक का रंगों के अनुसार वर्गीकरण कोरी कल्पना जान पड़ती है। अगस्तीय रत्नपरीक्षा (४७, ५२ ) के अनुसार तो मानिक के वर्ण भी निश्चित कर दिए गए हैं। उस ग्रंथ में पद्मराग ब्राह्मण, कुरुविंद क्षत्रिय, श्यामगंधि वैश्य और मांसखंड शूद्र माना गया है । ब्राह्मण वर्ण का मानिक सफेद और लाल मिश्रित, क्षत्रिय गहरा लाल, वैश्य पीला मिश्रित लाल और शूद्र पीला मिश्रित लाल रंग का होता था। यहां यह बाब जानने लायक है कि यह विश्वास केवल शास्त्रीय ही नहीं था इसका प्रसार लोगों में भी था । इब्नबतूता के अनुसार सिंहल के मानिक को ब्राह्मण कहते भी थे। . ठक्कुर फेरू के अनुसार (५७-६१) पमराग, सूर्य तपे सोने और अग्निवर्ण का; सौगंधिक पलास के फल, कोयल, सारस और चकोर की आंख के रंग जैसा तथा अनारदाने के रंग का; नीलगंध कमल, आलता, मूंगा और ईगुर के रंग का; कुरविंद पनराग और सौगंधिक के रंग का और जमुनिया जामुन और कनेर के फूल के रंग का होता था। मानसोल्लास (४८५) के अनुसार स्निग्ध छाया, गुरुत्व, निर्मलता और अतिरक्तता मानिक के गुण माने गए हैं । अगस्तीय रत्नपरीक्षा के अनुसार (५३, ६०) बढ़िया, मानिक गहरे लाल रंग का, लोहे से न कटनेवाला, चिकना, मांसपिंड की आभा देने वाला, बुद्धिदायक तथा पापनाशक होता था। मानिक के आठ दोष यथा - द्विच्छाय, द्विपद, भिन्न, कर्कर, लशुनपद (दूध से पुतेकी तरह ) कोमल, जड़ (रंगहीन ) और धूम्र (धुमैला ) मानिक के दोष हैं ( मानसोल्लास, ४७९-४८३)। ठकुर फेरू के अनुसार (६२) मानिक के ये आठ गुण हैं यथा - सच्छाय, सुनिग्ध, किरणाम, कोमल, रंगीलापन, गुरुता, समता और महत्ता । इसके दोष हैं (६३) गतछाय, जड़ धूम्रता, भिन्न लशुन कर्कर और कठिन, विपद तथा रूक्ष । ठकुर फेरू के अनुसार मानिक की तौल और दाम के बारे में हम ऊपर कह आए है। वराहमिहिर के अनुसार एक पल (४ कार्ष) के मानिक का दाम २६०००, ३ कार्ष का २००००, २ कार्ष का १२०००, १ कार्ष (१६ माषक) का ६०००, ८ माषक का ३०००, ४ माषक का १००० और २ माषक का ५०० है । बुद्धभट्ट (१४४) के अनुसार समान तौल के हीरे और मानिक का एक ही मूल्य होता है; पर हीरे की तौल तंडुलों में और मानिक की तौल माषकों में होती है । अगस्तिमत के अनुसार मानिक का दाम बढना तीन बातों पर अवलंबित था । यथा-मानिक की किस्म, घनत्व ( यवों में ) तथा कांति (सर्षपों में ) मानिक की साधारण कांति का मापदंड २० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय सर्षपों के उतार चढाव में निहित थी । इसके लिए ऊर्ध्ववर्ति, पार्श्ववर्ति, अधोवर्ति; अथवा, ठकुर फेरू ( ६७ )के ऊलज्योतिस्, पार्श्वज्योतिस् और अधोज्योतिस् शब्द व्यवहार में आए हैं। अगर कांति २० सर्षपों से अधिक हुई तो उसे कांतिरंग कहते थे और उसी अनुपात में उसका दाम बढ जाता था। घनत्व की इकाई ३ यव मानी गई है, इसमें हर बार इकाई बढने पर मानिक का दाम दुगुना हो जाता था । अधिक से अधिक दाम २६१, ९१४,००० तक पहुंचता है। ठकुर फेरू ने (६१) मानिक के किस्मों पर दाम का अनुपात निश्चित किया है। उसके अनुसार पनराग, सौगंधिक, नीलगंध, कुरुविंद और जमुनिया के दामों में २०, १५, १०, ६ और ३ बिखा मूल्य का अंतर पड जाता था। ठकुर फेरू ने (६८) केवल उर्ध्ववर्ती, अधोवर्ती और तिर्यवर्ती मानिकों को उत्तम, मध्यम और अधम श्रेणी का माना है बाकी को मिट्टी । सान पर चढाने से घिसनेवाली, तथा छूते ही दाग पडने वाली तथा हीर में पत्थरवाली चुन्नी को चिप्पटिका कहते थे (७०)। ठक्कुर फेरू ने तो नकली मानिक बनाने की किसी विधि का उल्लेख नहीं किया है पर रत्नशास्त्रों में, जैसा हम ऊपर देख आए हैं, नकली मानिक बनाने की विधियां दी. हुई हैं और यह भी बतलाया गया है कि नकली मानिक कैसे पहचाने जा सकते थे। बुद्धभट्ट (१२९-१३१) ने पांच तरह के नकली मानिक बताए हैं जो बनाए तो नहीं जाते थे पर वे साधारण उपरत्न थे जो मानिक से मिलते जुलते थे और जिनसे मानिक का धोखा खाया जा सकता था। ये पत्थर कलशपुर, तुंबर, सिंहल, मुक्कामालीय और श्रीपूर्णक से आते थे । मुक्कामाल का पता नहीं चलता पर श्रीपूर्णक से शायद यहां सिंहल के श्रीपुर से मतलब हो। नीलम-अनुश्रुति के अनुसार नीलम की उत्पत्ति असुरबल की आंखों से हुई । शाखों के अनुसार नीलम की दो किस्में थीं इन्द्रनील और महानील; पर इनके रंगों के बारे में शास्त्रकारों के विभिन्न मत है । बुद्धभट्ट के अनुसार इन्द्रनील का रंग इन्द्रधनुष जैसा होता है और महानील का रंग दूध में नीलापन ला देता है। पर दूसरे शास्त्रों के अनुसार यह इन्द्रनील का गुण है । ठकुर फेरू (८१) ने इन्द्रनील और महानील को मिलाकर नीलम का नामकरण महेन्द्रनील किया है। बुद्धभट्ट के अनुसार नीलम केवल सिंहल से आता था । मानसोल्लास (१९२ ) के अनुसार नीलम सिंहल द्वीप के मध्य में रावणगंगा नदी के किनारे पद्माकर से मिलता था । अगस्तिमत ने कलपुर और कलिंग के नाम भी जोड़ दिए हैं। उसके अनुसार कलपुर का नीलम गाय की आंख के रंग का और कलिंग का नीलम बाज की आंख के रंग का होता था। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित हम ऊपर देख आए हैं कि इब्नबतूता सिंहल के नीलम और उसके प्राप्तिस्थान का किस तरह आंखों देखा हाल वर्णन करता है । लिंक्शोटेन (भा० २, पृ० १४०) के अनुसार पेगू का नीलम भी अच्छा होता था, जो शायद मोगाके की मानिक की खानों से निकलता था । ( तावनियेर, २, पृ० १०१, १०२)। कलपुर और कलिंग के नीलम से शायद बर्मा और स्याम के नीलम से मतलब हो जो कलिंग और केदा के बाजारों में जाकर बिकते थे। रत्नशास्त्रों में नीलम के दस या ग्यारह रंग कहे गए हैं। श्वेतनीलाभ नीलम ब्राह्मण, रकनीलाभ क्षत्रिय, पीतनीलाभ वैश्य, तथा घननील शूद्र माना गया है । ठक्कुर फेरू के अनुसार नीलम के नौ रंग होते थे यथा- नील, मेघवर्ण, मोरकंठी, अलसीका इल, गिरकर्णका फल, भ्रमरपंखी, कृष्ण, श्यामल और कोकिलप्रीवाम । रत्नशास्त्रों के अनुसार नीलम के पांचगुण है, यथा - गुरुता, स्निग्धता, रंगाब्यता, पार्श्वरंजनता और तृणग्राहित्व । ठक्कुर फेरू के अनुसार ये गुण हैं-गुरुता, सुरंगता, सुश्लक्ष्णता, कोमलता और सुरंजनता । रत्नशास्त्रों के अनुसार नीलम के छः दोष हैं यथा-अभ्रक (धूमिल ) कर्कर या सशर्कर ( रेतीला), त्रास (टूटा ), भिन्न (चिटका), मृदा या मृत्तिका गर्म ( भीतर मिट्टी होना) और पाषण (हीर में पत्थर होना )। ठक्कुर फेरू (८३) के अनुसार नीलम के नौ दोष हैं, यथा - अभ्रक, मंदिस ( भद्दा ), सर्करगर्भ, सत्रास, जठर, पथरीला, समल, सागार (मिट्टीभरा) और विवर्ण । नीलम का दाम मानिक की तरह लगाया जाता था । टकुर फेरू के समय में नीलम के दाम के बारे में हम ऊपर कह आए हैं । पन्ना-(मरकत, तार्क्ष्य ) की उत्पत्ति असुर बल के उस पित्त से मानी गई है जिसे गरुड़ ने पृथ्वी पर गिराया। प्राचीन रत्नशास्त्रों में पन्ने की खानों का वर्णन अस्पष्ट है । बुद्धभट्ट (१५०) के अनुसार जब गरुड़ ने असुर बल का पित्त गिराया तो वह • बर्बरालय छोड़कर, रेगिस्तान के समीप, समुद्र के किनारे के पास एक पर्वत पर गिरकर मरकत बना गया । यह भी कहा गया है (१४९) की वहां तुरुष्क के वृक्ष होते थे। अगस्तिमत (२८७ ) के अनुसार वह सुप्रसिद्ध पर्वत समुद्र के किनारे के पास तुरुष्कों के देशमें स्थित था । अगस्तीय रत्नपरीक्षा (७५) के अनुसार पने की दो खानें थीं एक तुरुष्क देश में और दूसरी मगध में । ठक्कुर फेरू ने (७३) मरकत के उत्पत्ति स्थान अवलिंद, मलयाचल, बर्बर देश और उदधितीर माने हैं। मरकत के उपर्युक्त आकर की जांच पड़ताल से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रायः सब शास्त्रकार पन्ने की खान बर्बर देश के रेगिस्तान में, समुद्र तीर के निकट, मानते हैं। टालमी युग से लेकर मध्यकाल तक प्रायः सब विवरण मिस्र में विशेष कर लाल Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय सागर के पास स्थित 'जर्बर' पर्वत की पन्ने की खान का उल्लेख करते हैं । इस खान का उल्लेख प्लिनी, कासमास इंडिको प्लायस्टस ( करीब ५४५ ई० ) मासूदी और नवीं सदी के दूसरे अरब यात्री करते हैं। अल इद्रिसी के अनुसार मध्य नील पर अखान से कुछ दूर एक पर्वत के पाद पर पन्ने की खान है । यह खान शहर से बहुत दूर एक रेगिस्तान में है । इस पन्ने की खान की दुनिया की और कोई दूसरी खान मुकाबला नहीं कर सकती । अपने फायदे और निर्यात के लिए यहां काफी आदमी काम करते हैं (पी०ए० जोबर्त्त, अल इद्रिसी, १, पृ०३६), यहां यह भी उल्लेखनीय बात है कि अखान से एक महीने की राह पर मरकता नामक एक शहर था जहां हब्श के लाल सागरवाले किनारे पर स्थित जलेग के व्यापारी रहते थे । यह संभव हो सकता है कि संस्कृत मरकत का नाम शायद इसी शहर से पडा हो पर संस्कृत मरकत की व्युत्पत्ति यूनानी स्मरग्दोस से की जाती है । यह यूनानी शब्द असीरी बर्रक्तू, हिब्रू बारिकेत या बारकत, शामी बोकों का रूपांतर है । अरबी जुम्मुरुद शायद यूनानी से निकला हो ( लाउफर, साइनो इरानिका, पृ० ५१९) लिंक्शोटेन ( २, ५, १४० ) के अनुसार भी भारत में बहुत कम पन्ने मिलते थे। यहां पन्ने की काफी मांग थी और वे मिस्र के काहिरा से आते थे । अवलिंद - इस देश का नाम और कहीं नहीं मिलता । पर यहां हम पेरिप्लस - ( ७ ) के अवलितेस की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं जिसकी पहचान बाबेल मंदेव के जल विभाजक से ७९ मील दूर जैला से की जाती है । खाडी के उत्तर में अबलित गांव में प्राचीन अवलितेस का रूप बच गया है । बहुत संभव है कि अवलिंद भी इसी अवलितेस - अबलित का रूप हो । यहां पन्ना तो नहीं मिलता पर संभव है कि जैला के व्यापारी मिस्त्री पन्ना इस देश में लाते रहे हों और उसी के आधार पर अवलिंद -अवलित पन्ने का एक स्रोत मान लिया गया हो । मलयाचल – यह दक्षिण भारत का मलयाचल तो हो नहीं सकता । शायद ठकुर फेरू का उद्देश्य यहां गेबेल जर्जर से हो जहां बुद्धभट्ट के अनुसार तुरुष्क यानी गुगुल होता था । बर्बर और उदधि तीर का संकेत भी लाल सागर की ओर इशारा करता है । मगध - अगस्तीय रत्नपरीक्षा में मगध में भी पन्ने की खान मानी गई है । मालेट ( रेकार्डस् आफ दि जियालोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भा० ७ पृ० ४३ ) के अनुसार बिहार के हजारीबाग जिले में पन्ने की एक खान थी । रत्नशास्त्रों में पन्ने की चार से आठ छाया मानी गई हैं । अगस्तिमत के अनुसार महामरकत में अपने पास की वस्तुओं को रंगीन कर देने की शक्ति होती थी । मरकत Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित सहज और श्यामलिक रंग के होते थे। सहज का रंग सेवार जैसा और दूसरेका शुकपंख, शिरीष पुष्प और तूतीया जैसा होता था। रत्नशास्त्रों में पन्ने के पांच गुण यथा-खच्छ, गुरु, सुवर्ण स्निग्ध और अरजस्क (धूलिरहित ) हैं । ठक्कुर फेरू के अनुसार (७६) अच्छी छाया, सुलक्षणता, अनेकरूपता, लघुता और वाड्यता पन्ने के पांच गुण हैं। रत्नशास्त्रों के अनुसार शबलता, जठरता (कांतिहीनता) मलिनता, रूक्षता, सपाषाणता, कर्करता और विस्फोट पन्ने के दोष हैं । ये ही दोष ठक्कुर फेरू ने गिनाए हैं । केवल शबलता की जगह सरजस्कता आ गई है। बुद्धभट्ट के अनुसार नकली पन्ना शीशा, पुत्रिका और भल्लातक से बनता था। इसके बनाने में मंजीठ, नील और ईगुर भी उपयोग में लाए जाते थे । उपरत्न रत्नशास्त्रों में उपरत्नों का बडी सरसरी तौर पर उल्लेख हुआ है । पांच महारत्नों के विपरीत ठक्कुर फेरू ने विद्रुम, मूंगा, लहसनिया, वैडूर्य, स्फटिक, पुखराज, कर्केतन और भीष्म का उल्लेख किया है। विद्रुम-अर्थशास्त्र (अंग्रेजी अनुवाद, पृ० ७६) के अनुसार मूंगा आलकंद और विवर्ण से आता था । यहां आलकंद से मिस्र के सिकंदरिया के बंदरगाह से मतलब है । टीका के अनुसार विवर्ण यवन द्वीप के पास का समुद्र है । अगर यह ठीक है तो यहां विवर्णसे भूमध्य सागर से तात्पर्य होना चाहिए । बुद्धभट्ट (२४९-२५२) के अनुसार मूंगा.शकवल, सम्लासक, देवक और रामक से आते थे। यहां रामक से शायद रोम का मतलब हो सकता है । अगस्तिमत के एक क्षेपक (१०) में कहा गया है कि हेमकंद पर्वत की एक खांरी झील में मूंगा पाया जाता था । ठक्कुर फेरू के अनुसार (९०) मूंगा कावेर, विन्ध्याचल, चीन, महाचीन, समुद्र और नेपाल में पैदा होता था। पेरिप्लस (२८, ३९, ४९, ५६) के अनुसार भूमध्य सागर का लाल मूंगा बारबारिकम, बेरिगाज़ा (भरुकच्छ ) और मुज़िरिस के बंदरगाहों में आता था। प्लिनी (२२।११) के अनुसार मूंगे का भारत में अच्छा दाम था। आज की तरह उस समय भी मूंगा सिसली, कोर्सिका और सार्डीनिया, नेपल्स के पास लेगहान और जेनेवा, कारालोनिया, बलेरिक द्वीप तथा ट्यूनिस अलजीरिया और मोरक्को के समुद्र तट पर मिलता था । लाल सागर और अरब के समुद्रतट के मूंगे काले होते थे। अगस्तिमत के हेलकंद पर्वत के पास एक खारी झील में मूंगा मिलने के उल्लेख से भी शायद लाल सागर अथवा फारस की खाड़ी के मूंगों से पतलब हो सकता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय श्री लाउफर के अनुसार (साइनो ईरानिका; पृ० ५२४-२५) चीनी ग्रंथों में ईरान में मूंगा पैदा होने के उल्लेख हैं । सुकुन के अनुसार मूंगा फारस, सिंहल और चीनं के दक्षिण समुद्र से आता था । तांग इतिवृत्त से पता चलता है कि मारस की प्रवाल शिलाएँ तीन फुट से ऊंची नहीं होती थीं। इसमें संदेह नहीं कि फारस के मूंगे एशिया में सब जगह पहुंचते थे । काश्मीर के मूंगे का वर्णन जो एक चीनी इतिहास कार ने किया है, वह फारसी मूंगा ही रहा होगा । मार्कोपोलो (भा० २, पृ० ३२) के अनुसार तिब्बत में मूंगे की बड़ी मांग थी और उसका काफी दाम होता था। मूंगे स्त्रियां गले में पहनती थी अथवा मूर्तियों में जड़े जाते थे । काश्मीर में मूंगे इटली से पहुंचते थे और वहां उनकी काफी खपत थी (मार्कोपोलो; १, पृ० १५९) । तावनिये ( भा० २, पृ० १३६) के अनुसार आसाम और भूटानमें मूंगे की काफी मांग थी। कावेर-यहां दक्षिण के काबेरी पट्टीनम् के बंदरगाह से मतलब हो सकता है। शायद यहां मूंगा बाहर से उतरता हो । विंध्याचल में मूंगा मिलना कोरी कल्पना मालूम पडती है। चीन, महाचीन लगता है चीन और महाचीन से यहां क्रमशः चीन देश और केंटन से मतलब हो । संभव है कि चीनी व्यापारी इस देश में बाहर से मूंगा लाते हों। समुद्र-इससे भूमध्य सागर, फारस की खाड़ी और लाल सागर के मूंगों से मतलब मालूम पड़ता है। नेपाल-जैसा हम ऊपर देख आए हैं तिब्बत और काश्मीर की तरह नेपाल में भी मूंगे की बड़ी मांग थी । हो सकता है कि नेपाली व्यापारियों द्वारा मूंगा लाए जाने पर नेपाल उसका एक उत्पत्ति स्थान मान लिया गया हो । लहसनिया-नीले, पीले, लाल और सफेद रंग की लहसनिया ठक्कुर फेरू (९२-९३ ) के अनुसार सिंहल द्वीप से आती थी । इसे बिडालाक्ष अथवा बिल्ली के आंख जैसी रंगवाली भी कहा गया है । उसमें सूत पड़ने से उसे कोई कोई पुलकित मी कहते थे। . वैडूर्य-सर्व श्री गार्बे, सौरीन्द्र मोहन ठाकुर और फिनो की राय है कि वैडूर्य का वर्णन लहसनिया से बहुत कुछ मिलता है । बुद्धभट्ट (२००) ने भी वैडूर्य को बिल्ली की आंख के शक्ल का कहा है। ___ पाणिनि ४॥३॥८४ के अनुसार वैदूर्य ( वैडूर्य ) का नाम स्थान वाचक है । पतंजलि के अनुसार विदूर में य प्रत्यय लगाकर उसे स्थान वाचक मानना ठीक नहीं; क्योंकि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित वैदूर्य विदूर में नहीं होता, वह तो बालवाय में होता है और विदूर में कमाया जाता है । पर शायद बालवाय शब्द विदूर में परिणत हो गया हो और इसीलिए उसमें य प्रत्यय लम गया हो। इसके माने यह हुए कि विदूर शब्द बालवाय का एक दूसरा रूप है । इस पर एक मत है कि विदूर बालवाय नहीं हो सकता; दूसरा मत है कि जिस तरह व्यापारी वाराणसी को जित्वरी कहते थे उसी तरह वैय्याकरण बालवाय को विदूर। उपर्युक्त कथन से यह बात साफ हो जाती है कि वैडूर्य बालवाय पर्वत में मिलता था और विदूर में कमाया और बेचा जाता था । यह पर्वत दक्षिण भारत में था। बुद्धभट्ट (१९९) के अनुसार विदूर पर्वत दो राज्यों की सीमा पर स्थित था । पहला देश कोंग है जिसकी पहचान आधुनिक सेलम, कोयंबटूर, तिन्नेवेली और ट्रावन्कोर के कुछ भाग से की जाती है । दूसरे देश का नाम बालिक, चारिक या तोलक आता है, जिसे श्री फिनो चोलक मानते हैं जिसकी पहचान चोलमंडल से की जा सकती है । इसी आधार पर श्री फिनो ने बालवाय की पहचान चीवरै पर्वत से की है। यह बात उल्लेखनीय है कि सेलम जिले में स्फटिक और कोरंड बहुतायत से मिलते हैं । , ठक्कुर फेरू ( ९४ ) का कुवियंग कोंग का बिगडा रूप है । समुद्र का उल्लेख कोरी कल्पना है । ठक्कुर फेरू ने लहसनिया और वैडूर्य अलग अलग रत्न माने हैं। संभव है कि देशभेद से एक ही रन के दो नाम पड गए हों। स्फटिक प्राचीन रत्नशास्त्रों के अनुसार स्फटिक के दो भेद यानी सूर्यकांत और चन्द्रकांत माने गए हैं । ठक्कुर फेरू (९६) ने भी यही माना है पर अगस्तिमत के क्षेपक में स्फटिक के भेदों में जलकांत और हंसगर्भ भी माने गए हैं । पृथवीचन्द्र चरित्र (पृ० ९५) में भी जलकांत और हंसगर्भ का उल्लेख है। सूर्यकांत से आग, चन्द्रकान्त से अमृतवर्षा, जलकांत से पानी निकलना तथा हंसगर्भ से विष का नाश माना जाता था। बुद्धभट्ट के अनुसार स्फटिक कावेरी नदी, विंध्यपर्वत, यवन देश, चीन और नेपाल में होता था। मानसोल्लास के अनुसार ये स्थान लंका, ताप्ती नदी, विंध्याचल और हिमालय थे । ठक्कुर फेरू के अनुसार नेपाल, कश्मीर, चीन, कावेरी नदी, जमुना, और विंध्याचल से स्फटिक आता था । पुखराज पुखराज की उत्पत्ति असुर बल के चमड़े से मानी गई है । इसका दाम लहसनिया जैसा होता था । बुद्धभट्ट के अनुसार पुखराज हिमालय में, अगस्तिमत के अनुसार सिंहल और कलहस्थ (1) में तथा रत्नसंग्रह के अनुसार सिंहल और कर्क Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय में होता था। ठक्कुर फेरू ने हिमालय को ही पुखराज का उद्गम स्थान माना है पर यह बात प्रसिद्ध है कि सिंहल अपने पीले पुखराज के लिए प्रसिद्ध है। कर्केतन-कर्केतन के उत्पत्ति स्थान का किसी रत्नशास्त्र में उल्लेख नहीं है। पर ठक्कुर फेरू ने पवणुप्पट्ठान देश में इसकी उत्पत्ति कही है। यहां शायद दो जगहों से मतलब है पवण और उप्पट्ठान । पवण से संभव है शायद अफगानिस्तान में गजनी के पास पर्वान से मतलब हो और उम्पट्ठान से परि-अफगानिस्तान से । अगर हमारी पहचान ठीक है तो यहां पर्वान से शायद वहां कर्केतन के व्यापार से मतलब हो। उप्पट्ठान से रूस में उराल पर्वत में एकाटेरिन बर्ग और टाकोवाज़ा की कर्केतन की खानों से मतलब हो (जी० एफ०, हर्बर्ट स्मिथ, जेम स्टोन्स, पृ० २३६, लंडन १९२३)। यह भी संभव है कि उपपट्टान में पट्टन शब्द छिपा हो। इब्नबतूता ने (२६३-६४) फट्टन को चोल मंडल का एक बडा बंदर माना है पर इस बंदर की 'ठीक पहचान नहीं हो सकती। संभव है कि इससे कावेरी पट्टीनम् अथवा नागपट्टीनम् का बोध होता हो। अगर यह पहचान ठीक है तो शायद सिंहल का कर्केतन यहां आता हो। ठक्कुर फेरू के अनुसार इसका रंग तांबे अथवा पके हुए महुए की तरह अथवा नीलाभ होता था। भीष्म-ठक्कुर फेरू ने भीष्म का उत्पत्ति स्थान हिमालय माना है। यह रंगमें सफेद तथा बिजली और आग से रक्षा करनेवाला माना गया है । गोमेद-रत्नशास्त्रों में इसका विवरण कम आया है । अगस्तिमत के क्षेपक में (४-५) गोमेद को खच्छ, गुरु, स्निग्ध और गोमूत्र के रंग का कहा गया है। अगस्तीय रत्नपरीक्षा ( ८३-८६ ) में गोमेद को गाय के मेद अथवा गोमूत्र के रंग का कहा गया है। उसका रंग धवल और पिंजर भी होता था। ठक्कुर फेरू (१००) ने इसका रंग गहरा लाल, सफेद और पीला माना है। __ और किसी रत्नशास्त्र में गोमेद के उत्पत्तिस्थान का पता नहीं चलता। पर ठक्कुर फेरू ने इसका स्रोत, सिरिनायकुलपरेवग देस तथा नर्मदा नदी माना है। सिरिनायकुलपरे में कौन सा नाम छिपा हुआ है यह तो ठीक नहीं कहा जा सकता पर गोलकुंडा से मसुलीपटन के रास्ते में पुंगल के आगे नगुलपाद पडता था जिसे तावनिये ने नगेलपर कहा है ( तावनिये, १, पृ० १७३) संभव है कि नायकुलपर यही स्थान हो। बग देस से शायद बंगाल का बोध हो सकता है, बहुत संभव है कि १४ वीं सदी में सिंहल से गोमेद वहां जाता रहा हो। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर - फेरू - विरचित पारसी र ल ठक्कुर फेरू ने (१०३ ) लाल, अकीक और पिरोजा को पारसी रत्न माना है । इसका यह अर्थ हुआ कि ये रत्न या तो फारस में होते थे अथवा उनका व्यापार फारस और अरब के व्यापारी करते थे । ३४ 1 लाल - आग की तरह लाल - यह रत्न बंदखसाण देश यानी बदख्शां से आता था। मार्कोपोलो ( भा० १, पृ० १४९-५० ) के अनुसार बदख्शां के बलास मानिक प्रसिद्ध थे । वे सिग्नान के एक पहाड से खोद कर निकाले जाते थे और उन पर वहां के शासक का पूरा अधिकार होता था । लाल की खानें बंक्षु नदी के दाहिने किनारे पर इराकाशम जिले में शिगनान के सीमा पर स्थित हैं (वुड, ए जर्नी टु आक्शस, भूमिका पृ० ३३ ) अकीक-ठक्कुर फेरू ने इसे पीले रंग का कहा है और इसकी उत्पत्ति जमण देश यानी अरब में यमन देश माना है । यमन देश के अकीक का उल्लेख इब्नबैतर ( ११९७ - १२४८ ) ने किया है ( फेरां, तेक्सत् रेलातीफ अ ल एक्सप्रेम ओरियां, १, पृ० २५६ ) और इसे कई बीमारियों की औषधि मानी है । आज दिन भी यमनी अकीक बंबई में प्रसिद्ध है । इसका दाम ठक्कुर फेरु के अनुसार बहुत कम होता था । फिरोजा -ठक्कुर फेरू के अनुसार नीलाम्ल रंग का फिरोजा नीसावर और मुवासीर की खानों से आता था । निसावर से यहां फारस के निशापुर से मतलब है । तावर्निये (२, पृ० १०३-०४ ) के अनुसार फिरोजा फारस में दो खानों से पाया जाता था । पुरानी खान मशद से तीन दिन के रास्ते पर निशापुर के आसपास थी और नई मशद से पांच दिन के रास्ते पर थी । मुवासीर से यहां ईराक के मोसुल या अलमौसिल से बोध होता है । लगता है फारसी फिरोजा यहां व्यापार के लिये आता था । आज दिन भी मोसुल में फिरोजे का व्यापार होता है । लाल, लहसनिया, इन्द्रनील और फिरोजे का दाम ठक्कुर फेरू के अनुसार तौल से सोने के टांकों में होता था । निम्नलिखित यंत्र से यह बात साफ हो जाती है: मासा लाल ल्हसणी ०॥ १ 1|10 इन्द्रनील 이 पेरोजा 이 १ २॥ १॥॥ -२॥ oll ० ॥ १॥ ६ ४॥ ०||| ०||| २ ९ ६॥ १ १ दूसरे महारत्नों के मुकाबिले में काफी कम थी । २॥ १५ ११॥ १ २ ३ २४ १८ ३॥ ४ ૩૪ ५० २५॥ ३७॥ V उपर्युक्त यंत्र के अध्ययन से पता चल जाता है कि लाल इत्यादि की कीमत ८ १५ १५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा का परिचय उपसंहार प्राचीन रत्नशास्त्रों के आधार पर हमने ऊपर यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि रत्नशास्त्र प्राचीन भारत में एक विज्ञान माना जाता था । उस विज्ञान में बहुत सी बातें तो अनुश्रुति पर अवलंबित थीं पर इसमें संदेह नहीं की समय समय पर रत्नशाखों के लेखक अपने अनुभवों का भी संकलन कर देते थे। ठक्कुर फेरू ने भी अपनी 'रत्नपरीक्षा में प्राचीन ग्रंथों का सहारा लेते हुए भी चौदहवीं सदी के रत्न व्यवसाय पर काफी प्रकाश डाला है । ठक्कुर फेरू के ग्रंथ की महत्ता इसलिये और भी बढ़ जाती है कि रत्न सम्बन्धी इतनी बातें, सुल्तान युग के किसी फारसी अथवा भारतीय ग्रंथकार ने नहीं दी है। कुछ रत्नों के उत्पत्ति स्थान मी, ठक्कुर फेर ने १४ वीं सदी के रत्नों के आयात निर्यात देख कर निश्चित किए हैं । रत्नों की तौल और दाम भी उसने समयानुसार रखे हैं। प्राचीन शास्त्रों के आधार पर नहीं । पारसी रत्नों का विवरण तो ठक्कुर फेरू का अपना ही है; पद्मराग के प्राचीन भेद तो उसने गिनाए ही हैं पर चुन्नी नाम का भी उसने प्रयोग किया है जिसका व्यवहार आज दिन भी जौहरी करते हैं । उसी तरह घटिया काले मानिक के लिए देशी शब्द चिप्पड़िया का व्यवहार किया गया है। हीरे के लिए फार शब्द भी आजकल प्रचलित है। लगता है उस समय मालवा हीरे के व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध था, क्योंकि ठक्कुर फेरू ने. चोखे हीरे के लिए मालवी शब्द व्यवहार किया है । पन्ने के बारे में तो उसने बहुत सी नई बातें कही हैं। कुछ ऐसा लगता है कि ठक्कुर फेरू के समय में नई और पुरानी खान के पन्नों में भेद हो चुका था और इसीलिए उसने पन्नों के तत्कालीन प्रचलित नाम गरुडोद्गार, कीडउठी, वासवती, मूगउनी और धूलिमराई दिए हैं । इन सब बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ठक्कुर फेरू रत्नों के सच्चे पारखी थे। उन्होंने देख समझ कर ही रत्नों के वर्णन लिखे हैं केवल परंपरागत सिद्धान्तों के आधार पर ही नहीं । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम * पृ. १-१६ १. रत्नपरीक्षा २. द्रव्यपरीक्षा ३. धातूत्पतिः " १७-३८ " ३९-४४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमालवंशीय ठक्कुर - फेरूविरचिता प्राकृत भाषाबद्धा रत्नपरीक्षा सयलगुणाण निवासं नमिउं सव्वन्नं तिहुयणपयासं । संखेवि परप्पहियं रयणपरिक्खा भणामि अहं ॥ १ ॥ सिरिमाल कुलुत्तंसो ठक्कर चंदो जिदिपयभत्तो । तस्संगहो फेरू जंपइ रयणाण माहप्पं ॥ २ ॥ पुव्विं रयणपरिक्खा सुरमिंति - अगत्थ - बुद्धभट्टेहिं । विहिया तं दणं तह बुद्धी मंडलीयं च ॥ ३ ॥ अल्लावदीणकलिकाल - चक्कवट्टिस्स कोसमज्झत्थं । रयणायरु व्व रयणुच्चयं च नियदिट्ठिए हुं ॥ ४ ॥ पञ्चक्खं अणुभूयं मंडलिय- परिक्खियं च सत्थायं (ई) । नाउं रयणसरूवं पत्तेय भणामि सव्वेसिं ॥ ५॥ लोए भांति एवं आसी बलदाणवो महाबलवं । सो पत्तो अन्नदिणे सग्गे इंदस्स जिणणत्थं ॥ ६ ॥ तहिं पत्थिओ सुरेहिं जन्ने अम्हाण तुं पसू होह | तेण पसन्ने भणियं भविओहं कुणसु नियकज्जं ॥ ७ ॥ सो पसु वहिउ सुरेहिं तस्स सरीरस्स अवयवाओ य । संजाया वर रयणा सिरिनिलया सुरपिया रम्मा ॥ ८ ॥ अस्थिस्स जाय हीरय मुत्तिय दंताउ रुहिर माणिक्कं । मरगयमणि पित्ताओ नयणाओ इन्दनीलो य ॥ ९॥ इडुज्जो य रसाओ वसाउ कक्केयगं समुपपन्नं । ल्हसणीओ य नहाओ फलियं मेयाउ संजायं ॥ १० ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुरफेरूविरचिताविहुमु आमिस्साओ चम्माओ पुंसराउ निप्पन्नो। सुक्काउ य भीसम्मो रयणाणं एस उप्पत्ती ॥ ११ ॥ एवं भणंति एगे भू[मि]विकारं इमं च सव्वं च । जह रुप्प कणय तंब य धाऊ रयणा पुणो तह य ॥ १२ ॥ तट्ठाणाओ गहिया निय निय बन्नेहिं नवहि सुगहेहिं। तत्तो जत्थ य जत्थ य पडिया ते आगरा जाया ॥ १३ ॥ सूरेण पउमरायं मुत्तिय चंदेण विहुमं भूमे। मरगयमणीउ बुद्धे जीवेण य पुंसरायं च ॥१४॥ सुक्केण गहिय वजं सणिंदनीलं तमेण गोमेयं । केएण य वेडुजं मुक्का तत्थेव सेस तहिं ॥१५॥ इय रयण नव गहाणं अंगे जो धरइ सच्चसीलजुओ। तस्स न पीडति गहा सो जायइ रिद्धिवंतो य ॥ १६ ॥ पुणु जह सत्थे भणिया अदोस अइचुक्खया गुणड्डा य । ते रयण रिद्धिजणया सदोस धण - पुत्त - रिडिहरा ॥ १७ ॥ जइ उत्तिमरयणंतरि इक्को वि सदोसु कूडु समलु हवे । ता सयलउत्तिमाणं कंतिपहावं हणेइ धुवं ॥ १८ ॥ भणिया मूलुप्पत्ती अओ य वुच्छामि आगराईणि । वन्न गुण दोस जाई मुल्लं सव्वाण रयणाणं ॥ १९॥ वजं जहा हेमंत सूरपारय कलिंग मायंग कोसल सुरढे। पंडुर विसएसु तहा वेणुनई वजठाणाई ॥२०॥ तंब सिय नील कुक्कुस हरियाल सिरीसकुसुम घणरत्ता । इय वजवन्नछाया कमेण आगरविसेसाओ ॥ २१॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा परं विशेषोऽयम् - कोसल कलिंग पढमे दुइए हेमंत तह य मायंगे। पंडुर सुरट्ठ तईए वेणुज सोपारय कलिंमि ॥ २२ ॥ छ कोण अट्ठ फलहा वारस धारा य हुंति वज्जा य । अट्ठ गुणा नव दोसा चउ छाया चउर वन्न कमा ॥ २३ ॥ समफलह उच्चकोणा सुतिक्खधारा य वारितर अमला । उज्जल अड़ोस लहु तुल इय वजे हाँति अट्ठ गुणा ॥ २४ ॥ कागपग बिंदु रेहा समला फुट्टा य एगसिंगा य । वट्टा य जवाकारा हीणाहियकोण नव दोसा ॥ २५ ॥ सिय विप्प अरुण खत्तिय पीय वइस्सा य कसिण सुद्दा य। इय चउ वन्न दुजाई चुक्खा तह मालवी नेया ॥ २६ ॥ निदोस सगुण उत्तिम चत्तारि वि वन्न हुंति जस्स गिहे। तस्स न हवंति विग्धं अकालमरणं न सत्तुभयं ॥ २७ ॥ चत्तारि वि वन्न तहा पीयारुण नरवराण रिद्धिकरा । सेसा नियनिय वन्ने सुहंकरा वज नायव्वा ॥ २८ ॥ लच्छीए आयड्डी थंभइ अरिणो परि(र)कम समरे । तेणं अरुणं पीयं नरेसरो धरइ वरवजं ॥ २९॥ जह दप्पणेण वयणं दीसइ तह उत्तमेण वजेण । नर तिरिय रुक्ख मंदिर तहिंदधणुहाई दीसंति ॥ ३० ॥ अइचुक्ख तिक्खधारा पुत्तत्थीइत्थियाण हाणिकरा । चप्पड़ि मलिण तिकोणा रमणीणं वज्ज सुहजणया ॥ ३१ ॥ भणियं चअहमेव पढमरयणं सुपुत्तरयणाण खाणि मुह कुच्छी । कोण वराओ वज्जो इय दोसं दाउ धर इत्थी ॥ ३२ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुरफेरूविरचितासमपिंड सगुण निम्मल गुरुतुल्ला हीणपिंड लहुमुल्ला । फार लहुतुल्ल वजा बहुमुल्ला सम समा मुल्लो ॥ ३३ ॥ वजं लहु फलह सिरं वित्थरचरणं तिलोवरि काउं । जो जड़इ अह जड़ावइ तस्स धुवं हवइ बहु दोसं ॥ ३४ ॥ जस्स फलहाण मज्झे वुड्डो वुड्डो हुति भिन्न वन्नाई। कागपय रत्तबिंदू तं वजं होइ पुत्तहरं ॥ ३५॥ वजेण सव्वि रयणा वेहं पावंति हीरए हीरा। कुरुविंदो पुण वेहइ नीलस्स न अन्नरयणस्स ॥ ३६ ॥ अयसार कच्च फलिहा गोमेयग पुंसराय वेडुज्जा । एयाउ कूडवज्जा कुणंति जे होंति कलकुसला ॥३७॥ कूडाण इय परिक्खा गुरु विन्नाया य सुहमधारा य । साणायं सुह घसिया दुह घसिया रयण जाइभवा ॥ ३८ ॥ ॥ इति वज्रपरीक्षा॥ अथ मुत्ताहलं - गयकुंभ १ संखमझे २ मच्छमुहे ३ वंस ४ कोलदाढे य ५। सप्पसिरे ६ तह मेहे ७ सिप्पउड़े ८ मुत्तिया हुंति ॥ ३९ ॥ मंदव(प)ह पीय रत्ता इय उत्तिम जंबुछाय मज्झत्था । वट्टामलयपमाणा गयंदजा हुंति रज्जकरा ॥४०॥ दाहिणवत्ते संखे महासमुद्दे य कंबुजा हुंति । लहु सेया अरुणपहा नरदुलहा मंगलावासा ॥४१॥ मच्छे य साम वट्टा लहुतुला विमलदिविसंजणया । अरि - चोर - भूय - साइणि - भयनासा हुति रिद्धिकरा ॥४२॥ गुंजसमा मंदपहा हवंति कच्छ वन सव्व भूमीसु । रजकरा दुक्खहरा सुपवित्ता वंसउद्धरणा ॥४३॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा सूवरदाढे वट्टा घियवन्ना तह य सालफलतुल्ला। चिट्ठति जस्स पासे इंदेण न जिप्पए सोवि ॥ ४४ ॥ सप्पस्स नील निम्मल कंकोलीफलसमाण लच्छिकरा । छल - च्छिद्द - अहि - उवद्दव - विसवाही- विजु नासयरा ॥१५॥ मेहे रवितेयसमा सुराण कीलंत कहव निवडंति । गिण्हंति अंतराले अपत्त धरणीयले देवा ॥ ४६॥ वायं छिज्जइ कोवि हु जलबिंदू जलहरंमि वरिसंते । सु वि मुत्ताह[लालच्छी भणंति चिंतामणी विउसा ॥ १७ ॥ एए हुंति अवेहा अमुल्लया पूयमाण रिद्धिकरा। लोए बहुमाहप्पा लहु बहुमुल्ला य सिप्पिभवा ॥४८॥ रामावलोइ वव्वरि सिंघलि कंतारि पारसीए य । केसिय देसेसु तहा उवहितडे सिप्पिजा हुँति ॥४९॥ सव्वेसु आगरेसु य सिप्पउडे साइरिक्ख जलजोए । जायंति मुत्तियाइं सव्वालंकारजणयाइं ॥ ५० ॥ तारं वर्ल्ड अमलं सुसणिद्धं कोमलं गुरुं छ गुणा। . लहु कढिण रुक्ख करडा विवन्न सह बिंदु छह दोसा ॥ ५१ ॥ ससिकिरणसमं सगुणं दीहं इक्कंगि कलुसियं हवइ । तस्स य खडंस हीणं मुलं निंबउलिए अद्धं ॥ ५२ ॥ अहरूव पंकपूरिय असार विप्फोड मच्छनयणसमं । करयाभं गंठिजुयं गुरुं पि वर्ल्ड पि लहुमुल्लं ॥ ५३॥ पीयद्ध अयट्ठ तिहा सखुद्द छटुंसु खरड जह जुग्गं । सदोसे य दसंसं इयराणं दिट्ठए मुलं ॥ ५४ ॥ ॥ इति मुत्ताहलपरीक्षा ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिताअथ पद्मरागमणिर्यथा रामा गंगनई तड़ि सिंघलि कलसउरि तुंवरे देसे । माणिक्काणुप्पत्ती विहु विहु पुण दोस गुण वन्ना ॥ ५५ ॥ पढमित्थ पउमरायं सोगंधिय नीलगंध कुरुविंदं । जामुणिय पंच जाई चुन्निय माणिक्क नामेहिं ॥ ५६ ॥ सूरु व्व किरणपसरा सुसणिद्धं कोमलं च अग्गिनिहा । जं कणयसमं कढिया अक्खीणा पउमरायं सा ॥ ५७ ॥ किंसुय कुसुम कसुंभय कोइल - सारिस - चकोर - अक्खिसमं । दाडिमबीजनिहं जं तमित्थ सोगंधिया नेया ॥ ५८ ॥ कमलालत्तय - विदुम - हिंगुलुयसमो य किंचि नीलाभो । खज्जोयकंतिसरिसो इय वन्ने नीलगंधो य ॥ ५९॥ पढम तह साव गंधयसमप्पहं रंगबहुल कुरविंदा । पुण सत्तासं लहुयं सजलं च इय सहाव गुणं ॥६॥ जामुणिया विन्नेया जंबू कणवीररत्तपुप्फसमा । मुल्लस्संतरमेयं वीसं पनरस दस छ तिग विसुवा ॥ ६१ ॥ सुच्छायं सुसणिद्धं किरणाभं कोमलं च रंगिलं । सुरुयं समं महंतं माणिकं हवइ अट्ठगुणं ॥ ६२ ॥ गयछायं जड धूमं भिन्नं ल्हसणं सकक्करं कढिणं । विपयं रुक्खं च तहा अड दोसा भणिय माणिकं ॥ ६३ ॥ गुणपुवुन्न जहुत्तं माणिकं दोसवज्जियं अमलं । जो धरइ तस्स रजं पुत्तं अत्थं हवइ नूणं ॥६४ ॥ गुणसहिय पउमरायं धरिए नरनाह आवया टलइ । सहोसेण उवज्जइ न संसयं इत्थ जाणेह ॥६५॥ अगुण विवन्नच्छायं ल्हसण जुयं थडयं च खग्गं च । इय माणिक्कं धरियं सुदेसभटुं नरं कुणइ ॥६६॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा कर-चरण - वयण - नयणं सुपउमरायं पइस्स जणयंती । तो वहइ पउमरायं पउमिणि सुयपउमजणणत्थं ॥ ६७ ।। अहवट्टि उड्डवट्टी तिरीयवट्टी य जा हवइ चुन्नी । सा अहमुत्तिम मज्झिम कूडा पुण सव्ववट्टी य ॥ ६८ ॥ जो मणि बहिप्पएसे मुंचइ किरणं जहग्गि गयधूमं । सा इंदकंति नेया चंदो व्व सुहावहा सघणा ॥ ६९ ॥ साणाइ पउमरायं जो छिज्जइ अंगुली छिविय कसिणा। तं च पहाउ सगब्भा चिप्पिडिया हवइ सा चुन्नी ॥ ७० ॥ ॥ इति माणिक्यपरीक्षा समत्ता ॥ अथ मरकतमणिर्यथा अवलिंद मलयपव्वय वव्वरदेसे य उवहितीरे य । गरुडस्स उरे कंठे हवंति मरगय महामणिणो ॥ ७१ ॥ गरुडोदगार पढमा कीडउठी दुईय तईय वासउती । मूगउनी य चउत्थी धूलिमराई य पण जाई ॥७२॥ गरुडोदगार रम्मा नीलामल कोमला य विसहरणा । कीडउठि सुहम णिद्धा कसिणा हेमाभकंतिल्ला ॥ ७३ ॥ वासवई य सरुक्खा नील हरिय कीरपुच्छसम णिद्धा । मूगउनी पुण कढिणा कसिणा हरियाल सुसणेहा ॥ ७४॥ धूलमराई गरुया तह कढिणा नीलकच्च सारिच्छा । मुलं-वीस विसोवा दसट्ठ तह पंच दुन्नि कमा ॥ ७५ ॥ रुक्ख विफोडा पाहण मल कक्कर जठर सज्जरस तह य । इय सत्त दोस मरगयमणीण ताणं फलं वोच्छं ॥ ७६ ॥ रुक्खा य वाहिकरणी विष्फोडा सत्थघायसंजणणी । मलिण वहिरंधयारी पाहाणी बंधुनासयरी ॥ ७७ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उडरफेरूविरचिताकक्कर सहिय अउत्ता जठरा जाणेह सव्व दोसगिहं । सज्जरसा मामिचू मरगइदोसाई ताण फलं ॥ ७८ ॥ सुच्छायं सुसणिद्धं अणेरुयं तह लहुं च वन्नडुं । पंच गुणं विसहरणं मरगय मसराल लच्छिकरं ॥ ७९ ॥ सूराभिमुहं ठवियं कर उयरे मरगयमि चिंतिजा । विप्फुरइ जस्स छाया पुन्नपवित्ता धुरीणा सा ॥ ८० ॥ ॥ इति मरकतमणिपरीक्षा समता ॥ अथ इन्द्रनीलम्सिंघलदीव समुभव महिंदनीला य चउ सुवन्ना य । छ दोस पंच गुणाहि य तहेव नव छाय जाणेह ॥ ८१॥ सियनीलाभं विप्पं नीलारुण खत्तियं वियाणाहि । पीयामनील वइसं घणणीलं हवइ तं सुद्धं ॥ ८२॥ अब्भय मंदि सकक्कर गब्भा सत्तास जठर पाहणिया । समल सगार विवन्ना इय नीले हॉति नव दोसा ॥ ८३ ॥ अब्भय दोस धणक्खय सककर वाहिउ मंदिए कुटुं । पाहणिए असिघायं भिन्नविवन्ने य सिंहभयं ॥ ८४॥ सत्तासे बंधुवहं समल सगारे य जठर मित्तखयं । नव दोसाणि फलाणि य महिंदनीलस्स भणियाइं ॥ ८५ ॥ गुरुयं तह य सुरंगं सुसणिद्धं कोमलं सुरंजणयं । इय पंच गुणं नीलं धरति मणि कोव पसमंति ॥ ८६ ॥ नील घण मोरकंठ य अलसी गिरिकन्नकुसुमसंकासा । अलिपंखकसिण सामल कोइलगीवाभ नव छाया ॥ ८७ ॥ हीरय चुन्निय माणिक मरगय नीलं च पंच रयणमयं । इय धरिए जं पुन्नं हवइ न तं कोडिदाणेण ॥ ८८ ॥ ॥ इति इन्द्रनीलमहापंचरयणुच्चयं ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा अह विहुम ल्हसणिययं वइडुजो फलिह पुंसराओ य। ककेयग भीसम्मो भणियं इय सत्त रयणाणं ॥ ८९॥ विदुमं जहा कावेर विंझपव्वइ चीण महाचीण उवहि नयपाळे । वल्लीरूवं जायइ पवालयं कंदनालमयं ॥ ९॥ [पाठान्तर-वल्लीरूवं कच्छ(त्थ)वि पवालय होइ उयहिमज्झम्मि । बहुरत्त कढिण कोमल जह नालं सव्वसुसणेहं ॥ ५०] बहुरंगं सुसणिद्धं सुपसन्नं तह य कोमलं विमलं । घणवन्न वन्नरत्तं भूमिय पयं विदुमं परमं ॥ ९१ ॥ छ । ल्हसणियओ जहा नीलुजल पीयारुण छाया कंतीइ फिरइ जस्संगे। तं ल्हसणियं पहाणं सिंघलदीवाउ संभूयं ॥ ९२ ॥ इक्कोवि य ल्हसणियओ अदोस अइ चुक्खओ विरालक्खो। नवगहरयण समगुणो भणंति तं सपुलियं केवि ॥ ९३ ॥ वइडुजं जहा कुवियंगय देसोवहि वइडूरनगेसु हवइ वइडुजं । वंसदलाभं नीलं वीरिय-संताण- पोसयरं ॥ ९४ ॥ [पाठान्तर-रयणायरस्स मज्झे कुवियंगय नाम जणवओ तत्थ । वइड्रनगे जायइ वइडुजं वंसपत्ताभं ॥५१] फलिहं जहा नयवाल कासमीरे चीणे कावेरि जउणनइतीरे । विंझगिरि हुंति फलिहं अइनिम्मलदप्पणु व्व सियं ॥ ९५ ॥ [पाठान्तर-नयवाले कसमीरे चीणे कावेरि जउणनइकूले। विंझनगे उप्पजइ फलिहं अइनिम्मलं सेयं ॥ ५४] रविकंताओ अग्गी ससिकंताओ झरेइ अमिय जलं । रविकंत -चंदकंते दुन्नि वि फलिहाउ जायंति ॥ ९६ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता [पाठान्तर-उप्पतीओ अग्गी ससिकंतिओ झरेइ अमियजलं । ___ रविकंत-चंदकंते दुन्नि वि फलिहाओ जायंति ॥ ५५] पुंसरायं जहा बहुपीय कणयवन्नो समणिद्धो पुंसराओ हिमवंते । जायइ जो धरइ सया तस्स गुरू हवइ सुपसन्नो ॥ ९७ ॥ [पाठान्तर-बहुपीय रुहिरवण्णो ससिणेहो होइ पुंसराओ य । भीसमु विण चंदसमो दुन्नि वि जायंति हिमवंते ॥५६] ककेयणं जहा पवणुप्पट्ठाण देसे जायइ ककेयणं सुखाणीओ। तंबय सुपक्क महुवय नीलाभं सदिढ सुसणिद्धं ॥९८ ॥ छ । [पाठान्तर-पवणुत्थठाणदेसे जायइ कक्केयगं सुखाणिओ । तंबय सुपक्कमहुय चय नीलाभं सुदिढ सुसणेहं ॥ ५२] भीसमं जहा भीसमु दिणचंदसमो पंडुरओ हेमवंतसंभूओ । जो धरइ तस्स न हवइ पाएणं अग्गि- विजुभयं ॥ ९९ ॥ ॥ इति रयणसप्तकं ॥ सिरिनायकुल परेवग देसे तह नव्या नईमज्झे । गोमेय इंदगोवं सुसणिद्धं पंडुरं पीयं ॥ १० ॥ [पाठान्तर-सिरिनायकुलपरेवमदेसे तह जम्मलनईमज्झे । गोमेय इंदगोवं सुसणेहं पंडुरं पीयं ॥ ५३] गुणसहिया मलरहिया मंगलजणया य लच्छिआवासा । विग्घहरा देवपिया रयणा सव्वे वि सपहाया ॥१०१॥ मुत्तिय वज पवालय तिन्नि वि रयणाणि भिन्नजाईणि । वन्नवि जाइविसेसो सेसा पुण भिन्नजाईओ॥ १०२॥ इय सत्थुत्तर(सत्तुत्तम) रयणा भणिय भणामित्थ पारसीरयणा । वन्नागर संजुत्ता लाल अकीया य पेरुज्जा ॥ १०३ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा [पाठान्तर-इय सत्थुत्तयरन्ना भणिय भणामित्थ पारसी रयणा । वण्णागर संजुत्ता अन्ने जे धाउसंजाया ॥५७] अइतेय-अग्गिवन्नं लालं वंदखसाण देसंमि । जमणदेसे यकीकं लहु मुलं पिल्लुसमरंगं ॥ १०४॥ [पाठान्तर-अइतेय अग्गीवण्णं लालं वद्दक्खसाए देसम्मि। . यमणदेसे यकीकं लहु मुल्लं पिल्लुसमरंग ॥ ५८] नीलामल पेरुजं देसे नीसावरे मुवासीरे । उप्पज्जइ खाणीओ दिट्ठिस्स गुणावहं भणियं ।। १०५॥ [पाठान्तर-नीलनिहं पेरुज देसे नीसावरे गुवासीरे । __उप्पजइ खाणीओ दिद्विस्स गुणावहं भणियं ॥ ५९] ॥ इति वज्रादिसर्वरत्नानां स्थानज्ञातिस्वरूपाणि समाप्तः (१) ॥ अर्थतेषामेव मूल्यानि वक्ष्यंते जथागाहा। पुनः भावानुसारेण जथा जे सत्थ -दिट्ठिकुसला अणुभूया देस -काल-भावन्नू । . जाणिय रयणसरूवा मंडलिया ते भणिजंति ॥ १०६॥ हीणंग अंतजाई लक्खण - सत्तुज्झया फुडकलंका । अय जाणमाणया विहु मंडलिया ते न कईयावि ॥ १०७॥ मंडलिय रयण दटुं परोप्परं मेलिऊण करसन्नं । जंपति ताम मुल्लं जाम सहासम्मयं होइ ॥ १०८॥ धणिओ अमुणियमुल्लो हीणहियं मुणइ तस्स नहु दोसो। मंडलिय अलियमुल्लं कुणंति जे ते न नंदति ॥ १०९॥ . अहमस्स अहियमुल्लं उत्तमरयणस्स हीणमुलं च । जे मयलोहवसाओ कुणंति ते कुट्ठिया होति ॥११॥ रयणाण दिट्ठ मुल्लं निरुद्ध वद्धं न होइ कईयावि । तहवि समयाणुसारे जं वट्टइ तं भणामि अहं ॥ १११ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता तिहु राइएहिं सरिसम छहि सरिसम तंदुलो य बिउण जवो । सोलस जवेहि छहि गुंजि मासओ तेहिं चहु टंको ॥ ११२॥ एगाइ जाव [बा] रस तिग वुड्डी जाम गुंज चउवीसं । चउ रयणाणं मुलं तोलीण सुवन्नटंकेहिं ॥ ११३ ॥ पंच दुवालस वीसा तीसा पन्नास पंचसयरी य । दसहिय चउसट्ठि सयं दो चाला ति सय वीसा य ॥११४॥ चारि सय तह य छह सय चउदस सय उवरि विउणविउंण जा। इकार सहस दुगसय मुल्लामिणं इक्क हीरस्स ॥ ११५॥ अड इग दु चउ अट्ठय पनरस पणवीस याल सट्ठी य । चुलसीइ चउदसुत्तर सयं च कमसो य सट्ठिसयं ॥ ११६ ॥ तिन्नि सय सहि समहिय सत्त सया तहय वारस सया य । दो सहस कणय टंका मुत्तियमुल्लं वियाणेहिं ॥ ११७ ॥ दो पंच अट्ठ बारस अड्डार छवीसा य [याल] सट्ठी य । पंचासी वीसा सउ सट्ठि सयं दुसय वीसा य ॥ ११८ ॥ चउ सय वीसा अड सय नउदस चउवीस पिहु पिहु सयाणि । गुंजाइ [मास ?] टंकं उत्तिम माणिक्क मुल्लु वरं ॥ ११९॥ पायड एग दिवढं दु ति चउ पण छच्च अट्ठ दह तेरं। ठार सगवीस चत्ता सहि महामरगयमणीणं ॥ १२० ॥ __ अस्यार्थं एष पत्रपूठिजंत्रेणाह ॥ छ ॥ गुंजा १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १५ १८ २१ २४ मोती ॥३२ ४०६०८४११४१६० ३६० ७००१२०० २००० माणिक २ ५१ १८२६ ८००१४०० २४०० १८२७ ४० मराइ ० ०॥ ३॥ २ ३ ४ ५ अस्य यंत्रस्य अर्थ गाह ११२ उपरे गाह १२० जाव जाणतीयं ॥ छ । marpaewwarve- -- AL Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतपरीक्षा अदमासाय अहियं मासय अद्धद्ध जाम चउ मासं । तोलीण हेमटंकिहिं मुल्लु कमेण सुरयणाणं ॥ १२१ ॥ एगं दुसढ छ नवगं पनरस चउवीस तहय चउतीसं । पन्नास लालमुल्लं पउणं एयाउ ल्हसणिययं ॥ १२२॥ पा अद्ध पउण एगं दु पंच अटेव तहय पन्नरसं । इय इंद[नील] मुल्लं तहेव पेरोजयस्स पुणो ॥ १२३ ॥ अस्यार्थं जंत्रे जथा मासा २४ ल्हसणी ॥ १ ॥ ६॥ १॥ १८ ३०॥ इंद्रनील पेरोजा ॥ ॥ ॥ २ ५ . १५ सिरि वद्धं गुण अहं पायं अणुसार पाय करडं च । टंकिकि जे तुलंती मुत्ताहल तं भणामि अहं ॥ १२४ ॥ दस वारस पन्नरसा वीसं पणवीस तीस चालीसा । पन्नार(स?) सत्तर सयं चडंति टंकिक्कि तह मुल्लं ॥ १२५ ॥ पन्नासं चालीसं तीसं वीसं च तहय पन्नरसं । बारस दस ढ पण तिय इय मुलं रुप्पटंकेहिं ।। १२६ ॥ इति मुत्ताहलं। अथ वजं जथा एगाइ जाम बारस तुलंति गुंजिकि वज ताणमिमं । मुलं मंडलिएहिं जं भणियं तं भणिस्सामि ॥ १२७ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोती टंक १ रुपय टंका ལྒ་ वज्र गुंजा रूप्य टंका ठकुरफेरूविरचिता पणतीसं छव्वीस वीसं सोलस तेरस [य] दसेवा । अट्ठे च एग ऊणा जातिय कमि रुप्पट्टंकाय ॥ १२८ ॥ छ ॥ अस्यार्थं जंत्रेणाह - M १० १२ १५ २० २५ ३० ४० ५० ७० १०० ५० ४० ३० 9 २ Or मासा हीरा चूनी मोती ३५ २६ २० १६ २० १५ १२ १० = ७ 20 ४ इंद्रनील । ॥ ल्हसणीया । ॥ ५ ६ 1 १३ १० ॥ ॥ मुद्रित प्रतिमें १२३ वीं गाथाका पाठ भिन्न रूपमें मिलता है और उसके नीचे यंत्ररूप कोष्ठक दिया गया है उसकी अंकगणना भी भिन्न प्रकारकी है । गाथा और कोष्ठक निम्न प्रकार हैं [ अद्धति छह ] दह तेरस सोलस बावीस तीस टंकाई । लालस्स मुल्लु एयं पेरुजं इंदनील समं ।। १२३ अस्यार्थ यंत्रकेणाह - ११॥ ३ | ३॥ ४ १६ ३० ६० १०० १५० २२० ३४० 11 ॥॥ = ७ ፡ ८ १८ ३० ६० १२० | २४० ४८० | ९६० ૨ | ૯ | ૩૦ ૮૦ ૨૨૦ ૨૮૦ ૨૦૦ ૪૦૧ मराइ ४ ६ १० १५ २२ ३४ ५० ७० ov २॥ १' २ १ २ १ ८ ८ 9 ५ लाल ॥ ३ ६ १० १३ १६ २२ ३० | | पेरोजा AW ९ १० ११ ६ ५ ५ ७ १० ५ ७ १० २ ५ ७ १० 20 ४ १२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नपरीक्षा શ + मुद्रित प्रतिमें १२४, १२५, १२६ इन ३ गाथाओंके स्थानपर पाठभेदवाली भिन्न गाथाएं हैं तथा उनके नीचे यंत्ररूपसे जो कोष्ठक दिये हैं उनमें अंकादि भी भिन्न गिनती बताते हैं । गाथाएं और कोष्टक निम्न प्रकार हैं बारस चउदस सोलस वीसाई दसहियं च जाव सयं । टंकिक्कि जे तुरंती मुत्ताहल ताण मुल्लमिमं ।। १२४ / चालीसं पणतीसं तीसं चउवीस सोलसिकारं । अट्ट छ इगेग हीणं जाब दुकमि रुप्प टंकाणं ।। १२५/ एगाइ जाव बारस चडंति गुंजिक्कि वज्र ताणमिमं । वीसाय सोल तेरस गारस नव इगूण जाव दुगं ।। १२६ अस्यार्थ पुनर्यत्रकेणाह मोती टंक प्रति १२ १४ १६ २० ३० ४० ५० ६० ७० ८० ९० १०० रूप्य टंकण ४० ३५ | ३० | २४ १६ ११ ८ ६ ३ २ हीरा गुंजा रूप्य टंकण १ २ ३ ४ २० | १६ | १३ | ११ ५ ६ ७ ८ ८ ७ ac ५ ४ ९ १० ११ १२ अइ चुक्ख निम्मला जे नेयं सव्वाण ताण मुलु मिमं । नहु इयर रणगाणं कणयद्धं विद्दुमे मुलं ॥ १२९ ॥ ५ ४ | ३ | २ गोमेय फलिह भीसम कक्केयण पुंसराय वेडुज्जे । एयाण मुल्लु दम्मिहि जहिच्छ कज्जाणुसारेण ॥ १३० ॥ छ ॥ * [ पाठभेद - अ चुक्ख निम्मला जे नेयं सवाण ताण मुल्लमिमं । सोसे सयमंसं भमालए मुछु दसमंसं ॥। २७ गोमेय फलिह भीसम कयग पुरसराय वइडुजे । उक पण छ टंका कणयद्ध विद्दुसे मुलं ॥ २८ ॥ इति सर्वेषां मूल्यानि समाप्तानि ॥ ] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता सिरि धंधकुले आसी कन्नाणपुरम्मि सिट्ठि कालियओ। तस्सुव ठक्कुर चंदो फेरू तस्सेव अंगरुहो ॥ १३१ ॥ तेणिह रयणपरिक्खा विहिया नियतणय हेमपालकए । केर मुणि गुण संसि वरिसे ( १३७२ ) अल्लावदी विजयरज्जम्मि ॥ १३२ ॥ [पाठभेद-तेणय रयणपरिक्खा रइया संखेवि ढिल्लिय पुरीए । कर मुणि गुण ससि वरिसे अल्लावदीणस्स रजम्मि ॥१२६] * ॥ इति परमजैन श्रीचंद्रांगज ठक्कुर फेरू विरचिता संक्षिप्तरत्नपरीक्षा समाप्ती॥ १ पाठान्तर --फेरूविरचिते संक्षेप्यरत्नपरीक्षा समाप्तः।' Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरू विरचिता प्राकृत भाषाबद्धा द्रव्यपरीक्षा ॐ नमो कमलवासिणी देवी । कमलासण कमलकरा छणससिवयणा सुकमलदलनयणा । संजुत्तनवनिहाणा नमिवि महालच्छि रिद्धिकरा ॥ १ ॥ जे नाणा मुद्दाई सिरि ढिल्लिय टंकसाल कज्जठिए । अणुभूय करिव पत्तिउ वन्हि मुहे जह पयाउ घियं ॥ २ ॥ तं भइ कलसनंदण चंदसुओ फिरऽणुभाय तणयत्थे । तिह मुल्छु तुल्लु दव्वो नामं ठामं मुणंति जहा ॥ ३ ॥ पढमं चिय चासणियं, वीयइ कणगाइ रुप्प सोहणियं । तइए भणामि मुहं चउत्थए सव्व मुंदाई ॥ ४ ॥ दारं ॥ चासणियं जहा - सुक्कं पलासकट्ठे गोमय आरन्नगा अजा अस्थि । कमि तिय इगे गि भायं एगट्ठे दहिय तं रक्खं ॥ ५॥ छाणि सेर सवायं वंधि गहं वंकनालि धमि मंदं । धव अंगार सवा मणि सौहिय उत्तरइ चासणियं ॥ ६॥ तं पुणरवि सोहिज्जइ पण तोला रक्ख वंधिऊण गहं । ता हवइ सहं कूरं अइ निम्मल चासणिय रुप्पं ॥ ७ ॥ ॥ इति सर्व चासनिका मूलसोधनविधिः ॥ सीसस्स अमल पत्तं करेवि लहु खंड तुलिवि सोहिज्जा । नीसरइ रुप्प सयलं सीसं गच्छेइ खरडि महे ॥ ८ ॥ ३ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरूविरचिता सय तोलामज्झेणं वारह जब सीसए हवइ रूपं । पच्छा पुण पुण सोहिय तहावि निकणं न कइयावि ॥ ९ ॥ ॥ इति नागचासनिका ॥ रुपस्स वीस मासा छटंक नागं च देइ सोहिज्जा | जं जाय ते विसुवा एवं हुइ रुप्प चासणियं ॥ १० ॥ ॥ इति रुप्पचासनिका ॥ नाय हक्क हरजय रीणी चक्कलिय टंक दस गहिउं । पनरह गुण सीसेणं सोहिय नीसरइ जं रूप्पं ॥ ११ ॥ तरसाओ पाडिज्जइ रुपं सीसस्स जं रहइ सेसं । तं चासणिय सरूवं अन्नं जं खरडि मज्झि हवे ॥ १२ ॥ नीचुच्च नाणयाओ कमेण चउ दु जव किंचि हीणहिया । संगहइ खरडि रूप्पं अवस्स चासणिय समयंमि ॥ १३ ॥ हरजय चासणिय दुगं दह दह टंकस्स मेलि गहि अद्धं । पण दु जवंतरेसु हदु जवंतरि वाहुडइ नूणं ॥ १४॥ ॥ इति द्रव्यचासनिका ॥ चासणिय जव दहग्गुण जि टंक मासा हवंति तस्सुवरे । अग्गरस भुति दीयइ टंकप्पइ जे जवा होंति ॥ १५ ॥ तं सय मज्झे रुपं तहच्छमाणस्स पूरणे जंतं । तंवअहियस्स पुण जय सल्लाही सा भणिज्जेइ ॥ १६ ॥ ॥ इति सल्लाहिकाविधिः ॥ • सामन्त्रेण सुवन्नो वारहि वन्नीय भित्ति कणओ य । पंच जव हीण चिप्पं पिंजरि बन्नी य पंच तुले ॥ १७ ॥ सिय खडिय लूण कल्लर सम मिस्सिय चुन्न सा सलोणीयं । hear are चिप्प करेवि तेण सह पइयव्वं ॥ १८ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा तिहु अग्गिक सलोणी सत्ति सलूणीहि सुज्झए चिप्पं । इक्कारसीय वन्नी इक्कारस जव भवे सुकसं ॥ १९॥ सय तोल कणय पइए जं घट्टइ सा सलूणियं चिप्पे । चिप्पे दहग्गि पक्के जं घट्टइ तं च कायरियं ॥ २० ॥ चिप्पस्स तिन्नि मासा पत्त करिवि भित्ति कणय सह पइए । स तिहाउ जओ घट्टइ भित्तीओ पढम चासणियं ॥ २१ ॥ पच्छा ति अग्गि पक्के पुणो वि तिय मास भित्ति सह पइए । तेरह विसुव जवस्स य इय अंतरु वीय चासणिए ॥ २२ ॥ परपुन्न दहग्गि पाइ?]ए भित्ति समं हवइ तइय चासणियं । टंकाण चक्कलीयं गहिज्जइ य कणय चासणियं ॥ २३ ॥ ॥ इति सुवर्णशोधना चासनिका च ॥ मेलगइ रुप्प विसुवा दह तेरह सोल ठार उणवीसा । पंच उण चउण तिउणं विउणं सम सीसयं दिजा ॥ २४ ॥ सयल कुदव्वं गच्छइ खरडिंतरि रहइ सेस रुप्पवरं । तं पुण दिवड्ड सीसइ सोहिय हुइ वीस विसुव धुवं ॥२५॥ ॥इति रुप्पसोधना ॥ तुलिय सलूणीयाओ अड्डाइ गुणीय खरडि रुप्पस्स । वट्टेवि मेलि पिंडिय करिज कोमं स चुन्न सहा ॥ २६ ॥ तत्तो करेवि कुट्टिय धमिज घट्टेइ तईय अंसुमलं । हवइ दुभामिस्स दलं तस्साओ अड्डयं कुज्जा ॥ २७ ॥ नीसरइ सयल रुप्पं सीसं तंबं च जाइ खरडि महे । सा खरडि पुण धमिजइ पिहु पिहु नीसरहि दुन्नेवि ॥२८॥ काइरिय पुणो एवं कीरइ तस्साउ तंब सह कणयं । नीसरइ तस्स चिप्पं हुइ सीसं खरडि मज्झाओ ॥ २९ ॥ ॥इति मिश्रदल शोधना॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता कजलिय मूसि थूरिय तोपाल नियारयस्स सुहम कणं । सोहग्ग फक्क सजिय दसंस जुय कढिय हवइ दलं ॥३०॥ ॥इति कणचूर्ण शोधना॥ चउ भाय अमल तंबय वर पित्तल सोल भाय सह कढियं । इय रीसं कायव्वं रुप्पस्स विसोव करणत्थे ॥३१॥ वीस विसोवा रुप्पं मासा वीसाउ जं जि कडिज्जा । तित्तिय मासा रीसं दिज्ज हवइ ते विसोव कसं ॥३२॥ ॥इति रुप्पवनमालिका ॥ अइ चुक्ख रुप्प तंबय कमि पनरह सट्ट सडू चउ रीसे । इय भाय वंनियत्थे सोलस चउ कणय घडणत्थे ॥३३॥ जारिस वन्नी कीरइ तित्तिय दु जवहिय भित्ति कणओ य । सेस दु जवूण रीसं एवं तोलिक्कु हवइ परं ॥ ३४ ॥ रीस सम रुणय पढमं गालिवि पुण थोव कणय सह कढियं । पुण सेस सहा वट्टिय ता हवइ जहिच्छ वन्नाभं ॥ ३५॥ अथवाराम कर भाय सुलभं तारं मुणि सत्त भाय सह कढियं । एयं सयंस रीसं सुवन्न वन्नस्स हरण वरं ॥ ३६ ॥ सेयालीस विभायं धुर कणय करवि एग एगूणं । तत्तुल्लि दिज रीसं कमेण पाऊण हुइ वन्नं ॥ ३७ ॥ ॥ इति कनकवनमालिका ॥ जवि सोलसेहि मासउ चहु मासिहि टंकु तोलओ तिउणो। सोलहि जवेहि वन्नी वारहि वन्नी महाकणओ ॥ ३८ ॥ वन्नी तुल्लेण हयं भित्ति सुवन्नस्स अग्घ सह गुणियं । वारस भागे पत्तं जहिच्छमाणस्स तं मुल्लं ॥ ३९ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ द्रव्यपरीक्षा नाणा वन्नी कणओ नाणा तुल्लेण जाम गालिज्जा। केरिस वन्नी जायइ अह एरिस वन्नि किं तुल्लो ॥ ४० ॥ जसु वन्नी जं तुल्लो सो तस्सरिसो गुणेवि करि पिंडं । तुल्लि विहत्ते वन्नं इच्छा वन्नी हरे तुल्लं ॥ ४१॥ ॥ इति स्वर्ण विवहारं ॥ उग्घाड मूसि दुग सउ पडिय सओ ढक्क मूसि उद्देसो । आवट्ट खए गच्छइ हरजइ तह रीण वट्टे य ॥ ४२ ॥ छेयणि घडणु ज्जालणि सहस्सि तोलेहि रुप्पु चउमासा। कणओ सवाउ मासउ टंक? सहस्सि दम्मेहिं ॥४३॥ ॥इति हास्यं ॥ चहु सय ठुत्तरि कणओ चहु सय वत्तीस कणय टंको य। तेवन्नि सङ्क रुप्पउ सट्ठि टकउ नाणउ ति वन्ने ॥ ४४ ॥ तोलिक्कस्स सलूणी दम्मिहि वत्तीसि चउ हु कायरियं । रुप्पस्स खरडि सीसय पमाणि छह टंक दम्मिके ॥४५॥ सीसस्स मली सीसस्स अद्धए तह य डउल खरडि पुणो । लोहद्धि लोह कक्कर इय अग्धं तेर वासट्टे ॥ ४६ ॥ रुप्पय कणय ति धाउय इय तिय मुद्दाण मुल्ल दम्मेहिं । वन्निय तुल्ल पमाणे सेस दु धाऊय टंकेण ॥ ७ ॥ नाणा मुद्दाण कए जारिसु टंको पमाणिओ होइ । टंकेण तेण मुल्लं गणियव्वं सयल मुद्दाणं ॥ ४८ ॥ भणिसु हव नाणवढं दम्मित्तिहि जाम इत्तियं मुदं । इय अग्घ पमाणेणं इत्तिय मुंदाण कइं मुलं ॥ ४९ ॥ . रासिं तिगाइ गुणियं मज्झिम हरिऊण भाउ जं लडं । तं ताण मुंद मुलं न संसयं भणइ फेरु त्ति ॥ ५० ॥ ॥ इति मौल्यम् ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता अथ मुद्रा यथा सवा इगवन्न दम्मिहिं पुत्तलिया खीमलीय चउतीसे। तोला इक्कु कजानिय वावनि आदनिय इगवन्ने ॥ ५१ ॥ रीणी जे मुद्दा लग स तिहा गुणचासि तोलओ तेवि । सड्ढडयाल रुवाई खुराजमी सड्ड पंचासे ॥५२॥ वालिट्ठ पाउ ओवम रुप्प मया तिन्नि होति तिहु तुल्ले । सट्ठ सउ असी चत्ता तोला इक्को य वावन्नो ॥५३॥ सिरि देवगिरिउ वन्नो सिंघणु तुल्लेण मासओ इक्को । सतरह विसुवा सड्डा रुप्पउ ताराय मासद्धो ॥ ५४॥ अन्नं जं जि करारिय खट्टा लग नरहडाइ रीणीय । तहं सयल दिहि मुल्लु अहवा चासणिय अग्गिमुहे ॥ ५५॥ ॥ इति रूप्यमुद्रा॥ पूतली तो० ५१॥ खीमली ० ३४ कजानी . ५२ आदनी ० ५१ रीणीमुद्रा ० रुवाई ० ४८॥ खुराजमी ० ५०॥ वालिष्ट जि ३ प्रति ५२ १६० वा. १ ८० वा. १. ४० वा. १ सीघणमुद्रा ऽ०४ तारा मा०॥5०२ रीणी खटिया लग नरहडादि करारी एते दृष्टि अथवा चासनी प्रमाणे मूल्यं । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा कणय मय सीयरामं दुविहं संजोय तह विओयं च । दह वन्नी दस मासा अभन्नणीया सपूयवरा ॥ ५६ ॥ चउकडिय तह सिरोहिय अट्ठी वन्नी सवा चउ म्मासा । तुल्ले कुमरु पुणेवं अट्ठी वन्नी धुवं जाण ॥ ५७ ॥ पउमाभिहाण मुद्दा बारह वन्नी. य तस्स कणओ य । तुल्लेण टंकु इक्को सत्त जवा सोल विसुवंसा ॥ ५८ ॥ देवगिरी हेमच्छू सवादसी सिंघणी महादेवी । ठाणकर लोहकुंडी अट्ठी वाणकर पउण दसी ॥ ५९ ॥ खग्गधर चुक्खरामा सड्डनवी केसरी य छह सड्डा। सत्त जव दसी वन्नी कउलादेवी वियाणाहि ॥ ६ ॥ जे अनि अच्छु बहुविह थरेहि तह मुल्ल तुल्लु नजेइ । चउमासा दीनारो जहिच्छ वन्नी णुसारि फलो ॥६१ ॥ ॥इति वर्णमुद्रा ॥ वा. १० सीताराम मासा १० . १ संयोगी १ वियोगी वानी ८ चउकडीया ४॥ वा. ८ सिरोहिया । वा. ८ कुमरु तिहुणगिरि मासा ४॥ वा. १२ पदमा टं १ जव ७७०० आछू देवगिरी मुद्रा स्वर्णमय वानी विउराप्रमाणे १०। सिंघण १०। महादेवी ८ ठाणाकर ८ लोहकुण्डी ९॥ रामवाण ९॥ खड्गधर. चोषीराम ६॥ केसरी . १० ज ७ कौलदेवी . दीनारु मा.४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता वाणारसीय मुद्दा पउमा नामेण इक्कि सय मझे। तिन्नेव धाउ तुल्ले तोला सइतीस जाणेह ॥ ६२॥ पंच जव हीण वारह वन्नी कणओ य टंक इगयाला । छत्तीस अमल रुप्पं तंब चउतीस टंकवं ॥ ६३ ॥ १० पदमा १०० मध्ये धातु ३ टंक १११ टं ४१ सोनावानी ११ जब ११ चीपा टं ३६ रूपा चोषा नवाती विश्वा २० टं ३४ ताम्बा चोषा अमल प्रधान इक्कि पउमस्स मज्झे रुप्प कणय तंब मासओकिक्को। सत्त दह पंच जव कमि सुन्न चउ पनर विसुवहिया ॥ ६४ ॥ इय एगि पउम तुल्लो मुणि ७ जब विसुवंस सोल टंकु इगो। जाणेह तस्स मुल्लो जइथल उणसट्ठि अह सट्ठी ॥६५॥ है ० पदमा १ संतोल्ये टं१ जव ७७०॥१॥ मासा १ ज ७ ३०॥ रूपा चोखा ॥ है मासा १ ज १० ऽ४॥ १ कनक चोखाः॥ मासा १ ज ५॥ ०७४ तांबा निर्मल भगवा तिघाउ संभव पउमा समतुल्ल विविहमुल्ला य । भगवंदसणिय नामे कारिय जियसत्त रायरस ॥६६॥ LAN -- भगवा नानाविध मौल्य मुद्रा ११ तोल्ये मासा ४ जव ७ भगवंत नामे जितसत्र नृप कारितं ॥ मुद्द विलाई कोरं मासा नव तुल्लि तिन्नि धाऊ य । तंबं दिवड्डमासं सेस कणय रुप्प अद्धद्धं ॥ ६७ ॥ पउण ति टंका मुलं इमरस सेसाण कमिण पाऊणं । जा पाय टंकओ हुइ इक्कारस मुद्द तुल्लि समा ॥ ६८ ॥ विलाई कोर मुद्रा ११ तोल्ये। मासा ९ मूल्ये टंका ३२॥ २॥5२।२ sms१॥5॥ ७१ 500 500 50 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा माहोवयस्स मुद्दा तुल्लो इक्कस्स सड़ चउमासा । संजोय तिन्नि धाऊ पिहु पिहु नामेहि तं भणिमो ॥ ६९ ॥ रुव कणय गुंज चउ चउ तंवउ गुणवीस वीरवंभो य । मुल्लु चउवीस जइथल हीरावंभस्स वावीसं ॥ ७० ॥ तंबु अढाइ मासा रुप्पु मुवन्नो य इक्कु इक्को य । तियलोयवंभ मुलं छत्तीसं विविह भोजस्स" ॥७१ ॥ २४ वीरवरमु मासा ॥ तृधातु ० सोनउ .रूपड त्रांबा ० राती ४ .राती४ रा. १९ । २२ हीरावरमु मासा ४॥ तृधातु है ० ० सोनउ रूपउ तांबा ० ० रा. ॥ रा. ३॥ १९॥ , १० १३६ त्रिलोकवरमु १ मासा ४॥ मा. ० मा १ सोन मा १ रूपौ मा २॥ तांबा है ० भोज नाना तौल्य विविध मूल्य ० तृधातु संभव। वल्लह तिय कमि धाऊ रुप्प कणय गुंज अट्ठ पण अहुटुं । तंबु भव ११ सतर १७ वीसं २० मुल्ले चालीस तीस वीस धुवं ॥७२॥ वालम्भ मासा सोना रूपा तांबा ४० १ ४॥ रा.८ रा.८ रा.११ , १३० १ ४॥ रा.५ रा.५ रा.१७ १ १२० १ ४॥ रा.३॥ रा.३॥ रा.२० ॥ इति त्रिधातुमिश्रितमुद्राः॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता अथ द्विधातुमुद्राः जे तोला जे मासा जि टंक उल्लविय सयल मुद्देहिं । तं सयमझे रुप्पउ जाणिज्जहु सेस तंबो य ॥ ७३ ॥ खुरसाण देस संभव चिन्हक्खर पारसीय तुरुकीय । तंबय रुप्प दुधाऊ इमेहि नामेहि जाणेह ॥ ७४ ॥ भंभइ य एगटिप्पी सिकंदरी कुरुलुकी पलाहउरी । सम्मोसीय लगामी पेरि जमाली मसूदीया ॥ ७५ ॥ सय मुद्द मज्झि रुप्पउ ति चउ ति दु इगेग दुदु इग दु तोला । सुन ति ३ सुन छ ६ दु २ सवापण ५। _छ ६ दु २ सढनव ९॥ पउणदुइ १॥ मासा ॥ ७६ ॥ चउतीसं तेवीसं चउतीसिगयाल असी सट्ठि कमे। इगयाल सत्तयालं पणपन्न ऽडयाल टंकिके ॥ ७७ ॥ ॥ इति खुरसाणीमुद्राः। विवरं जंत्रणाह १३ ३४ भांभइ मुद्रा १०० मध्ये रूपा तो ३ मा. . २३ इगटीपी १०० मध्ये रूपा तो४ मा. ३ ३४ सिकन्दरी १०० मध्ये रूपा मा.. ४१ कुरुलुकी १०० मध्ये रूपा मा.६ ८० पलाहौरी १०० मध्ये रूपा ६० समोसी १०० मध्ये रूपा १ मा. ५॥ ४१ लगामी १०० मध्ये रूपा २ मा.६ है ४७ पेरी १०० मध्ये रूपा २ मा. २ है ५५ जमाली १०० मध्ये रूपा १ मा. ९॥ । ४८ मसूदी करारी १०० मध्ये रूपा २ मा. १॥ अवदुल्ली तह कुतुली तुल्लि संवापण दुमासिया मुल्ले । सट्टि असी तह रुप्पं दु दु जव चउ सोल विवकम्मे ॥८॥ m maror मा. २ ० अबदुल्ली १ मासा ५। मध्ये रूपा जव २७४ प्र०६० • कुतुली १ मासा २ मध्ये रूपा जव २॥ प्र०८० । ॥इति अठनारीमुद्राः ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा विक्कम नरिंद भणिमो गोजिग्गा अउणतीस तोल रुवा । दउराहा पणवीसं सवा रुमे अहुठ चउ मुल्ले ॥ ७९ ॥ भीमाहा छव्वीसं तोला मासडु चारि टंकिक्के ।। चोरी मोरी तोला पणवीसं मुल्लि चारि सवा ॥ ८० ॥ करड तह कुंम्मरूवी कालाकच्चरि य छक्क करि मुल्ले । सय मज्झि अट्टमासा सतरह तोला य खलु रुप्पं ॥ ८१ ॥ ॥ इति विक्रमार्कमुद्राः॥ है . गोजिगा १०० मध्ये रूपा तोला २९ मासा ९ प्रति ॥ ० दउराहा १०० मध्ये रूपा तोला २५ मासा ३ प्रति ४ ० भीमाहा १०० मध्ये रूपा तोला २६ मासा ०॥ प्रति ४ ० चोरी मोरी १०० मध्ये रूपा तोला २५ मासा. प्रति ४॥ ० करड १०० मध्ये रूपा तोला १७ मासा ८ प्रति ६ . कूर्मरूपी १०० मध्ये रूपा तोला १७ मासा ८ प्रति ६ • कालाकचारि १०० मध्ये रूपा तोला १७ मासा ८ प्रति ६ गुज्जरवइ रायाणं बहुविह मुद्दाइ विविह नामाई । ताणं चिय भणिमोहं तुल्लं मुल्लं निसामेह ॥ ८२॥ कुमर अजय भीमपुरी लूणवसा रुप्पु टंक पणवन्ना । पंच नव विसुव मुल्लो तुल्ले चउमास तेर जवा ॥ ८३ ॥ वीसलपुरीय छह करि कुंडे गुग्गुलिय टंक पन्नासं । डुल्लहर पनर तोला अहुट्ठ मासा छ सड्ड करे ॥ ८४ ॥ अजुणपुरीय तोला वारह सड्ढाय मुल्लि अट्ठ करे। कट्टारिया चउद्दस तोला मासा ति सत्तेव ॥ ८५ ॥ नव करि असपालपुरीगारस तोला अड्डाइय मासा । सारंगदेव नरवइ तस्स इमं संपवक्खामि ॥८६॥ सोढलपुरी छ तोला मासा अट्ठव मुल्लु पन्नरसा । पणमासा दहतोला दस करि लाखापुरी जाण ॥ ८ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता 6 १०० wriram acccccc ५।४ कुमरपुरी १०० मध्ये तोला १८ मा० ४ ५।४ अजयपुरी १०० मध्ये तोला मा० ४ ५४ भीमपुरी मध्ये तोला १८ मा० ४ ५४ लावणसापुरी मध्ये तोला १८ ८ अर्जुनपुरी १०० मध्ये तोला १२ मा० ६ ६ वीसलपुरी . तोला मा० ८ १ कुंडे १ गूगले ६॥ डोलहर - १०० मध्ये तोला १५ मा० ॥ ७ कटारिया मा० ३ ९ आसपाल पु १०० मध्ये तोला ११ मा० २॥ १५ सोढलपुरी १०० मध्ये तोला ६ मा० ८ १० लाखापुरी १०० मध्ये तोला १० मा० ५ गविका य पंच तोला रुप्पउ सयमज्झि वीस करि मुल्ले । पडिया रजपलाहा सोलह करि छ तोल अहुठ मसा ॥८॥ वेवलय सड्ड सोलस रुप्पु छ तोलाय मासओ पउणो । इय इत्तियाण तुल्लो मासा पंचेव इकिको ॥ ८९ ॥ अट्ठ करिवि सह सया तोला सढवार तुल्लि मासहुठा। दस तोल सत्त मासा वराह नव सड टंकीण ॥ ९ ॥ वारह सङ्क करेविणु तोलट्ठ रुवा विनाइका चंदी। कन्हडपुरी छ सड्डा कणु पनरह तोल अहुठ मसा ॥ ९१ ॥ वाण इगवीस तोला अधमासउ रुप्पु पंच इगि टंके। मछवाह छ करि सोलह तोला मासट्ठ रुप्पु सए" ॥ ९२॥ चउतीसा पइतीसा छत्तीसा तह य सत्ततीसाय । मालवपुरि छारीया चासणिए मुल्लु एयाणं ॥ ९३ ॥ ॥ इति गुर्जरीमुद्राः॥ पदा । wwwwwwwwww २० गविकाः १६ पडिया १६ रजपलाहा १६॥ वेवला ८ साठसया ९॥ वराह मुंद १२॥ विनायका ६॥ काहडपुरी ५ वाण मुद्रा ६ मछवाहा १०० मध्ये तोला ५ मा० . १०० मध्ये तोला ६ मा० ३॥ १०० मध्ये तोला ६ मा० ॥ १०० मध्ये तोला ६ मा० ॥ १०० मध्ये तोला १२॥ मा० ३॥ १०० मध्ये तोला १० मा० ७ १०० मध्ये तोला ८ मा० ० १०० मध्ये तोला १५ मा० ३॥ १०० मध्ये तोला २१ मा० ॥ १०० मध्ये तोला १६ मा० ८ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.rimurrammarwarrammarrim Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा मालविय चउक्कडिया तोला अट्ठाय सड्ड वारि करे । दिउपालपुरी पनरह तोला पण मास छह सड्डा ॥ ९४ ॥ कुंडलिया छह तोला पउण छ मासा य मुहि पन्नरसा । मास पंच तोला वारह जब कउलिया सतरं ॥ ९५ ॥ वावीस टंक दव्वो तेरह सड्डा छडुलिया होंति । लक्की तुंगड पण तोला तियमास चउवीसं (उणवीसं?) ॥९६॥ इय इत्तियाण तुलं चउमासा दह जवा हवंति धुवं । जानीया चित्तउडी वीसं दव्वो य पण तोला " ॥ ९७ ॥ १८ प्रति नाम १०० म रूपा तो० मा० तोल्ये टं० १२॥ चौकडिया ६॥ १५ १७ दिउपालपुरी कुंडलियाः कउलिया मुद्र १३॥ छूडुलिया सेलकी तोगड जानीया चितौडी १९ २० ८ १५ 39 39 प्रति नामानि १०० मध्ये २२ जकारीया नाम १०० मध्ये ३० गलहुलिया ५६ रखालगा मुद्रा शत १ मध्ये ७५ सिवगणा शत १ मध्ये ७ वापडा नाम मुद्रामध्ये १७ मलीता नाम मुद्रा मध्ये ७ सीहमार नाम मुद्रा म० ७ चोरमार नाम १०० म० ० १ ५ ५॥ ረ ४ १ ५ जक्करिया गलहुलिया वावीसं तीस मुलु तह दव्वो । कम चारि तिन्नि तोला छ जव चउम्मास चउमासा ॥ ९८ ॥ माट्ठ इकु तोलउ रुप्पो य रखालगा य छप्पन्ना । सिवगणय पंचहत्तर मुल्लि सवा तोलओ रुप्पो ॥ ९९ ॥ चउदस सवा चउदसी तोला वपडाय मलित सत्त करे । सिह चोर मार मलुवा तेरह तोलाय सत्त सत्त सवा ९ ॥१००॥ ॥ इति मालवीमुद्राः ॥ १९ ० १ १ १ रूपा तो० मा० तोल्ये टं० ४ १४॥ ४ ८ १४ ० १४ १३ ० १३ ० 0 O O जव १० १० १० १० १० १० 0 'ovov २९ ०००० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता चाहंडी तिन्नि कमसो दुउत्तरी अंककी पुराणीय । ति ति दु तोल दह ति दह मास ऽडवीस वतीस पणतीसं ॥११॥ आसलिय सतरहुत्तरि दु तोल छम्मास दव्वु चालीसं। आसल्ली ठेगा महि छ टंक कणु मुल्लि पन्नासं ॥ १०२ ॥ आसलिय नविय तुल्ले सतरह तोला सवाय इगि टंके । टंक अढाई रुप्पउ सय मज्झे वीस मासाय ॥ १०३ ॥ ॥इति नलपुरमुद्राः ॥ . २० प्र०२८ चांहडी दुओत्तरी १०० मध्ये तो० ३ मा० १० प्र० ३२ चांहडी आंककी १०० मध्ये तो० ३ मा० ३ प्र० ३५ चाहडी पुराणी १०० मध्ये तो० २ मा० १० प्र० ४० आसली सतरहोत्तरी मध्ये तो० २ मा० ६ प्र० ५० आसली ठेंगा १०० मध्ये तो० २ मा० प्र० १७ आसली नवी ठेका १ प्रति तुलित तोला १७ मध्ये रूपा तोला २॥ सत १ मध्ये रूपा तो ५ (?) चंदेरियस्स मुद्दा मुल्ले कोल्हापुरीय छह सड्डा । पनरह तोला सतिहा तुल्ले चउ विसुव टंकु इगो ॥१०४॥ सट्टट्ठ सड्ढ वारह तोला जीरीय हीरिया सयगे। वारट्ठ करिवि सु कमे टंकइ इक्के वियाणेह ॥ १०५॥ दव्वु अढाई तोला अकुडा सय मज्झि मुल्लु चालीसा । जइत अड मास नव जव दवो मुल्लेण दिवढ सयं ॥ १०६ ॥ सट्ट सउ वीर टंकइ जव तेरह सत्त मास सय मज्झे । लक्खण सवा छ मासा रुप्पु सएं मुल्लु असी सयं ॥ १० ॥ राम दु जव चउमासा दुन्नि सया मुल्लि टंकए इके। वव्वावरा मसीणा खसरं च सयं नवइ अहियं ॥ १०८ ॥ ॥ इति चंदेरिकापुरसत्कमुद्राः" । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० ६ || कोल्हापुरी 'प्र० १२ जीरिया до ८ हीरीया प्र० ४० अंकुडा प्र० १५० जइत प्र० १६० वीरमुंद प्र० १८० लक्ष्मणी प्र० २०० राम प्र० १९० वव्वावरा प्र० १९० मसीणा प्र० ९९० खसर प्र० १५० प्र० २०० प्र० ३०० प्र० ४०० द्रव्यपरीक्षा १९ १९ १९ १९ १०० मध्ये १०० मध्ये १०० मध्ये १०० मध्ये १०० मध्ये १०० मध्ये १०० मध्ये १०० मध्ये १०० मध्ये २१ प्रति नामानि मुद्रानां अणगपलाहे मदनपला हे पिथउपलाहे चाहड पला · तो० १५ तो० ८ तो० १२ तो० २ तो० 0 तो० ० तो० ० तो० तो० सत १ सत १ सत १ 0 तो० ० तो० ० १०० मध्ये १०० मध्ये ॥ इति चंदेरिकापुरमुद्राः ॥ शत १ मध्ये सत १ 0 99 33 मा० ४ मा० ६ मा० ६ मा० ६ जालंधरी वडोहिय जइतचंदाहे य रूपचंदा | रुप्प चउ तिनि मासा दिवढ सयं दु सय टंकिके ॥ १०९ ॥ तिन्नि सय इक्कि टंके सीसडिया हुइ तिलोयचंदाहे । संतिउरीसाहे पुर्ण चारि सया इक्कि टंकेणं ॥ ११० ॥ ॥ इति जालंधरीमुद्राः ॥ २२ जइतचंदाहे १०० मध्ये रूपचंदाहे १०० मध्ये त्रिलोकचंदाहे १०० मध्ये सांतिउरी साहे ॥ मध्ये 93 33 मा० ८ मा० ७ मा० ६ मा० ४ मा० ५ मा० ५ मा० ५ रूपा तो० 39 33 "" अथ ढिल्लिकासत्कमुद्रा यथा अणग मयणप्पलाहे पिथउपला हे य चाहडपला हे | सय मज्झि टंक सोलह रुप्पउ उणवीस करि मुल्लो ॥ १११ ॥ ॥ एता मुद्रा राजपुत्र- तोमरस्य ॥ २३ 97 53 33 जव ० जव 'o जव ० जव 0 33 0 ज० ९ 0 ज० १३ ० ज० ४ 0 मा० ४ ज० २ ज० ८ ज० ८ ज० ८ रूप्य तोला मासा ५ ४ ० ३१ ४ ४ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता सूजा सहावदीणी तहेव महमूद साहि चउकडिया। टंक चउद्दस रुप्पउ सय मज्झे मुल्लु इगवीसं ॥ ११२॥ कडगा सरवा मखिया सवा छ तोला य रुप्पु सोल करे। कुंडलिया पण तोला छ मास अट्ठार इगि टंके ॥ ११३ ॥ छुरिया जगडपलाहा चउतोल दु मास रुप्पु पणवीसं । दुकडीटेगा अहिया इगि मासइ रुप्पि तेवीसं ॥११४ ॥ कुव्वाइची जजीरी तह य फरीदीय परसिया मज्झे । दस मासा तिय तोला मुल्ले टंक्किक्कि छन्वीसा ॥ ११५ ॥ चउक कुवाचीय वफा सवा ति तोला य मुल्लि इगतीसा । सतिहाय तिन्नि तोला खकारिया तीस करि जाण ॥ ११६ ॥ उणतीस निवदेवी मुल्ले तोला ति सड चउमासा । धमडाह जकारीया अहुट्ठ तोलाऽडवीस करे ॥ ११७ ॥ पढमा अलावदीणी सयगा समसीय चारि टंक सवा । इगसट्टि इकि टंकइ सत्तरि चउ टंक मोमिणिया ॥ ११८ ॥ दुक सेला पंच रवा तोला तिय दिवढ मासओ रुप्पो। बत्तीस करिवि मुल्ले टंकइ इक्के वियाणिज्जा ॥ ११९॥ तितिमीसि कुव्वखाणी खलीफती अधचँदा सिकँदरीया। नव टंक रुप्पु मुल्ले चउतीस करेवि इय समसी ॥ १२० ॥ समसद्दीण सुयाणं रुकुणी पेरोजसाहि पणतीसं । तह वारसुत्तरी पुण इग मासा हीण तिय तोला ॥ १२१ ॥ समसदि सुया रदीया तस्स रदी दुन्नि ढिल्लिय वुदउवा । सढ सोल पउण तेरह टंकक उणवीस इगतीसा ॥ १२२ ॥ नवगा पणगा मउजी मासा नव सड तोलओ इक्को । पणपन्न सोलहुतरी दुइ तोला मुल्लि पंचासं ॥१२३ ॥ उणचास पनरहुतरी दुइ तोला इकु मासओ रुप्पो । छका दु तोल दु मासा सइँताल मउजिया एवं ॥ १२४ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा । पेरौजसाहि नंदण अलावदीणस्स एय मुद्दाई | वलवाणीय इकंगी अड्डा तिय टंक मुल्लि असी ॥ १२५ ॥ वलवाणि वामदेवी तिस्सूलिय चउकडीय सगवन्ना । मुले दिवड तोलउ सय मज्झे दव्वु नायव्वो ॥ १२६ ॥ तेरहसई मरुट्टी नवइ करिषि इक्कु तोलओ रुप्पो । उच्च मूलत्थाणी नवमासा रुप्पु तीस सयं ॥ १२७ ॥ मरकुट्टीय सुकारी वारह नव नवइ १२९९ अंकितस्स महे । तोलिक अड मासउ सत्तासी मुल्लि जाणेह ॥ १२८ ॥ सीराजी दुइ तोला छम्मासा रुप्पु मुल्लि इगयाला । चउपन्न मुक्खतलफी मासा दस तोलओ इक्को ॥ १२९ ॥ काल्हणी तह नसीरी दक्कारी सत्त छ पण ७/६/५ टंक कणो । सगयालीस पचासं पणपन्ना कमिण टंकिक्के ॥ १३० ॥ सत्तावीस गयासी दुति हियं सयमज्झि १०२ १०३ टंक दस रुप्पं । मउजी सइ पण तोला समसी हुय रुप्प टंकाय ॥ १३१ ॥ जलाली तह रुकुणी सड्डा पण टंक रुप्पु सय मज्झे । मुल्लं सवाउ दमं लहंति वğति विवहारे ॥ १३२ ॥ अन्नंन देससंभव अमुणियनामाई जं जि मुद्दाई | ते पनरह गुण सीसइ सोहिवि कणु मुल्लु नज्जेइ ॥ १३३ ॥ २४ प्रति नामानि मुद्रानां सुजानाम मुद्रा सहावदीनी मुद्रा महमूदसाही मुद्रा चउकडीया मुद्रा कटका नाम मुद्रा सरवा नाम मुद्रा मखिया सुंद कुंडलिया मुंद छुरिया मुंद २१ २१ २१ २१ १६ १६ १६ १८ २५ २३ २६ शत १ मध्ये रूप्य तोला मासा सत १ सत १ सत १ सत १ सत १ सत १ 33 33 "" "" जगटपलाहा नाम "" दुकडीया ठेगा कुवाहची जजीरी मुद्रा 33 39 33 95 "" 33 35. "" 95 39 "" "" "3 39 39 95 39 25 39 "9 39 "" 35 "" 20 30 30 30 5 20 20 20 m ४ ४ ४ ४ ३३ v v v v mm m v vs m 2 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAM ३० سه سم سم سم سم سم سم سم م م .o.mmon swarrao ० ० ० ० ७० ३२ م سه سم سم سم سم سر ه ه ه ठकुरफेरूविरचिता प्रति नामानि मुद्रानां शत १ मध्ये रूप्य तोला मासा २६ फरीदी नाम मुद्रा , " २६ परसिया मुद्रा ". " ३१ चउक नाम मुद्रा सत १ वफा नाम मुद्रा दर्दू , खकारिया नाम मुद्रा, २९ नींवदेवी नाम मुद्रा , धमडाहा नाम मुद्रा , २८ जकारीया नाम मुद्रा " अलावदीनी मुद्रा , सतका समसी मुद्रा । मोमिनी अलाई मुद्रा, सेला समसी , तितिमीसी नाम मुद्रा कुव्वखानी , खलीफती अधचंदा सिकंदरी नाम रुकुनी नाम मुद्रा, पेरोज साही , , वारहोत्तरी, , , रदी दिल्लिका टंकसालसं मध्ये ,, रदी वुदौवां टंकशाल वुदाऊ वार० नवका मउजी पनका मउजी नाम मुद्रा सोलहोत्तरी मुद्रा सत १ मध्ये पनरहोत्तरी मुद्रा सत १ मध्ये छका नाम मुद्रा सत १ मध्ये वलवाणी इकांगी सत १ मध्ये , वलवाणी वामदेवी सत १ मध्ये, चौकडीया तेरहसई मरोटी सत १ मध्ये , उच्चई मुलथाणी सप्त १ मध्ये, मरोटी इंगानी मुद्रा सत १ मध्ये" सुकारी नाम मुद्रा सत १ मध्ये सीराजी नाम मुद्रा सत १ मध्ये मुख्तलफी मुद्राः सत १ मध्ये . काल्हणी नाम मुद्रा सत १ मध्ये नसीरी ढिल्यां टकसालहता दकारी नाम मुद्रा सत १ मध्ये गयासी दुगाणी नाम मुद्रा मउजी नाम मुद्रा तिगानी सत १ जलाली नाम मुद्रा वर्तमाना ४८ रुकुनी नाम मुद्रा प्रवर्त्तमान ॥ इति श्री दिल्या राज्ये वर्षमानमुद्राः॥ ه ه م ه م م م م م م م م م م م م م م م 35 on our w ०. ० ० २० م م م م BA000 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा संपइ पवट्टमाणा मुद्दा अल्लावदीण रायस्स । दुविह दुगाणी दव्वो पउणा दस अट्ठ टंक सए ॥ १३४॥ छग्गाणी पुण दुविहा सडा पणवीस पउण पणवीसा । टंक सय मज्झि रुप्पउ सड्डा चउ दु जव नव विसुवा ॥१३५॥ इग्गाणी सय मज्झे तंबउ पण नवइ टंक पण दव्यो । रायहरे विवहारे गणिज्ज इग्गाणिया सयलं ॥१३६ ॥ इग पण दह पन्नासं सय तोला तुल्लि हेम टंकाई। चउ मासा दीनारो रुप्पय टंको य तोलीणो ॥ १३७ ॥ चउ मास जाव घडियं सहावदीणस्स तुच्छ मुद्दाई । दम्म छगाणी टंका रुप्प सुवन्नस्स तोलीणा ॥ १३८ ॥ ॥ इति अश्वपति महानरेन्द्र पातिसाहि अलावदी मुद्राः ॥ ....................... ० रुप्य टंका १ अलाई प्रति गण्यते ॥ १० छगानी सत मध्ये तो८ मा ६ ज ४॥ १. छगानी सतमध्ये तो८ मा ३ ज२४ ६ ३० दुगानी सत मध्ये तो३ मा ३ ज० ३ ३० दुगानी सत मध्ये तो २ मा ८ ज० १ ६० हगानी . सत मध्ये तो १, मा ८ ज० . शेष तांबा सत १ टंक पूरणे सर्व मुद्र इत्तो भणामि संपइ कुदुबुद्दी रायवंदिछोडस्स। चउरंस वट्ट मुद्दा नाणाविह तुल्ल मुल्लो य ॥ १३९ ।। बत्तीसं कणयमया रुप्पमया वीस दम्म सत्तविहा । चउविह तंबय साहा मुद्दा सव्वेवि तेसट्ठी ॥ १४० ॥ दारं ॥ इग पण दह तोलाई दस हिय जा सउ दिवड्ड सउ दु सयं । इय वट्ट हेम टंका चउरंस पुणोवि एमेव ॥ १४१ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता तेरह मासा सतिहा सुवन्न टंको य सोनिया तिविहा । इग मासिया दुमासिय चउगुंजा एय बत्तीसं ॥ १४२ ॥ ॥ इति वर्णमुद्राः ॥ ....२६.. हेम टंका नाना तौल्ये ० इक तोलिया १ पंच तोलिया १ ... दस तोलिया १ पंचाश तोलिया १ ० सय तोलिया टंका १ हेमदीनारु मासा ४ रूप्य टंका सर्वेपि इक तोलियाः। २७ २९. टंकाक मुद्रा ३२ यश २९. टंका नानाविधा तोलो यथा१४. वृत्ताकार नाना तो तो १ ५ १० २० ३० । ४० ५० ६० ७० ८० । ९०१००१५० २०० १४. चतुःकोण तोल्ये वृत्तकार वत् निश्चित। १. मासा १३७ संवृत्ताकार। ३. अपर नाना वृत्त लघुमुद्रा: १मासा १। १ मा० २।१गुं०४ ३२. aaaaaaaaaaaaaaaaaai -AMAN रुप्पिग तोली वट्टा चउदस चउरंस हेम सम तुल्ला । पंच विहा रुप्पइया इग दुति चउमासि अद्ध तुला ॥ १३॥ ॥ इति रुप्यमुद्राः ॥ २८ marmun.. रूप्यमुद्रा २० विवरणम् । १५. टंका मुद्रा नानाविध तो। १. संवृत्ताकारु तो०१ १४. चतुःकोणः। तोलो यथा१ ५ १० २० ३० ४० ५० ६० ७० ८० १० १०० १५० २००३ एवं। ५. रुपीया मुद्रा नाना तोलो। १ मासा ११ मासा २१ मा० ३ , १ मासा ४|१मासा ६/ संवृत्ता० २०. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यपरीक्षा दुग्गाणी य छगाणी तुले मुल्ले य रुप्प तंबे य । अल्लाई सम जाणह अन्ने अन्ने वि ही भणिमो ॥ १४४ ॥ चउगाणी वट्ट सए सोल सवा टंक नव जवा रुप्पं । चउमासा तुल्लेणं न संसयं इत्थ नायव्वं ॥ १४५ ॥ चवीस वारस य अडयालीसाण मुद्द चउरंसा । तुल्लेय रुप्प तंबय संखा कमि अट्ठगाणीओ ॥ १४६ ॥ तिचीस टंक नव जव चउ विसुवा रुप्पु सेस तंबो य । सय अट्ठगाणिएहिं इगेगि तुल्लो य चउमासा ॥ १४७ ॥ ॥ इति द्वंम मुद्राः ॥ २९ द्रम्मा मुद्रा त ७ नानाविध तोलो मूलो । वृत्ताकार मुद्रा ३ तोल्ये टं १ १. दुगाणी १०० मध्ये धातु २ टं. ८ नवाती रूप्य । टं. ९२ तांन १. चउगानी १०० मध्ये धातु २ १. छगानी १०० मध्ये धातु २ चतुरस्र मुद्राः ४ टं. १६ मा० १ जव ९ रूप्य र्ट. ८३ मा० २ जव ७ त्रांबा टं. २४ मा० ३ जव १ ॥ रूप्य टं. ७५ मा० जव १४ ॥ तांन १. अठगानी १०० मध्ये टं. ३३ मा० जव ९८४ रु० टं. ६६ मा० ३ ज० ६. १ तां० १. वारहगानी १०० टं० १५० मा० १ ज० १५ ||. १ २८४ रू० मा० ४ ज० ९ ३ || २||. १ तां० १. चडवीसगानी तो टं० ३ (३००१) मा० ३ ज० १५/१. २॥ ४१. ३ रू० मा०८ ज० । २50 150 ॥ तांο १. अडतालीलगानी टं० ६ (६००१) चडवीलगानीतो द्विगुण द्रव्यं । तान मुद्रा ४ साहा सं । os १ मासा १ • S १। मासा १। ०७२॥ मासा २|| ०७५ मासा ५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुरफेरूविरचिता विसुवा सवाय विसुवा अधवा पइका य तंब चउरंसा । तुल्लेण कमि चडता मासाओ जाम पण मासा ॥ १४८ ॥ ॥ इति साहे मुद्राः॥ एवं दव्वपरिक्खं दिसिमित्तं चंदतणयफेरेण । भणिय सुय -बंधवत्थे तेरह पणहत्तरे वरिसे ॥ १४९ ॥ इति श्रीचन्द्रांगज ठक्कुर फेरू विरचिता द्रव्यपरीक्षा समाप्ता। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता धातू त्पत्तिः । अथ धातूत्पत्तिमाहरुप्पं च मट्टियाओ नइ - पव्वयरेणुयाउ कणओ य । धाउव्वाओ य पुणो हवन्ति दुन्निवि महाधाऊ ॥१॥ पटुं च कीडयाओ मियनाहीओ हवेइ कत्थूरी । गोरोमयाउ दुव्वा कमलं पंकाउ जाणेह ॥२॥ मउरं च गोमयाओ गोरोयण होन्ति सुरहिपित्ताओ। चमरं गोपुच्छाओ अहिमत्थाओ मणी जाण ॥ ३ ॥ उन्ना य बुक्कडाओ दन्त गइंदाउ पिच्छ रोमा(मोरा?)ओ। चम्मं पसुवग्गाओ हुयासणं दारुखण्डाओ ॥४॥ सेलाउ सिलाइचं मलप्पवेसाउ हुइ जवाइ वरं । इय सगुणेहि पवित्ता उपत्ती जइय नीयाओ ॥५॥ इत्युत्पत्तिः। अथ करणीयमाहपित्तलिं जहावे मण अधा(?)वटियं कुट्टिवि रंधिज्ज गुडमणेगेण । जं जायइ निच्चीढं तयद्ध तंबय सहा कढियं ॥६॥ सा वीस विसुव पित्तल दुभाय तंबण पनर विसुवा य । तुल्लेण तंबयाओ सवाइया ढक्क मूसीहिं ॥ ७॥ तम्बयं जहाबब्बेरय खाणीओ आणवि कुट्टिज धाहु मट्टी य । गोमयसहियं पिडिय करेवि सुक्कवि य पइयव्वं ॥८॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता पच्छा खुड्डुइ खिवियं धमिज नीसरई सव्व मलकडं । जं हिढे रहइ दलं तं पुण कुट्टेवि धमियव्वं ॥९॥ तस्साउ वहइ पयरं तं तंबमिट्ठयं वियाणेह। . वुड्डाणए पुणेवं गुटुं गुलियं तओ हवइ ॥१०॥ अथ सीसयं जहाना(न)गखाणीओ पाहण कड्डिवि कुट्टेवि पीसि धोइजा । जं होइ तं मलदलं दुभाय तइयंस लोहजुयं ॥ ११ ॥ सय सय पलस्स मूसी ते चाडिवि तीस अंगए इक्के । आवट्टिय तुल्लेणं चउत्थभागूण हुइ सीसं ॥१२॥ लोहं सारं च पुणो उप्पत्ती धाहुपाहणाओ य । पित्तलकंसाईणं विणट्ठए होइ भिंगारी ॥ १३ ॥ अथ रंगयं जहारंगस्स धाहु कुट्टिवि करिज कोमंस चुण्ण सह पिंडं । धमिय निसरई जं तं पुण गालिय कविया होन्ति ॥ १४ अथ कंसयं जहाकंबिय सेरकारस मणेग तम्बं च पयर गुटुं वा । आवट्ट घडिय सुद्धं कंसं हुइ वीसयंसूणं ॥ १५॥ अथ पारयं जहापारस्स धाहु ठवियं तस्सोवरि गोमयहकुढि कुज्जा । मंदग्गिधमियमाणो उड्डवि संचरइ तस्स महे ॥१६॥ ___अहवा रसकूव भणन्तेगे तरुणत्थी तत्थ करवि सिंगारं । तुरियारूढं झकिवि अपुट्ठपयरेहि नस्सेइ ॥ १७ ॥ कूवाओ तस्स कए पारं उच्छलवि धावए पच्छा। बाहुडइ दहमकाओ पुणोवि निवडेइ. तत्थे व ॥१८॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातूत्पत्तिः जं रहइ नियट्ठा कत्थव कत्थेव खड्ड खड्डीहिं । तत्थाउ गहइ सातिय उप्पत्ती पारयस्स इमं ॥ १९ ॥ अथ हिंगुलयं जथा - एगमण पारह तहा गन्धय चुन्नं च सेर दस खिविउं । दूराओ आसन्नं मंदग्गी कीरए मिस्सं ॥ २० ॥ कुट्टेव तहिं खिविज्जइ मणसिल हरियाल सेर पा पाये । पूरिवि कच्च करावं दट्टिजइ खोरचुन्ने ॥ २१ ॥ मढि मट्टिय सदणं तिन्नि अहोरति वह्नि जालिज्जा । जाव सुगंधं ता हुइ सेर छयालीस हिंगुलयं ॥ २२ ॥ अथ सिन्दूरं जहा - , सीसयम गमज्झे वंसयरक्खा दह सेराई । गालिवि मेलिवि कुट्टवि छाणवि जलि घोलि धरियव्वं ||२३|| नित्तारिऊण नीरं जं हिट्ठे तस्स वडिय कय सुकं । घणि कुट्टि हंखि छाणिय ठवि भट्टी अग्गि कायव्वं ॥ २४ ॥ जह जह लग्गइ तावं तह तह रंगं चडेइ जाति दिणं । सेरूणं सिन्दूरं तग्गालिय हवइ पुण सीसं ॥ २५ ॥ एवं च भणिय संपइ कुधाउमज्झे सुधाउ भणिमोहं | कंविय रंगे कणयं तोलय सय जब चउत्तीसं ॥ २६ ॥ सयतोलामज्झेणं बारह जव सीसए हवइ रुपं । पच्छा पुण पुण सोहिय तहावि निकणं न कइयावि ॥ २७ ॥ अथ धातोकरणी विधि:- कप्पूर- अगर चंदण- मृगनाभीत्यादि । दाहिणवत्तं संखं इगमुह रुदक्ख सालिगामं च । देवाहिट्टिय तिन्निवि अमुल्ल सपहाय भणियन्ति ॥ २८ ॥ દ ४१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचिता खीरोवहिसंभूयं विभूसणं सिरिनिहाण रायाणं । दाहिणवत्तं संखं बहुमंगलनिलयरिद्धिकरं ॥ २९ ॥ वट्टन्ति रेहकलियं पंचमुहं सुब्भ सोलसावत्तं । इय संखं विद्धिकरं संखिणि हुइ दीहहाणिकरा ॥ ३० ॥ सिरिकणयमेहलजुयं वस्ठाणे ठविय निच्च सुइ काउं । दुद्धि न्हविऊण चन्दणि कुसुमागरि मन्ति पूइज्जा ॥ ३१ ॥ पूजामत्रः ॐ ह्रीं श्रीं श्रीधरकरस्थाय पयोनिधिजाताय लक्ष्मीसहोदराय चिंतितार्थसंप्रदाय श्रीदक्षिणावर्त्तसंखाय । ॐ ह्रीं श्रीं जिनपूजायै नमः॥ इति पूजाविधिः। दाहिणवत्तो य संखोयं जस्स गेहमि चिट्ठइ । मंगलाणि पवट्टन्ते तस्स लच्छी सयंवरा ॥ ३३॥ तस्संखि खिविय चंदणि तिलयं जो कुणइ पुहवि सो अजिओ। तस्स न पहवइ किंची अहि-साइणि-विजु-अग्गि-अरी ॥३४॥ नरनाहगिहे संखं वुड्डिकरं रजि रहि भण्डारे । इयराण य रिद्धिकरं अंतिमजाईण हाणिकरं ॥ ३५॥ दाहिणवत्ते संखे खीरं जो पियइ कय कुलच्छी य । सा वंझा वि पसूव गुणलक्खणसंजुयं पुत्तं ॥ ३६ ॥ इति दक्षिणावर्त्तसङ्खः । दीवंतरि सिवभूमी सिवरुक्खं तत्थ होन्ति रुद्दक्खा । एगाइ जा [च]उद्दस वयणा सव्वे वि सुपवित्ता ॥ ३७॥ पर उत्तमेगवयणा सिरिनिलया विग्धनासणा सुहया । कणयजुय कण्ठ सवणे भुय सीसे संठिया सहला ॥ ३८ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातूत्पत्तिः दुमुहा मंगलजणया तिमुहा रिवहरण चा मझत्था । पंचमुहा पुन्नयरा सेसा सुपवित्त सामन्ना ॥ ३९ ॥ इति रुद्राक्षाः। गण्डुयनइसंभूयं सालिग्गामं कुमारकणयजुयं । चक्कंकिय सावत्तं वटुं कसिणं च सुपवित्वं ॥४०॥ लोया तईयभत्ता हरि व्व पूयंति सालिगामस्स । सेयस्थि मुत्तिहेऊ पावहरं करिवि झायंति ॥४१॥ - इति शालिग्रामम् । महभूमि दक्खिणोवहि केलिवणं. तत्थ केलिगुंदाओ। कहरन्त्रओ य जायइ कप्पूर केलिगम्भाओ ॥ ४२ ॥ कप्पूर तिन्नि कित्तिम इक्कडि तह भीमसेणु चीणो य । कच्चाउ सुकमि मुल्लो वीस दस छ विसु व विसुवंसो ॥४३॥ कायासुगन्धकरणं तहत्थिमज्जाय भेयगं सीयं । वाय-सलेसम-पित्तं तावहरं आमकप्पूरं ॥४४॥ इति कर्पूरः। अगरं खासदुवारं किण्हागर तिल्लियं च सेंवलयं । वीसं दस तिय एगं विसोवगा सुकमि अन्तरयं ॥ ४५ ॥ अइकढिण गवलवन्नं मझे कसिणं सरुक्ख गरुयं च । उण्हं घसिय सुयं, दाहे सिमिसिमइ अगरवरं ॥ ४६॥ . इत्यगरम् । मलयगिरि पव्वयंमि सिरिचंदणतरुवरं च अहिनिलयं । अइसीयलं सुधं तग्गंधे सयलवणगंधं ॥ ४७ ॥ सिरिचंदणु तह चंदणु नीलवई सूकडिस्स जाइ तियं । तह य मलिन्दी कउही वव्वरु इंय चंदणं छविहं ॥ ८ ॥ वीसं वारट्ठ इगं तिहाउ पा विसुव चंदणं सेरं । पण तिय दु पाउ टंका जइथल चउ तिन्नि कमि मुल्लं ॥४९॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता सिरिचन्दणस्स चिण्हं वन्ने पीयं च घसिय रत्ताभं । साए कडुयं सीयं सगंठि संताव नासयरं ॥ ५० ॥ इति चन्दनम् । नयवाल-कासमीरा कामरुया मिय चरन्ति सुकमेण । मासी मुत्थगठि उनं कत्थूरिय अरुण पीयघणा ॥५१॥ नयवाल-कासमीरे मियनाही हवइ वीस विसुवा य ।। पंचि उरमाइ पव्वय संभूय दहट्ट जाणेह ॥५२॥ मियनाहि वीणओ हुइ पण तोला जाम चम्म सह तुल्लो । तस्स कणु वार विसुवा चम्मो विसुवठ्ठ उद्देसो ॥ ५३॥ मियनाहि उण्हमहुरं कडुयं तिक्खं कसायसुग्गंधं । दुग्गन्धि छदि तावं तियदोसहरं च सुसणेहं ॥ ५४॥ इति मृगनाभीकत्थूरिकाः ।। कसमीरि जवडि केसरि देसे हुइ कुंकुमं सुगन्धवरं । वीस वारट्ठ विसुवा पण आदण हुरुमयस्स भवं ॥५५॥ इति कुंकुमम् । मुर मास कुट्ठ वालय नह चन्दण अगर मुत्थ छल्लीरं । सिल्हारसखंडजुयं सम मिस्स दहंग वर धूवं ॥ ५६ ॥ इति धूपः। कापूरसुरहिवासिय चन्दणसंभूय परम सिय वासा । मासीवालयसंभव कत्थूरिय वासिया सामा ॥ ५७ ॥ __ इति वासः। इति ठकुरफेरूविरचिते धातोत्पत्तिकरणीविधिः समाप्तः। श्रीविक्रमादित्ये संवत् १४०३ वर्षे फागुण शु० ८ चन्द्रवासरे मृगसिरनक्षत्रे लिखितम् । सा० भावदेवाङ्गज पुरिसड । __ आत्मवाचनपठनार्थे सुभमस्तु । . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर फेरू विरचित ज्योतिष सार Mammam ॥ ॐ स्वस्ति ॥ ॥ आदित्यादिग्रहा नमः॥ सयलसुरासुर नमिउं जोइससारं भणामि किं पि अहं संखेवि परप्पहियं निरिक्खिउं पुव्वसत्थाई ॥१ हरिभद-नारचंदे पउमप्पहसूरि-जउण-वाराहे । लल्ल-परासर-गग्गे कयगंथाओ इमं गहियं ॥ २ दिणसुद्धि बयालीसं विवहारे सहि गणिय अडतीसं । गाह दुहियसउ लग्गे दुसय बयालीस जुय सव्वौ ॥३॥ दारं॥ [प्रथमं दिनशुद्धिद्वारम् ] दिणशुद्धि जहारवि' ससि कुजै बुहँ गुरे सिर्य सणिवारा राह केये सहिय गहा। ससि बुह गुर सिय सोमा कूर त्ति बुहो य जेण जुओ ॥ ४ नंदा भद्दा य जया रित्ता पुन्ना य पडिवयाइ तिही । नक्खत्त जोय रासी. चकं अवकहड सुपसिद्ध ॥५ तं जहा-अश्विनी १, भरणि २, कृत्तिका ३, रोहिणी ४, मृगशिरः ५, आद्रा ६, पुनर्वसु७,पुष्य ८, अश्लेषा ९, मघा १०, पूर्वफाल्गुनी ११, उत्तरफाल्गुनी १२, हस्त १३, चित्रा १४, खाति १५, विशाखा १६, अनुराधा १७, ज्येष्ठा १८, मूल १९, पूर्वाषाढा २०, उत्तराषाढा २१, अभीचि २२, श्रवण २३, धनिष्ठा २४, शतभिषा २५, पूर्वभाद्रपद २६, उत्तरभाद्रपद २७, रेवति २८ ॥ इति नक्षत्रनामानि ॥ ४२ दिणसुद्धि, ६० व्यवहार, ३८ गणित, १०२ लग्न,२४२ गाहा । -टिप्पपी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार . विष्कंभ १, प्रीति २, आयुष्मान् ३, सौभाग्य ४, सोभन ५, अतिगंड ६, सुकर्मा ७, धृति ८, शूल ९, गंड १०, वृद्धि ११, ध्रुव १२, व्याघात १३, हर्षण १४, वज्र १५, सिद्धि १६, व्यतीपात १७, वरियानु १८, परिघ १९, शिव २०, सिद्धि २१, साध्य २२, शुभ २३, शुक्ल २४, ब्रह्मा २५, ऐंद्र २६, वैधृति २७ ॥ इति योगनामानि ॥ मेषु १, वृषु २, मिथुनु ३, कर्कु ४, सिंघु ५, कन्या ६, तुला ७, वृश्चिकु ८, धनु ९, मकरु १०, कुंभु ११, मीनु १२॥ इति राशिनामानि॥ - चु चे चो ला अश्विनी। लि लु ले लो भरणि।अइ उ ए कृत्तिका। ओ व वि वु रोहिणी । वे वो क कि मृगशिरः कुघ ङ छ आद्रा के को ह हि पुनर्वसु । हू हे होड पुष्य । डि डु डे डो अश्लेषा । म मि मु मे मघा। मोट टि टु पूर्वफाल्गुनी । टे टो प पि उत्तरफाल्गुनी । पुष ण ठ हस्तः। पे पो र रि चित्रा।रु रे रो त खाति । ति तु ते तो विशाखा । न नि नु ने अनुराधा। नो य यि यु ज्येष्ठा । ये यो भ भि मूल । भूध फढ पूर्वाषाढा। भे भो ज जि उत्तराषाढा। जु जे जो खा अभिजित् । खि खु खे खो श्रवण । ग गि गु गे धनिष्ठा । गो स सि सु शतभिषक् । से सो द दि पूर्वभद्रपदा । दु श झ थ उत्तरभद्रपदा । दे दो च चि रेवती । इति नक्षत्रावकहडचक्रम् ॥ ___अश्विनी भरणी कृत्तिकापादे मेषः १ । कृत्तिकाणां त्रयः पादा रोहिणी मृगशिरार्द्ध वृषः २। मृगशिरार्द्ध आद्रा पुनर्वसुपादनयं मिथुनः ३। पुनर्वसुपादमेकं पुष्य अश्लेषा कर्कटः ४ । मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तरा फाल्गुनीपादे सिंहः ५। उत्तरफाल्गुनीनां त्रयः पादा हस्त चित्रार्द्ध कन्या ६ । चित्रार्द्ध स्वाति विशाखापादत्रयं तुला ७॥ विशाखापादमेकं अनुराधा ज्येष्ठा वृश्चिकः ८।मूल पूर्वाषाढ उत्तराषाढपादे धनः ९। उत्तराषाढाणां त्रयः पादा श्रवण धनिष्ठाई मकरः १० । धनिष्ठाई शतभिष पूर्वभद्रपदपादत्रयं कुंभः ११ । पूर्वभद्रपादमेकं उत्तरभद्रपद रेवती मीनः १२ । इति. नक्षत्रे राशयः॥ रवि पडिवऽहमि नवमी कर मूल पुणव्वसू धणिट्ठा य । अस्सिणि पुस्सो य तहा ति-उत्तरा रेवई सिद्धा॥ ६ सोमे नवमी वीया मियसिरि अणुराह पुस्सु रोहिणिया । सवण इय पंच रिक्खा मयंतरे जया तिहि सुहया ॥७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दिनशुद्धिद्वार तिमि तेरसि मूलस्सणि रेवई य असलेसा । मिसिर उत्तरभव इय सिद्धा भूमवारंमि ॥ ८ बीया सत्तमि बारस असलेसा पुस्सु सवण अणुराहा । कित्तिय रोहिणि मियसिरि बुद्धदिणे इय सुहा भणिया ॥ ९ पंचमि दसमिकारसि पुन्निम अणुराह पुव्वफग्गु करं । पुस्सु पुणव्वसु रेव अस्सणि य विसाह गुरि सिद्धा ॥ १० सुके तेरसि नंदा अणुराहा सवण पुव्वफग्गु तियं । उत्तरसाढ पुणन्वसु रेवइ अस्सिणिय रिद्धिकरा ॥ ११ सणि नवमि चउथि अट्ठमि चउदसी सवण साइ रोहिणिया । मह सयभस पुव्वफग्गु तिहि वार- भि सिद्धिजोय सुहा ॥ १२ ॥ इति वार- तिथि-नक्षत्र - सिद्धियोगः ॥ छट्टिक्कारसि चउदसि रवि बारसि तेरसी य सोमदि । भूमे पडिव गारसि तेऽट्ठमि चउदसी बुद्धे ॥ १३ गुरि दु चउ सत्त बारसि नम्वि बीय चउत्थि चउदसी सुके । पण सत्त पुंन दह सणि तिहि वार विरुद्ध जाणेह ॥ १४ ॥ इति तिथि - वार- विरुद्धयोगः ॥ सूराइ बारसीओ इगूणजा छट्टि कक्कजोगोऽयं । रवि ससि सत्त बुहिर्ग तियै संवत्तय छ गुरि सुक्कि तिया ॥ १५ ॥ कर्कट - संवर्त्तयोगी ॥ भर चित्तत्तरसाढा धण-उत्तर फग्गु-जिट्ट -रेवइया । सूराइ जम्मरिक्खा मुणेह तह वज्रमुसल पुणो ॥ १६ ॥ इति जन्मनक्षत्र वज्रमुशलं च ॥ 1 दृश्यतां प्रथमं कोकम् । 2 दृश्यतां द्वितीयं कोष्टकम् | तृतीयं को प्रकम् । 4 दृश्यतां चतुर्थ कोष्टकम् | 3 श्यतां Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार रवि मह ति विसाहाई चंदि विसाहा ति-पुव्वसाढाई। कुजि अद्द धणितियं बुह मूल ति रेवयाईया ॥ १७ गुरि कित्तिय रोहिणि तिय भिगु रोहिणि पुस्स तिय सणे हत्थं । उत्तरफग्गु तियं तह जमघंटुप्पाय-मिच्चुकमो॥ १८ ॥ इति जमघंटः । उत्पातादित्रययोगः॥ विक्खंभ मूल गंडे अइगंडे वज्जु तह य वाघाए । वइधिइ सूराइ कमे अइदुट्ठा सूलजोगा ए ॥१९ ॥ इति शूलयोगः॥ रवि सत्त पण ति चउ वसं चंदे रस वेय नयेण मुणि रामा । पण तिय इग दु छ भूमे चउँ कर मुणि पंचे एग बुहे ॥२० राम इग छ वर्स चउ गुरि भिगु ? मुँणि सेरऽग्गि मुंणि सणि रसा। चउ छ दु कुलि-उवकुलिया कंटय पहरऽद्ध कालकमे ॥ २१ ॥ इति कुलिक उपकुलिकादित्रयम् ॥ इग दुन्नि छ च रविणो चंदे पढमढ पंचमी सुहया। चउ-सत्तऽट्ठा भूमे तिन्नि खडऽट्ठा बुहम्मि सुहा ॥ २२ दो पंच सत्त जीवे सुक्के चउ पढ़म छ च्च अट्ठ वरा । सणि सत्तट्ठम पंचम पहरद्धपमाण सुहवेला ॥ २३ ॥ शुभवेला इदम् ॥ दुपहर घडिए ऊणे दुपहर घडि एगि अहिय मज्झण्हे । विजयं नाम मुहुत्तं पसाहगं सयलकज सया ॥ २४ ॥विजयायमुहूर्तम् ॥ जइ पुण तुरियं कजं हविज लग्गं न लब्भए सुई । ता छायाधुवलग्गं गहियव्वं सयलकज्जेसु ॥ २५ 5 दृश्यतां पञ्चमं कोष्ठकम् । 6 दृश्यतां षष्ठं कोष्ठकम् । 7 दृश्यतां सप्तमं कोष्ठकम् । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दिनशुद्धिद्वार रवि वीस चंदि सोलह कुजि पनरह सड बुद्धि चउदसगं । गुरि तेर सुक्कि सणिणो वारह वारंगुले संको ॥ २६ अथवा सणि सुक्कि सोमवारे सड्डट्ठ पया बुहिष्ट नव भूमे । गुरि सत्त रविकारस नियतणु छाया उ सुहकज्जे ॥ २७ ॥छायालग्नम् ॥ मह य धणिट्ठा उदए उड्डो कित्तियऽणुराह धू तिरिओ। उड्डे धयाइ कीरइ तिरिए दिक्खा-पयट्ठाई ॥ २८ ॥ध्रुवलग्नम् ॥ मुणि घडिय सूलगंडे विक्खंभे पंच तिन्नि वाघाए । वज अइगंड नव नव परिह वलं वजि सेस सुहा ॥ २९ ॥योगः॥ जाणेह काल होरा पढमा वाराहिवस्स तत्तो य । छट्टे छठे ठाणे घडिया अड्डाइया जाव ॥ ३० ॥कालहोरा ॥ धण-मीणे विस-कुंभे अज-कके मिहुण-कन्न अलि-सीहे। . मिय-तुल रवि दड्डकमे दुचउ छ अड दसमि बारसिया ॥ ३१ ॥ इति सूर्यदग्धतिथयः ॥ कुंभ-धणे अज-मिहुणे तुल-सीहे मयर-मीण विस-कक्के । विच्छिय-कन्ने सुकमे पुव्वुत्ततिही य ससिदड्डा ॥ ३२ ॥ इति चंद्रदग्धतिथयः" ॥ मेसाइ कमि चउक्के पडिवाई पंचमिस्स पा पायं । एवं तप्परए पुण जा पुंनिम कूरदड्डतिही ॥ ३३ ॥ इति क्रूरदग्धास्तिथयः ॥ 8 दृश्यतां अष्टमं कोष्ठकम् । 0 दृश्यतां नवमं कोष्ठकम् । 10 दृश्यतां दशमं कोष्ठकम् । 11 दृश्यतां एकादशं कोष्ठकम् । 12 दृश्यतां द्वादशं कोष्ठकम् । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार चउ छ? नव दसमे तेरसमे वीसमे य नक्खत्ते ।। रविरिक्खाउ गणिज्जइ रविजोयं सयलकज्जकरं ॥ ३४ रवि-कुज-बुह-सियवारा दुगंतरे भरणिमाइ रिक्खाई। पुन्निम तिय भद्दा तिहि निवजोया तरुणजोगा य ॥ ३५ नंदा पंचमि नवमी अस्सणिमाई दुगंतरे रिक्खा । बुह-भूम-सोम-सुक्का कुमारयोगा मुणेयव्वा ॥ ३६ रविजोय-रायजोए कुमारजोए सुसुद्धदियहे वि । जं सुहकजं कीरइ तं सव्वं बहुफलं हवइ ॥ ३७ ॥ इति रविजोग"- राजजोग - कुमारयोगत्रयम् ॥ गुर कुज सणि तिहि भद्दा मिय चित्त धणि जमलजोगोऽयं । तिप्पाए नक्खत्ते इय सहिय तिपुक्खरं जाण ॥ ३८ जमल-तिपुक्खरजोए सुहकजं पुत्वजम्म-वीवाहं । नट्ठ-विणटुं सव्वं हवेइ तं बिउण-तिउण कमे ॥ ३९ ॥ इति जमल"-त्रिपुष्करयोगौ ॥ . वे वार सणि विहप्पइ दुदु अंतरि कित्तिगाइ नक्खत्ता । तिहि रत्ता तेरऽहमि नायव्वा थविरजोगा य ॥४० जुई जणावणीयं जलासए बुंव अणसणाईणं । जं पुण वि अकरणीयं तं कीरइ थविरजोगेण ॥ ४१ ॥ इति स्थविरयोगः"॥ सणि ससि बुह अभिसेयं बुह-गुर-सुक्केसु वत्थपहिरणयं । सूरे कज्जारंभं पुर नंगल मंगले कुज्जा ॥ ४२ इति श्रीचंद्रांगजठकुरफेरूविरचिते ज्योतिषसारे दिनशुद्धिर्नाम प्रथमं द्वारं समाप्तम् ॥गाथा ४२॥ १ सूर्यनक्षत्रात् चंद्रनक्षत्रं जाम गणनीयम् । ४।६।९।१०।१३।२०। रवियोग उत्तमः। "इक्कस्स भए पंचाणणस्स भजति गयघडसहस्सा । तह रविजोगपणट्ठा गयणम्मि गहा न दीसंति ॥" 13 दृश्यतां त्रयोदशं कोष्ठकम् । 14 दृश्यतां चतुर्दशं कोष्ठकम् । 15 दृश्यतां पञ्चदर्श कोष्टकम् । 16 दृश्यतां षोडशं कोष्ठकम् । 17 दृश्यतां सप्तदशं कोष्ठकम् । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतैर्यत्रेणाह वार तिथिसिद्धियोग रवि ११८१९ चंद्र ९१२ मतं० ज्ञेया मंगल ३२६|८|१३ बुध २७/१२ गुरु शुक्र १।६।११।१३ शनि ९|४|८|१४ ५/१०/११/१५ रवि ६।११।१४ १२ सोम १२/१३ ११ मंगल ११११ १० बुध | १३|८|१४ गुरु | २४|७|१२ शुक्र | ९|२|४|१४ शनि ५/७/१०/१५. द्वितीयं कोष्टकम् वार तिथिविरुद्ध कर्कट संवर्त वज्रमुशल यमघंट उत्पात मृत्युयोग काणयोग भरणी मघा विशा अनु पू०षा उ० षा ज्येष्ठा अभि चित्रा विशा आर्द्रा बुध गुरु शुक्र शनि 9w5 20 m ७ ८ ७ ५ नक्षत्र सिद्धियोग हमू पु ध अ । पु । उ ३ । रे । मृग । अनु । पुष्य । रो । श्र । अश्विरे। अश्ले | मृ । उभ । अश्ले | पुष्य । श्र | अनु । कृ । रो । मृ । अनु । पू० फा| ह । पुन । पु । वि । रे । अश्वि । अनु । श्र । पू० फा। उ० फा। उ० षा । पुन । रे । अश्वि । ह । श्र । स्वा । रो । मघा । शत । पूर्वाफाल्गुनी 1 I ی ७ प्रथम दिनशुद्धिद्वार 0 १३ ३ ० प्रथमं कोष्टकम् 1905 20 ४ उ० षा धनि० तृतीयं कोष्टकम् वार | कुलिक उपकुलिक कंटक अर्द्धप्रहर कालवेला शुभवेलाप्रहरार्द्ध रवि चंद्र मंग उ० फा ज्येष्ठा रेवती हस्तु 2095 धनि शत रेवती मूल कृत्ति रोहि ४ रोहि पुष्य अले उ०फा हस्तु vm wov 2091 पू० भा अश्वि भणीर ८ मृग आर्द्रा मघा चित्रा ११२/६ ११८५ ४७८ ३६८ २/५/७ ४११६८ जाटा५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचिता ज्योतिषसार चतुर्थ कोष्ठकम् पञ्चमं कोष्ठकम् छायालग्नौ(नम्) होरा २४ भवन्ति । प्रथमवाराधिपस्य । शंकुअंगुल तनुछायापाद यावत् घटी २॥ कालहोरा अहोरात्रेऽपि होरा वार PERTREE षष्ठं कोष्ठकम् सूर्यदग्धास्तिथयः तिथिः सप्तमं कोष्ठकम् चंद्रदग्धास्तिथयः राशयः राशयः तिथिः धन । मीन वृष । कुंभ मेष । कर्क मिथुन । कन्या वृश्चिक । सिंह मकर । तुल कुंभ । धन मेष । मिथुन तुला । सिंह मकर । मीन वृष । कर्क वृश्चिक । कन्या - अष्टमं कोष्ठकम् ___एते क्रूरदग्ध(ग्धा)स्तिथयः मेषसंक्रान्त्यादिः सिं कं तु वृश्चि ध म | कुं मी ४ ६ ७ ८ ९ ११ १२ १३ १४ c 이이이이이! Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दिनशुद्धि द्वार नवमं कोष्ठकम् दशमं कोष्टकम् राजयोगः, तरुणयोगः-दौ कुमारयोगः तिथि नक्षत्र तिथि नक्षत्र १५ भर। मृग। पुष्य १ | अश्वि । रो ३ | पू० फा। चित्रा।अनु ..६ पुन । म २ पू०षा । ध। ११ । ह । विशा ७ | उत्तरा भा ५ मूल । श्र १० | पू० भा वार वार १२ एकादशं कोष्ठकम् यमलयोगः तिथि नक्षत्र | वार द्वादशं कोष्टकम् त्रिपुष्करयोगः G. FREE तिथि नक्षत्र कृत्ति । पुन | गुरु ७ उ० फा। वि | मंग १२ उ० षा।पू०भा शनि तिथि प्रयोदशं कोष्ठकम् स्थविरयोगः । नक्षत्र वार कृत्ति आर्द्रा आश्लेषा उत्त० फाल्गुनी | र | खाती। ज्येष्ठा बृउत्तराषाढा शनै mv० ० PAayor Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि . ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार चतुर्दशं कोष्ठकम् सूर्यादिग्रह रवि चंद्र | मंग बुध गुरु शुक्र राशिस्थिति मासु दिन मासु मासु मास उदयदिन सं० अस्तदिन सं० . वक्रदिन . . मास - पञ्चदर्श कोष्ठकम् ३।४।८।११ | उत्तिम ५।९।१०।१२ मध्यमः ६७।१२ अधमः षोडशं कोष्टकम् रवि चंद्र मंगल ३।६।१०।११ १।३।६।७।१०। ३।६।११ ११ सित० २।५।९ राहु गोचरकुंडलिका ३।६।१०।११ | शुभा ग्रहा शा६८।१०।११ शनि शुक ३।६।११ ११२।३।४।५। २।५।७।९।११ ८।९।११।१२ विवाहे भव्य ग्रहणराह फलं इति गुरुः सप्तदशं कोष्ठकम् | ঘুম অনুম ঘুম অল م » م ه & " orm ans.60 م ه م रवि वेधः शनिवामवे. भूमस्य चंद्रवेधः | बुध वेधः | बृहस्पतिः| शुक्रस्य शनि विना धः रविविना| वामवेधः | बुध विना | चंद्र विना वामवेधः | वेधः Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय व्यवहार द्वार [ द्वितीयं व्यवहारद्वारम् ] * सणि तीस गुरू तेरह अट्ठारस राहु दिवदु मासु कुजो । बुह - सिय-वेगु मासो सिवा दु दिण चंदु रासिटिई ॥ १ खडु सैंय सट्ठ छतीस तिन्नि बेहत्तर दु-एग-वनासी । तिन्नि वैयोलं गारय (ह) आइ कमे उदयदिणसंखा ॥ २ सुन्ने- रवि सोलें दसणी नंदे वयालीस पच्छिमत्थ दिणा । भूमाई तह पुव्वे बुह यि बत्तीस सगँसयरी ॥ ३ पण सैट्ठि एगैवीस वारेस अहियं सयं च बावन्ना । चैतीस सयं दिया वक्कगया मंगलाइ कमे ॥ ४ ॥ इति ग्रहाणां राशि-स्थिति- उदयास्त-वऋदिनसंक्षा (ख्या) | रवि तिय छट्टो दसमो चंदो तिय सत्त छ इग दसमो य । सियपक्खि दु पण नवमो गुरु पंचम दु नव सत्तमओ ॥ ५ बहु दु चउखड दहट्ठो कुजु सणि ति छ भिगु छ सत्त दसरहिओ । राहू तिय दस छट्टो गोयरि सवि गारहा सुहया || ६ रवि मंगलु पविसंता चंदु सणी निस्सरंत गुरु अंते । 1 मज्झगया बुह सुक्का सुह- असुह फलं पयच्छंति ॥ ७ बहु विज्जा-गमणि सिओ सणि दिक्खा गुरु विवाहि जुद्ध कुजो । निवदंसणंमि सूरो सव्वसुकज्जे बली चंदो ॥ ८ नव सत्त पंच बीओ दिवायरोऽ सुरगुरू यति छ दहमो । एए जहुत्तपूय हवंति सुपसन्न वीवाहे ॥ ९ ॥ इति जन्मराशितो ग्रहाणां गोचरः ॥ गहणे रासीओ जानिय रासी ति चउ अट्ठ गार सुहा । पण नव दहं त मज्झिम, छ सत्त इग दुन्नि अइअहमा ॥ १० ॥ इति ग्रहणराशिफलम् ॥ ११ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ . ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार चंदबलं सियपक्खे कसिणे ताराबलं सुरिक्खाओ। चउ छ नवुत्तिम ? इंग? मन्झिमा ति पणे सत्तऽहमा ॥ ११ ॥ इति ताराबलं जन्मनक्षत्रात् ॥ जो गहु गोयरि अबलो तस्समसुहमंकि जइ गहो कोइ । हुइ वामवेहि सु गहो असुहो वि सुहस्स फलु देइ ॥ १२ रवि सणि विणु सणि रवि विणु चंद विणा बुडु बुह विणा चंदो । असुहंक समसुहके सेसस्स गहाण वेहसुहा ॥ १३ गारह तिय दह छ सुहो पण नव चउरंतिमो रवी असुहो। सणि कुज ति गार छ सुहा असुहंतिम पंचमा नवमा ॥ १४ सत्तेग छ इक्कारस दह तिय चंदो सुहंकरो भणिओ। दु पणंतिमऽट्ठ चउ नव असुंदरो वामवेहंमि ॥ १५ दु चउ छ अड दह गारस ठाणे बुद्धो महाबली होइ । पण ति नवेगऽटुंते असुहो विय होइ नायव्वो ॥ १६ . बीओ इकारसमो नव पंचम सत्तमो य विद्धिकरो। वारऽट्ट दह चउत्थो तइओ य असुंदरो जीओ ॥ १७ .. सुक्को इगाइ जा पण अट्ठ नविक्कार अंतिमो सुहओ। अड सत्तिग दह नव पण इकारस छ तिय विद्ध सुहो ॥ १८ ॥ इति सूर्यादिग्रहाणां जन्मराशितो वामवेधः, फलाफलम् ॥ पुवांगी जमे नेरई पच्छिम वायव्व उत्तरीसाणं ।। इय अट्ठदिसा सुकमं पायालाऽऽयाससहिय दसं ॥ १९ ॥ इति दिसाक्रमम् ॥ सिरि' मुहि कंधे य भुर्यों कॅरि हियए नाहि गुर्ड्स जाणु पैएँ । ति ति दु दु दु पण इगेगं दु छ रवि रिक्खा उ गण सुकमे ॥२० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय व्यवहार द्वार एयरस फलं कमसो सिरिवइ मियहार सुहेड परएसं। चोरी सर लँहुतुट्टो तियरत्तु विदेस अप्पाँऊ ॥ २१ ॥ इति रविनक्षत्राद् रविचक्रम् ॥ मुहि दाहिणेकर पाए वामकरे हिये सिरे नयण गुज्झे । इर्ग चउँ छ चउँ पणे ति दु ? सणि नक्खत्ताउ सुकमेणं ॥ २२ रोयं लाह विदेसं बंधणे लाहं च पूर्यं सुहँ मियूँ । भणिया एइ गुणागुण गणिज ता जाव नियरिक्खं ॥ २३ . ॥ इति शनिचक्रम् ॥ चउ सिरि चउँ दाहिणकरि कंठिग पण हिये छ पार्य वामकरें। चउ, ति नयणि गुररिक्खा पय वामकरं वज्जि सेस सुहा ॥ २४ ॥ इति गुरचकं ॥ तम रिक्खु मुहि ति फुल्लिय चउ फलिय ति अहले ति झडिये गुडिक्कं तिय रायस तिय तामैस चउ सुहँ तिय अमुँह तमचकं ॥ २५ फुल्लिय फलिए लाहं अषा(खा)णि लच्छी सुहं च सुहि रिक्खे । मुह अहल झडिय रायस तामस असुहे य असुहतमं ॥ २६ ॥राहुनक्षत्राद् गणनीयम् ॥ राहतनुचकं-पुब्बा वायव्बो विय दाहिणे ईसाण पच्छिमऽग्गी य। उत्तर-नेरेइ सुकमे चउघडियं राहु दिणमाणं ॥ २७ ॥ इति राह दिनचक्रम् ॥ . पुव्वुत्तरऽग्गिनेरइ दाहिण पच्छिम्म वायवीसाणे । सियपडिवयाइ जोइणि कमि संमुह दाहिणे वजा ॥ २८ ॥ इति योगिनीचक्रम् ।। कसिणे सत्तमि चउदसि दिण भद्दा दसमि तीय रयणीए । सिय पुन्निमट्ठदियहे चउत्थि इक्कारसी य निसे ॥ २९ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार पण घडिय धणहराऽऽइम भयंकरी दह दुवालसंतकरी । विट्ठी तियघडियंतिम धण-कणयसुहंकरी जाण ॥ ३० मणु वसु मुँणि तिहि वेयाँ दह रुदै ति पुव्वयाइ अट्ठ दिसे । पढमपहराइ भद्दा पिट्टि सुहा संमुहा असुहा ॥ ३१ . ॥ इति भद्राचक्रम् ॥ गिहभूमि सत्तभायं पण दह तिहि तीस तिहि दहिक्क कमे। इय दिण संख च[उ]दिसि सिर पुंछ समंकि वच्छठिई ॥ ३२ रविचक्र कोष्ठकम् शनिचक्र कोष्टकम् मस्तके ३ श्रीपति मुखे १ मिष्टभोजन द० करे लाम कंधे स्कंधपति पादयोः विदेश परदेसी वामहस्ते बंधन तस्कर . हृदये हृदये ईश्वर नाभिः अल्पतुष्ट नेत्रयोः सौभा स्त्रीरत मृत्यु जानुभ्यां विदेस पादयोः अल्पायु शनिनक्षत्रात् गणनीयम्। रविनक्षत्रात् रविचक्रम् । जाव जन्मरिक्षम् । शनिचक्रम् । भुजा हस्तयोः लाभ पूजा शीर्षे गुह्ये गुह्येः राहुचक्र कोष्ठकम् अशुभ | लक्ष्मी शुभ गुरुचक्र कोष्टकम् मस्तके ४ राज्य दा० हस्ते कंठे विभूति हृदये राज्यश्री पादयोः पीडा वा हस्ते ४ मृत्यु नेत्रयोः सुखप्राप्ति अशुभ अशुभ शुभ অযু अशुभ ormmmmmmmmm मुख नक्षत्र पुष्फित नक्षत्र फलित नक्षत्र अफलित नक्षत्र झडित नक्षत्र गुडि नक्षत्र राजस नक्षत्र तामस नक्षत्र शुभ नक्षत्र भशुभ रिक्ष बृहस्पतिनक्षत्रात् गणनीयम् । जाव जन्मऋक्षम्। शुभ अशुभ राहुनक्षत्राद् । रेखाशुभाशुभः। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ २८ द्वितीय व्यवहार द्वार राहघडीचक्र कोष्टकम् तिथियोगिनीचक्र कोष्टकम् । पूर्व अग्नि ईशा आग्नेय ११९ ३।११ उत्त राहघडी दक्षिण तिथियो- दक्षिण चक्रम् २०१० गिनी चक्र ५.१३ वायु पश्चिम नैऋत्य वायु पश्चिम नैऋत्य २० ३२ । । ७२५ ६१४ । ४।१२ भद्राचक्र कोष्ठकम्। पूर्व आग्ने दक्षिण नैऋत्य पश्चिम वायव्य उत्तर कृष्णे | शुक्ले कृष्णे | शुक्ले शुक्ले | कृष्णे | शुक्ले. कृष्णे दिवा | दिवा दिवा रात्रि | रात्रि रात्रि प्रह ८ प्रहर १ प्रह २ प्रह ३ | प्रह ४ | प्रह ५ | प्रह ६ प्रह ७ ॥ इति भद्राचक्रं सन्मुखं वर्जा प्रहरमाने ॥ वत्सचक्र कोष्टकम् । .. कन्या तुला वृश्चिक १० । १५ । ३० १५ thur E आ - सिंह धनु इति वत्सं मकर मिथुन . कर्क | १० कुंभ | वा नै भिगु सणि तमु सत्तु रवे, तमु चंदे, बुहु कुजे, ससी बुद्धे । बुह भिगु जीवे, सुक्के रवि ससी, मंदे रविंदु कुजा ॥ ३४ चं मंगु मित्त सूरे, बु र चंदि, र चं गु भूमि सु र बुद्धे । चं मं र गुरि स बु सिए, बु सु मंदे, मित्त सेस समा ॥ ३५ ॥ इति शत्रुमित्रौदासीनाः ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार शत्रु-मित्र-उदासीन ग्रहकोष्टकम् । ग्रह रवि | चंद्र मंग बुध | बृह | शुक्र | शनि शत्रु शु.श.रा राहु बुधः चंद्र बु.शु. र.चं. र.चं.मं. मित्र चं.मं.गु. बु.र. र.चं.गु श.र. चं.म.र. श.. व.श. | सम बुधः म.गु.शु.श. शु.श.र.मं.गु.श.रा. श.रा. मं.ब.रा. गु.रा. मेस विस मयर कन्ने कके मीणे तुले य मिहुणे य ।। सूराइ कमेणुच्चा नीचा उच्चा उ सत्तमगा ॥ ३६ ॥ इति उच्चनीचौ ॥ सवणऽद्द पुस्सु रोहिणि ति-उत्तरा सय धणि? उड्डमुहा । रायाभिसेय मंदिर छत्तालंबाइं कायव्वा ॥ ३७ भरणिऽसलेस ति-पुव्वा मू म वि कित्ती अहोमुहा रिक्खा । नीम्व सर कूव वावी पकीरए भूमिखणणाई ॥ ३८ चित्त अणु जिट्ठ रेवइ मिय कर पुण साइ अस्स तिरियमुहा । गय तुरय करह दमणं जंत सगड अरहट कुज्जा ॥ ३९ ॥ इति ऊर्ध्वमुख-अधोमुख-पार्श्वमुखा नक्षत्राः॥ मू स स्सा ह ति-पुव्वा मिय धण सवणऽद्द चित्त असलेसा । पुस्सु पुणऽस्सिणि गुर बुह ससि रवि भिगु इय सुहा विज्जा ॥ ४० ॥विद्यारंभे श्रेष्ठाः॥ धण पुण रोहिणि रेवइ ति-उत्तरा पुस्सु पंच हत्थाई। अस्सिणि बुह-गुरु-सुक्का वत्थालंकारि पुरिससुहा ॥ ४१ । हत्याइ पंच रेवइ धणि? अस्सिणि गुरऽक भिगुवारे । चूडाइकणयरयणं वत्थं पहिरेइ नारिवरा ॥ ४२ ॥ इति पुरुषस्त्रियो वस्त्रालंकारे प्रधानाः ॥ पाणिगहणाउ गमणं पढमे तइए य पंचमे वरिसे । गुर सुक्क चंद सबले विवाहलग्गो व मेलग्गो ॥ ४३ रोहिणि मूल ति-उत्तर मह मिय कर चित्त पुस्सु धण साई । सुहवारे नववहुया सुगिहिपविट्ठा हवइ सुहया ॥ ४४ ॥ नूतनवगृहप्रवेसे शुभदिननक्षत्राः॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय व्यवहार द्वार कित्तिय भरणि सलेसा पुणव्वसू चित्त सवण मूल महा । अद्दा पुस्सो य तहा न कुणइ न्हाणं पसू य तिया ॥ ४५ ॥प्रसूतास्त्रीलाने एते नक्षत्रा निषेधाः ॥ पंचग धणिट्ठगाई जा रेवइ पंचरिक्ख ताव धुवं । दक्खिणदिसे न गम्मइ न कट्ठ-तिणगहण गिहछाया ॥ ४६ हत्थ-सवणाइ तिय तिय अणुहार(राह)स्सिणि अभीइ मिय मूलं । पुस्सु पुणव्वसु रेवइ सुहया गुर चंद भेसिज्जे ॥ ४७ ॥ इति भैखजे(षज्ये)॥. जे इच्छंति सुसहलं नववहुय सबाल गुम्विणी ते वि । न हु गच्छंति पएगं दाहिण तह संमुहे सुक्के ॥ ४८ दुक्काल-देसभंगे रायभए इक्कि नयरि वीवाहे । जे तिय तिवार आगय ताणं सुक्को न हन्नेइ ॥ ४९ ।। पोढतिय सुक्कि दाहिण आगच्छइ संमुहं च वज्जेइ । कन्नअ चेय तवस्सिणी दाहिण-समुहो न दूसेइ ॥ ५० . ॥ इति शुक्रफलम् ॥ सिंघट्ठिय जइ जीवे महभुत्तं होइ अहव रवि - मेसे । ता कुणहु निव्विसंकं पाणिग्गहणाइ कन्नाणं ॥ ५१ ॥ इति मते गुरसिंघस्थफलम् ॥ जो कन्जु जेण रिक्खे भणिओ सो तस्स मुहुति कायव्वो। दिण-निसि पनरसमं सो जं हुइ तं मुहुतपरिमाणो ॥ ५२ अई अहि मि(चि?)त्तै महँ धणे पुवुत्तर - साढ ऽभीई रोहिणियों। जिट्ठ विसंह मूल संयं पुवुत्तर.- फ] दिणमुहुता ॥ ५३ रयणिमुहुत्तं अद्दी पुव्वाभद्दाइ अटुं नक्खत्ता । पुणवसु पुस्सु सवर्ण कर चित्ता साई य पन्नरसा ॥ ५४ ॥ इति दिन-रात्रिमुहूर्त्तनाम ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ उक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार मूल मिय सवण हत्थे पुस्सु पुणव्वसु कुज - ऽक्क - गुरुवारे । घणपक्खि सुद्धादियहे सीमंतयउन्नयं कुज्जा ॥ ५५ ॥सीमंतोन्नयनम् ॥ सवणाइ तिन्नि हत्थं रेवइ अणुराह साइ अस्सिणिया । पुस्सु पुणव्वसुऽभीई ति-उत्तरा सुहदिणे चंदे ॥ ५६ नामक[र]ण - ऽन्नपासण नयणंजण जायकम्म वयबंधं । सिप्पाइ चूडकरणं तणुभूसणमाइ कायव्वं ॥ ५७ ॥ इति नामकरण - अन्नप्रासन - चूडाकरणं च ॥ कर सवण चित्त रेवइ रोहिणि अणुराह पुस्सु जिट्ठा य । अस्सिणि पुणव्वसे वि य करिज सिसुकन्नवेह सुहा ॥ ५८ पुस्सु पुणव्वसु रोहिणि ति - उत्तरेहि कुसुंभवत्थाई । जत्तेण परिहरिज्जहु जइ वंछहु सुपइसोहग्गं ॥ ५९ ॥ इति कुसुंभवस्त्रे निषेधः॥ रोहिणि पमुहाईणं अंधय काणं च चिप्पडं अमलं । सयलहसुद्धिसुन्नं गयवत्थ कमेण उवएसं ॥ ६० ॥ इति श्री चन्द्राङ्गज - ठक्कुरफेरू-विरचिते ज्योतिषसारे व्यवहारद्वार द्वितीयं समाप्तम् ॥ २॥ [तृतीयं गणितपदद्वारम् ।] उज्जणि दाहिणुत्तर जत्थ ठिए सुहमु कीरए लग्गो । तत्थंतरस्स जोयण पंच उण रसेहिं जं पत्तं ॥१ बि-सैय छ उत्तर पिंडे हीणजुयं दाहिणुत्तरे कमसो । ससि-वेय भाइ लद्धं अंगुल - पडिअंगुलं जं च ॥२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय गणितपद द्वार रवि अंगुल संकरस य विसव च्छायाइ तं च मेस - तुले । अयणं सूणदिणेहिं जहिच्छट्ठाणस्स नायव्वं ॥ ३ ॥ इति विषवच्छाया ॥ एगूणं सयं पैणसट्टि से हि विसवच्छाययं । सोलैह वसु राम फलं सदेसचरखंडियपलाई || ४ ३२३ ॥ चरखंडिकानयनम् ॥ वसु - रिक्ख नंद - नैवं - कर ति दसैंण तिय- देते नंद - गुणतीसं । वसु - रिक्खं चरखंडिय कमुक्कमे रिणधणं कुज्जा ॥ ५ साइ कम उवक इच्छियठाणस्स लग्गपलसंखा । भणियं च अओ वुच्छं तक्कालिय जं फुडं लग्गं ॥ ६ || लग्नानयनम् ॥ स्थापना लिख्यते २७८ २९९ ३२३ ३२३ २९९ २७८ लंकोदयलग्नमान ढीली जोजन ७४ आसी जोजन ८१ विषवच्छाय अंगुल विषम च्छाया अंगुल अंगु ६ प्र. ३० चरखंडिक ६४ ५२ २२ परमदिनं घ० ३४ प० ३६ ६ ३९ चरखंडिका ६६ ५४ २२ परमदिनं घ० ३४ प० ४४ लग्नप्रमाणं पलसंख्या । ढीली सं० मे २१४ वृषु २४७ मिथु ३०१ कर्क ३४५ सिंधु ३५१ कन्या ३४२ धण - मिहुणगए सूरे जितिय भोयंसि फिरइ संकपहा । तित्तिय अयणंस धुवं अनि पवाहिय इमं जाण ॥ ७ पण ख - हूँण सागं सट्ठिफलं द्दसहियं अयणंसा । · M ते सूरे दायव्वा लग्गे कंती चराणयणे ॥ ८ ॥ इत्ययनांशः ॥ १९ आसी सं० २१२ मीनु २४५ कुंभ ३०१ मकर ३४५ धनु ३५३ वृश्चि ३४४ तुल Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार संकंतीभुत्तंसा संकमणं सोहि सहि घडियाओ। सेसकल - वियलजं तं मेसाइउ देस फुडसूरं ॥ ९ ॥ स्फुटसूर्यः॥ फुडसूरऽयणंसजुयं तीसाओ सेस जं च अंसाई । तेण हय उदयलग्गं तं रविरासीउ नायव्वं ॥ १० हिट्ठाओ सट्ठिफलं उड्डड्डे जुय ख - राँम फलजंतं । हीणं हिटुपलाओ सेसाओ लग्ग साहिज्जा ॥ ११ सेसं तीसउणं खलु असुद्धलग्गे फलंसगाईणि । मेसाइभुत्तसहियं अयणंसविहीण फुडु लग्गं ॥ १२ ॥ इति इष्टकालजन्मादि स्फुटलग्नम् ॥ एवं च फुडियलग्गं भणिय, भणामित्थ सत्तवग्गविहिं । गिह होरों देवाणं नव वारह सत्त तीसंसा ॥- दारं ॥ १३ रवि सीहो ससि कको कुज अलि मेसो य वुह मिहुण कन्ना। गुर धण मीणो सिय विस तुलो य सणि कुंभ मयर गिहा ॥ १४ ॥ इति गृहखामी ॥ लग्गड पढम होरा विसमे सूरस्स तह य चंदसमे ।-होरा । दिक्काणो य तिभागो सपंच नव अहिवई कमसो॥-द्रेकाणः। १५ अज सीह धणु अजाई विस मयर त्थी नवंस मयराई । तुल मिहुण घड तुलाई कक्को अलि मीण कक्काई ॥-नवांशकः । १६ नियअहिवयाइ सुकमे वारस अंसा मुणेह इक्किके। एवं च सत्तमंसो गणिज्जए जम्मलग्गमि ॥ १७ ॥ इति द्वादशांशाः खराशौ॥ सेर बोण वसु मुणिदिये मंगल सणि जीव सुक्कस्स । विसमे लग्गे सुकमे उवक्कमे स मिण तंसंसा ॥ १८ ॥ इति त्रिंशांशः॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय गणितपद द्वार फुडलग्गसंसाई कलपिंडं नव छ दुर्मीय दिवढसएँ । सट्टि फलं चउठाणं इय खडुवग्गस्स खडुवग्गं ॥ १९ ॥ इति सप्तषड्वर्गशुद्धिः ॥ अथ चायमुपाय:इगवीस पुव्व सतरह अड अठरह अट्ठ जिण रवी सतरं । चउदह छवीस अट्ठय मेसाई सुकमि गुणयारा ॥ २० गुणाकार| २१ | १४ | १७ | ८ | १८ | ८ |२४| १२ | १७ | १४ | २६ | ८ | जो लग्गो ठाविज्जइ तीसंसो तस्स गुणह गुणयारे । जं हुइ तं पल उवरिं हवइ छ पण वग्गसुद्धी य ॥ २१ अह जं लग्गं सुहगह नवंसगेगूण तं गुणेयव्वं । नंदं फल उवरि सुद्धं विणावि खडुवग्ग भणहि इगे॥ २२ ॥ इति षट्वर्गस्योपायः॥ इय छ पण वग्गसुडी सोमगहाणं च सयलकज्जकरा । कूरग्गहाण असुहा सुहया उदयत्थसुद्धि पुणो ॥ २३ । दत्तनवंसगसामी जा पिक्खइ लग्ग उदयसुद्धि इमं । दिक्खा - पयट्टमाई सुहावहा सव्वकज्जेसु ॥ २४ । ... ॥ इति उदयशुद्धिः॥ जोइ नवंसगु लग्गे तस्स कलत्तस्सं सामि जइ पिच्छे । लग्गस्स य जा मित्तं हविज ता अद्ध(स्थ ? सुद्धी य ॥ २५ अस्तशुद्धिः स्त्रीणां शुभकरी। दसम-तिए नव - पणगे चउ - अट्ठ गहा कलत्तठाणाओ। पिक्खंति पायवुड्डी लग्गं दिट्ठीणुसारि फलं ॥ २६ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार मुत्तेगौरसठाणे संठिय पिक्खंति पुन्नदिट्ठि गहां। लग्गं गहाण दिट्ठी गणिज वामं विणा राहू ॥ २७ अन पुनः केचिदेवमाहुःदो वारहंधा य छहट्ठ पाओ, दिट्ठी य अद्धं तिय गारसाओ। पंचो नवं ठाण गहाण पउणं, चउकिंद दिट्ठी पर(रि)पुन्न नूणं ॥ २८ अथवातिय दसमगो य मंदो तिकोणगो ५। ९ जीओँ अट्ठ-चउ भूमो। सुक्क-रवी बुह-चंदा पुन्नं पिक्खंति जायाओ ॥ २९ ॥ इति ग्रहाणां दृष्टिः॥ जा तिय ता न विकप्पं तियहिय किंदं खडाउ हीलिज्जा। खडु खडहियाउ हीणा नवहिय चक्काउ सोहि भुजं ॥ ३० __॥इति भुजम् ॥ चरखंडपिंडविउणं ख-छ लद्धं तीसे जुत्त परमदिणं । कक्कयणं सूणदिणे निसिद्ध दिणमाणु मिस्सु भवे ॥ ३१ ॥ इति परमदिन-मिश्री॥ अयणंसजुत्तसूरं भुजकंमं करिवि सेस जं रासी । तं चरखंडियभुत्तं भुजेहि गुणिज्ज अंस कला ॥ ३२ हरिऊण तीसि भायं लद्धपलं जुत्त भुत्त खंडिचरं । तं पनरहिजुय हीणं अज तुल कमि बिउण दिणरयणिं ॥ ३३ ॥ इति दिन-रात्रिमानम् ॥ परमदिणाओ हीणं इच्छिपय दिणमाणु सेस सत्तिहयं । पंचे फल बारसंगुले संकस्स दिणद्धछाय धुवं ॥ ३४ ॥ इति मध्याह्नच्छाया ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ लग्नद्वार जा जहि काले छाया दिणडछाया वि हीण संकजुया । दिणमाणं छ च गुणतेण फलं दिवसगयसेसं ॥ ३५ ॥ गतशेषदिनम् ॥ दिवसद्ध संकजुयं गयघडियफलेण मज्झछायजुयं । संकूणे सेसअंगुल जहिच्छकालस्स छायवरं ॥ ३६ ॥इति इष्टच्छाया ॥ संकपहावग्गजुयं तस्स पए कंनु कन्नवग्गाओ। सोहेवि संकवग्गं सेसस्स पए हवइ छाया ॥ ३७ ॥ कर्णच्छाया ॥ वासरभुत्त घडी पल संपइ तिहि वार रिक्ख जोयजुयं । तं तकालियवारं तिहिरिक्खं जोय जाणेह ॥ ३८ ॥तिथ्यादितकालिक योग । ॥ इति परमजैन श्री चन्द्राङ्गज-ठकुरफेरू-विरचिते ज्योतिषसारे गणितपदं तृतीयं द्वारं समाप्तम् ॥ [चतुर्थ लनद्वारम्] गुरखित्तगए सूरे रविखित्ते जीउ गुर-रविक्कि गिहे। .. सुके य सुरगुरे वा बाले वुड्डे य अत्थमिए ॥ १ तिन्नि दह दियह बाले पक्खं पण दियह भिगु सुए वुड्डे । पुव्यावरसुकमेणं तिदिण गुरू बाल पण बुड्ढे ॥२ हरिसयण अहियमासे रवि-ससिगहणाउ जाव सत्त दिणा । संकंति पढम अग्गिम इय ति दिण दिणत्तयाईए ॥ ३ जिट्ठस्स जिट्ठमासे वइधिइ वितिपाय विट्ठि ससि नट्टे । न हु लग्गं दायव्वं जम्मदिणे जम्मभे मासे ॥ ४ ॥ इति वर्ष-मासादिनिषेधः॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार लत्तो पायें वेहं जुई जॉमित्तं गलगगहु प्पहं । इक्कग्गर्ल दिणदोसा चय दिक्ख पइट्ठ वीवाहे ॥ ५ ॥ चक्रम् ॥ पंचुरेहा पण तिरिय रेहा, पत्तेय चउकूणिहि बिन्नि रेहा । वामस्स कूणग्गहि बीयरेहा, कित्तीयमाई मुणि लत्तवेहा ॥ ६ ॥ पंचशलाकाचक्रम् ॥ रवि- कुज - गुर - सणिकमसो बारह ति छ अट्ठ पुरउ लत्तं ति । पुन्निम ससि बुह भिगु तम पच्छा बावीस सत्त पंच नवं ॥ ७ वित्तहेरं भयजणणे मरणें कलह च बंधुनासयरं । कजविर्णासं गमण मरणं सूराइलत्तफलं ॥ ८ ॥ इति लातः॥ मह चित्ता असलेसा रेवइ अणुराह सवण इय पाओ। रविरिक्खाओ ठविजइ अस्सिणिमाईणि जोइज्जा ॥ ९ ॥ इति पातम् । वज्रपातकरम् ॥ ससिहरनक्खत्ताओ जइ हुइ गहु इक्कि रेह बीयदिसे । ता जाणिजहु वेहं परिहरियवं जओ भणियं ॥ १० रवि - कुजवेहे विहवा बुहि वंझा भिगु अउत्त सणि दासी । गुरवेहेण तवस्सिणी विलासिणी राहवेहेणं ॥ ११ उत्तरसाढंतपए सवणाइमघडिय चारि अब्भीई। तत्थट्ठिए गहेणं उप्पज्जइ रोहिणीभेयं ॥ १२ परिहरिवि विडपायं करिज कजं असंकियं नृणं । सप्पस्स दट्ठ अंगुलिछेए ता हवइ कत्थ विसं ॥ १३ ॥ इति वेधः॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ चतुर्थ व्यवहार द्वार ' सणि सुक्क राह केऊ रवि कुज रासिक्कि चंदसहिय जुई। बुद्ध - विहप्पइसहियं न हवइ कत्थेव जुइदोसं ॥ १४ ॥ इति युतिः ॥ लग्गससि जो नवंसगु जामित्तनवंसगो य जेण गहो। चउवन्न जाव सुद्धं उवरे जामित्त जुइदोसं ॥ १५ ससि लग्ग सत्तमो जइ कूरगहो तं च चयहु जामित्तं । जत्थुभयदिसे कूरा चंदे अह लग्गि गलगहयं ॥ १६ ॥ इति यामित्र-गलग्रहो द्वौ ॥ रविरिक्खाउ उवग्गह वजह पंचाट्ट चउ दसऽद्वारं । उणवीसं वावीसं तेवीसइमं च चउवीसं ॥ १७ विजुमुंह सूले असणी केउँको वज कंप॑ निग्घार्य । इय नाम फलं कमसो अटेव उवग्गहाणं च ॥ १८ ॥ इति उपग्रहः ॥ एगुड तिरिय तेरस रेहाचकमि विसमजोगिकं । समं जए अडवीसं तयड तुल्लं च सिररिक्खं ॥ १९ सिररिक्खाउ कमेणं अट्ठावीसं ठविज नक्खत्ता । जइ इक्कि रेह रवि -ससि इक्कग्गलु तं वियाणाहि ॥ २० ॥ इति इक्वग्गल । इति लत्तयादिदोसाः॥ सणि पवणु अंसु पायं बुह गुर कलह कुजऽग्गि रवि रत्तं । सुक्केण य संतावं अहिचक्के कित्तियाइ ससिनाडिं ॥ २१ ॥ इति अहिचक्रदोषः॥ उदयाओ गय लग्गं संकंतीभुत्तदियह जुयसेयं । तं पंचहा ठवेउं तिहि" रवि दहं ऽ? मुणि सहियं ॥ २२ नवसेसं जत्थ पणं तत्थ फलं कलह अग्नि रायभयं । चोरभयं मिच्चु कमे पइठ-विवाहे य ताऽरिटुं ॥ २३ ॥ इति बुधपंचकदोषः॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार मुत्ति कलत्ते रवि सणि खडऽट इग ससि छ सत्त अड सुक्के । इग सत्तऽड कुजि अड गुरि सत्ताड बुहि किंदि राहु न विवाहं ॥ २४ उदय - ऽट्ठमगे मम्मं नव - पंचम कूर कंटयं भणियं । दसम - चउत्थे सल्लं कूरा उदय- ऽत्थितं छिदं ॥ २५ मम्मणदोसे मरणं कंटयदोसे कुलक्खयं हवइ । सल्लेण रायसत्तू छिद्दे पुत्तं विणासेइ ॥ २६ ॥ इति लग्ने भंगकराः॥ अरिगय नीए वक्के अथमिए लग्गरासि निसिनाहे। अबले रवि-गुरु-चंदे अदिवसामी सया वजे ॥ २७ ॥ इति लग्नदोषाः॥ चरलग्गेण य जत्ता दुच्चियभावे विवाह -सुरठवणा । थिरलग्गि गिहपवेसं मेसाई चर-थिर दु भावं ॥ २८ तणु धर्ण सहये सुमित्तं सुर्य सत्तुं कलत्त मि, धम्मं च । कम्म लौहं च वैयें लग्गाई सुकमि इय भावं ॥ २९ । ससि बीउ कुसुम्व लग्गो नवंसगो सुफलु तह य भाउरसो । लग्गो मग्गणहारो भावाहिवई य दायारो ॥ ३० जु जु भाउ सामि - मित्ते सुहग्गहे दिड जुत्तु सो सहलो । पावगहे हाणिकरो असेसकज्जेहि नायव्वो ॥ ३१ भावाहिवई भावं लग्गवई लग्ग लग्गवइभावं । भावाहिवो य लग्गं पिक्खइ ससिदिट्ठ सयलसुहं ॥ ३२ लग्गाहिवई जहिं जहिं भावे संचरइ तं तहा कुणइ।. मित्तगिहुचविसेसे इय तत्तं सव्वकज्जेसु ॥ ३३ ।। भावंतगओ य गहो परभावफलं च देइ पिच्छासु । जावंतिम इक घडी जम्म-विवाहाइ तत्थ फलं ॥ ३४ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ व्यवहार द्वार पण ससि अहुट्ठ सूरो तिन्नि गुरे दु दु वुहे य सुक्के य । सड्ड सणि भूमि राहे इय लग्गे वीस विसुवा य ॥ ३५ ॥ इति लग्नभावः॥ . अथ लग्नं यथाइग दुति चउ पण नव दस सुहया सोमा ति गारहा सव्वे । कूर खडा ससि बीओ मुणि मज्झिम अहम अटुंता ॥ ३६ असुहट्ठाणठिओ वि हु लग्गो कूरो न दोसकरणखमो । किंदु-तिकोणठिएहिं जइ दिट्ठो सुरगुरु- भिगृहि ॥ ३७ इय जम्म-जत्त - दिक्खा-रायभिसेयाइ-सूरिपयठवणे । बिंबपइट्ठ-विवाहे सुहलग्गो सयलकज्जेहिं ॥ ३८ ॥ इति जन्म-यात्रा-राज्याभिषेक-सूरिपदादिसर्वसामान्यलग्नम् ॥ अथ विशेषकार्यमाहरिक्ख-तिहि लग्ग सुकमे नव पंच चउत्थयं ति पुरिम धुरे । दुन्नेग अद्ध घडिया वजह गडुंत अइदुट्ठा ॥ ३९ । ॥इति गंडांतः॥ मूले तd छल्लि साहाँ पत्ते कुसुम्व फल सिहं च इय रुक्खं । चउँ सत्तू अ१ देह नवे पणे रस भवे घडिय सुकमि फलं ॥ ४० मूले मूलं तणि घेणु सहोव(य)री छल्लि साह माक्खं । पत्तेऽपत्तक्खयं कमि मंती रज्जं च चिरजीवी ॥४१ ॥ इति मूलनक्षत्रजातफलम् ॥ छ पणऽटुंऽत विणा वुहु दु ति किंदि - तिकोण सुक्क -गुरु-चंदा । इय जम्मलग्गि सुहया ति गारहा सव्वि कूर खडा ॥ ४२ सुगिहुच्च-मित्तगिहजुय सणि कुज सूरो य मुत्ति दसम सुहा । अरिगय अणुच्च रिउजुय विन्नेया अत्थहाणिकरा ॥ ४३ ॥ इति जन्मे ॥ २ ३ १.४।७।१०।९.५ . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ठक्कुर फेरूविरचित ज्योतिषसार सवण धणिट्ठ विसाहा दक्खिण अवरेण मूल पुरसो य । कर पुव्वफग्गु उत्तर पुव्वे पुत्तरासाढा ॥ ४४ सोम -सणी पुव्वदिसे गुरु दाहिण पच्छिमेण सुक्क - रवी । उत्तर बुह - भूमो विय गमणे वज्जेह दिगसूलं ॥ ४५ ॥ इति नक्षत्रवार - दिक्शूलम् ॥ कित्तीउ सत्त सत्त य पुव्वाइ चउदिसेहिं परिघठिई । अग्गी वायव कोणे रेहा उल्लंघि न चलिज्जा ॥ ४६ ॥ इति परिधचक्रम् ॥ पुव्वाइदसदिसेहिं कमेण सियपडिवयाइ हुइ पासो । तरसम्मुहों य कालो गमणे दुन्नि वि समुहवज्जा ॥ ४७ दिणवारं पुव्वाई कमेण संघारि जत्थ ठाणि सणी । कालं तत्थ वियाणसु तस्संमुहु पासु भणहि इगे ॥ ४८ ॥ काल - पाशौ सन्मुखौ वज्य ॥ जिट्ठा य पुव्वभद्दब रोहिणिया तह य उत्तराफग्गू । पुव्वाइ सुकमि कीला संमुह गमणे विवज्जिज्जा ॥ ४९ ॥ इति कीलाः ॥ धण सीह मेस पुव्वे, विस कन्ना मयर दाहिणे चंदो । तुल कुंभ मिहुण अवरे, उत्तर अलि मीण कक्के य ॥ ५० वामो चंदो ऽसुहो निचं, दाहिणोऽहाणिकारगो । पिट्ठेि च असुहो चंदो, संमुहो अइसुंदरी ॥ ५१ 1 ॥ इति चंद्रचार ॥ निसि अंतिमदुघडीओ पहरु पहरु पुव्वयाइ हुइ सूरो । गमणे दाहिण पिट्ठी पवेसगे वामु पिट्टि सुहो ॥ ५२ ॥ इति रविचार ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ व्यवहार द्वार जा नाडी वहइ धुवं. तं चरणऽग्गे करेवि चलियव्वं । सिझंति सयलकजं इय लग्गं सयललग्गाणं ॥ ५३ ॥इति हंसचार ॥ पडिवट्ठ पुन्निमाऽवम रत्ता तिहि कूर वार भरणिऽद्दा । मह कित्ति विसाहुत्तर -ति सलेसा जत्त इय असुहा ॥ ५४ सय साइ चित्त रोहिणि धण सवंण ति - पुव्व मज्झिमा जत्वा । पुण पुस्स मूल रेवइ मिय कर जिट्टऽस्सिणीऽणुराह सुहा ॥ ५५ ॥ इति अधम-मध्यमोत्तमप्रस्थानाः॥ रवि - कुज ति छह दह लाहे बुह - गुर -सुक्का खडत रहिय सुहा । इग छ अडंऽत विणा ससि जत्ता लग्गे ति छायु सणी ॥ ५६ ॥ यात्रालग्नम् ॥ .. इय मंडलीय नरवइ पत्थाणे पंच सत्त दह दियहा । पंचसयधणुहमझे दह उवरि ठविज सत्थ - वत्थाई ॥ ५७ रेवइ मूल ति - उत्तर सय साइऽणुराह पुव्वभद्दवया । पुस्सु पुणव्वसु रोहिणि सवणऽस्सिणि हत्थु दिक्खसुहा ॥ ५८ ॥तिथिवारनक्षत्रप्रधानाः ॥ दु पण छ रवि दु ति छ ससी कुज ति छ दह बुद्ध ति दु छ पण दहमो। किंद तिकोणे य गुरू सुक्को तिय छ नव बारसमो ॥ ५९ मंदो दु पण छ अडमो सुक्क विणा सव्वि गारहा सुहया ।। चंदाउ कूर सत्तम अइ असुहा दिक्खसमयंमि ॥ ६० रवि ति संसि सत्त दहमो बुहेग चउ सत्त नव गुरू ति छ दो। सुक्को दु पंच सणि तिय मज्झिम सेसा असुह सेसा ॥ ६१ ॥ इति दीक्षालग्नकुंडलिका उत्तममध्यमाधमाः ॥ सियपक्खि पडिव बीया पंचमि दह तेर पुन्निमा सुहया । कसिणे पडिव दु पंचमि बिंबपइट्ठाइ सुहवारा ॥ ६२ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार सवण धणि पुणव्वसु पुस्सु महा मूल साइ रोहिणिया । हत्थु अणुराह रेवइ ति - उत्तरा हरिणि सुपइट्ठा ॥ ६३ ॥ इति प्रतिष्ठायां तिथिनक्षत्रवार शुभाः ॥ अथ लग्नम् - दुति छ ससी ति छ कूरा दु छ किंद - तिकोण गुरु पइट्ठसुहा । बहु दह इगाई जा पण इग चउ नव दह सिओ सविकारी ॥ ६४ ॥ इति उत्तिमा ॥ मज्झिम रवि कुज पंचम दु पण छ मुणि सुक्कु छ नव सत्त बुहो । किंद - तिकोणे चंदो दहट्ट पण सणि गुरु तईओ ॥ ६५ ॥ मध्यमा ॥ सोमगहऽट्ठम ति सिओ मंगलु सूरो दु अट्ठ नव किंदे । सणिग दु च नव सत्तम पट्ट सवि वारहा असुहा ॥ ६६ ॥ अंधमा इति प्रतिष्ठादिनशुद्धिः ॥ गणे नाडि रौसि वेगं पंचम वैरं च जोणिवईरं च । रासिवईणं भावं कन्ना वर सत्तहा पीई ॥ दारं ॥ ६७ पुस्सु पुणस्सिणि रेवइ कर साइऽणुराह मिय सवण देवा । भरणि ति - पुव्व ति - उत्तर रोहिणि अदा य मणुयगणा ॥ ६८ धण चित्त जिट्ठ मह सय मूल विसा कित्ति रक्खसस लेसा । सुकुलत्तिम नर रक्खस मरणं मज्झिम्म सेसगणा ॥ ६९ ॥ इति देव-मनुक्ष (ष्य- ) राक्षसगणाः ॥ अहिचक्कि अस्सिणाई वरकन्न भ एगनाडि तं वेहं । कन्ना वरणे असुहं सुहयं हिसामि - मित्ताई ॥ ७० ॥ इति नाडिवेधः ॥ समरासीओ अट्टम वइरं विसमाओ अट्टमे पीई । सत्तु खडऽट्ट असुहं दु वारसं तह य अन्नसुहं ॥ ७१ ॥ इति षडाष्टक - दु(द्वि )र्द्वादशकौ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ व्यवहार द्वार दुन्हariकंठविडं वसुं भाए सेस अग्गिमो लहइ । बहु काइणि मग्गंतो पुरिसो तियपासि सो सहलो ॥ ७२ ॥ रिणलभ्यवर्गः ॥ गरुड मंजोर सीहे साणे अहि उंदरे ' य मियँ मिंढे । इ अवग्गजोणी पंचमठाणे हंवइ वयरं ॥ ७३ ॥ इति पंचमे वैरम् ॥ ९ .४ तुरेय गये मेसे अहि" अहि" सार्णं बिराल' च मेर्स मंजारं । भूसुंदुरे पसु 'महिसं वैधं महिसी " य वैधं च ॥ ७४ मियँ हरिण साणे वनरें निर्डेलदुगं वानरो य हरि ४ तुरेयं । सी पेसु हथे एवं अस्सिणिमाईण जोणिकमं ॥ ७५ ॥ नक्षत्राणां जो (यो ) नयः ॥ सीह गये महिस-तुरयं मूस - मंजार वनरं - मेसं * । अहि-निलं प्रसु-ग्घं मिय-साण विरुद्ध अन्नोन्नं ॥ ७६ ॥ इति योनिवरं ॥ वर - कन्नरासि सामि य सत्तू असहाय सेस सुह वरणे इय सत्तभेय पीई भणिय, भणामित्थ वीवाहं ॥ ७७ ॥ इति वरणे सप्तधा प्रीतिः ॥ 1 1 अट्टि वरिसेहि गउरी, नवि रोहिणि, दसहि कन्न, उवरित्थी । एवं जाव गणिज्जइ, बारहवरिवरि न गणिज्जा ॥ ७८ गुर - रवि - ससि लग्गबले गउरी सेसा इगेगि रहियकमे । इय भणिय सुह विवाहं न विवाहं सत्तवरिसतले ॥ ७९ पंच घडी तिहि अंते छह रिक्खंते य ति दिण मासंते । दुहिय अउत विहव कमि हवेइ तिय पाणिगहणकए ॥ ८० रेवइ मह मिय रोहिणि मूल ति - उत्तरऽणुराह कर साई । बुह गुर सिय ससि वारा पाणिग्गहणे सुहा भणिया ॥ ८१ ३१ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अथ लग्नम् - भिगु ससि विणु सहि (णि) छट्ठा इंग दु चउ नवंऽति पंच दह सोमा । वीवाहे ससि बीओ सव्वे तिय गारहा सुहया ॥ ८२ बुह - गुर - छट्टा सण - सूरु अट्टमा सुहय भूम - रवि नवमा । ह - गुर - सुक्का अंत करगहणे सयणसुक्खकरा ॥ ८३ भिगु सस्सू रवि सुसरो सुह दुह लग्गं पसूइ सुयठाणं । जामित्तवई भत्ता तियस्स जाणेहु वलेमाणो ॥ ८४ ॥ इति विवाहे लग्नम् ॥ ठक्करफेरूविरचित ज्योतिषसार अथ क्षौरकम् - छट्ठमि नम्बि चउदसि अमावस चउथि विट्ठि गते । संझा निसि मज्झन्हे एए वज्जेह खुरकम्मे ॥ ८५ पुस्सु पुणव्वसु रेवइ सवण धणिट्टा मियऽस्सिणी हत्था । चित्त बुह सोमवारा खउरं सुहलग्गि कायव्वा ॥ ८६ दु पण नवते सोमा सुहपावा असुह तिय छ गार सुहा । बुह गुर सिय किंदि सुहा ससि कूरा असुह सेस खउरि समा ॥ ८७ ॥ इति क्षउरकर्म्मफलाफलम् ॥ रोहिणि महा विसाहा ति - उत्तरा भरणि कित्तियऽणुराहा । इय मुंडण लोयक इंदो वि न जीवए वरिसं ॥ ८८ ॥ इति नक्षत्राः मुंडन - लोचे वर्जनीयाः ॥ सुहलग्गे चंदबले खणिज्ज नीमा अहोमुहे रिक्खे | उड्डमुहे नक्खत्ते चिणिज्ज सुहलग्गि चंदवले ॥ ८९ चित्तणुराह ति - उत्तर रेवइ मिय रोहिणी य सय पुरसो । साइ धणि सुहंकर हिप्पवेसे य ठिइसमए ॥ ९०. कुरा ति छ गारसगा सोमा किंदे तिकोणगे सुहया । कूरsम अइअसहा सोमा मज्झिम गिहारंभे ॥ ९१ किंदमं ति कुरा अहा तिय गारहा सुहा संबे । क्रूरा बीया असुहा सेस समा गिहपवेसे य ॥ ९२ 4 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्थ व्यवहार द्वार सूरु गिहित्थो गिहिणी चंदु धणं सुक्कु सुरुगुरू सुक्खं । जो सबलु तस्स भावं सबलं हुइ नत्थि संदेहो ॥ ९१ ॥ इति गृहनीम्व-निवेस-प्रवेसे च ॥ चंदबलहीणदियहे चरलग्गि तिकोण किंदि पावगहं । तिहि रित्त कूर वारे रोयविमुक्करंस ह्राण वरं ॥ ९२ ॥ इति रोगीरोगविमुक्ते लानदिनम् । इति कुंडलिकालनानि ॥ फुडु गोधूलियलग्गं दिणंति दिवे दुभाय रविबिंबे । अब्भच्छन्ने जाणसु दुदलतरूपत्तमिलमाणे ॥ ९३ . फुल्लंति य वल्लीओ सउणा निलयत्थि उच्छगा होति । राइसिणि - सिरिस-किक्किरि - पवाडपत्ता मिलंति गोधूले ॥ ९४ जंमि गोधूलियालग्गे चंदो मुत्ती खडऽट्ठमो। कुलिओ कंतिसम्मो य, तं च वजेह जत्तओ ॥ ९५ रवि-चंदभुत्तरासी पिंडे हुइ जत्थ छ च वारस वा। तत्थ कमि कतिसंमो सणिच्छरते हवइ कुलिओ ॥ ९६ जइ सव्वदोसरहियं गुणबलसहियं च लब्भए लग्गं । ता गोधूलिय सुहमवि बुहि एकि सया वि वजिज्जा ॥ ९७ . अजापाल [य] गोवाला लुद्धा झीवर कोलिया। जे धरति पुणो तेसिं, लग्गं गोधूलियं वरं ॥ ९४ ॥ इति गोधूलिकलग्नम् ॥ आसी सडकुलेसु सिट्ठिकलसो ठाणे सुकन्नाणए, तस्संगस्स रुहो सुठकुरवरी चंदु व चंदो इह । फेरू तत्तणओ य तेण रइयं जोइस्ससारं इमं, दोसत्तऽग्गिग (१३७२) वच्छरे दुगसयं गाहा दु चत्ताहियं ॥२४२ ॥ इति श्री चंद्रांगज ठक्कुरफेरू विरचिते ज्योतिष्कसारे लग्नसमुचय द्वारं चतुर्थ समाप्तम् ॥ ज्योतिषसार गाथा २४२ । ग्रंथानं श्लोक ४१४। यंत्र कुंडलिका सहितम् । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुररूविरचित ज्योतिषसार ज्योतिषसार ग्रन्थनिर्दिष्टानां यत्र - चक्र - कुण्डलिकादीनां स्थापना यथा २४ तमे पत्राङ्के सूचितं पञ्चशलाकायन्त्रमिदम् २५ तमे पत्राङ्के सूचितं 'इकरगल' चक्रमिदम् । कृ रो मृ आ पु पु अ धश पू उ रे घशपू उरे अभ ७ पश्चिम Kabble परिघचक्रमिदम् ! करो मृ आपु पुआ ७ पूर्व परिघ * चक्रम् לבן e म पू उ . क ह चि स्वा वि दक्षिण मपू उह चि स्वा वि ७ २८. २७ २६२५ २४ २३. 20mo २२ २१ २० १९ १८ १७ १६१५ -४ क्रांतिसाम्यचक्रम् | १२ - ११ -१२ -१३ -१४ ११ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , यन्त्र-चक्र-कुण्डलिकादि 4. बु बृ शु ०६0808/08/08/08/02/02 # 1 m w | wrmw9 w NMom 9s . Smamimammmmmamirmirman can AVMNNNN mwwwwwwwwwwwwanmmmmwwwwnwww सर्वसामान्यलग्नकुंडलिकायंत्रमिदम्। % wwAM मा भ जन्म कुंडलिका भG मा अ.अ. अ. अ. अ. अ. अ.अ. ८८८८८/८/८८ है १२१२/१२/१२१२ १२१२१२ है wowww यात्राकाकुंडलिकायंत्रमिदम् । wwwwand रा |ग्रह है श शु २५ पत्राङ्के सूचितलग्न-भंगकरकुंडलिकायन्त्रमिदम् । बु मं चं 26 IA www.wwwwww torm . s . I 36. 36. Gsc mom 64 . Gonomब ० ० . 6s CWN 23 . o a Lawwwwwwwwwwws Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार | ما هم مهمه उत्तिमा or marr22 |arva .vo.० | murar Marovar | 2012m w.. wowwwwwwwwwwnwa मध्यमा ० or wrvar | tvve |vo. अधमा दीक्षाकुंडलिका उत्तम-मध्यम-अधमा प्रतिष्ठाकुंडलिकाचक्रम् Mw है |A | ع م مم مه | | ०.०० ०७१० ० | ५९ ०७ 25suvavra vwwwwwwwwwwwwwwwwwww अधम कुंडलि मध्यम कुडलि उत्तिम कुंडलिका રા૮ : ૮ | રા૮ ૮ १ ९१ १२ ११४ | १२ १ ४७ ०९।१० ० ११०।११ ० ७॥१२ . १२३ ० १२ ७॥१२ . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र A चं ० चं शु રાકે ६ १/२ १/२ ११२ ३ ९११२३ કારી કાર દાર ११ ५/१० ११ १२/५ १२५ १२५ ८ ३।११ ९ १०/३ १०/३/ १०/३ ९ | ११६ / ११६ ११/६ विवाह कुंडलिया २ ५ मं ३६ ८/११ मं यन्त्र - चक्र कुण्डलिकादि - tr बु बृ शु श ३ २२५ २२५ २२५ ३ ६ ६ ९/१२ ९/१२९/१२ ६ ११ ९ ११ १/४ ११४ १४ ११ १२ ७१० ७११० ७ १० ८ क्षउर कर्म्मकुंडलिकायंत्र बु बृ ७ १४ ७ १० १० ७ १० २५ १ २/५ ९।१२ ४ ९।१२ ० ११४ fav ३६ | ३६ | ३|६ ८/११ ८/११ ८।११ Co P 000 ० ००० 0 श रा ००० ३ ३ દ્ ६ ११ ११ 0 mo ८ रा ११ २५ २५ ९/१२९/१२ ११४ ११४ 0 ७१० ७११० V उत्तिम कुडली मध्यम अधम ३७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरफेरूविरचित ज्योतिषसार गृहनीम्वनिवेसप्रवेश कुंडलिका www ~ ઉત્તમ ૨ || ૨ || શકીશ? રૂ | વર૦ ૨૦ ૨૦ ૨૦ ૬ | ~~~~~~~~ ~~~~ રરર રરર રરરરર ૨ |ઢાર | ૨ |દાર દ્વારા તાર પા દર લ કર દારવાર ૦ | ૦ ાિર | કાછ૦િ કિ૭૫ ૦ ૦ ૦ | | રબર - ગા - | * |- ૨૦૧૨ | ૨ | °| ૨ ° ° | | ૨ | ૨ ? ~~~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. ३ द्वारगाथा "" 29 39 " 33 39 39 "" 33 a 33 99 39 35 99 O ७ वार तिथि नक्षत्र सि० ।,, २. विरुद्धयोगः । १ कर्कट संवर्त्तकयोगः 33 33 atre विवरण ज्योतिषसारस्य विवरणम् - द्वार ४, गाथा २४२ प्रथमं दिनशुद्धि द्वारं गाथा ४२ २ वार तिथिनामानि । ० नक्षत्र २८ नामा' | ० योग २७ नामानि । रासि १२ नामानि । • नक्षत्र अवकहड चकं । नक्षत्रे राशयः । द्वितीयं व्यवहारद्वारं गाथा गा० ४ ग्रहाणां राशिस्थिति गा० १ योगिनी चक्र । उदयास्तव दिन | 39 39 35 ५ ग्रहगोचर शुद्धि । १ ताराबल जन्मन । । १ ग्रह गोचर राशि | ७ ग्रहाणां वामवेध | १ दिसाचक्रं जथा । २ रविच जथा । २ शनिचक्रं जथा । १ बृहस्पति जथा । २ राहतनु चक्र । १. राहदिन चक्र । | गा०१ जन्म नक्षत्र वज्रमुश० || गा० १ योगानां अशुभ घटीं। १ चंद्रदग्धास्तिथयः । १ सूर्यदग्धास्तिथयः । १ क्रूरदग्धास्तिथयः "" यमघंट उत्पातादियो० | १ शूलयोगः । 99 १२ शुभवेला जंत्र । "" "" २ कुलिक उपकुलिकादि जंत्र । १ विजयाह्वय मुहूर्त । १ ध्रुवलग्नं जंत्र । ३ छायालग्नो जथा । १ काल होरा घ २ । 99 22 "" एवं गाथा ४२ दिनशुद्धिद्वार 39 "" 95 35 35 92 99 "" "" 59 39 ३ भद्रा चक्र । २ वत्सगति चक्र | २ शत्रु मित्रोदासीन | १ उच्चनीचौ । ३ ऊर्ध्वाधो तिर्यक् । १ विद्यारंभे श्रेष्ट । २ पुरुषस्त्रियो व० । २ वधूगृहप्रवेश० । १ स्त्रियः स्नाने वर्जा० । १ पंचक नक्षत्रा । १ भेषज नक्षत्रा । ६० 35 59 39 33 39 "" 39 35 93 39 39 35 | गा० ३ शुक्र फलाफलं । ९ गुरु सिंहस्थफलं । ३ दिनरात्रि मुहूर्त्त । १ सीमंतोन्नयन० "" "" 95 39 "" १ कुमारयोगः । १ राजतरुणयोगः । १ रविजोगः । १ योगत्रयफलं । २ यमल त्रिपुष्कर | २ स्थविरयोग | १ वार गुण । ३९ २ नामकरणमन्नप्रा० । १ कर्णवेधदिन । १ कुसुंभवस्त्रनिषे० । १ अंधकाणादिनक्ष० । इति विवहारद्वार द्वितीयं । गाहा ६० Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार तृतीयं गणितपदद्वारं गाथा ३८ गा०३ विषुवच्छायाः। गा०४ ग्रहाणां दृष्टि। , १ चरखंडिआनयनं । . ,, १ भुज कर्म। , २ लग्नानयनं । , १ परमदिन । , २ अयनांसानयनं। , २ दिनरात्रिमानं । , १ स्फुटसूर्यः। , १ मध्याह्नच्छाया। , ३ स्फुटलग्नानयनं। ,, १ गतशेषदिनं। , ७ षड्वर्गानयनं। ,, १ इष्टच्छाया। , ३ षड्वर्गउपायः। ,, १ कर्णच्छाया। " २ उदयशुद्धि । ,, १ तिथ्यादितकालिक , १ अस्तशुद्धि। इति गणितपदं तृतीयं द्वारं गाथा ३८ चतुर्थ लग्नसमुच्चयद्वारं गाथा १०२ गा०४ वर्षमासादिनिषेध। गा०१४ यात्राकुंडलिका। ,१६ लत्तापातादिदोष ८। , ५ दीक्षाकुंडलिका। १ अहिचक्रे नाडीदोष। , ५ प्रतिष्ठाकुंडलि। १२ बुधपंचकदोषः। , १८ विवाहकुंडलि। ३ लग्ने भंगकराः। , ३क्षौरकम्मकुंड०। १ लग्नदोषाः। , १ मुंडनलोचकर्म। ७ लग्नस्य भावः। , ५ गृहनीम्वप्रवेश। १ लग्नविशोपकाः। , १ रोगीस्नानदिन। ,३ सर्वसामान्यलग्नं। ६ गोधूलिकलग्नं। ,५ जन्मकुंडलिका। १ संपूर्णकरणं। इति लग्नसमुच्चयद्वारं चतुर्थे । गाह १०२ इति श्री चंद्रांगजठकूरफेरूविरचितज्योतिष्कसार द्वार ४, गाहा २४२ सं० बीजकविवरणम् । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ ठक्कर- फेरू-विरचित गणित सार [ प्रथमोऽध्यायः ।] नमिऊण तिजयनाहं लच्छीस - गिरीस सयल - देवज्जं । लेहाण गणणपाडी पुव्वायरिएहि जह वृत्ता ॥ १ तत्तो व (? वि) किंचि गहियं किंचि वि अणुभूय किंचि सुणिऊणं । तं सयललोय हेऊ फेरू पभणेइ चंदसुओ ॥ २ पडिकाइणि तह काइणि पडिविस्संसा तहेव विस्संसा । जावय होंति विसोवा वीस उण कमेण नायव्वा ॥ ३ वीसि विसोइहि दम्मोदम्मिहि पंचासि टंकओ इको । वीस कम दीह वित्थरि अह कंवी सट्टि वीगहओ ॥ ४ पव्वंगुलि चडवीसिहि बत्तीस करंगुली य विनेया । अट्ठि जवि तिरियगेहं पव्वंगुलु इक्कु जाणेह ॥ ५ चवीसंगुल हत्थो पंडिय चहुं हत्थि हवइ डंडु इगो । बिहुसह सिदंडि कोसो चहुँको सिहि जोयणो इक्को ॥ ६ इ भणियं सरहत्थं विक्खंभायाम गुणिय पडहत्थं । बित्थारहु उदय गुणं तं घण अत्थं वियाणाहि ॥ ७ चहुँ करपुडेहि पाई चहुँ पाई एगु माणओ भणिओ । चहुँ माह वि सेई सोलस सेई भवे पत्थो ॥ ८ छहि पलिहि इकु छहिँ गुंजि मासओ हुइ तेहि वि चहु टंकु टंकि दसहि पलो । सेरो सेरिहि चालीसि इक्कु मणो ॥ ९ ६ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कना ठकुर-फेरू-विरचित अधिनसोलसहि मसिउ तेहिवि चहु टंकु तोलओ तिउणो । सोलहि जवेहि वन्नी बारहि वन्नी महाकणओ ॥ १० सट्ठि पलि एग धडिया घडिया सट्ठीहि एगु दिणु-रयणी । दिणि रयणि तीसि मासो बारहि मासंमि वरिसु इगो ॥ ११ एगं दह सय सहसं दसहस लक्खं तहेव दसलक्खं । कोडिं तह दसकोडी अव्वं दसअव्व जाणेह ॥ १२ खवं तह दसखव्वं संखं दससंख पउम दसपउमं । नीलं तह दसनीलं नीलसयं नीलसहसं च ॥ १३ दससहस नील तह पुण नीलं लक्खो वि नील दसलक्खं । तह कोडिनील इच्चाइ संख अंकाई नामाइं ॥ १४ ॥ इति २५ गणिताङ्क ॥ परिकम्मं पणवीसं तहट जाई य अट्ठ विवहारा । अहिगारा चारेयं पणयालीसाइ दाराइं ॥ १५ ............। इच्छाएगि जुयद्धे इच्छा गुणियं हवेइ संकलियं ॥ १६ १. अथ संकलितमाह सम दिण दल मग्ग गुणं विसमं अग्गिमदलेण संगुणियं । जं हुइ तं संकलियं न संसयं इत्थ नायव्वं ॥ १७ इच्छा पण्हऽक्खरिहिं गुणिजइ, पन्हु मेलि पुणु इच्छ हणिज्जइ । बिउणिहिं पण्हिहिं भाउ हरिजइलद्धकिहि संकलिउ कहिजइ ॥१८ एग्गाई जाव दसं संकलियं पिहगु दस गुणाणं च । एगुत्तर वुड्डिकमे भणेह एयाण मूल पुणो ॥ १९ संकलियट्ठ गुणिगि जुय तस्स पयं एगि हीण अद्धेण । अह बिउण वग्गमूले सेस समं संकलियमूलं ॥ २० Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-प्रथमाध्याय २. अह(थ) व्यवकलितमाह जह संकलियपएणं इक्किकं एगयाइ वड्डेइ । तह विमकलिए छिज्जइ इकिकं मूलरासीओ ॥ २१ सेगं विमकलियपयं संकलियपयं च कीरए सहियं । दुन्ह पयंतरि गुणियं दलीकयं विमकलियसेसं ॥ २२ संकलिय सहस्साओ दसाइ दस-दसऽहियस्स संकलियं । साहेवि भणसु पंडिय जं हुइ विमकलियसेसंकं ॥ २३ . विमकलियसेस सोहि वि संकलियधणाउ सेस्स बिउणजुयं । तस्स पयं सेससमं तं हुइ विमकलियमूलपयं ॥ २४ संकलियपयं बिउणं सेगं विमलियपयविहीणदलं । विमकलियजुयं जं हुइ तं उवराओ य विमकलियं ॥ २५ सयसंकलियधणाओ उवराओ तीइ जाम विमकलियं । ता किं जायइ तं भणि, जइ विमकलियं वियाणाहि ॥ २६ ३. अथ गुणाकारमाहठवि गुन्नरासि हिढे कवाडसंधि व उवरि गुणरासी । अनुलोम-विलोमगई गुणिज्ज सुकमेण गुणरासी ॥ २७ वीसा सउ बत्तीसिहि नव सइ चउस? सत्तवीसेहिं । अडहिय सउ सद्विगुणं किं किं पत्तेय होति फलं ॥ २८ अह गुणरासी खंडिवि इगेग अंकेण गुणवि करि पिंडं । परकमि चडंति पंती छेय करवि सुकमि गुणिय पुणो ॥ २९ दुतीक गुणाकार सत्यालीक परिज्ञानगुणरासि गुन्नरासी पिहु पिहु पिंडं नवस्स सेसगुणं । तह गुणियरासिपिंडं नवसेससमं हवइ सुद्धं ॥ ३० खेवसमखंजोए रासि अविगयक्खं जोडणे हीणे । सुन्न गुणाणइ सुन्नं सुन्नगणे सुन्न सुन्नेण ॥ ३१ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू - विरचित सुन्नस्स य गुणयारं सुन्नस्स य भागहरं तहा वग्गं । सुन्नस्स वग्गमूलं घणाइ भणि जइ वियाणासि ॥ ३२ ४, अथ भागाहरमाह जस्साओ पाडिज्जइ संहरणीओ जु हरइ सुजि हरे । उवरि लिहि हारणीय हिटि हरंसं भवे भायं ॥ ३३ ५. अथ वर्गःपढमंकु वग्गु ठवियं अवरकमे विउणआइ अंकेहिं । गुणि पुव्वसहिय पुण तह वग्गजुयं ठाणहियवग्गं ॥ ३४ जो अंकु तिणय अंके गुणिज सो वग्गु अहव इच्छ दुहा । दट्ठण जुय गुणेविणु तहिट्ठवग्गहिय इय वग्गं ॥ ३५ एगाइ नवंताणं सोलस चउवीस अट्ठवीसाण । पत्तेय वग्गरासी जं जायइ तं भणह सिग्धं ॥ ३६ ६. अथ वर्गमूलमाह जं हवइ वग्गरासी तस्संताओ गणिज जाव धुरं । विसम -सम-विसमट्ठाणे वगं साहेवि मूलंकं ॥ ३७ विउणु करि चालि भायं फलपंती तस्स वग्गि सोहि पुणो । पुव्वविहि जाव चरिमं विउण तमडियं मूलं ॥ ३८ ७. अथ घनमाह धुरिमंकघणं ठाविय तस्सेव धुरंक वग्गु तिहु गुणियं । वीयंके गणिऊणं ठाणाहिय सुकमि जोडिज्जा ॥ ३९ पुणु वीय अंकवग्गं धुरिमंकिहि गुणिवि तिउण करि जुत्तं । पुणु तस्स य अंसस्स य घणं करिवि सहिय घणमेयं ॥ ४० इच्छिय अंकु तिहा ठवि उवरुष्परि गुणिय जं हवइ स घणो। अग्गिमु पुवंकि हयं तिउणं पुव्वघणजुयसेसं ॥ ४१ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-प्रथमाध्याय एगाई जाव नवं तह सोलस दुसय पंचवीसाण । तिन्नि सय नवऽहियाणं पत्तेयं किं हवेइ घणं ॥ ४२ ८. अथ घनमूलमाह घणपय दोअ घणपए घणपयभायं घणेण पाडिजं । तं लद्धकं मूलं चालिवि तईयंकतलि दिज्जा ॥ ४३ तवग्गु तिउणु तस्सेव पच्छए धरिवि भाउ पाडिज्जा । .लडं पंति ठविजइ हरंकविगमो य कायन्वो ॥ ४४ पंतिस्स अंकवग्गं तिउणं पुव्वंकि गुणिवि सोहिज्जा। अंति पयस्स घणं पुण सोहिय तं लद्द पुण एवं ॥ ४५ ९. अथ अभिन्नपरिकर्माष्टकमाह भिन्नंकु इम ठविजइ रू(ऊ)वरि अंसस्स मज्झि छेयतले। हीणंसे बिंदुचयं अच्छेयं जत्थ तत्थेगं ॥ ४६ छेय हय रूवरासी अंसा जुय गय सर्वनणं हवइ । . अन्नोन्नछेयगुणिया हवंति कमि सदिसछेयंसा ॥ ४७ सदिसच्छेय करेविणु ता कीरइ जोड हीण अंसाणं । न हवइ छेयाण जुई कयावि इय भणिय सत्थेहिं ॥ ४८ छेयंके विउण कए उवरिमरासी हवेइ अद्धीय । सव्वेवि पायरेहिं भिन्नठिई एस नायव्वा ॥ ४९ १०. अथ भिन्नसंकलितमाह सदिसच्छेयंसजुई छेएण विहत्त भिन्नसंकलियं । ति छ पण नवंस पिंडं तह पउण ति दिउढ सतिहायं ॥ ५० आदायस्स वयस्स य सवंनणं करवि सदिसछेय पुणो । पिहु पिहु अंसाण जुई तयंतरे भिन्न विमकलियं ॥ ५१ अद्ध तिहाय खडंसा नवंसु अट्ठाउ सोहि किं सेसं । सड तिय पंच सतिहा नवंस खडंसाउ सोहिज्जा ॥ ५२ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ११. अथ भिन्नगुणाकारमाह अंसेण अंसगुणियं छेएण वि छेय गुणिवि हरियव्वं । जं हवइ लद्धमंकं तं जाणह भिन्नगुणयारं ॥ ५३ पाऊण पंच दम्मा गुणिज्ज सतिहाय अट्ठ दम्मेहिं । अद्धं खडंसि गुणियं पहु पिहु किं हवइ तस्स फलं ॥ ५४ १२. अथ भिन्नभागाहरमाह करिऊण छेय अंसा हरस्सं विवरीय न हारणीयस्स । पुव्वविहि गुणि विभायं एस विही भिन्नभायस्स ॥ ५५ अड्डाइएहि भायं हरिज्जए पउणसत्तमेहिं । चहु सतिहाइ वित्तं सवा छ किं ताण लद्ध फलं ॥ ५६ १३. अथ भिन्नवर्गमाह अंसाण वग्गरासी हिट्टिम छेयाण वग्गभाएण । पाडेवि जं जिलद्धं तं जाण [] भिन्नवग्गफलं ॥ ५७ अड्डाइयस्स वग्गं सतिहा पंचरस पउणसत्तस्स । भणि अड तिहाय पुणो जइ वग्गविही वियाणासि ॥ ५८ ठक्कर- फेरू-विरचित १४. अथ भिन्नवर्गमूलमाह अंसस्स वग्गमूले छेयणमूलेण भाउ पाडिज्जा । विसम-सम-सिमकरणे हुइ मूलं भिन्नवग्गस्स ॥ ५९ १५. अथ भिन्नघनमाह अंसरस घणं कुज्जा छेयस्स घणाण भाउ हरिऊणं । ज किंपि तत्थ लद्धं भिन्नघणं तं वियाणाहि ॥ ६० सहय-सत्तरस घणं सवाय पनरस पा तिहायरस । जं जायइ घणरासी पत्तेयं तं भणिज्जासु ॥ ६१ १६. अथ भिन्नघणमूलमाह | अंसघणमूलरासे छेयणघण मूलभाउ पाडिज्जा । घणपय दोअ घणप इय करणे हवइ घणमूलं ॥ ६२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ गणितसार-प्रथमाध्याय १७. अथ त्रैरासिकमाह• आइ अंतेकजाई ठविजए अन्नजाइमझेण । अंतेण मज्झि गुणियं आइमभागं तिरासियगं ॥ ६३ . जा इक्कारस दंमिहि दोसिय कर सत्त कप्पडो होइ। ता चउवीसिहि दम्मिहि कइ हत्थ हवंति ते कहसु ॥ ६४ भणिसु हव नाणवढें नव मुंद लहंति दम्म पणवीसं । इय अग्घपमाणेणं सोलस मुंदाण कइ मुल्लं ॥ ६५ चंदण पलं सवायं सतिहा नव दम्म मुल्ल पावेइ । ता छ पल खडंसूणा कित्तिय दम्माइं पावंति ॥ ६६ दम्मि सवा सत्तेहिं पिप्पलि दुइ सेर छट्ठमंसऽहिया । लब्भइ ता नव दम्मिहि तिहाय ऊणेहिं किं हवइ ॥ ६७ पाउणवीसा सएहिं दम्मिहि सतिहाय पंच पत्था य । ता तंदुलाइ अन्नं कइ लब्भइ इक्कि दम्मेण ॥ ६८ बारहवन्नी कणओ सतिहा सय दम्मि तोलओ इक्को । जइ हुइ त इकि मासय दसंसहीणस्स कइ मुल्लो ॥ ६९ जइ जोयणछटुंसं पंगुलओ चलइ सत्त दिवसेहिं । ता सट्ठि जोयणाई कित्तिय कालेण गच्छेइ ॥ ७० अंगुलसत्तंसो जइ दिणस्स छटुंसि कीडओ चलइ। गच्छिहइ अट्ठजोयण नियत्तई केण कालेण ॥ ७१ अथ पंचरासिकमाह-; सप्तनवैकादसरासिको य (?) हिट्ठिम फलंक विवरिय पिहु पिहु कमि दो वि पक्ख गुणिऊणं थोवंक-रासिभायं पण सत्त नवाइ रासीणं ॥ ७२ १८. अथ पंचराशिकमाहमासेण पंचगसए वरिसे सद्विस्स किं फलं हवइ । अह नो नज्जइ कालं फल मूलं तह पमाणंत्रणं ।। ७३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA ठकुर-फेरू-विरचित मासे तिहाय ऊणे सडसए दिवढु दम्मु ववहारो। ता सतरहि पाऊणिहिं सवायनवमास किं हवइ ॥ ७४ सडट्ठ मणहं भाडइ जोयण सतिहाइ दम्म पउणदुए । ता नव सवा मणाणं किं हुइ दस जोयणे पउणे ॥ ७५ जइ वारस कम्मयरा चहु दिवसिहि तीस दम्म पावंति । पणयालीस दिणेहिं ता किं पावंति अट्ठ जणा ॥ ७६ जइ किरि भित्ति सुवन्नो गुंजूण तिमास पउणवीस धणे । ता सड्ढदसी वन्नी गुंजहिय दुमास कइ मुलं ॥ ७७ १९. अथ सप्तराशिकमाह छ दीह तिकर वित्थर दुइ कंवल नवइ दम्म पावंति । नव दीह पंच वित्थरि ता कंवल सत्त कइ मुल्लं ॥ ७८ २०. अथ नवराशिकमाह चीर वारह पंच वन्नेहि, ते दीहण सत्त कर तिन्नि हत्थ वित्थारु अच्छइ । तहं सव्वहं मुल्लु किउ छ सय दम्म दोसियहि निच्छइ । जइ चहुं वन्निहि अट्ठ कर दीहि पंच वित्थारि । ता नव चीरह मुल्ल कइं, कहि दोसिय विच्चारि ॥ ७९ २१. अथ एकादश राशयो(?शीन् ) आह दु छ ति दु इग पत्थाई जा कर पुड मुंग सट्ठि दम्मेहिं । ता नव ति दुग तिकमे पत्थाई मुंग कई मुलं ॥ ८० . २२. अथ व्यस्तत्रैराशिको(क)माहमझं च आइगुणियं अंतेण विहृत्त वित्थ तियरासी । अंताइ एग जाई ठवि मज्झे अंत जाईय ॥ ८१ दह सेइयंमि पत्थे मविया सत्तहिय वीस पत्थाई । सोलसि सेई पत्थे कह पत्थ हवंति ते कहसु ॥ ८२ छासहि टंकतुल्ले तुलिया मण वीस वक्खरं तइया । जइ वाहत्तरि तुल्ले तुलियं ति हवंति कितिय मणा ॥ १३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-प्रथमाध्याय सडिक्कारस वन्नी तोला चालीस सड़ कणओ य । ता दस सवाय वन्नी पवट्टणे हवइ केवइओ ॥ ८४ नव आयाम तिवित्थर दुइ सइ वीसहिय कंबला सव्वे । पंचायाम दु वित्थर कइ कंबल होति ते कहसु ॥ ८५. २३. अथ क्रयविक्रयमाह- . . मज्झंत गणिय मूलं अंताई गुणिय सव्व उप्पत्ती । विकय कयंतरि भायं नाइज्जइ मूललाहधणं ॥ ८६ सतरह मण टंकेणं लिजहि पन्नरस विक्किणिजंति । जइ दस टंका लाहे ता कहु टंकाण ते मूले ॥ ८७ तिहु दम्मि पंच वत्थू लिजहि नवि दम्मि सत्त विकिज्जा । दंम दुवालस लाहे कित्तिय दम्माण सा मूले ॥ ८८ उवरि दम्म तलि वत्थु ठविजहि वंकइ विन्नि वि रासि गुणिजइ । आइम रासि लाहि ताडिजइ विहू रासि अंतरि पाडिज्जइ ॥ ८९ २४. अथ भांडप्रतिभांडकमाह- . ___ भंड - पडिभंडकरणे विवरिय मुल्लं फलं च विवरीयं । कमि गुणवि दोवि रासी हरिज लहु रासिणा भायं ॥ ९० सइ दम्मि दुमण पिप्पलि तिहु सय दम्मेहि पंच मण सुंठी । ता पिप्पलि सत्त मणे पाविज्जइ सोंठि कितिय मणा ॥ ९१ २५. अथ जीवविक्रयकरणमाह जीवस्स विक्कएण य वरिस विवरीय फलंक विवरीयं । सेसं च पुव्वविहिणा जाणिजहु जीववरमुल्लं ।। ९२ दस वरिसा तिय करहा टंका सउ अट्ठ अहिय पावंति । ता नव वरिसा करहा कइ मुल्लं हवइ पंचाण ॥ ९३ ॥ इति परमजैन श्रीचन्द्राङ्गज ठकुरफेरुविरचितायां गणितसारकौमुदीपाट्यां पंचविंशतिपरिकर्मसूत्र (त्राणि ) समाप्तानि ॥ ॥ इति प्रथमोऽध्यायः॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ द्वितीयोऽध्यायः ।] १. अथ भागजात कलासवर्णनमाहसमछेय करवि पच्छा अंसजुई हवाइ भाग जाई या । अद्धस्स अधु (ड) तस्स य पणंस - छटुंसु किं हवइ ॥ १ २. अथ प्रभागजातिमाह छेएण छेय गुणियं अंसे अंसा पभागजाई य । अस अधु (ड) तस्स य पणंस - छट्ठेसु किं हवइ ॥ २ ३. अथ भागभागजातिमाह छेएण रूवगुणिए छेयगमे हवइ भागभागविही । अंसाण जुई भायं धणेण पिहगंस गुणवि फलं ॥ ३ एगि तिभाय दुभायं एगि सु नव भाय सत्तभायं च । एगि छभाय तिभायं किं सयदम्माण पिहगु फलं ॥ ४ वावि छ कर चउ नालय भरंति कमि दिणिगि दल ति चउरंसो । जइ समकालि तिमुच्चहिता पूरहि केण कालेन ॥ ५ ४. अथ भागानुबंधमाह अहहरि उवरिमु हरु गणि स अंसि हिट्ठिमहरेण गुणि रूवं । जा हवइ चरिम छेयं एसा भागाणुबंधविही ॥ ६ सड तिय तस्स पायं सहियं जं तस्स छट्टमंसजुयं । तस्सद्ध जुत्त किं हुइ तहद्ध सतिहाय तस्स पायजुयं ॥ ७ ५. अथ भाग (? गा ) पवाहमाह हिट्टिम हरि उवरिमहरु गुणिज्ज हिट्टिम हरे गयंसेण । उवरिम व गुणजहि एवं भागापवाहं च ॥ ८ तिय अहूणं पउणं तस्स खडंसूण तय अद्धं च । तंस - चउरंसरहियं किं किं पत्तेय हों ( हो ) ति फलं ॥ ९ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - द्वितीयाध्याय ६. अथ भागमातृजाती आह भागाई पंच जाई समासणं तं च भागमत्तीय । पिहू पहुहुत्तकरणं करेवि समय अंसजुई ॥ १० अर्द्ध पयस्स भायं तिभायभायं तहद्ध अद्धहियं । तइयं अहीणं एगट्ठे किं हवेइ धणं ॥ ११ ७. अथ वल्लीसवर्णने आहवल्लीसवन्नणविही हिट्टिम छेएण गुणवि छेयंसा । उatiसे रणु धणु पकीरए हिट्ठिमंसाण ॥ १२ दुइ तोला तिय मासा तहेव चउ गुंज पंच विसुवा य । ते सत्तसहीणा सवन्नणे किं हवइ वल्ली ॥ १३ ८. अथ भंस (स्तंभांश) कजाती आह समछेय अंस पिंडं रूवाओ सोहि जं हवइ सेसं । तेण पच्चक्खभायं लडंके थंभपरिमाणं ॥ १४ अद्ध खडंस दुबास अंसा जल पंक वालुयत्थकमे । पञ्च्चक्ख तिन्नि कंविय भणि पंडिय ! थंभपरिमाणं ॥ १५ भाऊ पंचमु गयउ पुद्धि, दक्खिण अट्टम सोलसंसु पच्छिम पणट्ठउ, चाउ उ उत्तरह सीहभइण इम छट्टु नट्ठउ | तलइ रहिउ पंडिय ! निसुणि गोरू सउ पणयालु, ते इकट्ठा जइ करहि कइ लोडइ थणवालु ॥ १६ अधु सतिहाउ विंझे खडंसु सत्तंस अहिउ जलतीरे । अहं नवंसहिउ थलिगय चउसेस किं जूहे ॥ १७ ॥ इति परमजैन श्रीचन्द्राङ्गज ठक्करफेरूविरचिते गणितसारे कौमुदीपाट्यां अष्टौ भागजातयः ॥ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ ५.१ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तृतीयोऽध्यायः ।] १. अथ व्यवहारगणनायां मिश्रकव्यवहारे आहनियकालि पमाणधणं फलेण परकालु वि तज्जोयं । मिस्सि गुणिऊण दोन्नावि जोयाविह तम्मि फलमूलं ॥ १ मासेण पंचगसए चहु मासिहि दम्म पंचसइ वीसा | तरस फलं किं मूलं जइ मुणसि त भणसु सिग्घेण ॥ २ २. अथ भाव्यके आहनियकालि पमाणधणं गुणिज्ज फलकालि कमिफलाईणि । अंसाण जुईभायं मिस्सि गुणवि लद्ध मूलाई ॥ ३ मासे सयस पण फलु एगं विप्पस्सं अद्धु वित्तीय । लेहगपायं वरिसे नवसयपंचहि मिस्सधणं ॥ ४ ३. अथ एकपत्रीकरणे आह गयकाल फलसमासे मासफलक्केण भाइ कालो य । मासफलु पिंडु सयगुणि घणपिंडे हरि सयस्स फलं ॥ ५ दुगि तिगि चउ पंचग सइ मासे धणु दिन्नु एग दु ति छ सयं । चहु छह दस मासिहि एवं पत्तं कहं हवइ ॥ ६ ४. अथ मध्ये (१क्षे )पके आह समच्छेयंसजुई हर मिस्सं पत्तेयअंसि गुणिऊण । पक्वकरणमेयं मिस्साउ फलं मुणिज्जेइ ॥ ७ दुंनि तिय पंच चउ मण बीयं पक्खविय तं च निप्पन्नं । बिसय दहत्तर हल हरि दिन्नाण वि किमह भिन्नफलं ॥ ८ टंक छह बुणिहि मुल्ले दस टंक पंचि दम्मेहिं । टंक छयासी पट्टे किं वुणियं किं वुणाववियं ॥ ९ कंचोलु सत्त उदए सत्तोवरि एगु हिट्ठि विक्खंभा । दसि दम्मि भरिउ चंदणि अंगुलि इक्विक्कि कइ मुल्लो ॥ १० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - तृतीयाध्याय ५. अथ समविषमक्रययोः आहमुल्ले वत्थु वि हत्थो पिहगंस गुणेय अंस जुवभावं । दव्वेण अंसगुणिओ समविसमकयं तिरासि विहि पुवं ॥ ११ दम्मिक्कि सेरु हरडइ तिन्नि बहेडा छ सेर आमलया। भो विज ! देहि फक्किय सममत्ता इक्क दम्मस्स ॥ १२ . तिहुँ अड सेरु पिप्पलि सतिहा नवि दम्मि मिरिय सेरु इगो । चहुँ पउणु सेरु सुंठी इगस्स तिउडू समं देहि ॥ १३ दमि नव सेर तंदुल इक्कारस मुंग सेरु इकु घिओ। ति दु इग अंस वणिय ! कमि सवाय दम्मस्स मे देहि ॥ १४ ६. अथ सुवर्णव्यवहारे आहज सुवन्ना जं तुळलं तं तेण गुणेवि कीरए पिंडं। तुल्लि विहत्ते वन्नी वन्नी भाए हवइ तुल्लं ॥ १५ नव दस अढिक्कारस वन्नी तोलाय तिय छ पण जुयलं । एगत्थ गालियं तं केरिस वन्नी हवइ कणयं ॥ १६ ७. अथ सुवर्णे भिन्नोदाहरणमाह अट्ठ सवा नव पउण छ वन्नी तुल्लेति पंच दुइ मासा । तिय छ पण अंस सहिया आवटे किं हवइ कणयं ॥ १७ ८. अथ पकसुवर्णस्य आह वन्न सुवन्न गुणिकं विपक्क कणए विहत्तवन्नाय । इच्छा वन्नीभाए पक्कसुवन्नस्स तुल्कं ॥ १८ छ पण? सत्त तोलय नव सत्त दसट्ठ वन्नपक्काय । संजायवीसतोला केरिस वन्नी हवइ कणयं ॥ १९ दुतीकःसत्तट्ठ नव छ वन्ना चउ पंच ति सत्त तोलया कमसो। इक्कारसीय वन्नी तुल्ले किं हवइ पक्कविओ ॥ २० Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर -फेरू-विरचित ९. अथ नष्टसुवर्णवर्णमाहउपन्नवन्नएणं सुवन्नपिंडं गुणेवि सोहिज्जा । वन्नसुवन्नवहिक्कं गयवन्न सुवन्नए भायं ॥ २१ तिय पंच सत्त मासा नवट्ठ दसवन्न अट्टमासन्ने । उपन्ना दस वन्ना का वन्नी अट्ठमासाणं ॥ २२ उपन्नवन्नताडिय कणयजुई वन्नकणयवहपिंडं । सोहिवि भायं गयकणयवन्नि उप्पन्नवन्नूणे ॥ २३ अहियस्स हीणछेयं हीणस्स य अहिय इच्छ वन्नीओ। छेयंक तुल्ल भागा इय इच्छाकरणवन्नविही ॥ २४ पण सत्त नव इगारस वन्नीओ पिहगु पिहगु किं लिज्जा। जेण हुइ दसी वन्नी तुल्ले तोलिक्कु तं भणसु ॥ २५ ॥ इति मिश्रकव्यवहारम् (१रः) । १. अथ सेढीव्यवहारो यः (? यथा-) गच्छेगूणुत्तर हय सहाइ अंतधणु पुणवि आइ जुयं । दुविहत्त मज्झिम धणं गच्छ गुणं हवइ सव्व धणं ॥ २६ वीसाइ पंच उत्तर सत्तदिणे तुरिय हरडईमाणं । तं भणि तह नट्ठाई उत्तर गच्छं पुणो भणसु ॥ २७ २. अथ नष्टाद्यानयने करणमाहनट्ठाइजाणणत्थे सव्वधणं गच्छ भत्तलहाओ। एगूण गच्छिउ तरू गुणेवि दलि सोहि सेसाई ॥ २८ ३. अथ नष्टोत्तरानयने करणसूत्रमाहउत्तरनट्ठाणयणे गच्छेण विहत्तसव्वधणरासी । आइविहीणं काउं निररेगच्छ दल लड चयं ॥ २९ ४. अथ नष्टगच्छानयने आह अडउत्तर हयगुणियं दुगुणाई वुड्डि हीणवग्गजुयं । मूलं धण वि उणूणं सचयं चयविउण हरि गच्छं ॥ ३० Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-तृतीयाध्याय ५. अथ संकलित्यैक्यानयने आहइग चय संकलियंकं वि जुएण पएण गुणिवि तिहु भायं । लडं संकलिय जुई न संसयं इत्थ नायवं ॥ ३१ संकलिय वग्ग तह घणं पिहु पिहु पंचाण किं हवइ इकं । गणिऊण भणसु सिग्घं जय गणियविहिं वियाणासि ॥ ३२ ६. अथ वर्गकघनैक्यानयनमाहइच्छपय बिउणसेगं ति हरिय संकलिय गुणिय वग्गजुई । संकलियवग्गु जं हुइ तं घणपिंडं वियाणेहि ॥ ३३ ७. अथ संकलितवर्गघनैक्यानयने आहसेग बिउण पय पय गुण सेग पयद्धेण गुणिय हुइ जं तं । संकलियवग्ग तह घण तिन्हाण जुई मुणेयत्वं ॥ ३४ ॥ इति सेढीव्यवहारे सूत्रगाथा सम्मत्ता ।। अथ क्षेत्रव्यवहारमाहचउरंस दीह चउरस विक्खंभायामु गुणिय तं खेत्तं । चउरंसे छ कर भुया ति पंच कर दीह चउरंसे ॥ ३५ भुव पिंडद्धं चउहा कमेण भुवहीण सेस गुण सुकमे । तस्स पए तं खित्तं तिभुए अ चउब्भुए जाण ॥ ३६ मुहभुव कर पणवीसं भूमिभुवं सहि वाम वावन्नं । । दाहिण उणयालीसं किं जायइ तस्स खित्तफलं ॥ ३७ भूमिभुव हत्थ चउदस तेरस एगं च बीय पन्नरसं । एवं विसम तिकोणं खित्तफलं अस्स किं हवइ ॥ ३८ सयलाण चउरसाणं भूमुह जोयद्ध लंब गुणखित्तं । तंसाण भूभुवई लंबगुणं हवइ खित्तफलं ॥ ३९ भुवजुव तेरस पनरस भूभुव इगवीस पंच हत्थ मुहे । मझे लंबु दुवालस एरिसखित्तस्स किं माणं ॥ ४० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर फेल-विरचित तिकोणफलं विउलं भूभत्तं मज्झ लंबओ हवइ । भुवलंब वग्ग अंतरि सेसस्स पए हवइ अहवा ॥ ४१ भुवलंब वग्गपिंडं तस्स पए हवइ निच्छयं कन्नं । सव्वत्थ खित्तगणणे एस विहि हवइ नायवा ॥ ॥ ४२ विक्खंभ वग्ग दह गुण तम्मूले वट्टखित्त परिहि धुवं । विक्खंभ पाय गुणिया परिही ता हवइ खित्तफलं ॥ ४३ दस विक्खंभे खित्ते समवट्टे किंपि जायए परिही। गुणिऊण भणहि पंडिय! तसु खित्तफलस्स किं हवइ ॥ ४४ वट्टस्स य विक्खंभं तिउणं तह छट्ठमंसजुय परिही। विक्खंभद्धे गुणिया परिहि दलं तस्स खित्तफलं ॥ ४५ जीवा सर पिंडदं सर गुणियं वग्ग दहगुणं काउं। नव भाए जं लद्धं तस्स पए हवइ धणुह फलं ॥ ४६ धणुपिंडे इगवीसं जीवा पनरस छक छक जस्स सरं । भणि पंडिय ! गणियफलं किं जायइ तस्स धणु खित्तं ॥ ४७ सरवग्गं छगुणकियं जीवा वग्गहिय मूल धणु पिंडं । धणुवग्गाओ जीवा वग्गूण छभाय मूल सरं ॥ ४८ धणु सर जुबडहीणं धणुहाओ वग्ग चउण पय जीवा । पत्तेय गणियमाणं एयाण फलं हवइ नूणं ॥ ४९ बालिंदे तिभुव दुगं मुरुजे दो धणुह चउरसं मज्झे । दो धणुह जवाकारे कुलिसे चउभुव दु कपिज्जा ॥ ५० तिभुवं गयदंतोवम चउब्भुवं सगडचक्कवट्टसमं । चंदस्स सरिस धणुहं वर्से परिपुन्नचंदसमं ॥ ५१ बालिंदोवम खित्तं वित्थारे पंचवीस कर दीहे । दल लंबं तिन्नि धरा गयदंते किं हवेइ फलं ॥ ५२ निम्मागारे खित्ते उभयमुहे तिकर पंचकर लंबे।। • धरामुहे पण हत्थं ति मज्झि दह लंब कुलिसुवमो ॥ ५३ ॥इति क्षेत्रव्यवहारसूत्रं समाप्तं ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गणितसार-तृतीयाध्याय १. अथ खातव्यवहारमाहतलमुह मज्झे विसमं उड्डुत्तं अहव दीह-विसमं वा । तं एगटुं काउं विसमट्ठाणेहिं हरिय समं ॥ ५४ सम - वित्थर -दीहगुणं उंड्डत्ते गणिय हवइ खित्तफलं । खात्तं समभुववेहे घणोवमं जायए गणियं ॥ ५५ दुति चउ कर उड्डुत्ते पुक्खरणी पंच हत्थ वित्थारे । सोलस हत्थायामे किं जायइ तस्स खत्तफलं ॥ ५६ दीह कर सड्ड सोलस वित्थारे दस सवाय अङदए । अह वित्थरु दीहुदए सम नवकर किमिह पिहगु फलं ॥ ५७ २. अथ कूपस्य फलानयनमाहकुववित्थारं वग्गं तिउण खडसहिय वेहि गुणियव्वं । चहुं भाए जं लद्धं तं करसंखा हवइ सव्वं ॥ ५८ कूवस्स य विक्खंभं छ हत्थ कर वीस जस्स उड्डुत्तं । कूवस्स तस्स पंडिय ! खत्तफलं किं हवेइ धुवं ॥ ५९ . तिकोणयाई खित्ता पुन्वुत्ता खित्तफलसमा जाण । ते वि गुणियं तिवेहे हवंति घणहत्थ खत्तफले ॥ ६० ३. अथ पाषाणफलानयनकरणसूत्रम् दीहंगुलाणि वित्थर पिंडंगुल ताडियाणि विभएहिं ।। जिणें अट्ठ तेरसहिं हवंति पाहाणघणहत्था ॥ ६१ सतिय हत्थ वित्थरि करद्ध पिंडे सिलासह जस्स । सतिहाय पंच दीहे कमित्थ हुइ तस्स गणियफलं ॥ ६२ जं हवइ विविहरूवं वट्ट-तिकोणाइ सयलपाहाणं । खित्तफलु व्व गुणेविणु पिंडगुणं हवइ तस्स फलं ॥ ६३ दस हत्थे विक्खंभे घरट्टपट्ट व्व वट्टपाहाणे । दिवढकरमाणपिंडे किं होइ इमस्स गणियफलं ॥ ६४ गोलस्सुदयघणडं सनवंसे अहिय तं हवइ सेलं । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - फेरू-विरचित परिहि चउत्थं भायं हय परिहि नवंसहिय खितं ॥ ६५ छकर दीहुदय वित्थर समवट्टं गोलयस्स पाहाणं । किं गणियं किं खित्तं जं हुइ तं भणहि पत्तेयं ॥ ६६ ४. अथ पाषाणस्य तौल्यमाह घणकंबिय इक्केणं ढिल्लियसंभूय पाहणं सव्वं ॥ पंचास मणं जायइ तुलिओ चउवीस तुल्लो [य] ॥ ६७ वंसी अडयालीसं मम्माणी सट्टि कसिणु बासट्ठी । जज्जावय कन्नाय उणवन्नकुडुक्कडो सठ्ठी ॥ ६८ ॥ इति खातव्यवहारसूत्रगाथा १५ सम्मत्ता ॥ अथ चितिव्यवहारमाहगोमट्टे पायसेवं चउरसे वैट्टं मुनरयं तोकं । सोवण पुलं कुवं ववी इय नवविहा भित्ती ॥ ६९ पढममवि सुद्धभित्ती वित्थर दीहुदय गुणिय जं हवइ । तरसाउ वार वारी आलय कट्ठाउ सोहिज्जा ॥ ७० सेसाओ दसमंसं दिवडूयं मट्टियस्स घट्टे । सेसा पाहणसंखा हवंति घणहत्यमाणेण ॥ ७१ पंच कर भित्ति उदये दस दीह दुवित्थरे य तम्मज्झे । बारूति उदइ दु वित्थरि का संखा हवइ पाहाणे ॥ ७२ अथ इद्वानां गणना दी वित्रपिंडे अडु तिहा अट्टमंसु इट्ट कमे । रुद दिव वित्थरि दह दीहे भित्ति के इट्टा ॥ ७३ १. अथ गोंमदमाह - गौमट्टमूलपरिही अद्धं पा परिहि गुणिय सनवंसं । भित्ति (ति) गब्भाओ चयणं बाहिर मज्झाउ तं खित्तं ॥ ७४ भित्ति (ति) गन्भाओ परिही उणवीस छ वित्थरस्स किं चयणं । बाहिर परिही पंडिय ! चउवीसं किं हवइ खेत्तं ॥ ७५ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-तृतीयाध्याय परिहीविक्खंभडे गुणिय नवंसहिय खल्लु गुंमट्टे । अणुभवसहियं भणियं न संसयं इत्थ नायव्वं ॥ ७६ २. अथ पायसेवमाह चउरंस पायसेवं बाहिर भित्ती य मज्झिमं थंभं । वित्थर दीहुदय गुणं जं हुइ तं कविया जाण ॥ ७७ भित्ति तह थंभ अंतरि कमुच्च मग्गं फिरंत तं दीहं । तल उवर जुयहुदयं वित्थर गुणियं हवइ पूरं ॥ ७८ ३. अथ वर्टतह वट्टपायसेवे थंभं भित्ती य गणहु कूवु व्व । पूरंतर छत्तिदलं तं चउरंसु व्व जाणेह ॥ ७९ ४. अथ मुनारयावट्टपासेवसरिसा मुनारया होति सयल मज्झाओ। पुणु इत्तियं विसेसं तिकोणदल वट्टदलभित्ती ॥ ८० ५. अथ ताकवारिस्सुवरिम ताकं दीहुदए गुणिय भित्तिपिंडगुणं । सत्तंस दिवड्डणं सिहाजुयं जायए खल्लं ॥ ८१ सत्त कर ताक दीहं सिहासहिय हत्थ चारि जस्सुदयं । हत्थेग भित्तिपिंडं किं जायइ तस्स खल्लफलं ॥ ८२ ६. अथ सोपानम्सोवाणहिट्ठउवरिम जोयद्धं उदयवित्थरे गुणियं । नव हिहि उवरि एगं दु पिहुल छह उदइ किमिह फलं ॥ ८३ ७. अथ पुलबंधमाहवित्थर दीहं उदए गुणियं, ताकविहीणं भुवजुवसहियं । . निग्गम अहियं तह खल्लूणं, जलपुलबंधं तं हुइ नूणं ॥ ८४ ८. अथ कूपकुवभिसिमज्झि परिही वित्थर उदएण गुणिय हवइ फलं । दस उदइ दु कर वित्थरि अट्ठारस परिहि किं चयणं ॥ ८५ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अथ वापी षट भेदि चउरंस दीह वट्टा खडंस अट्ठस संखवत्ताई । बहुछंदि होंति वाकी(वी) ते दिट्ठपमाणि गुणियंति ॥ ८६ ॥ इति चितिव्यवहारसूत्र गा० १८ सम्मत्ता ॥ ठकुर - फेरू - विरचित अथ क्रकचव्यवहारसूत्रकरणमाहदारु जहच्छियमाणे तरसाउ जहिच्छ फलिह कीरंति । दुह दल दीहु वित्रु गुणिज्ज फलहेहिं भागु ति ॥ ८७ अट्ट कर दीहु दारो करहु वित्थारि दलि तिहाउ करे । दीगु पाउ विथरि नवं दलि किमिह फलहेण ॥ ८८ अथ करवते दारुच्छेदितगणना करवत लीह जे हुई ते दीहिण गुणिय होंति हत्थाइं । त्रिवसा कोडी चिरावणी अग्घमाणेण ॥ ८९ इग दिवढ विस्व सइ गजि दुति वित्थरि गजि असीहिं कोडी य । चहुं विवहि सट्ठि गजे पंचाइ नवंति चालीसे ॥ ९० दस्साइ जाव तेरस विसुवा वित्थारि ताव तीसेहिं । उवरंते जा सोलस ता वीसि गजेहि कोडी य ॥ ९१ उवरि जा वीस विसुवा ता कोडी दसि गजेहि जाणेह । उवरि करवत्तु न चलइ इय भणियं सुत्तहारी हिं ॥ ९२ दारु गज सन्त दीहे विसोवगा अट्ठ सत्त वित्थारे । दस लीह फलह गारस चीरिय कइ कोडिया होंति ॥ ९३ अट्ठ जब कंवियंगुलि जवेगु करवत्त लीह फलहि इगे । वट्टस खंडकरणे पिंडं तं दीहु जाणेह ॥ ९४ महुव वड साल सीसम निंव सिरीसाइ सम चिरावणियं । खयरंजण कीर सवा सेंवलु सुरदारु गुणि पउणं ॥ ९५ ॥ इति ऋकचव्यवहारो समत्तो ॥ गाहा ९ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - तृतीयाध्याय अथ राशिव्यवहारमाह समभुवि कयन्नरासी तप्परिहि खडंस वग्गु उदयगुणे । जं हुइ ते घणहत्था घणहत्थे इक्कि पत्तो य ॥ ९६ तिल - कुद्दव धन्नाणं नवंसु उदओ य रासि परिहीओ । दसमंसु मुग्ग गोहुम वोर कुलत्था इगारसमो ॥ ९७ सिहरु व्व वट्टरासी चउरुदयं तस्स परिहि छत्तीसं । भित्तिसंलग्गअद्धा कृणंतरि पाय परिही य ॥ ९८ बाहिरकूणे पडणं परिही उदओ सह जाणेह । किं जायइ करसंखा पिहु पिहु रासीण तं भणसु ॥ ९९ दल पाय पण परिही गुणिवि कमे दु चउ सत्तिहाएण । पुव्वु व्व फलं पच्छा नियनियगुणयारए भायं ॥ १०० ॥ इति राशिव्यवहारसूत्रं सम्मत्तं ॥ गाहा ५ ॥ ६१ अथ च्छायाव्यवहारसूत्रकरणमाहथंभाइ भित्ति च्छाया दंडि मिणवि गुणहु दंडमाणेण । तस्सेव दंडच्छाया हरिज्ज भायं फलेणुदयं ॥ १०१ चउवीसंगुल दंडे च्छाया थंभस्स तिन्नि दंड सवा । दंड सवा अट्ठारस अंगुल किं थंभु उच्चत्तं ॥ १०२ अथ साधनानयेनकरणम्समभूमि दु कर वित्थरि दुरेह वट्टस्स मज्झि रविसंकं । पढमंत छाय गब्भे जमुत्तरा अद्धि उदयत्थं ॥ १०३ चउ चउ इग मयराई पण तिय इग कक्कडाइ ध्रुव रासी । सत्तंगुल पह मुँणिजुव फल रूगयजुत्त दिवस गय सेसं ॥ १०४ ॥ इति च्छायाव्यवहारसूत्रं सम्मत्तं ॥ गाथा ४ ॥ एकत्र गाथा १०४ ॥ ॥ इति परमजैन श्रीचन्द्राङ्गज ठकुरफेरूविरचितायां गणितकौमुदीपाट्यां अष्टौ व्यवहाराणि (राः) समाप्त : (१प्ताः) ॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चतुर्थोऽध्यायः।] अथ देसा(शा)धिकारमाहढिल्लिय रायट्ठाणे कजं भूय करण मज्झमि । जं देसलेहपयडी तं फेरू भणइ चंदसुओ॥१ जसु जसु वंटिवि दिजइ तसु तसु जीवलइ जं भवे दव्यो। सो गुणिवि लद्ध दम्मिहि सव्वाण य जीवलइ भायं ॥२ सेव रायह, [सेव रायह ] पंच जण गए य, तह सव्वह जीवलइ तीस सहस्स एगत्थ रासिण, तिय तेरस पंच दुइ सत्त सहस इय भिन्न रूविण, वय कारणि जा नवसहस ते सव्विवि पार्वति । निय निय जिवला कड्डतहं किं किं कसु आवंति ॥ ३ उपक्खइ जं दव्वं हुइ तं पंडिय! करिज सयगुणियं । चट्टीहरे वि भायं जं लब्भइ तं सई होइ ॥ ४ गामि नयरि देसे जइ नवि लखि पंचास सहसि चट्टी य । सत्तरि सहस उपक्खइ ता तस्स किसा सई होइ॥ ५ जिसा सई भेइज्जइ जित्तिय धण कड्ड तहि स वट्टिज्जा । जुयलं तंक फुसिवि तह पणभागे होति विसुवा य ॥ ६ सहसेति अंतिमंका फुसवि कमे लिहसु दु चउरट्ठ गुणा । ते विसुवाई जाणह एवं दस सहसि लक्खे वा ॥ ७ जइ चट्टी मूलधणं दु लक्खं नव सहस पंच इ[? ग] तीसा । चउक सई भेइज्जइ ताम धणं.कित्तियं हवइ ॥ ८ (१) अथ देशांकेधणरासि अंतिमंको फुसिज तं बिउण विसुव दसमंसो। दो अंतिमंक फुसिए पणंसि तह विसुव सयमंसो ॥ ९ रासिरस अंतिमंके विसुवा विसुवंसगाइ सेस कमा । आइम अंकाणढे दम्मा जाणेह वीसंसे ॥ १० Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-चतुर्थाध्याय (२) अथ मुकातयमाह मुक्कातइ जं वरिसे तं गय दिण गुणवि वरिस दिणिभायं । पंचि सहस्सि मुकातइ नवि दिणि चउमासि किं हवइ ॥ ११ जित्ता दम्म मसेलिय दिजहि मासिक्कि ते तिभागूणा । सेस हवंति विसोवा दिवसे दिवसे मुणेयव्वा ॥ १२ (३) अथ धावकगतो लहुगइदिणसंखगुणं लहु-दीहगइस्स अंतरे भायं। लडदिणेहि मिलंती अप्पगई लहुगई दो वि ॥ १३ चउ जोयणीय पच्छा नवम दिणे सत्त जोयणी चलिओ। तस्स बहोडण हेऊ मिलेइ सो कइय दिवसेहिं ॥ १४ पंचाइ दु वटुंता जोयण दिवसेण चल्लए करहो । जोयण चउदस करही कित्तिय दिवसेहि सो मिलइ ॥ १५ आइ - मज्झंत रासी अंताओ आइ हीण मज्झेण । भाए लद्धं बिउणं एगजुयं करह दिणमाणं ॥ १६ (४) अथ संवत्सरानयनमाहविक्कमाइ जे वरिस मास चित्ताइ करिवि दिण, छ मुणि नंदें लडहिय मास ते वच्छर जुय पुण, नेव निहींण रस वरिस मास दुइ दुइ दिण ऊणय, ताजिय वच्छरु हवइ मास मुहरम माईणय, ताजिक्कु पुणेवं करिवि पर अहिय मास सोहेवि पुणि । नेव मुंणि छ वरिस दुइ दिण अहिय पंडिय! विक्कमसमउ भणि ॥१७ ॥ इति देशाधिकारकरणसूत्रं सम्मत्तं ॥ . (५) अथ वस्त्राधिकारमाह जुज पट्टोलय अतलस साराई पट्ट वत्थ एमाई । कर वासक ताणाई इय सुहमा थूल साडाई ॥ १८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर - फेरू-विरचित सय हत्थि सयल कप्पडि सीवाणि कर दिवदु एगु कत्तरणे । इग दुतिय कोर धुवणे घट्ट पट्टयाइ कमे ॥ १९ सयल खीमेहिं कप्पड समसंख नवार किंचि हीणहिया । दहली जविणा सव्वे थंभाउ सवाइया उदए । २० उदयरस वार विसुवा कमरतले अट्ठ उवरि सव्वेहि । इग भि दु थंभे वा इत्तो सिय कप्पडं भणिमो ॥ २१ सव्वाण पडतोवर जुद्ध उदए गुणिज्ज जा कमरं । पिट्ठी वित्थर दीहं हय अहंस हिय जय वत्थं ॥ २२ मझिम डंडस्साओ चउणं खीमस्स कडयलपवेसो । तस्स दिवड़ा परिही बारसमंसूण चउरंसे || २३ च कर मज्झिम थंभं सोलस कमरं च परिही बावीसं । तस्स खीमस्स पंडिय ! किं जायइ वत्थपरिमाणं ॥ २४ अहंस तह य वट्टे तिउणं कमरं तयद्ध जय दउरं । इय घर हय सीमाणय थंभाउ तनाव चउगुणियं ॥ २५ तंगोटी इग थंभा हिहुवर जुयद्ध उदय गुण वत्थं । थंभा परिहि पणगुण दुगथंभा मज्झ पड अहिया ॥ २६ खरिगह मंडव उवरं उभयदिसे जि कर तस्स अद्भुदयं । तत्तो पणगुण परिही परिहिदलं उदय गुण वत्थं ॥ २७ भित्तिवलय पड दोन्निव दुवार पड बेवि उदयदीहगुणा । इय वत्थं अद्धद्धं मंडव सह वार तह भित्तिं ॥ २८ वारिगह खडटुंसा च्छत्तागारा य· मंडवागारा । एयाणं च तरक्का हिडवर जुद्ध उदयगुणा ॥ २९ इग थंभ छगुण परिही दुथंभ परिही य मज्झ पड अहियं । अहंस जुत्त उदए थंभाउ तनाव पंचगुणा ॥ ३० मीराण वारिग हुइ चिलंग चउरस दु एग थंभा य । सम उदय चउण कमरं विउण परिहि अट्ठमंस हियं ॥ ३१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-चतुर्थाध्याय वल्लहलि पत्तवल्ली झुंबुक्काकलिय मज्झ झल्लरिया । एयाण य कप्पडओ तह तइय पुडस्स पुण अहिओ ॥ ३२ छायापड चंदोवय सराइ चाजमणियाइ भित्तिपडा । वित्थर दीहे गुणिया सुझंति विणोयचित्त विणा ॥ ३३ दहली जरूइ ताका छज्जय कुत्राय चरख पडिरूवा । छत्तालंव निसाणा ते टिप्पपमाणि नायव्वा ॥ ३४ उद्देस सियावणियं सइ गजि नावार दम्म सोलसगं । चित्तं गजिकि पच्छा दहली जसराइ चेति दुगं ॥ ३५ किमिसं गजिकि चित्ते सुहमे चउवीस थूलि वीसा य । चत्तारि टंक डोरी इग सुत्तं अरुण नीलं वा ॥ ३६ नावार सरज चम्मं नीलारुण कसिण वत्थ तं पयर्ड । सुत्तं नवार सइ गजि निव पउणं इयर सेरद्धं ॥ ३७ . ॥ इति वस्त्राधिकारे गाहा २१ सम्मत्ता॥ थ जंत्राधिकारकरणसूत्रमाहदिणयरग्गि रस तेरे चॅउ[द]सिंदिये जुगें ईसर । इय कुट्ठिहि ख(०) इगाइ इगिगि समहिय लिहि मणहर । कैर निहि सोलर्स तह य उवैहि वसु तिहि दिसि ससिहर । इच्छादलिरू हरिवि कमिण ठवि जंतु मुणहि पर । जा सुन्नु वारि ताणुक्कमिहि जंतरि तबिवरीउ धुय । जा सव्वि गेहि विसम हव सम, सम-विसमाइ समंक जुय ॥३८ .. ॥षट् गृहे जंत्र॥ दाहिण कन्नगाई सत्तहि य खडाइ पंचहि य वामे । देते चउँतीस सुरै सरे मुँणि उणवीस ठार पणेवीसं ॥ ३९ . पणतीस ति चउँ हुँ रवी तेरहे जिण तीसें रिखे सगँवीसं । मणु सतरह दसैं नवं नवं तेविसे पुन्बाइ जन छगिहं ॥ ४० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर - फेरू- बिरचित लिहि धुराउ पाओलि अ अह मेल पुणुवरिम | पायओलि इय कमिहिं जाव पा जंतु हवइ इम । मज्झिमद्धु उवकमिह चरिम पा जंतु पुणु विकमि । चउ गिहाई चउ वुडि जंत इय हुइ इग चय कमि ॥ ४१ तिहि" निहि' रर्सं जुर्यै वसुं करें तेर गरे । सैसि मुणि रवि” मर्णै दिसि कर्ले गुण सरे अधु पर चहु चहुठे चउसठि गिहि | रूति दे च कमिऽणुकमेगाइ लिहि ॥ ४२ १० 1 ६६ अथ विषमजंत्रानयने ख इगाइ जहिच्छोलिंगिह संखिग जुय सपुत्र पढमोलिं । ततो मज्झिम मज्झिम गिहाउ गिह जुत्त सुकमेहिं ॥ ४३ धुरि पंति चरिम अंकाउ जत्थ अहियंकु हवइ तित्थ गिहे । सव्वगिहसंख सोहिवि लिहिज्ज इय विसमगिहजंतं ॥ ४४ जुर्गे हे लोयणे हरनयणै इंदिये मुणि अहिं । सैसि र जंतु इगाइ लिहि, इक्कासी कुट्ठेहि ॥ ४५ ॥ इति जंत्राधिकारो सम्मत्तो ॥ गाहा ८ ॥ अथ प्रकीर्णकाधिकार माह (१) कुसुमानयनमाह दुगुणा दुगुण जि उच्चरहि, वार वार तिहु जुत्त । अह जइ को कुसुमु न उब्बरइ, ता धुरि तिन्नि निरुत्त ॥ १ इक्क सुरगिहु चहु दुवारेहिं, पत्तेय तहि जक्खु इगु वार तुल्ल तसु मज्झि सुरवइ । धम्मउ कुसुमाण वि वहल सयल बिंब अद्धद्ध सुठवइ । जंतावंत इगेगु दे सवहि वारि जक्खस्स । सेस वीस जहि उव्वरहि सव्वे कई हुइ तस्स ॥ २ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार चतुर्थाध्याय (२) अथ आम्रानयनमाह जे पत्ता ते अंसि गुणिजहि, आइ हीण करि बुड्डि हरिजहि । लडा बिउण रूवसंजुत्ता, पंडिय ! ते जण गया निरुत्ता । सेढिय संकलिये फलसंखा, लद्ध विहत्ते हुइ फलसंखा ॥ ३ अंसु अट्ठमु कटक मज्झाउ, . गउ अंब तोडण वणिहि भक्खणत्थ आएसि राणय । चउरादि वड्त छह एण परिहि सव्वेहि आणिय । जं कटक्कु थिउ लद्ध तिहि, वीस वीस सव्वेहि। कय जण गय कित्तउ कटकु, कई अंबाणिय तेहि ॥ ४ (३) अथ जमात्रिक वरिसोला नयनमाहगुणक थप्पिवि कमिण एगाइ, उवरुप्परि गुणिवि गुणि वार वार इकिक्कु दीजइ । वरिसोला जे हवइ सव्वि तेइ पढमह भणिज्जहि । तेवि अंक रूवाह विणु, पुव्व परिहि गुणियंति। हुइ ति ति भक्खहि सव्वि जण, पंडिय इउ पभणंति ॥ ५ गय जमाइय पंच सासुरइ, वरिसोलाऽणुकमिहि दियइ सासु तट्ठिय भरेविणु। तहं भुंजिय रहहि जि ते बिउण ति चउ पण गुण करेविणु। अंतिम सहि भक्खहि अवरि, भणहि एण बहु खद्ध । सविहि एगु सा भक्खिया, कइ थाकइ कइ खद्ध ॥ ६ (४) अथ वस्त्रफलानयनमाह जे जण महंति हत्थं ते चउण गुणिज्ज लद्ध वत्थकरे । तं वत्थु दीहु वित्थर कर जण गुण चउण सव्वि जणा ॥ ७ वर वत्थु इगु चउदिसि इगेगु करु ठाहिउ तिहुं तिहु जणेहिं ॥ नव नव करि जणि पत्ता कइ जण वरवत्थु कइ हत्था ॥ ८. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित (५) अथ करभगत्यामाह आइ-मझंतरासी अंताओ आइ हीण मझेण । भाए लडं बिउणं एगजुयं करह दिणमाणं ॥ ९ चउ जोयणाइ तिय तिय वडूंतो निच्च चल्लए करहो । सोलस जोयण करही कित्तिय दिवसेहि सा मिलइ ॥ १० (६) अथ विपरीतोद्देशकमाह सेसूण जुत्त वगं गय अहियं तस्स मूलभाय गुणं । गुणयारेण विहत्तं सो अमुणिय रासि नायव्वो ॥ ११ पंचगुण नवविहत्तं तवग्गं नवहियस्स मूलं च ।। दो हीण तिन्नि सेसं विविरिय उद्देसगो रासी ॥ १२ (७) अथ पत्रचिन्ताज्ञानमाह सत्तरि गुण तिउनेहिं पंचहि इगवीस पनर सत्तेहिं । पिंडेण सउ पणुत्तरु देवि हरिवि मुणह परचित्तं ॥ १३ चिंतिय सुयकरसहियं बिउणिगि जुय पंचगुण सुयासहियं । दह गुण ख पणक रूवं सेस कमे मुणह सुन्न विणा ॥ १४ (८) अथ मर्दितांकज्ञानमाह सयलंकपिंडु सोहिवि रासिस्संताउ सेसपिंडाओ। जं हीणु नवसु पाडइ पूरइ मलियंकु सुन्नु नवं ॥ १५ (९) अथ सदृशांकानयनमाहएगाई य नवंता अट्ट विणा इच्छियंकु नवि गुणिओ। पुव्वंकरासि गुणिया हवंति एगाइ सरिसंका ॥ १६ (१०) अथ गोसंख्यानयनमाह उवराओ जा हिट्टि हुई, ताणुक्कमिहि ठविज । उवरुप्परि सब्वेवि गुणि, गावि एम जाणिज ॥ १७ चहुं दुवारिहिं गावि नीसरिय, गय पाणी पंच सरि सन्त रुक्ख तलि ते बइट्ठिय। . आवंति वारिहि नविहि पइसि छच्च वाडिहि निविट्ठिय । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार - चतुर्थाध्याय रक्खहि अट्ठ गुवाल तहं, सारिच्छिय सहि तेवि । पंडिय ! कित्तिय गावि हुई, तम्मि नयरि सव्वे वि ॥ १८ (११) अथ गोदुगुघवंटनमाह गो जण समभागेणं जणसंख इगाइ ठवि कमु कमसो । जा अंतिम गोअंकं समपहे दुहु अंकसमं ॥ १९ इति श्रीचन्द्राङ्गजठकुर फेरूविरचिते गणितसारे देशाfuareer: चत्वारि (१रः) अधिकारानि (? राः) सम्मत्ता ॥ गाहा ६४ ॥ अथ उद्देशपंचगं सूत्रमाह पणमेविणु सिट्टिकरं भणामि निष्पत्तिपंचगुसं । धन्निक्खुचुप्पडाणं देसकरग्घाणमाणाणं ॥ १ सव्वत्थ अन्न निप्पइ भूमिविसेसेण अंतरं बहुयं । दिल्लिय आसिय नरहड वरुण पएसा इमं जाण ॥ २ aara ata- वित्थर विग्गहया गुणिय हवइ भूसंखा । वीस कम दीह - वित्थरि अह कंविय सट्ठि वीगहओ ॥ ३ अन्नरस फलं जायइ निप्पन्ने वीस विसुव वीगहओ । सट्ठि मण धन्न कुव चउवीस मउट्ठ जाणेह ॥ ४ चउला मण बावीस तिल सोलस मुग्ग मास अट्ठारं । वीस कंगुणिय चीणय पनरह कूरी सवाईया ॥ ५ सोलस मण कप्पासा चालीस जुवारि दस सणो तह य । इक्खु सवाणिय साहा इत्तो आसादियं जाण ॥ ६ गोहुव पणयालीसं कलाव मस्सूर चणय बत्तीसं । जव छप्पन मणाई सरिसम अलसीइ करड दसं ॥ ७ वटुला तोरि कुलत्था चउदस मण होंति सव्त्र कण तुलिया । जीरा धणिया दस मण पर सिक्य मज्झि गणियंति ॥ ८ ६९ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित सव्वे वि वेसवारा हालिम मेथी य सग्गवत्ती य । • कोर धन्नाइ सेंक्कय सउ दम्म करस्स विग्गहए ॥ ९ ॥इति धान्योत्पत्तिफलम् ॥ नव खारि पचास मणी इक्खुरसो तस्स पंचमंसु गुलो । सकर छटुंसे हुइ सोलसमंसे य खंडा य ॥ १० तस्स दिवड्डा रव्वा हीणाहिय पुण हवेइ नीरवसा । पुणु इत्तियं नवि चलइ जा भणियं दिट्ठ पत्तेणं ॥ ११ खंडाउ तिभागूणा निवात वरिसोलगा भवे पउणा। अइचुक्ख सेस सीरो इग वारा होइ खंडसमा ॥ १२ ॥ इति इक्षुरसफलम् ॥ तिल-सरिसम करड मणे तिल्लं नव सत्त पंच विसुव कमे । दुद्धि अडंसु नवंसो लूणिउ तत्तो य पउण घिओ ॥ १३ ॥ इति स्नेहफलम् ॥ दसि छालीएहि गावी महिसी तविउण चहु वयल्लि हलो। चुल्हि पवाणे कुढिया नाविय वलहार महर विणा ॥ १४ 'देवइ कन्नचला तह नीली कविलीय गो अदंतीय । विप्प सवासणि य पुणो करं चरं नत्थि एयाणं ॥ १५ टंका बत्तीस हलो तिविह कुढी एग दीवढ दु टकीय । महिसिक्कु गावि अद्धो वुड्डिय वसहस्स टंको य ॥ १६ इय भणियं उद्देसं हीणाहिय होति चट्टियणुसारे । अद्ध तिहा पा अन्नं तिण चर पा हीण भा सकरं ॥ १७ ॥ इति देशकरफलम् ॥ जे पाई दम्मक्किहि भवंति ते तिउण निच्छए सेई । अन्नेवि विउण पाई टंकइ इक्केवि जाणिज्जा ॥ १८ जि किवि सेर भणियहि दम्मिकिहि, ते वि सवाया मण टंकिकिहि । मणह भाउ पंचमु पाडिजहु, सेस सेर दम्मिकि मुणिजहु ॥ १९ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-चतुर्थाध्याय जित्तिहि कितिहि दम्मिहि पंडिय ! मणु एगु वक्खरो होइ।। तस्सद्धेहिं विसोइहि सेरो इको वियाणाहि ॥ २० . गणिमवत्थूण जित्तिहि दम्मेहिं होइ कोडिया इक्का । तावइय विसोवेहिं लब्भइ एगा गणिम वत्थू ॥ २१ ॥ इति अर्घस्य फलम् ॥ अथ मानानिवट्टस्स य विखंभं तिउणं तह छट्ठमंस जुय परिही। सा पाय वित्थरे गुणि जं जायइ तं जि खित्तफलं ॥ २२ -दर्शनं (६) परिधि १९ क्षेत्र फलं २८ इति वृत्तं ॥ वट्टाओ चउरंसं बारस विसुवा हवेइ सविसेसं। चउरंसाओ वटुं तह वट्टड पंचमंसूणं ॥ २३ तिक्कोणयाओ वटै सड्डदुवालस विसोव हुइ खित्तं । वट्टाओ य तिकोणं विसोवगा सत्त अडहिया ॥ २४ ०॥२७ ०१ (०॥१ ॥२॥ ॥२०॥ ॥ इति क्षेत्रमानम् ।। विशेष एषां दर्शनमाह गोलस्स य उदयघणं पउणं पउणं व हवइ पाहाणं । परिहिचउत्थं भायं हयपरिहि नवंसजुयखित्तं ॥ २५ न्यास (६) लब्धं गोलकफलं १२० क्षेत्रफल १००ऽऽ६, घनि २१६ पउर्ण १६२ पुणु पउणं १२० फलं ॥ परिहि ४॥ गुणित १९ जात ९० । अस्य नवांस १० एवं १०० क्षेत्रफलं ॥ घण कविय इक्केणं ढिल्लिय संभूय पाहणं सव्वं । पन्नासमणं जायइ तुलिओ चउवीससय तुल्ले ॥ २६ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ठकुर - फेरू - विरचित वंसी अडयालीसं सट्टि ममाणीय कसिणु बासट्ठी । जज्जावर कन्नाणय उणवन्न कुडकुडो सट्ठी ॥ २७ मट्टी मण पणवीसं तुसंन्न मण अटुंबारस वर्णन्नं । दह मण तिल घयं तह सोलस मण लवण उद्देसं ॥ २८ राजुइगु तिजणसहिओ वारस गज भित्ति पाहणे चिणइ | चउदससयाई इट्टा उदेस जल गग्गरी तीसा ॥ २९ सगवीस मणा हक्कं नव चुन्नं बिउणु खोरु इक्कि गजे । पाहाण भित्तिचिज्जइ नव मणइ इमेव जाणेह ॥ ३० लेवे केवण चुन्नं पण मणं पायसेर सण सहियं । तइयंस खोर जुत्तं तलवट्टे अद्धु जलठाणे ॥ ३१ ॥ | छाणय मण चालीसं तह कक्कर सट्ठि पक्क हुइ चुन्नं । रक्ख पवाहिय सट्ठी अरक्ख चालीस कलिया य ॥ ३२ उद्देस पंचगमिमं चंदासुय फेरुणा अओ भणियं । जह देसकरुप्पत्ती चट्टिय समए मुणिज्जेइ ॥ ३३ ॥ इति उद्देसपंचगं सम्मत्तं ॥ ॥ इति परमजैन श्री चन्द्राङ्गजठर फेरूविरचित गणितसार कौमुदीपाट्यां सूत्रं समाप्तः (तम्) | ॥ सर्वे वस्तुबंध तथा गाथा मिश्रित ३९९ ॥ लिखितं चैत्र सुदि ५ संवत् १४०४ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितसार-बीजक सूत्र सं० गाथा तथा वस्तुबंध गणित ३११ । गा०१५ मूल प्रबन्ध स्थापना। गा० २ भिन्न वर्गस्य गणना १३ गा० ७८ परिकर्माणि पाटी २५ , १भिन्न वर्गमूल गपाना १४ गा० ५संकलित उत्पत्ति विधि १ " २ भिन्न घनस्य गणना १५ गाह ६विमल कलित गणना २ , १ भिन्न घन मूल गणना १६ ६ गुणाकार भेद २ गणना ३ ९ त्रैराशिक गणना ४ १ भागाहर गणनोत्पत्ति १७ , ३ वर्गसं० उत्पत्ति गणना ५ ६ पंच राशिक गणना १८ , २वर्गमूल सं०उत्पत्तिगणनाद १ सप्त राशिक गणना १९ ४ घन उत्पत्ति गणना ७ १ नव राशिक गणना २० , ३ घनमूलोत्पत्ति गणना ८ १ एकादश राशिक गणना २१ , ४ अभिन्न परिक्रम गणना ९ ,, ५ व्यस्त त्रैराशिक गणना २२ ,, ३ भिन्न संकलित गणना १० , ४ क्रय विक्रय भेद गणना २३ , २ भिन्न गुणाकार गणना ११ , २ भांड प्रतिभांड गणना २४ , २भिन्न भागाहर गणना १२ , २ जीव विक्रय गणना २५ ॥ इति गाथा ७८ परिकमोणि २५ सूत्रस्य बीजकं यथा शुभमस्तु । . अपरभाग जाति ८ अष्ट नामानि . . सूत्र गाथा०१७ १ कलासवर्ननु गाथा २प्रभागजाति गाथा । ३ भाग भागजाति गा० ४ भागानुबंधाजा० ५भाग प्रवाह गणना ६भाग मातृ जाति गा० ७ वल्ली सवर्णनु गाथा ८ स्थंभोइस जाति गाथा narmadar: २ दुतीक सेढी व्यवहार गाथा ९ गा० २ सेढी व्यवहार गणित , १ नष्टाद्यानयन , १ नष्टोत्तरानयन , १ नष्टगच्छानयन , २ संकलितैक्यानयन , १ वर्गकघनानयन , १संकलित वर्ग घनक० ७ Goc wom अपर व्यवहार ८ गणना। सूत्र गा० १.०४ १ प्रथम मिश्रक व्यवहार गा० २५ गा० २ मिश्रक गणना प्रथ. १ , २भाव्यक गणना दुती २ , २ एगपत्री करण सूत्र ४प्रक्षेपक ४ सम विसम २ सुवण्णी व्यव० ४ सुवर्ण भिन्नो ५ नष्ट सुवर्ण वर्ण अष्टम ८ ३ क्षेत्र व्यवहार सूत्र गाथा १९ १ समचउरस २ दीर्घ चउरस ३ एकादि सालंब ४ त्रिकोण क्षेत्र ५पंचकोण क्षेत्र ६ त्रिकोण विकट ७ वृत्तमंडल ८धणुहाकार ९गजदंताकार १० वज्राकार ११ मृदंगाकार १२ नानाविधि GScm Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ४ खात व्यवहार गाथा १५ गा० ४ खातनानाविधि गणन 39 "" " "" 39 35 33 ५ चिति व्यवहार गाथा १९ गा० १ मूलप्रबंध गा० ४ भित्ति ईटपाषाण ३ गोमट चिणण ग० " 33 39 35 39 ३ कूपस्य फलानयन ६ पाषाण फलानयन १२ पाषाण तोल्य गणन ——0— ठकुर - फेरू - विरचित गणितसार- बीजंक २ पायसेवभित्ति २ मुनारा गणित संख्या २ ताक गणना सुद्ध १ सोपान गणना १ पुलबंधनग० १ कूप संगणना १ वापीसंगणना O १ २ ४ १ २ ४ ५ ७ ८ ९ ६ क्रकच व्यवहार गाथा ९ • काष्ठ दीर्घ वि० करवत्ती छेद० नानाकाष्ठ एता गाथा ९ ७ रासि व्यवहार गाथा ५ अन्न रासि दीर्घोदय विस्तर गणितसारि ८ छाया व्यवहार गाथा ४ ● छाया साधना दिगसाधना ॥ इति अष्ट व्यवहार सूत्र गाथा १०४ ॥ ० -✪ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर - फेरू-विरचित वास्तु सार । [ प्रथमं गृहलक्षणप्रकरणम् । ] नमो जिनाय । सयलसुरासुरविदं दंसण-वैन्नाणुगाइ नमिऊणं । पयरण ति वत्थुसारं जहुत्त संखेवि भणिमो ह ॥ १ गेहे पनरहिय सयं, बिंबपरिक्खस्स गाह तीसाईं । पासाइ सट्ठि भणियं, पणहि सय दुन्नि सव्वे ॥ २ ॥ दारं ॥ वत्तीसंगुल भूमी खणेवि पूरिज्ज पुणवि सा गत्ता । तेणेव मैट्टिएणं हीणाहिय सम फलं नेयं ॥ ३ अहव तं भरिय नीरे ँ चरणसयं गच्छमाण जा सुसइ । ति-दु-इग अंगुल कमि धर्र अहं मज्झिम उत्तमा जाण ॥ ४ सिय विप्प, अरुण खत्तिय, पीयल वइसाण, कसिण सुद्दाण । मट्टियवन्नपमाणे सुहया विवरीय असुहयरीं ॥ ५ ॥ इति भूमिपरीक्षा ॥ समभूमि दुकर वित्थरि दु रहेचकस्स मज्झि रवि १२ संकं । पढमंत छाय गब्भे जमुत्तरा अद्धि उदयत्थं ॥ ६ पाठान्तरे - १ वण्णाणुगं पणमिऊणं । २ हाइ वत्थुसारं संखेवेण भणिस्सामि । ३. इगवन्नसयं च गिहे बिंबपरिक्खस्स गाह तेवन्ना । तह सत्तरि पासाए दुगसय चउहुत्तरा सव्वे ॥ २॥ ४ चडवीसंगुल | ५ मट्टियाए । ६ फला नेया । ७ अहसा भरियजलेण य । ८ भूमी । ९ अहम । १० लिय विप्पि अरुण खत्तिणि पीय वइसी अ कसिण सुद्दी अ । मट्टियवण्णपमाणा भूमी नियनियवण्ण सुक्खयरी ॥ ११ दुह । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ उक्कुर -फेरू-विरचित ॥ दिगुसाधनाचक्रं ॥ समभूमी तिट्ठीए वहँति छ अट्ट कोण कक्कडए। कूण दु दिसि सतरंगुल मज्झि तिरिय हत्थु चउरंसे ॥७ चउरंसिक्किक्कि दिसे बारस भागाउ पंचे भा मञ्झे । कूणेहिं सड्ड तिय तिय एवं हुइ सुद्ध अटुंसं ॥ ८ . ॥ इति भूमिसाधना ॥ चउरंस अदिसिमोही अवम्मियाऽफुट्ट तिदिणवीयरुहो । अक्कल्लर भूमिसुहा पुव्वेसाणुत्तरंबुवहाँ ॥ ९ वम्मइणी वाहिकरा रोरूसर फुट्टभूमि मच्चुयरी । ससल्ला बहुदुक्खा तं वुच्छं सल्लनाणमिम ॥१० व क च त ए है स प य इय नव वन्नी कमेण लिहिणं । नव कुट्ठा भूमिकया पुवाइ मुणह पन्हेणे ॥ ११ व प्पन्हे नरसल्लं सड्डकरे मिचुकारगं पुव्वे । क प्पन्हे खरसल्लं अग्गि दुहत्थेहि निवदण्डं ॥ १२ । दाहिण च प्पण्हेणं नरसल्लं कडितलंमि मिचुकरं । त प्पन्हिसाण नेरइ डिंभाण य मिच्चु सड्डकरे" ॥ १३ ए पन्हे अवरदिसे सिसुसल्लं सडहत्थि परदेसं । वायवि ह पन्हि चउकरि अंगारा मित्तनासयरा ॥ १४ १ अट्ठ। २त्तरंगुल। ३ भाग पण। ४ इय जायइ । ५दिण तिग बीयप्पसवा. चउरंसाऽवाम्मिणी अफुट्टा य। ६ भू सुहया । ७°बुबुहा । ८ वम्मइणी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ रोरकरी। ___ अइफुट्टा मिचुकरी दुक्खकरी तह य ससल्ला ॥ * ९ हसपजा। १० वण्णा। ११ लिहियव्वा। १२ पुब्वाइ दिसासु तहा भूमि काऊण नवभाए ॥ ११॥ अहिमंतऊण खडियं विहिपुव्वं कन्नाया करे दाओ। आणाविजइ पण्हं पण्हाइम अक्खरे सल्लं ॥१२॥ १३ अग्गीए दुकरि। १४ जामे । १५ तप्पण्हे निरईए सहकरे साणु सल्लु सिसुहाणी ॥ १४॥ १६ पच्छिमदिसि ए पण्हे सिसुसलं कर दुगम्मि परएसं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बास्तुलार-प्रथमप्रकरण ७७ स पन्हि उत्तरेण ये दय वरसल्लं कैंडीइ रोरकरं । पप्पण्हे गोसल्लं सडकरीसाणि धणनासं ॥ १५ य प्पन्हि मज्झकुठे केसं छारं कवाल अइसल्ला । वच्छत्थलप्पमाणा मिञ्चुकरा होंति नायव्वा ॥ १६ इय एवमाइ अन्निवि जे पुव्वगयाइं होंति सल्लाई । ते सव्वे वि य सोहिवि बच्छबले कीरए गेहं ॥ १७ तं जहा। वच्छचक्रं कन्नाइं तिन्नि पुवे धणाइ तिय दाहिणे भवे वच्छो । पच्छिम मीणाइ तियं उत्तर मिहुणाई तिय णेयं ॥ १८ गिहभूमि सत्तभायं पण ५ दह १० तिहि १५ तीस ३० तिहि १५ दस १० द्ध ५ कमे। इय दिणसंखे चउद्दिसि सिरि पुंछ समंकि वच्छठिई ॥ १९ अग्गिमओ आयुहरो धणक्खयं कुणइ पच्छिमो वच्छो । वामो य दाहिणो वि य सुहावहो होई नायवो ॥ २० धण मीण मिहुण कन्ने रवि ठिय गेहं न कीरए कहवि । तुल विच्छिय मेस विसे पुव्वावर सेस सेस दिसे ॥ २१ ॥ इति वत्सं ॥ सोय १ धण २ मिच्चु ३ हाणी ४ अत्थं ५ सुन्नं च ६ कलह ७ उव्वसियं ८। पूया ९ संपई १० अग्गी ११ सुह च १२ चित्ताइ मासफलं ॥ २२ ॥ इति गृहारंभे मासफलाफलम् ॥ १ उत्तरदिसि सप्पण्हे। २ दिय। ३ कडिम्मि। ४ करे धणविणासमीसाणे । ५ जप्पण्हे मज्झगिहे अइच्छार कवाल केस बहुसल्ला। वच्छचउलप्पमाणा पाएण य हुंति मिझुकरा ॥ १७ ॥ ६ कन्नाइतिगे पुव्वे वच्छो तहा दाहिणे धणाइ तिगे। पच्छिमदिसि मीण तिगे मिहुण तिगे उत्तरे हवइ ॥ १९ ॥ ७ भाए। ८ दहक्खकमा। ९ संखा चउदिसि । १० आउहरो। ११ हवइ । १२ धण मीण मिहुण कण्णा संकंतीए न कीरए गेहं। १३ संपई। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित । कन्या तुल वृश्चि | आ | ||५|१०|१५|३०|१५|१०|५ इसाणा पर्व आग्नेय IF मिथुन कर्क सिंह न | १०/१५/३०/१५१०|| १०/१५३०/१५१० धन मकर कुंभ धननाश नृपदण्ड उत्तर य ।। दक्षिण मृत्युकर । दरिद्र मृत्यू वायव्य पश्चिम नैऋत्य काकाकाका मित्तनास परदेश डिम्भमृत्यू वइसाहे मग्गसिरे सावणि फग्गुणि मयंतरे पोसे। सियपक्खे सुहदीहे कए गिहे हवइ सुह रिद्धी ॥ २३ सुहलग्गे चंदबले खणिज्ज नीमा अहोमुहे रिक्खे । उड्डमुहे नक्खत्ते चिणिज्ज सुहलग्गि चंदबले ॥ २४ सवणऽद्द पुस्सु रोहिणि ति उत्तरा सय धणिट्ठ उड्डमुहा । भरणिऽसलेस ति पुव्वा मू-म-वि कित्ती अहोवयणा ॥ २५ पुव्वुत्तर नींवतले घिय अक्खय रयण पंचगं ठवियं । । सिलानिवेसं कीरइ सिप्पीण समाणणापुच्वं ॥ २६ लग्नं यथाभिमुलग्गे बुहदसमे दिणयरु लाहे ११ विहप्पई किंदे श४७१। जइ गिहनींवारंभे ता वरिससयाउँ तम्मि गिहं ॥ २७ दसम चउत्थे गुरु-ससि-सणि___ कुज-लाहे ११ ( वरिस. ताम असी । इग ति चउ छ मुणि. १।३।४।६।७ कमसो गुरु-सणि-सिय-रवि-बुहंमि सयं ॥ २८ १ दिवसे । २ नीमीउ। ३ नीम । ४ ठविउं । ५ बिहफई। ६ नीमारंमे । ७ सयाउयं हवई। ८ अलच्छि वरिस असी। ९भिगु । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार- प्रथमप्रकरण सुकुदए रवितइए मंगलि छट्ठेसे पंचमे जीवे । इय लग्गकए गेहे धैण-कण दुसय वरिसाऊ ॥ २९ सुगिहत्थो ससिलग्गे गुरुकिंदे बलजुए विद्धिरौ । करट्ठम अइअसहा सोमा मज्झिम गिहारंभे ॥ ३० इक्केंवि गिहे' निच्छइ परंगेहि परंसि सत्त-वारसमे । हिसामि वणना अवले परहत्थि हुईं गेहं ॥ ३१ बंभण सुक्क-बिहफ रवि-कुज खत्तिय मैंयंकु वइसो य । बहु सुदु मिच्छ सणि तमु गिहसामिय वन्न जाणेह ॥ ३२ कुरा ति छ-गारसगा सोमा किंदे तिकोणगे सुहया | १|४|७|१०|९/५ जइ अट्ठमो य कूरो अवस्स गिहसामि मारेइ || ३३ ॥ इति गृहनींव निवेश लग्नम् ॥ चित्तणुराह ति उत्तर रेवइ - मिय-रोहिणी य विद्धिकरा । मूलद्दा असलेसा जिट्ठा पुत्तं विणासेइ ॥ ३४ भैरणी महा ति पुव्त्रा गिहसामिया विसाह तियनासं । कित्तिय अग्गिभयंकरे गिहप्पवेसे य ठिइ समए ॥ ३५ तिहि रित ४/९/१४ वार कुज- रवि चरलग्ग विरुद्ध जोय दिणचंदं । वज्जिज्ज गिहपवेसे सेसा तिहि - वार- लग्ग सुहा ॥ ३६ किंदेऽट्ठमंति कुरा १४/७/१०/८/१२ अहा ति छगारहा ३ | ६ | ११ सुहा भणिया । सव्वे अट्ठम असुहा इय लग्गं गिहपवेसस्स ॥ ३७ ७९ ४ करो । ५ गहे । १ अ । २ दोरिससाउयं रिद्धी । १३ बलजुओ । ६ होइ हि । ७ मयं वइसो अ । ८ वण्ण नाह इमे । ९ सयल सुहजोयलग्गे नीमारमे य गिहपवेसे अ । १० पुव्वतिगं मह भरणी गिहसामिवहं विसाहत्थी - नासं । ११ समत्ते । १२ किंदु दु अडत कूरा । १३ किंदुतिकोणतिला हे सुहया सोमा सभा सेसे। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर-फेरू-विरचित सूरु गिहत्थो गिहिणी चंदु धणं सुक्कु सुरगुरू सुक्खं । जो सबलु तस्स भावं सबलं हुइ नत्थि संदेहो ॥ ३८ ॥ इति गृहप्रवेशलग्नं ॥ . . राया १ सेणाहिवई २ अमच्च ३ जुवराय ४ अणुज ५ रण्णीणं ६ । नैमित्तिय ७ विजाण य ८ उवरोहिये ९ पंच पंच गिहा ॥ ३९ एगसयं अट्ठहियं चउसट्ठी सट्ठि असीअ चालीसं। तीसं चालीस तिगे कमेण करसंख वित्थारो ॥ ४० चउ छच्च अट्ठ तिय तिय अट्ट छ तियगेसु अंसजुयदीहे। सेसगिहाण य माणं वित्थाराओ मुणेयवं ॥ ४१ अड छच्च चउ छ चउ छह चउ तिय गेहीण हीण सुकमेण । वित्थाराओ सेसा सेसगिहा हुंति एयाणं ॥ ४२ अस्यार्थ यंत्रेणाहहस्त संख्या राजा सेनाधिप अमात्य युवराज अनुज राशीनां नैमित्तिक वैद्य उपरो . विस्तर १०८ ६४।०८०४० ३०४०४०४० || दी २३५ ७४॥ ६॥ १०॥ ५३॥ ३३॥ ४६॥ ४६॥४६॥5 २/ विस्तर १०० ५८ । ५६ । ७४ | ३६ / २४ । ३६ । ३६|3E दीर्घ १२५ ६७॥ ६३ , ९८॥ ४८ | २७ - ४२४२४२ विस्तर ९२ ५२ । ५२ ६८ | ३२ / १८ । ३२ / ३२ ३२ ३ दीर्घ ११५ ६०॥ ६॥ | ९०॥४२॥ २०॥ ३७७ ३७७ ३७is विस्तर ८४ ४६ । ४८ । ६२ | २८ १२ / २८ २८ २८ ४ी १०५ ५३॥s ५४ । ८२॥5 ३७७ १३॥ | ३२॥ ३२॥ ३२॥ऽ ४० ४४ । ५६ । २४ ४६॥ ४९॥ । ७४||s ३२ ६॥ वन्न चउक्कस गिह बत्तीस कराइं वित्थरं भणियं । चउ चउ हीणं सुकमे जा खोडस अंतजाईणं ॥ ४३ १ सूर। २ चंदो। ३ भावो सबलु भवे। ४ पुरोहियाण इह पंच गिहा । ५छ छ छ भाग जुत्त वित्थरओ। ६ सेसगिहाण य कमसो माणं दीहत्तणे नेयं । ७ अड छह चउ छह चउ छह चउ चउ चउ हीणया कमेणेव । मूलगिह वित्थराओ सेसाण गिहाण वित्थारा ॥४२॥ ८ गिहेसु । ९ वित्थरो भणिओ। १० हीणो कमसो। ११ सोलस। ६. ५ २८ । C - Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वास्तुसार-प्रथमप्रकरण दसमंस-अट्ठमंसं खडंस चउरंस वित्थरस्सहिये । दीहं सव्वगिहस्स य दिय-खत्तिय-वइस-सुदाणं ॥ ४४ हस्त विप्र क्षत्रिय वैश्य शूद्र अंत्यज अस्यार्थ पुनः यन्त्रेणाह विस्तर ३२ | २८ २४ | २० १६ दीर्घ ३५६४३२॥ २८ | २५ | १६ | अंगुल सत्तहिय सयं उदए गन्भे य होइ पणसीई। गणियाणुसार दीहे सुगिहालिंदस्स इय माणं ॥ ४५१ पव्वंगुलि चउवीसिहिं वैत्तीसि करंगुलेहि कंवीया । अहि जवि तिरिय गेहं पव्वंगुलु इक्कु जाणेह ॥ ४६ पासाय-रायमंदिर-तडाग-पायार-वत्थभूमाई । इय कंबीहि गणिज्जहि गिहसामिकरहिं गिहवत्थू ॥ ४७ गिहसामिसुहत्थेणं नीम्व विणा मिणसु वित्थर-दीहं। गुणि अटेहि विहत्तं सेस धयाई भवे आया ॥ ४८ धय १धूम २ सीह ३ सोणे ४ विस ५ खर६ गय७ धंखि ८एइअट्ठाया। पुव्वाइ धयाइ ठिई फलं च नामाणुसारेण ॥ ४९ विप्पे धयाउ दिज्जा खत्तिय सीहाउ वइसि वसहाओ। सुद्दाणे कुंजराया धंखायु मुणीण दायव्वा ॥ ५० धय गय सीहं दिज्जा संते ठाणे धओ य सव्वत्थ । गय पंचाइणे वसहा खेडय तह कबडाईसु ॥ ५१ १ गिहाण य । २ इक्विक गइंदं इअ परिमाणं । । इसके बाद मुद्रित में निनोक्त गाथाएं हैं-जं दीहवित्वराई भणियं तं सयलमूलगिहमाणं । सेसमलिंदं जाणह जहत्थियं जं वहीकम्मं ।। ४६ ॥ ओवरय साल कक्खो वराईयं मूलगिहमिणं सव्वं । • अह मूलसालमज्झे जं वट्टइ तं च मूलगिहं ॥४७॥ ३ छत्तीसिं । ४ कंविआ। ५ अट्टहिं जव मज्झेहिं । ६ भूमीय । ७ गणिजइ । ८ गिहसामिणो करेणं भित्ति विणा । ९ साणा । १० अट्ठ आय इमे। ११ खित्ते । १२ सुद्दे अकुंजराओ धंखाउ मुणीण नायव्वं । १३ पंचाणण । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित वावी- कूव - तडागे सयणे अ गओ अ आसणे सीहो। वसहो भोयणपत्ते छत्तालंबे धओ सिट्ठो ॥ ५२ विस-कुंजर-सीहाया नयरे पासाय-सव्वगेहेसु । साणं मिच्छाईणं घंखं कारुयगिहाईसु ॥ ५३ धूमं रसोइठाणे तहेव गेहेसु वह्निजीवाणं । रासहु वेसाण गिहे धय-गय-सीहाउ रायहरे ॥ ५४ दीहं वित्थरिगुणियं जं हुइ तं मूलरासि नायव्वं । वसु ८ हय रिक्ख २७ विहत्तं, गिहनक्खत्तं भवे सेसं ॥ ५५ गिहरिक्खं वेयध्हयं नवभाए लद्ध भुत्तरासि धुवं । गिहरासि सामिरासी छक्कट्ठ दुवार(ल)सं असुहं ॥ ५६ रिक्खं वसु ८ सेस वयं तं च तिहा जक्ख-रक्खस-पिसायं । आयं काउ कमेणं हीणाहिय सम मुणेयव्वं ॥ ५७ . जक्ख वओ विद्धिकरो धणनासं कुणइ रक्खस वओ य । मझिम वओ पिसाओ तहय जमंसं च वजिज्जा ॥ ५८ मूलरासिस्स (मूलंस्स रासि ?) अंकं गिहनामक्खर वयंकसंजुत्तं । तिये ३ सेस मुणहु अंसा इंद-जमा तहय रायाणो ॥ ५९ गिहरिक्ख सामिरिक्खं पिंडं नव सेस छ चउ नव सुहया । मज्झिम दो पढमट्ठा ति पंच सत्ताऽहमा तारा ॥ ६० जह कन्ना-बरपीई गणिजए तह य सामिय गिहाय । जोणि-गणे-रासि-सव्वं तं जाणह जोय(इ)साओ य ॥ ६१ १ मिच्छाईसुं। २ तं नेयं । ३ अट्ठ गुण उडु भत्तं । ४ हवइ। ५गिहरिक्खं चउगुणिों नवभत्तं लद्ध भुत्तरासीओ। ६ सडठ्ठदु। ७ वसुभत्त रिक्खसेसं वयं । ८ आउ अंकाउ कमसो। ९तिविहुत्तु सेस अंसा इंदस-जमंसरायंसा। १० गेहभसामिभपिंडं नवभत्तं सेस छ चउ नव सुहया। मज्झिम दुग इग अट्ठा ति पंच सत्तहमा तारा ॥ ६० ॥ ११ गिहाण । १२ जोणि-गण-रासि पमुहा नाडी वेहो य गणियब्वो। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार प्रथमप्रकरण + मुद्रितपुस्तके एतदन्तरं निम्नलिखिता गाथा लभ्यन्ते ओवरय नाम साला जेणेग दुसालु भण्णए गेहं । गड़ नामं च अलिंदो इग दु तिऽलिंदोह पटसालो ।। ६५ पटसाल बार दुहु दिसि जालिय भित्तीहिं मंडवी हवइ । पिट्ठी दाहिण वामे अलिंद नामेहिं गुंजारी ॥ ६६ जालिय नामं मूसा थंभय नामं च हवइ खडदारं । भार पट्टो य तिरिओ पीढ कडी धरण एगट्ठा ॥ ६७ ओवरय- पट्टसाला - पर्जतं मूलगेह नायव्वं । एअस्स चैव गणियं रंधण गेहाड़ गिहभूसा ।। ६८ ओवर - अलिंद गई गुजारि - भित्तीण पट्टथंभाण । जालिय मंडवाण य भेएण गिहा उवजंति ।। ६९ चउदस गुरु पत्थारे लहुगुरुभेएहिं सालमाईणि । जायंति सव्व हा सोल सहस्स ति सय चुलसीआ ॥ ७० ततो यजं किवि संपवति धुवाइ संतणाईणि । ताणं चिय नामाई लक्खणचिण्हाई वुच्छामि ॥ ७१ ध्रुव १ धन्न २ जयं ३ नंं ४ खर ५ कंत ६ मणोरमं ७ सुमुह ८ दुमुहं ९ । कूर १० सुपक्ख ११ धणद १२ खय १३ अक्कंद १४ विउल १५ विजय १६ गिट्टी ॥ ६२ षोडश गृहम् Ssss घुय 1555 धन्य SISS जय. 11 ऽ ऽ नंद 5 S15 खर 1 SIS कंत S11S मनोरम ।।। ऽ सुमुह 1 Sss | दुमुह 15 51 क्रूर SIS सुपक्ष ॥ ऽ । धणद SS 11 क्खयऊणेहिं गुरु एवं । 5 ।। अकंद | 5 || विउल ।। विजय १ चत्तारि गुरुठविउँ । २ जाव । ८३ वि च गुराइ सुकमे लहुओ गुरु हिट्ठि सेस उवर समा । पुणो पुणो जोम सव्वलहू ॥ ६३ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर-फेरू-विरचित तं धुव-धन्नाईणं पुव्वाइ लहूहिं साल नायव्वा । गुरुठाणि मुणह सुन्नं नामसमं भावे जाणेह ॥ ६४ + ॥ इति षोडशगृहम् ॥ षोडशगृहकोष्ठकानन्तरं मुद्रितपुस्तके एता निम्नगता गाथा लभ्यन्ते। संतण १. संतिद २ वड्डमाणं ३ कुकुडा ४ सत्थियं ५ च हंसं ६ च । वद्धण ७ कब्बुर ८ संता ९ हरिसण १० विउला ११ करालं १२ च ॥ ७५ वित्तं १३ चित्तं १४ धनं १५ कालदंडं १६ तहेव बंधूदं १७ । पुत्तद १८ सव्वंगा १९ तह वीसइमं कालचकं २० [च] ॥ ७६ तिपुरं २१ सुंदर २२ नीला २३ कुडिलं २४ सासय २५ य सत्थदा२६ सील २७। कुट्टर २८ सोम २९ सुभदा ३० तह भद्दमाणं ३१ च कूरकं ३२॥ ७७ सीहिर ३३ य सव्वकामय ३४ पुद्विद ३५ तह कित्तिनासणा ३६ नामा। सिणगार ३७ सिरीवासा ३८ सिरीसोभ ३९ तह कित्तिसोहणया ४०॥ ७८ जुगसीहर ४१ बहुलाहा ४२ लच्छिनिवासं ४३ च कुविय ४४ उजोया ४५ । बहुतेयं ४६ च सुतेयं ४७ कलहावह ४८ तह विलासा ४९ य ॥ ७९ बहू निवासं ५० पुहिद ५१ कोहसनिहं ५२ महंत ५३ महिता य ५४ । दुक्खं ५५ च कुलच्छेयं ५६ पयावद्धण ५७ य दिव्वा ५८ य ॥ ८० बहुदुक्ख ५९ कंठच्छेयण ६० जंगम ६१ तह सीहनाय ६२ हत्थीजं ६३ । कंटक ६४ इइ नामाई लक्खणभेयं अओ वुच्छं ॥ ८१ . केवल ओवरय दुगं संतण नामं मुणेह तं गेहं । तस्सेव मज्झि पढें मुहेगऽलिंदं च सत्थियगं ।। ८२ सत्थिय गेहस्सग्गे अलिंदु वीओ अ तं भवे संतं । . संते गुजारि दाहिण थंभ सहिय, तं हवइ वित्तं ॥ ८३ वित्तगिहे वामदिसे जइ हवइ गुजारि ताव बंधूदं । । गुजारि पिट्टि दाहिण पुरओ दु अलिंद तं तिपुरं ।। ८४ पिट्ठी दाहिण बामे इगेग गुंजारि पुरउ दु अलिंदा । तं सासयं आवासं सव्वाण जणाण संतिकरं ॥ ८५ १ भित्ति। २ हवइ फल मेसि। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण दाहिण वाम इगेगं अलिंद जुअलस्स मंडवं पुरओ। ओवरय मज्झि थंभो तस्स य नामं हनइ सोमं ॥ ८६ पुरओ अलिंद तियगं तिदिसिं इक्किक्क हवइ गुजारी। थंभय पट्ट समेयं सीधर नामं च तं गेहं ॥ ८७ . गुंजारि जुअल तिहुं दिसि दुलिंद मुहे य थंभ परिकलियं । . मंडव जालिय सहिया सिरिसिंगारं तयं विति ॥ ८८ तिनि अलिंदा पुरओ तस्सग्गे भहु सेस पुव्वु व्व । तं नाम जुग्गसीधर बहुमंगल रिद्धि-आवासं ॥ ८९ दु अलिंद-मंडवं तह जालिय पिढेग दाहिणे दु गई। भित्तिरि थंभ जुआ उज्जोयं नाम धणनिलयं ॥ ९० उजोअगेह पच्छइ दाहिणए दुगइ भित्ति अंतरए । जइ हुंति दो भमंती विलासनामं हवइ गेहं ॥ ९१ ति अलिंद मुहस्सग्गे मंडवयं सेसं विलासु व्य । . तं गेहं च महंतं कुणइ महड्ढेि वसंताणं ॥ ९२ मुहि ति अलिंद समंडव जालिय तिदिसेहि दु दु य गुंजारी । मज्झि वलय गय भित्ती जालिय य पयाववद्धणयं ॥ ९३ पयाघवद्धणए जइ थंभय ता हवइ जंगमं सुजसं । इअ सोलस गेहाई सव्वाइं उत्तरमुहाई ।। ९४ एयाई चिय पुव्वा दाहिण पच्छिम मुहेण बारेण । नामंतरेण अन्नाई तिनि मिलियाणि चउसहि ॥ ९५ संतणमुत्तरवारं तं चिय पुवमुहु संतदं भणियं । जम्ममुह वड्डमाणं अवरमुहं कुकुडं तहन्नेसु ॥ ९६ अग्गे अलिंद तियगं इक्किकं वाम दाहिणोवरयं । : थंभजुयं च दुसालं तस्स य नामं हवइ सूरं ॥ ९७ वयणे य चउ अलिंदा उभयदिसे इकु इक्कु ओवरओ । नामेण वासवं तं जुगअंतं जाव वसइ धुवं ॥ ९८ मुहि ति अलिंद दु पच्छइ दाहिण वामे अ हवइ इकिकं । तं गिह नामं वीयं हियच्छियं चउसु वन्नाणं ॥ ९९ दो पच्छइ दो पुरओ अलिंद तह दाहिणे हवइ इको। कालक्खं तं गेहं अकालि दंडं कुणइ नूणं ॥ १० ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कर-फेरू-विरचित अलिंद तिन्नि वयणे जुअलं जुअलं च वामदाहिणए । एगं पिढिदिसाए बुद्धी संबुद्धि वगुणयं ॥ १०१ दु अलिंद चउदिसेहिं सुव्वय नामं च सव्वसिद्धिकरं । पुरओ तिनि अलिदा तिदिसि दुगं तं च पासायं ॥ १०२ चउरि अलिंदा पुरओ पिहि तिगं तं गिहं दुवेहक्खं । इह सूराई गेहा अट्ठवि नियनामसरिसफला ॥ १०३ विमलाइ सुंदराई हंसाइ अलंकियाइ पभवाई । पम्मोय सिरिभवाई चूडामणि कलसमाई य ॥ १०४ एमाइआसु सव्वे सोलस सोलस हवंति गिह तत्तो। इकिकाओ चउ चउ दिसिभेअ-अलिंद एहिं ॥ १०५ तिअलोयसुंदराई चउसट्टि गिहाइ हुंति रायाणो । ते पुण अवट्ट संपइ मिच्छाण च रजभावेण ॥ १०६ पुर्वदिसे अत्थाणं अग्गीय रसोइ दाहिणे सयणं । नेरइ नीहारठिई भोयणठिइ पच्छिमे भणियं ॥ ६५ वायव्वे सव्वायुह कोसुत्तर धम्मठाणु ईसाणे । पुव्वाइविनिदेसो मूलगिहद्दारविक्खाओ ॥ ६६ पुव्वेणे विजयवारं जमवारं दाहिणेणे नायव्वं । । अवरेण मयरवारं कुवेरवारुत्तरे पासे ॥ ६७ नामसमं फलमेयं वारं न कयावि दाहिणे कुज्जा । कारणवसाउ जइ हुइ चउदिसि भागढ़ कायव्वा ॥ ६८ सुहवारु अंसमझे चउँहिं दिसेहिं पि अट्ठभागाओ। चउ तिय १ दुन्नि छ २ पण तिय ३ तिय पण ४ पुव्वाइ सुकम्मेणं ॥६९ वाराउ गिहपवेसं सोवाण करिज सिट्ठिमग्गेणं । पयठाणं सूरमुहं जलकुंभ रसोइ आसन्नं ॥ ७० १ पुव्वे सीहदुवारं। २ अग्गीह। ३ सव्वाउह । ४ विक्खाए। ५ पुव्वाह । ६ दाहिणाइ । ७ बारं उईचीए। ८ मेसिं। ९ जइ होइ कारणेणं ताउ चउदिसि अट्ठ भाग कायव्वा । १० चउसुं पि दिसासु अट्ठभागासु। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुईमुहाइ गेहो कायन्ना सिणि म्हात वावमुद्दा । गिहवाराउ कमुच्चा हटुच्चा पुरओ मज्झसमा ॥ ७१ पुव्वुन्नये अत्थहरं जमुन्नयं मंदिरं धणसमिद्धं । अवरुन्नये विद्धिकरं उत्तरन्नय होइ उव्वसियं ॥ ७२ मूलाओ औरंभ कीरइ पच्छा कमे कमे कुज्जा । मूलं गणियविसुद्धं वेहं सव्वत्थ वजिजा ॥ ७३. तलवेह १ कोणवेहं २ तालुयवेहं ३ कवालवेहं ४ च । तह थंभ ५ तुलावेहं ६ दुवारवेहं च ७ सत्तमयं ॥ ७४ समविसम भूमिकुंभिय जलपूरं परगिहस्स तलवेहं । कूणसमं जइ कूणं न होइ ता कूणवेहं तु ॥ ७५ इक्कखणे नीचुच्चं पीढं तं मुणह तालुयावेहं । वारस्सुवरिमपट्टे गन्भे पीढं च सिरवेहं ॥ ७६ गेहस्स मज्झि भाए थंभेगं तं मुणेह उरसल्लं । अह अनलो विनलाई हविज्ज जा थंभवेह तं ॥ ७७ हिट्ठम उवरंमि खणे हीणाहिय पीढ तं तुलावेहं । पीढं पीढस्स समं हवेइ जइ तत्थ नहु दोसं ॥ ७८ कुव-थंभु-दुमें कोणय कीले विढे दुवारवेहो य । गेहुचविउण भूमी तं न विरुद्धं बुहा विति ॥ ७९ तलवेहि कुट्ठरोया हवंति उव्वेय कोणवेहमि । तालुयवेहेसु भयं कुलक्खयं थंभवेहेण ॥ ८० १ सगडमुहा वरगेहा। २ तहय। ३ पुबुञ्चं। ४ दाहिण उच्चघरं । ५ अवरुञ्च । ६ उव्वसियं उत्तराउच्चं । ७ आरंभो। ८ सव्वं । ९ वेहो। १० वेहो। ११ वेहो। १२ वेहो सो। १३ हिट्रिम उवरि खणाणं । १४ पीढा समसंखाओ हवंति जइ तत्थ नहु दोसो। १५ दूमकूव-थंभ। १६ वेहेण । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ठकुर- फेरू - विरचित कावालु तुलावे हे धणनासो होई रोरभावो य । इय वेहफलं नाउं सुद्धं गेहं सुकायव्वें ॥ ८१ वेहेगेण य कैलहं कमेण हाणि च जत्थ 'वे हुंति । तिहुँ भूयाण निवासो चहुं क्खयं पंचि सव्वरियं ॥ ८२ ॥ इति वेधः ॥ अट्टुत्तरु सउ भाया पडिमारूवु व्व करिवि भूमि तओ । सिरि हियइ नाहि सिर्हणे थंभं वज्जेह जत्तेणं ॥ ८३ वारं वारस्स समं अह वारं वारमज्झि कायव्वं । अह वज्जिऊण वारं कीरइ वारं तहालं च ॥ ८४ कूणं कुणस्स समं आलइ आलं च कीलए कीलं । थं थंभ कुज्जा अह वेहं वज्जि कायव्वा ॥ ८५ आलयसिरंभि कीलो थंभो वारुवरि वारु थंभुवरे । वाद्धि वारु समखणि विसमा थंभा महा असुहा ॥ ८६ थंभहीणं न कायव्वं पासायं मंढें - मंदिरं । कूण- कक्वंतरेऽवस्सं देयं थंभं पयत्तओ ॥ ८७ कुंभीसिरंमि सिहरं वै अहंस भद्दगायेोरं । रूवगपल्लुवसैहियं थंभेरिसगिहि" न कायां ॥ ८८ खणमज्झे कायव्वं कीलालय गैखमुक्ख समसमुहं । अंतर छत्ती मंचं करिज्ज खण तह य पीढसमं ॥ ८९ गिहमज्झि अंगणे वा तिकोणयं पंचकोणयं जत्थ । तत्थ वसंतस्स पुणो न होइ सुह - रिद्धि कईयावि ॥ ९० १ हवइ । २ करेअव्वं । ३ इगवेहेण य कलहो । ४ दो । ५ तिहु भूआण निवासो चउहिं खओ पंचहिं मारी । ६ सिहिणो । ७कीला । ८ द्वि । ९ खण । १० मठ । ११ वट्टा । १२ भदगायारा । १३ सहिआ । १४ गेहे थंभा न कायव्वा । १५ ओख । १६ मुहं । १७ छत्ता । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-प्रथमप्रकरण मूलगिहे पच्छिमदिसि जो कारइ तिन्नि वार ओवरए। सो तं गिहं न भुंजइ अह भुंजइ दुक्खिओ हवइ ॥ ९१ कमलेगि जं दुवारो अहवा कमलेहिं वजिओ होई।। हिट्ठाउ उवरि पिहलो न ठाइ थिरु लच्छि तम्मि गिहे ॥ ९२ वलयाकारं कूणेहिं संकुलं अहव एग दु ति क्रूणं । दाहिण-वामय दीहं न वासियव्वेरिसं गेहं ॥ ९३ सयमेव जे किवाडा पिहियंति य उग्घडंति ते असुहा । चित्त-कलसाइ-सोहा-सविसेसा मूलवारि सुहा ॥ ९४ छतितरि भित्तिरि मग्गंतरि दोस जे न ते दोसा । साल-ओवरय-कुखी-पिटि-दुवारेहिं बहु दोसा ॥ ९५ . जोइणि नट्टारंभं भारह-रामायणं च निवजुई । रिसिचरिय-देवचरियं इअ चित्तं गेहि नहु जुत्तं ॥ ९६ फलिहतरु कुसुमवल्ली सरस्सई नवनिहाणजुअलच्छी। कलसं वद्धावणयं सुमिणावलियाइ सुहचित्तं ॥ ९७ पुरिसु व्व गिहस्संगं हीणं अहियं न पावए सोहं । तम्हा सुद्धं कीरइ जेण गिहं हवइ रिद्धिकरं ॥ ९८ वजिजइ जिर्णपुट्ठी रवि ईसर दिहि विन्हु वामो य । सव्वत्थ असुह चंडी वम्ही पुण सव्वहा चयह ॥ ९९ अरिहंतदिहि दाहिण हर पुट्ठी वामए सुकल्लाणं । विवरीए बहु दुक्खं परं न मग्गंतरे दोसं ॥ १०० पढमंत जाम वज्जिय धयाइ दु-तिपहरसंभवा छाया । दुहदायों नायव्वा तओ य जैत्तेण वजिज्जा ॥ १०१ १ मुहि। २बारद दुन्नि बारा ओवरए। ३ हवह । ४ ढाइ । ५ वामह । ६ दारि। ७ गेहु । ८ पिट्ठी। ९ विण्ड वामभुआ। १० बंभाणं चडदिसि घयह । ११ दोसो। १२ हेऊ। १३ पयत्तेण । १२ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकुर -फेरू-विरचित सम कट्ठा विसम खणां सव्वपयारेसु इय विही कुजा । पुवुत्तरेण पल्लव जमावरा मूल कायव्वा ॥ १०२* हल-घाणय-सगड-मई-अरहट्टजंताणि कंटई तह य । पंचुंबरि खीरतरू एयाण य कट्ठ वज्जिज्जा ॥ १०३ बिजउरि केलि दाडिम जंभीरी दो हलिद्द अंबिलिया । बब्बूलि बोरि माई कणयमया तहवि नो कुज्जा ॥ १०४ एयाणं जईये जडा पाडवसाओ पविस्सई अहवा । छाया वा जंमि गिहे कुलनासो हवइ तत्थेव ॥ १०५ संसुक्के भग्ग दड्डा मसाण खग निलय खीर चिरदीहा । निंब बहेडय रुक्खा नहु कट्टिजंति गिहहेऊ ॥ १०६ पाहाणमयं थंभं पीढं पट्टं च बारउत्ताई। एए गेहिविरुद्धा सुहावहा धम्मठाणेसु ॥ १०७ पाहाणमए क8 कट्ठमए पाहणस्स थंभाइं । पासाए य गिहे वा वज्जियव्वा पयत्तेणं ॥ १०८ पासाय-कूव-वावी-मसाण-मठ-रायमंदिराणं च । पाहाण-इट्ट-कट्ठा सरिसममत्ता वि वजिज्जा ॥ १०९ सुगिहजलो उवरिमओ खिविज नियमज्झि नन्नगेहस्स । पच्छा कहवि न खिप्पइ इय भणियं पुव्वसत्थंमि ॥ ११० ईसाणाई कोणे नयरे गामे न कीरए गेहं । संतलोयाण असुहं अंतिमजाईण रिद्धिकरं ॥१११ देव-गुरु-वहि-गोधण-समुहे चरणे न कीरए सयणं । उत्तर सिरं न कुज्जा न नग्गदेहा न अल्लपया ॥ ११२ *मु. पु. पाठभेदो यथा-'सव्वेवि भारवटा मूलगिहे एगिसुत्ति कीरति । पीढ पुण एगमुत्ते उवरयगुंजारि-अलिंदेसु॥१४५॥ १ जइवि । २ पाडिवसा; पाडोसा। ३ सुसुक्क । ४ पारउत्ताणं । ५विधिकरं । ६ संमुह। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुलार-प्रथमप्रकरण धुत्तामचासन्ने परवथुदले चउप्पहे न गिहं । गिह-देवलपुब्बिलं मूलदुवारं न चालिज्जा ॥ ११३ गो-वसह-सगडठाणं दाहिणए वामए तुरंगाणं । गेहस्से वारभूमी संलग्गा साल ऐयाणं ॥ ११४ गेहाउ वाम दाहिण अग्गिम भूमी गहिज जइ कर्ज। पच्छा कहव न लिज्जइ इय भणियं परमैनाणीहिं ॥ ११५ ॥ इति श्रीचन्द्राङ्गज-ठकुर-फेरू-विरचिते वास्तुसारे गृहलक्षणप्रकरणं प्रथमं समाप्तम् ॥ १गिहबाहिरभूमिए। २ सालए ठाणं। ३ पुव्वनाणीहिं । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ द्वितीयं बिम्बपरीक्षाप्रकरणम् । ] इय गिलक्खणभावं भणिय भणामित्थ बिंबपरिमाणं । गुण-दोस लक्खणाई सुहासुहं जेण नज्जेई ॥ १. छत्तत्तयउत्तारं भाल- कवोलाउ सवण - नासाओ । सुहयं जिणचरणग्गे नवग्गहा जक्ख-जक्खिणिया ॥ २ बिंबपरिवारमज्झे सेलरस य वण्णसंकरं न सुहं । समअंगुलप्पमाणं न सुंदरं हवइ कइयावि ॥ ३ अनुन्नजाणु- कंधे तिरिए केसंत अंचलंते यं सुतेगं चउरंसं पज्जकासण सुहं बिंबं ॥ ४ नव ताल हवइ रूवं रूवरस य वारसंगुलो तालो । अंगुल अट्ठहियसयं उड़े चासीण छप्पन्नं ॥ ५ भालं १ नासा २ वयणं ३ गीव ४ हियय ५ नाहि ६ गुज्झ ७ जंघाइंट । जाणु ९ य पिंडि १० य चरणा ११ इक्कारस ठाण नायव्वा ॥ ६ च ४ पंच ५ वेय ४ रामा ३ रवि १२ दिणयर १२ सूर १२ तह य जिण २४ वेया ४ । जिण २४ वेय ४ भायसंखा कमेण इय उड्डरूवेण ॥ ७ भालं १ नासा २ वयणं ३ गीव ४ हियय ५ नाहि ६ गुज्झ ७ जाणू य८ । आसीणबिंबमाणं पुव्व विही अंक संखाई ॥ ८ १ जाणिज्जा । २ बासीण । + मुद्रितपुस्तके पाठान्तररूपेण उद्धृतः पाठः भालं नासावयणं थणसुत्तं नाहि गुज्झ उरू य । जाणुअ जंघा चरणा इय दह ठाणाणि जाणिजा ॥ ६ ॥ चड पंच वेय तेरस चउदस दिणनाह तह य जिण बेया । जिण बेया भायसंखा कमेण इय उगुरूवेण ॥ ७ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार- द्वितीयप्रकरण मुहकमलु चउदसंगुल कन्नंतरि वित्थरे दह ग्गीवा । छत्तीस उरपएसो सोलह कडि सोल तणुपिंडं ॥ ९ कन्नु दइ सोल वित्थरि चउ उवरे तिन्नि हिट्टि लउलि खणं । नक् ति वित्थरि दुद सिरिवच्छो दु दइ तिय पिहुलो ॥ १० [ एतदन्तरं मुद्रितपुस्तके निम्नलिखिता गाथा अधिका उपलभ्यन्तेनक्कसिहागन्भाओ एगंतरि चक्खु चउरदीहते । दिवढुदइ इक्कु डोलइ दुभाइ भउहदु छद्दीहे ॥ १ नक्कु ति वित्थरि दुद पिंडे नासग्गि इकु अद्दु सिहा । पण भाय अहर दीहे वित्थरि एगंगुलं जाण ॥ २ पण उदह चउ वित्थरि सिरिवच्छं बंभसुत्तमज्झंमि । दिवढंगुल थणवङ्कं वित्थरं उडत नाहेगं ॥ ३] सिरिवच्छ सिहिण कक्खंतरंमि तह मुसल पण सरट्ठ ५/५/८ कैमे । मुणि ७ चउ ४ रवि १२ ट्ठे ८ वेया कुहुणी मणिबंधु जंघ जाणुपयं ॥ ११ [ अत्र पुनः मु० पु० एतद्द्वाथानन्तरं अधोगता अधिका गाथा विद्यन्तेथसुत्त अहोभा य बारस अंस उवरि छहि कंधं । नाहीउ किर व कंधाओ केस अंताओ ।। १ कर - उयर - अंतरेगं च वित्थरि नंद दीहि उच्छंगं । जलवहु दुदय ति वित्थरि कुहुणी कुच्छितरे तिनि ॥ २ भसुत्ताओ पिंडिय छ जीव दह कन्नु दु सिहण दु भालं । दु चिबुक सत्त भुजोवरि भुयसंधी अट्ठ पयसारा ॥ ३ जाणुअ मुहसुताओ चउदस सोलस अढार पइसारं । समसुत्त जाव नाही पयकंकण जाव छन्भायं ॥ ४ पइसार गब्भरेहा पनरसभाएहिं चरण अंगुडं । दीहंगुलीय सोलस चउदसि भाए कणिट्टिया ॥ ५ मुद्रितपुस्तके पाठभेदो यथा कनु दह तिनि वित्थरि अड्डाई हिडि इकु आधारे । संत वड्ड समसिरु सोयं पुण नयणरेह समं ॥ १० १ मुसल छ पण अटु कमे । ९३ २ वसुवेया । ३ कुहिणी । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित. . करयल गम्भाउ कमे दीहंगुलि नंदे पक्खिमिया । छञ्च कणिट्टिय भणिया गीवुदए तिनि नायव्वा ॥६ मज्झि महत्थंगुलिया पण दोहे पक्खिमिअ चउ चउरो । लहु अंगुलि भाय तियं नह इकिकं ति अंगुटुं ॥ ७] अंगुट्ठसहियकरयल वढें सत्तंगुलस्स वित्थारे । चरणं सोलस दीहे तयद्धि वित्थिन्न चउ उदए ॥ १२ ॥ [ एतद्गाथानन्तरं मुद्रितपुस्तके निम्नगतैका गाथा अधिका लभ्यतेगीव तह कन अंतरि खणे य वित्थारि दिवड्डु उदइ तिगं । अंचलिय अट्ट वित्थरि गद्दिय मुह जाव दीहेण ॥१ छब्भाय अहरदीहे चक्खूपण दीह अद्धपिहुलत्ते । तिन्नि सिहिण चउ नाही नासा उर नाहि सुत्तेग ॥ १३ केसंत सिहा गद्दिय पंचट्ठ कमेण अंगुलं जाण । पउमुडरेहचक्कं करचरण विहूसियं निच्चं ॥ १४ . [ मुद्रितपुस्तके एतद्गाथानन्तरं निम्नोद्धृता गाथा अधिका लभ्यन्तेनक सिरिवच्छ नाही समगन्भे बंभसुत्तु जाणेह । तत्तो अ सयलमाणं परिगरबिंबस्स नायव्वं ॥१ सिंहासणु बिंबाओ दिवडओ दीहि वित्थरे अद्धो। पिंडेण पाउ घडिओ रूवग नव अहव सत्त जुओ ॥२ उभयदिसि जक्ख-जक्खिणि केसरि गय चमर मज्झि चक्कधरी। चउदस बारस दस तिय छ भाय कमि इअ भवे दीहं ॥३ चक्कधरी गरुडंका तस्साहे धम्मचक्क उभयदिसं। हरिणजु रमणीयं गद्दियमझमि जिणचिण्हं ॥ ४ चउ कणइ दुनि छाइ बारस हस्थिहिं दुन्नि अह कणए । अड अक्खरवट्टीए एवं सीहासणस्सुदयं ॥ ५ गद्दिय-सम-वसुभाया तत्तो इगतीस चमरधारी य । तोरणसिरं दुवालस इअ उदयं पक्खवायाण ॥ ६ सोलस भाए रूवं धुमुलियसमये छहि वरालीय । इअ वित्थरि बावीसं सोलस पिंडेण पखवायं ॥७ . १ वित्थारो। मु.पु. नास्तीय गाथा । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार- द्वितीयप्रकरण छत्तद्धं दसभायं पंकयनालेग तेर मालधरा । दो भाए शुंभुलिए तदु वंसधर - वीणधरा ॥ ८ तिलयमज्झमि घंटा दुभाय थंभुलिय छचि मगरमुहा । इअ उभयदिसे चुलसी दीहं डउलस्स जाणेह ॥ ९ चउवीसि भाइ छत्तो बारस तस्सुदइ अट्ठि संखधरो । छह वेणुपत्तवल्ली एवं उलदए पन्नासं ॥ १० मालधर सोलससे गईद अट्ठारसंमि तावरे । हरिणिंदा उभयदि तओ अ दुंदुहिअ संखी य ।। ११ छत्तत्तय वित्थारं वीसंगुल निग्गमेण दह भायं । भामंडल वित्थारं, बावीस अट्ठ पइसारं ॥ १२ बिद्धि डउलपिंडं छत्तसमं गेहवइ नायव्यं । थणसुत्तसमा दिट्ठि चामरधारीण कायव्वा ॥ १३ जइ हुंति पंच तित्था इमेहिं भाएहिं तेवि पुण कुजा । उस्सग्गियस्स जुअलं बिंबजुगं मूल बिंवेगं । १४ ] वरिससयाओ उडूं जं बिंबं उत्तमेहिं संठवियं । विलयं (लं) गुवि पूइज्जइ तं बिंबं निक्कलं न जओ ॥ १५ मुह-नक्क- नयण - नोहिं कडिभंगे मूलनायगं चयह । आहरण-वत्थ-परिगर-चिन्हा हगि पूइज्जा ॥ १६ धाउलेवाइ बिंबं विलय (यलं ) गं पुणवि कीरए सज्जं । कटु-रण- सीलैमयं न पुणो सज्जं च कईयावि ॥ १७ पाहाणलेवकट्ठा दंतमया चित्त लिहिय जा पडिमा । अप्परिगर - माणाहिय न सुंदरा पूयमाण गिहे ॥ १८ इकंगुलाई पडिमा इक्कारस जाम गेहि पूइज्जा । उडूं पासाइ पुणो इय भणियं पुव्वसूरीहिं ॥ १९ नह-अंगुलीय-वाहा-नासा-पय भंगिणुकमेण फलं । सत्तुभय देसभंगं बंधण-कुलनास - दव्वखयं ॥ २० १ निष्फलं । २ नाही । ३ सेल। 5 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर - फेरू - विरचित पयपीढ - चिन्ह - परिगरभंगे जण - जाण - भिच्चहाणि कमे । छत्त - सिरिवच्छ-सवणे लच्छी - सुह-बंधवाण खयं ॥ २१ पडिमा रउ जा सा कारावय हंति सिप्पि अहियंगा । दुव्वण्णे दव्वविणासा किसोयरा कुणइ दुब्भिक्खं ॥ २२ बहुदुक्ख वक्कनासा हरसंग खयंकरी य नायवा । नयणनासा कुनयणा अप्पमुहा भोगहाणिकरा ॥ २३ कडिहीणायरियहया सुय - बंधव हाइ हीणजंघा य । हीणासण रिद्धिहया धणक्खया हीणकर-चरणा ॥ २४ उताणा अत्थहरा कग्गीवा सदेसभंगकरा | अहोमुहा य सचिंता विदेसगा हवइ नीचुच्चा ॥ २५ विसमासण वाहिकरा रोरकरऽन्नायदव्वनिप्पन्ना | हीणायंगपडिमा सपक्ख- परपक्खकट्ठकरा ॥ २६ उड्डमुही धणनासा अप्पूया तिरियदिट्ठि विन्नेया । अइथदिट्ठि असुहा हवइ अहोदिट्ठि विग्धकरा ॥ २७ भुव सुराण आयुह हवंत केसंत उप्परे जड़ ता । करण-करावण-थप्पणहाराणप्पाण देहया ॥ २८ चवीस जिण नवग्गह जोइणि चउसट्ठि वीर बावन्ना । चउवीस जक्ख-जक्खिणि दह दिहवइ सोले विज्जसुरी ॥ २९ नव नाह सिद्ध चुलसी हरि-हर-बभिद - दाणवाईणं । वन्नक - नाम- आयुह वित्थरगंथाउ जाणिजा ॥ ३० ॥ इति परमजैन - श्रीचन्द्राङ्गज- ठकुर - फेरुविरचिते वास्तुसारे farareक्षाप्रकरणं द्वितीयं समाप्तम् ॥ १ दुब्बल । २ चउभव; चउभेअ । ३ सोलस । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तृतीयं प्रासादविधिप्रकरणम् । ] | भणिय गिलक्खणाइं बिंबपरिक्वाइँ सयलगुणदोसं । संपइ पासायविही संखेवेणं निसा मेहे ॥ १ पढमं गड्डावरयें जलते अह कक्कर भरियन् । कुंमनिवेसं अट्ठ खुरस्सिला तयणु सुत्तविही ॥ २ पासायाओ अद्धं तिहायपायं च पीढ- उदओ य । तस्सद्धि निग्गमो हुईं उववीदु जहिच्छ माणं तु ॥ ३ अडथरं १ फुल्लियओ २ जाडमुहो ३ कणउ ४ तह य कयवाली ५ । गय १ अस्स २ सीह ३ नर ४ हंस ५ पंच थर इय भवे पीठं ॥ ४ सिरिविजउ १ महापउमो २ नंदावत्तो य ३ लच्छितिलओ ४ य । नरवेय ५ कमलहंसो ६ कुंजर ७ पासाय सत्त जिणो ॥ ५ [ इतो मुद्रितपुस्तके निम्नोद्धृता अधिका गाथा लभ्यन्तेबहुमेया पासाया अस्संखा विस्सकम्मणा भणिया । ततो य केसराई पणवीस भणामि मुलिल्ला ॥ १ ॥ केसरि सभी सुनंदणी नंदिसालु नंदीसो । तह मंदिरु सिरिवच्छो अमिअब्भुवु हेमवंतो अ ॥ २ ॥ हिमकूड कईलासो पुहविजओ इंदनील महनीलो । भूरु अ रयणकूडो वज्जो पउमरागो अ ॥ ३ ॥ जंगो मुउडुअल अहरावओ रायहंसु गरुडो अ । East a तह य मेरू एए पणवीस पासाया ॥ ४॥ पण अंडयाइ सिहरे कमेण चउबुद्धि जा वह मेरू । मेरूपासाय अंडयसंखा इगहिय सयं जाण ॥ ५ ॥ एहि उवअंती पासाया विविह सिहरमाणाओ । नव सहस्स छ सय सत्तर वित्थरगंथाओ ते नेया ॥ ६ ॥ चउरंसंमि उ खित्ते अट्ठाइ दु बुड्डि जाव बावीसा । भायविराडं एवं सर्व्वसु वि देवभवणेसु ॥ ७ ॥ १ णिसा० । २ गड्डाविवरं । ३ जलंतं । ४ कक्करंतं । ५ कुणह। ६ होइ । १३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित चउकूणा चउभद्दा सव्वे पासाय होति नियमेण । कूणस्सुभयदिसेहिं दलाई जा होंति' भद्दाइं ॥ ६ पडिरह १ बोलिंजरया २ नंदी ३ सुकमेण ति पण सत्त दला। पल्लवियं करणिकं अवस्स भद्दस्स दुण्ह दिसे ॥ ७ ॥ दो भाय कूणओ हुँइ कमेण पाऊण जा भवे नंदी। पायं०।, एग १, दुसर्ल्ड २॥, पल्लवियं करणियं भदं ॥ ८ भद्दद्धं दस भायं तस्साओ मूल नासियं एगं । पउणाति तिय सवातिय २॥) ३३) दैलेहिं सुकमेण नायव्वं ॥ ९ कूणं पडिरह य रहं भदं मुहभद्द मूलअंगाई। नंदी करणिक पल्लव तिलय तवंगाइ भूसणयं ॥ १० ॥ इति विस्तरं ॥ खुर१ कुंभर कलस३ कइवलि४ मच्ची५ जंघा य६ छजि७ उरजंघा ८ । भरणि ९ सिरवट्टि १० छज्जय ११ वइराडु १२ पहारु १३ तेर थरां॥११ | १३ ॥ १॥ | इग तिय दिवड तिहुँढे __ पण सड्डा इग दु दिवढु दिवढो य । दो दिवढु दिवढु भाया १॥ १॥ २ | १॥| पणवीसं तेर थरमाणं ॥ १२ | १॥ | पासायस्स पमाणं गणिज्ज सहभित्ति कुंभगथराओ । तस्स य दस भागाओ दो दो भित्तीहि रस ६ गब्भे ॥ १३ इग दु ति चउ पण हत्थे पासाइ खुराउ जा पहारथरो। नव सत्त पण ति एगं अंगुलजुत्तं कमेणुयं ॥ १४ इच्चाइ ख-बाणते ५० पडिहत्थे चउदसंगुल विहीणा। इय उदयमाण भणियं अओ य उद्रं भवे सिहरं ॥ १५ . ३ 1 पडिहोंति १ दुन्नि। २ दो भाय हवइ कूणो। ३ करणिकं। ४ कमेण एयपि पडिरहाईसु। ५तिसुकमि। ६ पहारू। . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-तृतीय प्रकरण पाऊणे दूण भूमजु नागरु सतिहार दिवढु सप्पाओ। देवड सिहरो दिवड्डो सिरिवच्छो पउणे दूणो य ॥ १६ छज्जउड उवरि तिहु दिसि रहिया जुयबिंब उवरि उरसिहरा । कूणेहिं चारि कूडा दाहिण - वामग्गि दो तिलया ॥ १७ उरसिहर कूडमझे सुमूलरेहाय उवरि चारि लया। अंतरि कूणेहि रिसी आवलसारो य तस्सुवरे ॥ १८ पिडिरह बिकन्नमझे आमलसारस्स वित्थरबुदए । गीवंडयचंदिकोमलसारिय पउणु सवा इगिगो॥ १९ आमलसारय मज्झे चंदणखट्टासु सेयपट्टवुया । तस्सुवरि कणयपुरिसो घयपूर तओ य वरकलसो ॥ २० । पाहणकट्ठिट्टमओ जारिसु पासाउ तारिसो कलसो। जहसत्ति पइठ पच्छा कणयमओ रयणजडिओ वाँ ॥ २१ [एतद्गाथानन्तरं मुद्रितपुस्तके निम्नगतं गाथाद्वयमधिकं विद्यतेछजाओ जाव कंधं [भायं] इगवीस करिवि तत्तो । नव आइ जाव तेरस दीहुदये हवइ सउणासो ॥ १ . उदयद्धि विहियपिंडो पासायनिलाड तिकं च तिलउ य । तस्सुवरि हवइ सीहो मंडपकलसोदयस्स समा ॥२] सुहयं इगदारुमयं पासायं कलस-दंड-मकडियं । सुहकट्ठ सुदि कीरं सीसम खयरंजणं महुवं ॥ २२ नीरतरदल विभत्ती भद्द विणा चउरसं च पासायं । पंसायारं सिहरं करंति जे ते न नंदति ॥ २३ १ दूणु पाऊणु। २ दाविड। ३ पऊण। ४ अंतर। ५चंडिका। ६पऊण सवाइकिको। ७ अ। ८ सुदिट्ट । +पडिरह बिकन्नमज्झे आमलसारस्स वित्थरो होइ । तस्सद्धेण य उदओ तं मज्झे ठाण चत्तारि ॥ गीवंडय चंडिका आमलसारीय कमेण तब्भागा। पाऊण सवाउ इगेगो आमलसारस्स एस विही ॥ -इति पाठान्तरं मुद्रितपुस्तके। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर-फेरू-विरचित अहंगुलाइ कमसो पायंगुल वुड्डि कणयपुरिसो य । कीरइ धुव पासाए इग हत्थाई ख-बाणं ते (५०) ॥ २४ इगहत्थे पासाए दंडं पउणंगुलं भवे पिंडं। . . अबंगुल बुड्डि कमे जा कर पन्नास कन्नुदए ॥ २५ निप्पन्ने वरसिहरे धयहीणसुरालयंमि असुरठिई। तेण धयं धुव कीरइ दंडसमा मुक्खसुक्खकरा ॥ २६ पासायाओ दुवारं हेत्थप्पइ सोलसंगुलं उदए । नैव पंचम वित्थारे अहवा पिहुलाउ दूणुदए ॥ २७ [अत्र मुद्रितपुस्तके एषा गाथा अधिका विद्यते उदयद्धि वित्थरे बारे आयदोस विसुद्धए । अंगुलं सड्डमद्धं वा हाणि वुड्डि न दूसए ॥१] निल्लाडि वारउत्ते बिंबं साहेहि हिट्ठि पडिहारा । कूणेहि अट्ठ दिसिवइ जंघा-पडिरहइ पिक्खणयं ॥ २८ पासायतुरिय ४ भागप्पमाणबिंबं सउत्तमं भणियं । राउट्टै रयण विदुम धाउमय जहिच्छमाण वरं ॥ २९ दस भाय कयदुवारं उडुंवर उत्तरंग मज्झेण । पढमसे सिवदिट्ठी वीए सिवसत्ति जाणेह ॥ ३० सयणासण सुर तइए लच्छीनारायणं चउत्थे यः । वाराहं पंचमए छटुंसे लेवचित्तस्स ॥ ३१ सासण सुर सत्तमए सत्तम सेत्तंमि वीयरागस्स । चंडिय भइरव अडमे नवमिदा छत्त- चमरघरा ॥ ३२ दसमे भाए सुन्नं जक्खा गंधव्व-रक्खसा जेण । हिट्ठाउ कमि ठविजइ सयलसुराणं च दिट्ठी य ॥ ३३ १ पासायस्ल । २ हत्थंपइ । ३ जा हत्थ चउका इंति तिगदुग बुडि कमाउ पनासं। ४ रावट। ५ सत्संसि। ६ अडंसि । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार तृतीय प्रकरण . भागट्ठ भणंतेगे सत्तम सत्तंमि दिट्ठि अरहता। गिहदेवाले पुणेवं कीरइ जह होइ बुड्डिकरं ॥ ३४ गम्भगिह? पणंसा जक्खा पढमंसि देवया बीए। . जिण-किन्ह-वी तइए बंभु चउत्थे सिवं पणगे ॥ ३५ नहु गम्भे ठाविजइ लिंगं गब्भे चइज नो कहवि । तिलअद्धं तिलमत्तं ईसाणे किं पि आसरि ॥ ३६ भित्तिसंलग्गबिंबं उत्तिमपुरिसं च सव्वहा असुहं । . चित्तमयं नागाइं हवंति एए सहावेणं ॥ ३७ ॥ जगई पासायंतरि रस ६ गुण पच्छा नवग्गुणा पुरओ। दाहिण-वामे तिउणा इय भणियं खित्तमज्जायं ॥ ३८ पासायकमलियग्गे गूढक्खयमंडवं तउ छकं । पुणु रंगमंडवं तह तोरण - सुवलाणमंडवयं ॥ ३९ ।। दाहिण-वामदिसेहिं सोहामंडव गउक्खजुय साला । गीयं नट्टविणोयं गंधव्वा जत्थ पकुणंति ॥ ४० पासायसमं विउणं दिवड्डय पउण दूण वित्थारे । सोवाण तिन्नि" उदए चउकीओ मंडवा होति ॥ ४१ कुंभी थंभ भरण सिरपट्टे इग पंच पउण सप्पायं । इग इय नव भाग कमे मंडव पिहुलाउँ अट्ठदए ॥ ४२ पासायअट्ठमंसे पिंडं मकडिय-कलस-थंभस्स । दसमंसि बारसाहा सपडिग्घहु कलेसँ दूणुदए ॥ ४३ पट्टस्स आयहिह्र छज्जयहिटुं च सव्वसुत्तेगं । उदुंबरसम कुंभिय थंभसमा थंभ जाणेह ॥ ४४ १ सत्तंसि। २ अरिहंता । ३ देवालु। ४ गिहड्ड। ५ तलमितं । ६ आसरिओ । ७ समासेण । ८ गुणा। ९ मज्झायं । १० कमल अग्गे। ११ पुण । १२ सबलाण। १३ दिउड्ढयं । १४ वित्थारो। १५. ति उदए चउदए पण । १६ वट्टाउ अद्भुदप। १७ कलसु दिवट्ठदए । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर -फेरू-विरचित जलनालयाउ फरिसं करंतरे चउ जवा कमेणुच्चं । जगईय भित्ति उदए छजये सम चउदिसेहिं पि ॥ ४५ अग्गे दाहिण-वामे अट्ठट्ठ-जिणिंद-गेह चउवीसं । मूल सैलागाउ इमं पकीरए जगइ मज्झमि ॥ ४६ रिसहाई जिणपंती पासायाओ य वामियदिसाओ। ठाविज पिट्ठिमग्गे सव्वेहि जिणालए एवं ॥ ४७ चउवीसतित्थमज्झे जं एगं मूलनायगं हवइ । पंतीइ तस्स ठाणे सरस्सई ठवसु निभंतं ॥ ४८ चउतीस वाम-दाहिण नव पिट्ठी अट्ठ पुरउ देहुरियं । पासाय मूल एगं वावन्नजिणालयं एवं ॥ ४९ पणवीसं पणवीसं दाहिण-बामेसु पिट्टि इक्कारं । दह अग्गे नायव्वं इय वाहत्तरि जिणिंदालं ॥ ५० अंगविभूसणसहियं पासायं सिहरबद्ध-कट्ठमयं । नहु गेहे पूइज्जइ न धरिजइ किंतु जत्त वरं ॥ ५१ जत्त कए पुणु पच्छा ठविज्ज रहसाल अहव सुरभवणे । जेण पुणो तस्सरिसो करेइ जिणजत्त वर संघो ॥ ५२ गिहदेवालं कीरइ दारुमय विमाण पुप्फयं नाम । उववीढ पीढफरिसं जहुत्त चउरंस तस्सुवरें ॥ ५३ चउ थंभ चउ दुवारं चउ तोरण चउ दिसेहि छजउडं । पंच कणवीर सिहरं ईंग ति दुवारेग सिहरं वा ॥ ५४ अह भित्ति-छज्ज ओवम सुरालयं आयुसुद्ध कायव्वं । सम चउरंसं गब्भे तस्साउ सवायओ उदए ॥ ५५ । - १नालियाउ । २ छजइ। ३ सिलागाउ। ४ सीहदुवारस्स दाहिणदिसाओ। ५ पुट्टि। ६ देहरयं । ७ मूल पासाय। ८ जत्तु। ९ तस्सुवरिं। १० एग दुति बारेग। ११ तत्तो अ सवायओ उदएसु। ' Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुसार-तृतीयं प्रकरण गब्भाउ छजओ हुइ सवाउ सतिहाउ दिवटु वित्थारे । वित्थाराउ सवाओ उदएण य निग्गमे अहो ॥ ५६ छज्ज-उड-थंभ-तोरणजुय उवरे मंडओवमं सिहरं । आलयमज्झे पडिमा छज्जयमझंमि जलवढें ॥ ५७ गिहदेवालयसिहरे धयदंडं नो करिज कइयावि । आमलसारय कलसं कीरइ इय भणिय सत्येहिं ॥ ५८ सिरिधंधकलस-कुलसंभवेण चंदासुएण फेरेण । कन्नाणपुरठिएण य निरक्खिउं पुव्वसत्थाई ॥ ५९ सिपरोवगारहेऊ नयण-मुणि-राम-चंद (१३७२) वरिसम्मि ! विजयदसमीइ रइयं गिहपडिमालक्खणाईणं ॥ ६० इति परमजैनश्रीचन्द्राङ्गजठकुरफेरूविरचिते वास्तुसारे प्रसादविधिप्रकरणं तृतीयं समाप्तं ॥ ॥ एवं वास्तु प्रयरणं त्रय गाथा २०५॥ १ हवह छजु । २ करिजइ कयावि। ३ आमलसारं । + मुद्रितपुस्तके इयं गाथा पूर्व लिखिता, पश्चाद् उपरितनगाथा विद्यते । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर फेरू रचिता खरतरगच्छयुगप्रधानचतुः पदिका । नमो जिनाय । सयल सुरासुर वंदिय पाय, वीरनाह पणमवि जगताय । सुमरेविणु सिरि सरसइ देवि, जुगवरचरिउ भणिसु संखेवि ॥ १ सुहमसामि गणहर पमुह, सिरि जुगपवर नाम वर मंत, सुमरहु अणुदिणु भत्तिजय । लीलइ तरिवि भवोवहि जेम, कमि कमि पावहु सिद्धिसुह ॥ धूवकं वद्धमाणजिणपट्टि पसिद्धु, केवलनाणीगुणिहि समिद्धु | पंचमु गणहरु जुगवरु पढमु, नमहु सुहंमसामि गुरु अममु ॥ २ भज्जा अट्ठ पंच सय तेण, इक्कि रयणि पडिवोहिय जेण । सुगुरपासि लिउ संजमभारु, सरहु सरहु सो जंबुकुमारु ॥ ३ पभवसूरि सिजंभउ सुगुरु, जसोभद्दु सूरीसरु पवरु । सिरि संभूयविजउ मुणितिलउ, पणमहु भद्दवाहु गुणनिलउ ॥ ४ भद्दवाह सूरीसरपासि, चउदस पुव्व पढिय गुणरासि । भंजिउ जेण मयणभडवाउ, जयउ सु थूलिभद्दु मुणिराउ ॥ ५ दूसमकालि तुलिउ जिणकप्पु, अज्ज महागिरि गुरु माहप्पु । अज्ज सुहत्थि थुणहु धरि भाउ, जिणि पडिबोहिउ संपइ राउ ॥ ६ संतिसूर कय संघह संति, चउदिसि पसरिय जसु वरकित्ति । तासु पट्टि हरिभदु मुणिंदु, मोहतिमिरभर हरण दिणिंदु ॥ ७ संडिलसूरि तह अज्ज समुदु, अज्ज मंगु जणकइरवचंदु | 'अज्ज धम्मु घर पयडिय धम्मु, भद्दगुत्तु दंसिय सिवसम्मु ॥ ८ वयसामि भाविय तित्थु, अज्ज रक्खिउ वोहिय जणसत्थु । अज्ज नंदि गुरु वंदहु नरहु, अज्ज नागहत्थीसरु सरहु ॥ ९ रेवयसामि सूरि खंडिल, जिणि उम्मूलिय भवदुहसल्ल । हेमवंतु झायहुवहु भत्ति, तरहु जेम भवसायरु ज्झत्ति ॥ १० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान-चतुःपदिका नागज्जोयसूरि गोविंद, भूइदिन्न लोहिच्च मुणिंद । दुसमसूरि उम्मासय सामि, तह जिणभद्दसूरि पणमामि ॥ ११ सिरि हरिभद्दसूरि मुणिनाहु, देवभद्दसूरि वर जुगवाहु । नेमिचंद चंदुज्जलकित्ति, उज्जोयणसुरि कंचणदित्ति ॥ १२ पयडिय सूरिमंतमाहप्पु, रूविज्झाणि निजियकंदप्पु । कुंदुजल जस भूसिय भवणु, सलहहु वद्धमाणसुरि रयणु ॥ १३ अणहिलपुरि दुल्लह अत्थाणि, जिणसरसूरि सिद्धंतु वखाणि। . चउरासी आइरिय जिणेवि, लउ जसु वसहिमग्गु पयडेवि ॥१४ जिणि विरईय कहा संवेग-रंगसाल तह सत्थ अणेग। नियदेसण रंजिय नरराय, तसु जिणचंदसुरि सेवहु पाय ॥ १५ वर नव अंग वित्ति उद्धरणु, थंभणि पास पयड फुडकरणु । अभयदेवसुरि मुणिवरराउ, दिसि दिसि पसरिय जसु जसवाउ ॥ १६ नंदि न्हवणु वलि रहु सुपइड, तालारासु जुवइ मुणि सिट्ठ। निसि जिणहरि जिणि वारिय अविहि, थुणुहु सु जिणवल्लहसुरि सुविहि ॥ १७ जोइणिचक्कु उजेणिय जेण, वोहिउ जिणि नियझाणवलेण । सासणदेवि कहिउ जुगपवरु, सो जिणदत्तु जयउ गुरपवरु ॥ १८ सहजरूवि निजिय अमरिंद, जिणि पडिबोहिय सावयविंद । पंच महव्वय दुद्धर धरणु, नंदउ जिणचंद सुरिमुणिरयणु ॥ १९ अजयमेरि नरवइपञ्चक्खि, करि विवाउ वुहियणजणसक्खि। जिणि पउमप्पहु लउ जयपत्तु, जिणवइसूरि जयउ सुचरित्तु ॥ २० . नयरि नयरिं जिणमंदिर ठविय, तोरण दंड कलस धज सहिय । तेवीसा सउ दिक्खिय साहु, जिणसरसूरि जयउ गणनाहु ॥ २१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ठकुर- फेरू - विरचित तसु पय परमज्जोयणु भाणु, जस निम्मलु गुणगणह निहाणु । जुगपवरागम संसयहरणु, जिणपवोह सुरिसुहगुरु सरणु ॥ २२ ॥ तसु पट्टुद्धरु गुरु मुणिरयणु, मयणविणासणु सिवसुहकरणु । भवियलोयजण मणआणंदु, संपइ जुगपहाणु जिणचंदु ॥ २३ इय इत्तिय सुहगुरु आमनइ, जिणचंदसुरि जुगवर जो मनइ । सुज्जि रमइ सासय सिवनारि, बलवि न पडइ इत्थ संसारि ॥ २४ जक्खिणि जक्ख विउण चउवीस, विज्जादेवि चहूणी वीस । इय चउ (स) ठि मिलि देहि असीस, जिणचंदसुरि जिउ कोडि वरीस ॥ २५ संघसहिउ फेरू इम भइ, इत्तिय जुगपहाण जो थुणइ । पढइ गुणइ नियमणि सुमरेइ, सो सिवपुरि वर रज्जुकरेइ ॥ २६ तेरह सइतालइ महमासि, रायसिहर वाणारिय पासि चंद तणुब्भवि इय चउपईय, कन्नाणइ गुरुभत्तिहि कहिय ॥ २७ सुरगिरि पंच दीव सव्वेवि, चंद सूर गह रिक्ख जि केवि । रयणायर घर अविचल जाम, संघु चउव्विहु नंदउ ताम ॥ २८ ॥ इति जुगप्रधान चतुपदिका समाप्ता ॥ ६ ॥ जिणपबोह गुरराय चलणपंकय वर अलिवलु । नवविह जिय दयकरणु मयण गय सिंह महाबलु । चंदुज्जलु गुणविमलु कित्ति दस दिसिहि पसिद्धउ । दवणु पदिय चउ कसाय गुणगणिहि समिद्धउ । सुरिंदु पणय वण जण सहिउ, वंछिउ सुहियण निरु नरहु । रिउ अंतरंग मय अवहरणु पय पढमक्खरि गुरु सरहु ॥ १ ॥ ॥ सं० १४०३ फा० शु० ८ लि० ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् । मूलप्रतौ व्योतिषसारग्रन्थान्ते निम्नलिखितानि ज्योतिषविषयसम्बद्धानि कानिचित् स्फुटपद्यानि प्राप्तानि तानि परिशिष्टरूपेणात्र मुद्रितानि । · लाभ - विक्रमं खं शत्रुषु स्थितः शोभनो निगदिनो दिवाकरः खेचरैः । सुते तपो जलायें गैर्व्याकिंभिर्यदि न विध्यते तदा ॥ १ - - द्यून - जन्मं - रिपुं - लाभ - खं चिंगश्चन्द्रमाः शुभफलप्रदस्तदा । स्वात्मजान् मृतिबन्धुं धर्मगैर्विध्यते न विबुधैर्यदि ग्रहैः ॥ २ विक्रमार्य रिपुर्गः शुभः कुजः स्यात्तदान्यं सुतै- धर्मगैः खगैः । चेन विद्ध इनसूनुरप्यसौ किंतु मर्म घृणिना न बिध्यते ॥ ३ वीर्यु - शत्रु मृति खi ssयेगः शुभो ज्ञस्तदा न खलु विध्यते यदा । आत्मजे - त्रिं- नव-आधे - नैधनं प्रात्यंगैर्विषुभिर्नभश्वरैः ॥ ४ स्वाये धर्म तनय यूँनस्थितो नाकिनायकपुरोहितः शुभः । रिफे - रन्ध्र -- जलैनिंगैर्यदा विध्यते गगनचारिभिर्न हि ॥ ५ आसुताष्टमसुतो व्येयायेगो विद्ध आस्फुजिदशोभनः स्मृतः । नैधर्नास्तं तनुं कर्म - धर्मधी लाभ - वैरि' - सहजै स्थखेचरैः ॥ ६ एवमत्र खचरा व्यधान्विताः सत्फलं नहि दिशन्ति गोचरे । बामवेधविधिना त्वशोभना अप्यमी शुभफलं दिशन्त्यलम् ॥ ७ - - - · - - ॥ इति ग्रहाणां वामवेध - दक्षिणवेधयोः फलम् ॥ सर्वेषामेव दोषाणां वर्जयेद् घटिकाद्वयम् । उत्पात मृत्युकाणानां सप्त षट् पश्च नाडिका ॥ १ बहवोऽप्येवं जगदुः सिंहारूढोऽपि वृत्रशत्रुगुरुम् । समतिक्रान्तमघक्ष न विरुद्धः सर्वकार्येषु ॥ २ आत्मोपेक्षक - पोषक वधकानिह जन्मराशि- चन्द्राभ्याम् । घटिकास्तिथिरसरुद्रार्द्धसार्द्धद्वयशकलचरमान्ताः ॥ ३ * योगिनीचक्रं प्रवक्ष्यामि दिव्यं परममुत्तमम् । जयं च विजयं चैव येन जायन्ति भूतले ॥ १ इन्द्राणी पूर्वभागेषु योगिनी नाम नामतः । प्रतिपदानवम्यां च उदयं कुरुते सदा ॥ २ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ठकुरफेरूविरचित ज्योतिषसार ग्रन्थान्ते लिखितानि कानिचित् पद्यानि उत्तरायां महिषीनाम योगिनी योगनामिनी । दशम्यां च द्वितीयायां उदयं कुरुते सदा ॥३ एकादश्यां तृतीयायां मेषरूदा तु योगिनी । कुमारी नामविज्ञेया आग्नेयी दृश्यते यथा ॥४ श्वानपृष्ठिगता देवी चतुर्थी द्वादशी तथा। नैर्ऋत्यां दिशमासृत्य सिंहनारायणी सदा ॥५ वाराही योगिनी नाम सिंहारूढा सुदुर्धरा। पंचम्यां त्रयोदश्यां च दक्षिणे उदयं सदा ॥६ वारुण्यां दिशमासृत्य ब्राह्मणी घृषगामिनी । चतुर्दश्यां तु षष्ठयां च उदयं कुरुते सदा ॥७ चटित्वा तु खरपृष्ठिं चामुंडी चण्डरूपिणी । सप्तम्यां पूर्णिमायां च वायव्ये उदयं सदा ॥८ महालक्ष्मी महादेवी ईशान्यां वृषसंस्थिता । काके रूढा सदा देवी अमावास्याष्टमीदिने ॥९ एवं तु योगिनीचक्रं ज्ञायते यस्तु मानवः । विजयं लभेत् संग्रामे युद्धेषु रणसंकटे॥ द्यूते वा विवहारे वा विवादे जायते शुभम् ॥ श्वानकुर्कुटनालानां मेषेण महिमादिषु । विजयं जायते तस्य यस्य पृष्ठे तु योगिनी ॥ अथ सन्मुखयोगिन्यां संग्रामेषु रणेषु च । गम्यते युज्यते पुंसां न सिद्धिर्जायते कचित् ॥ ॥ योगिनी चक्रम् ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ry.org