________________
. ठकुर-फेरू-विरचित और किसी न किसी रूप में रत्नपरीक्षा शास्त्र की स्थापना हो चुकी होगी । जो भी हो, इसमें जरा भी संदेह नहीं कि ईसा की पांचवीं सदी के पहले रत्नपरीक्षा का सृजन हो चुका था।
यह समझ लेना भूल होगा कि रत्न-परीक्षा शास्त्र केवल जौहरियों की शिक्षा के लिए ही बना था । इसमें शक नहीं कि, जैसा दिव्यावदान में कहा गया है, व्यापारियों के पुत्र पूर्ण और सुप्रिय (दिव्यावदान, पृ० २६, २९,) को और और विद्याओं के साथ साथ रत्नपरीक्षा भी पढ़ना पड़ा था। हमें इस बात का पता है कि प्राचीन भारत में राजा और रईस रत्नों के पारखी होते थे। यह आवश्यक भी था क्यों कि व्यापारियों के सिवा वे ही रत्न खरीदते थे और संग्रह करते थे । जैसा कि हमें साहित्य से पता चलता है, काव्यकारों को भी इस रत्नशास्त्र का ज्ञान होता था और वे बहुधा रत्नों का उपयोग रूपकों और उपमाओं में करते थे, गो कि रत्न सम्बन्धी उनके अकंलार कभी कभी अतिरंजित होकर वास्तविकता से बहुत दूर जा पहुंचते थे । जैसा कि हमें मृच्छकटिक के चौथे अंक से पता चलता है, कि जब विदूषक वसंतसेना के महल में घुसा तो उसने छढे परकोटे के आंगन के दालानों में कारीगरों को आपस में वैडूर्य, मोती, मूंगा, पुखराज, नीलम, कर्केतन, मानिक और पन्ने के सम्बन्ध में बातचीत करते देखा । मानिक सोने से जड़े (बध्यन्ते ) जा रहे थे, सोने के गहने गढ़े जा रहे थे, शंख काटे जा रहे थे, और काटने के लिए मूंगे सान पर चढ़ाए जा रहे थे । उपर्युक्त विवरण से इस बात का पता चल जाता है कि शूद्रक को रत्नपरीक्षा का अच्छा ज्ञान रहा होगा। कलाविलास के आठवें सर्ग में सोनारों के वर्णन से भी इस बात का पता चलता है कि क्षेमेन्द्र को उनकी कला और रत्नशास्त्र का अच्छा परिचय था।
रत्नपरीक्षा शास्त्र का जितना ही मान था, उतना ही वह शास्त्र कठिन माना जाता था। इसीलिए एक कुशल रत्नपरीक्षक का समाज में काफि आदर होता था। रत्नपरीक्षा के ग्रंथ उसका नाम बड़े आदर से लेते हैं। अगस्तिमत' (६७-६८) के अनुसार गुणवान मंडलिक जिस देश में होता है, वह धन्य है। ग्राहक को उसे बुलाकर आसन देकर तथा गंध मालादि से सत्कार करना चाहिए | बुद्धभट्ट (१४-१५) के अनुसार रत्नपरीक्षकों को शास्त्रज्ञ एवं कुशल होना चाहिए । इसीलिये उन्हें रत्नों के मूल्य और मात्रा के जानकार कहा गया है। देश काल के अनुसार मूल्य न आंकने वाले तथा शास्त्र से अनभिज्ञ जौहरियों की विद्वान कदर नहीं करते। ठकुर फेरू (१०६-१०७) का भाव भी कुछ ऐसा ही है। उसके अनुसार मंडलिक
1. देखिए, लेलेपिदर आदियां, श्री लुई फिनो, पारी १८९६ । मैंने इस भूमिका को लिखने में श्री फिनो के ग्रंथ से सहायता ली है जिसका मैं आभार मानता हूं। श्री फिनो ने अपने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ. में उपलब्ध रत्न शास्त्रों को एक जगह इकट्ठा कर दिया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org