SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नपरीक्षा का परिचय श्री लाउफर के अनुसार (साइनो ईरानिका; पृ० ५२४-२५) चीनी ग्रंथों में ईरान में मूंगा पैदा होने के उल्लेख हैं । सुकुन के अनुसार मूंगा फारस, सिंहल और चीनं के दक्षिण समुद्र से आता था । तांग इतिवृत्त से पता चलता है कि मारस की प्रवाल शिलाएँ तीन फुट से ऊंची नहीं होती थीं। इसमें संदेह नहीं कि फारस के मूंगे एशिया में सब जगह पहुंचते थे । काश्मीर के मूंगे का वर्णन जो एक चीनी इतिहास कार ने किया है, वह फारसी मूंगा ही रहा होगा । मार्कोपोलो (भा० २, पृ० ३२) के अनुसार तिब्बत में मूंगे की बड़ी मांग थी और उसका काफी दाम होता था। मूंगे स्त्रियां गले में पहनती थी अथवा मूर्तियों में जड़े जाते थे । काश्मीर में मूंगे इटली से पहुंचते थे और वहां उनकी काफी खपत थी (मार्कोपोलो; १, पृ० १५९) । तावनिये ( भा० २, पृ० १३६) के अनुसार आसाम और भूटानमें मूंगे की काफी मांग थी। कावेर-यहां दक्षिण के काबेरी पट्टीनम् के बंदरगाह से मतलब हो सकता है। शायद यहां मूंगा बाहर से उतरता हो । विंध्याचल में मूंगा मिलना कोरी कल्पना मालूम पडती है। चीन, महाचीन लगता है चीन और महाचीन से यहां क्रमशः चीन देश और केंटन से मतलब हो । संभव है कि चीनी व्यापारी इस देश में बाहर से मूंगा लाते हों। समुद्र-इससे भूमध्य सागर, फारस की खाड़ी और लाल सागर के मूंगों से मतलब मालूम पड़ता है। नेपाल-जैसा हम ऊपर देख आए हैं तिब्बत और काश्मीर की तरह नेपाल में भी मूंगे की बड़ी मांग थी । हो सकता है कि नेपाली व्यापारियों द्वारा मूंगा लाए जाने पर नेपाल उसका एक उत्पत्ति स्थान मान लिया गया हो । लहसनिया-नीले, पीले, लाल और सफेद रंग की लहसनिया ठक्कुर फेरू (९२-९३ ) के अनुसार सिंहल द्वीप से आती थी । इसे बिडालाक्ष अथवा बिल्ली के आंख जैसी रंगवाली भी कहा गया है । उसमें सूत पड़ने से उसे कोई कोई पुलकित मी कहते थे। . वैडूर्य-सर्व श्री गार्बे, सौरीन्द्र मोहन ठाकुर और फिनो की राय है कि वैडूर्य का वर्णन लहसनिया से बहुत कुछ मिलता है । बुद्धभट्ट (२००) ने भी वैडूर्य को बिल्ली की आंख के शक्ल का कहा है। ___ पाणिनि ४॥३॥८४ के अनुसार वैदूर्य ( वैडूर्य ) का नाम स्थान वाचक है । पतंजलि के अनुसार विदूर में य प्रत्यय लगाकर उसे स्थान वाचक मानना ठीक नहीं; क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003399
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakkur Feru, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy