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रत्नपरीक्षा का परिचय
उपसंहार
प्राचीन रत्नशास्त्रों के आधार पर हमने ऊपर यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि रत्नशास्त्र प्राचीन भारत में एक विज्ञान माना जाता था । उस विज्ञान में बहुत सी बातें तो अनुश्रुति पर अवलंबित थीं पर इसमें संदेह नहीं की समय समय पर रत्नशाखों के लेखक अपने अनुभवों का भी संकलन कर देते थे। ठक्कुर फेरू ने भी अपनी 'रत्नपरीक्षा में प्राचीन ग्रंथों का सहारा लेते हुए भी चौदहवीं सदी के रत्न व्यवसाय पर काफी प्रकाश डाला है । ठक्कुर फेरू के ग्रंथ की महत्ता इसलिये और भी बढ़ जाती है कि रत्न सम्बन्धी इतनी बातें, सुल्तान युग के किसी फारसी अथवा भारतीय ग्रंथकार ने नहीं दी है। कुछ रत्नों के उत्पत्ति स्थान मी, ठक्कुर फेर ने १४ वीं सदी के रत्नों के आयात निर्यात देख कर निश्चित किए हैं । रत्नों की तौल और दाम भी उसने समयानुसार रखे हैं। प्राचीन शास्त्रों के आधार पर नहीं । पारसी रत्नों का विवरण तो ठक्कुर फेरू का अपना ही है; पद्मराग के प्राचीन भेद तो उसने गिनाए ही हैं पर चुन्नी नाम का भी उसने प्रयोग किया है जिसका व्यवहार आज दिन भी जौहरी करते हैं । उसी तरह घटिया काले मानिक के लिए देशी शब्द चिप्पड़िया का व्यवहार किया गया है। हीरे के लिए फार शब्द भी आजकल प्रचलित है। लगता है उस समय मालवा हीरे के व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध था, क्योंकि ठक्कुर फेरू ने. चोखे हीरे के लिए मालवी शब्द व्यवहार किया है । पन्ने के बारे में तो उसने बहुत सी नई बातें कही हैं। कुछ ऐसा लगता है कि ठक्कुर फेरू के समय में नई और पुरानी खान के पन्नों में भेद हो चुका था और इसीलिए उसने पन्नों के तत्कालीन प्रचलित नाम गरुडोद्गार, कीडउठी, वासवती, मूगउनी और धूलिमराई दिए हैं । इन सब बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ठक्कुर फेरू रत्नों के सच्चे पारखी थे। उन्होंने देख समझ कर ही रत्नों के वर्णन लिखे हैं केवल परंपरागत सिद्धान्तों के आधार पर ही नहीं ।
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