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द्वितीय व्यवहार द्वार कित्तिय भरणि सलेसा पुणव्वसू चित्त सवण मूल महा । अद्दा पुस्सो य तहा न कुणइ न्हाणं पसू य तिया ॥ ४५
॥प्रसूतास्त्रीलाने एते नक्षत्रा निषेधाः ॥ पंचग धणिट्ठगाई जा रेवइ पंचरिक्ख ताव धुवं । दक्खिणदिसे न गम्मइ न कट्ठ-तिणगहण गिहछाया ॥ ४६ हत्थ-सवणाइ तिय तिय अणुहार(राह)स्सिणि अभीइ मिय मूलं । पुस्सु पुणव्वसु रेवइ सुहया गुर चंद भेसिज्जे ॥ ४७
॥ इति भैखजे(षज्ये)॥. जे इच्छंति सुसहलं नववहुय सबाल गुम्विणी ते वि । न हु गच्छंति पएगं दाहिण तह संमुहे सुक्के ॥ ४८ दुक्काल-देसभंगे रायभए इक्कि नयरि वीवाहे । जे तिय तिवार आगय ताणं सुक्को न हन्नेइ ॥ ४९ ।। पोढतिय सुक्कि दाहिण आगच्छइ संमुहं च वज्जेइ । कन्नअ चेय तवस्सिणी दाहिण-समुहो न दूसेइ ॥ ५० .
॥ इति शुक्रफलम् ॥ सिंघट्ठिय जइ जीवे महभुत्तं होइ अहव रवि - मेसे । ता कुणहु निव्विसंकं पाणिग्गहणाइ कन्नाणं ॥ ५१
॥ इति मते गुरसिंघस्थफलम् ॥ जो कन्जु जेण रिक्खे भणिओ सो तस्स मुहुति कायव्वो। दिण-निसि पनरसमं सो जं हुइ तं मुहुतपरिमाणो ॥ ५२ अई अहि मि(चि?)त्तै महँ धणे पुवुत्तर - साढ ऽभीई रोहिणियों। जिट्ठ विसंह मूल संयं पुवुत्तर.- फ] दिणमुहुता ॥ ५३ रयणिमुहुत्तं अद्दी पुव्वाभद्दाइ अटुं नक्खत्ता । पुणवसु पुस्सु सवर्ण कर चित्ता साई य पन्नरसा ॥ ५४
॥ इति दिन-रात्रिमुहूर्त्तनाम ॥
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