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________________ रत्नपरीक्षा का परिचय सर्षपों के उतार चढाव में निहित थी । इसके लिए ऊर्ध्ववर्ति, पार्श्ववर्ति, अधोवर्ति; अथवा, ठकुर फेरू ( ६७ )के ऊलज्योतिस्, पार्श्वज्योतिस् और अधोज्योतिस् शब्द व्यवहार में आए हैं। अगर कांति २० सर्षपों से अधिक हुई तो उसे कांतिरंग कहते थे और उसी अनुपात में उसका दाम बढ जाता था। घनत्व की इकाई ३ यव मानी गई है, इसमें हर बार इकाई बढने पर मानिक का दाम दुगुना हो जाता था । अधिक से अधिक दाम २६१, ९१४,००० तक पहुंचता है। ठकुर फेरू ने (६१) मानिक के किस्मों पर दाम का अनुपात निश्चित किया है। उसके अनुसार पनराग, सौगंधिक, नीलगंध, कुरुविंद और जमुनिया के दामों में २०, १५, १०, ६ और ३ बिखा मूल्य का अंतर पड जाता था। ठकुर फेरू ने (६८) केवल उर्ध्ववर्ती, अधोवर्ती और तिर्यवर्ती मानिकों को उत्तम, मध्यम और अधम श्रेणी का माना है बाकी को मिट्टी । सान पर चढाने से घिसनेवाली, तथा छूते ही दाग पडने वाली तथा हीर में पत्थरवाली चुन्नी को चिप्पटिका कहते थे (७०)। ठक्कुर फेरू ने तो नकली मानिक बनाने की किसी विधि का उल्लेख नहीं किया है पर रत्नशास्त्रों में, जैसा हम ऊपर देख आए हैं, नकली मानिक बनाने की विधियां दी. हुई हैं और यह भी बतलाया गया है कि नकली मानिक कैसे पहचाने जा सकते थे। बुद्धभट्ट (१२९-१३१) ने पांच तरह के नकली मानिक बताए हैं जो बनाए तो नहीं जाते थे पर वे साधारण उपरत्न थे जो मानिक से मिलते जुलते थे और जिनसे मानिक का धोखा खाया जा सकता था। ये पत्थर कलशपुर, तुंबर, सिंहल, मुक्कामालीय और श्रीपूर्णक से आते थे । मुक्कामाल का पता नहीं चलता पर श्रीपूर्णक से शायद यहां सिंहल के श्रीपुर से मतलब हो। नीलम-अनुश्रुति के अनुसार नीलम की उत्पत्ति असुरबल की आंखों से हुई । शाखों के अनुसार नीलम की दो किस्में थीं इन्द्रनील और महानील; पर इनके रंगों के बारे में शास्त्रकारों के विभिन्न मत है । बुद्धभट्ट के अनुसार इन्द्रनील का रंग इन्द्रधनुष जैसा होता है और महानील का रंग दूध में नीलापन ला देता है। पर दूसरे शास्त्रों के अनुसार यह इन्द्रनील का गुण है । ठकुर फेरू (८१) ने इन्द्रनील और महानील को मिलाकर नीलम का नामकरण महेन्द्रनील किया है। बुद्धभट्ट के अनुसार नीलम केवल सिंहल से आता था । मानसोल्लास (१९२ ) के अनुसार नीलम सिंहल द्वीप के मध्य में रावणगंगा नदी के किनारे पद्माकर से मिलता था । अगस्तिमत ने कलपुर और कलिंग के नाम भी जोड़ दिए हैं। उसके अनुसार कलपुर का नीलम गाय की आंख के रंग का और कलिंग का नीलम बाज की आंख के रंग का होता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003399
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakkur Feru, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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